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विडंबना: नया बजट किसानों के प्रश्न को संबोधित करने का ढोंग तक नहीं करता

यह बजट तोड़े गए वायदों, योजनाओं के फंड में कटौतियों और त्यागे गए फ्लैगशिप योजनाओं का वृत्तान्त है।
विडंबना: नया बजट किसानों के प्रश्न को संबोधित करने का ढोंग तक नहीं करता
Image courtesy: Business Today

वितामंत्री निर्मला सीतारमन के 64-पृष्ठ वाले केंद्रीय बजट 2021-22 अभिभाषण में एक भी बार मंदी का ज़िक्र नहीं आया, जबकि बजट देश में 2020-21 के जुलाई-सितम्बर त्रिमासे में गहराई ऐतिहासिक मंदी के चार माह बाद प्रस्तुत किया गया। यह बजट की हैसियत के बारे में बहुत कुछ कहता है।

इससे भी अधिक, यह बजट तोड़े गए वायदों, योजनाओं के फंड में कटौतियों और त्यागे गए फ्लैगशिप योजनाओं का वृत्तान्त है।

यह सब अप्रत्याशित महामारी से लड़ने के नाम पर हुआ। क्योंकि यह संभव नहीं कि हम एक लेख में सारे क्षेत्रों के बजट आवंटन का सार और विश्लेषण प्रस्तुत करें, तो हम प्रमुख तौर पर कृषि क्षेत्र पर केंद्रित करेंगे, क्योंकि इसी से सरकार को सबसे कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है।

किसानों की कॉरपोरेट लूट से कोई सुरक्षा नहीं

बजट तब पेश किया गया है, जब 2-3 लाख किसान दिल्ली-हरियाणा और दिल्ली-यूपी बॉर्डर पर एकत्र होकर कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग करते हुए 2 माह बिता चुके हैं। उनकी प्रमुख मांग है उन कानूनों की वापसी, जो बड़े कॉरपोरेट घरानों को कृषि व्यापार में खुली घुसपैठ का अवसर देंगे और उनकी कृषि अर्थव्यवस्था का विनाश कर देंगे। सामाजिक-आर्थिक स्पेकट्रम के दूसरे छोर पर, आईएमएफ की चीफ गीता गोपिनाथन ने कहा कि तीनों कृषि कानून तभी किसानों की आय में वृद्धि कर सकते हैं जब उनके हितों की रक्षा के लिए आवश्यक बचाव के उपाय हों। इन दोनों छोरों के बीच बहुत बड़ा समुदाय है- विपक्षी दलों से लेकर अर्थशास्त्रियों तक, जो मानते हैं कि किसानों को कॉरपोरेट लुटेरों की दया पर छोड़ा नहीं जा सकता। लोकतंत्र में ऐसे विचारों की अभिव्यक्ति के बावजूद बजट इस प्रश्न को संबोधित करने का ढोंग तक नहीं करता। अत्यधिक कॉरपोरेट लूट को रोकने के लिए किसी प्रकार की रोक व नियंत्रण हमेशा ही संभव है, मस्लन बड़े पैमाने पर निजी खरीद के लिए आधार कीमत तय करके न्यूनतम मूल्य की गारंटी करना या फिर मध्य प्रदेश की तरह घाटा मूल्य भुग्तान। पर बजट में ऐसे कोई नियंत्रक उपाय नहीं सुझाए गए।

चलिये, इस समस्या की गंभीरता को समझने के लिए हम इसकी बारीकियों को देखें। बजट से पहले प्रस्तुत इकनॉमिक सर्वे के अनुसार देश का कृषि जीडीपी 2020-21 में कुल जीडीपी का 19.9 प्रतिशत था। कृषि में योजित सकल मूल्य (Gross Value Added) यानी कुल उत्पाद का मूल्य ऋण उत्पादन की कुल लागत) पहले से ही 2019-20 तक 19.48 लाख करोड़ तक पहुंच चुका था (अनंतिम अनुमान or provisional estimate) कृषि मंत्रालय द्वारा जारी ऐग्रिकल्चरल स्टैटिस्क्सि ऐट ए गलांस 2019 *Agricultural Statistics at a glance, 2019) के अनुसार धान का कुल विपणन किया गया अधिशेष पहले ही 84 प्रतिशत तक पहुंच चुका था। गेंहू के लिए यह संख्या 2014-15 तक 73.78 प्रतिशत तक पहुंच चुकी थी और अन्य प्रमुख फसलों के विपणन अधिशेष 80 प्रतिशत से अधिक थे। तो हम आसानी से निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि कुल कृषि समग्रियों का विपणन अधिशेष अबतक लगभग 75 प्रतिशत या अधिक होगा। यानी कम-से-कम 15 लाख करोड़ रुपये का कृषि उत्पाद कृषि व्यापार में प्रवेश करता है। अबतक यह व्यापार अधिकतर छोटे व मध्यम थोक विक्रेताओं के हाथों में था जिनको मंडियों के माध्यम से चलाया जाता था। हालांकि कॉरपोरेट्स को अनुमति थी कि वे गन्ना और तम्बाकू जैसे फसलों को किसानों से सीधे खरीद सकें। कुछ राज्यों में उन्हें सब्ज़ियों और फलों को खरीदने के लिए लाइसेंस मिला हुआ था। कुछ ई-कॉमर्स चलाने वाली बड़ी कम्पनियों को भी किसानों से सीधे खरीदने का लाइसेंस मिला हुआ था। अब सभी कॉरपोरेट स्वयं अपनी मंडियों और ई-प्रोक्योरमेंट केंद्र (e-procurement centres) शुरू कर सकते हैं और सभी फसलों को कितनी भी मात्रा में किसानों से सीधे खरीद सकते हैं। यह अम्बानी-अडानी जैसे कॉरपोरेट घरानों को 15 लाख करोड़ रुपये का नया बाज़ार अवसर प्रदान करेगा।

यह कॉरपोरेट-परस्त सुधार केवल कानूनी परिवर्तन के जरिये नहीं आ रहा। बहुतों को याद नहीं है कि यह मई 2020 में निर्मला सीतारमन के ‘आत्मनिर्भर भारत के हिस्से के रूप में घोषित किया गया था। इन तीन कानूनों के अलावा अन्य आठ बिंदू थे-

1. कोल्ड स्टोरेज, सप्लाई चेन और किसानों से सीधे खरीदने की इच्छा रखने वाले स्टार्टअप्स जैसे कृषि आधार ढांचे को मजबूत करने वालों के लिए 1 लाख करोड़;

2. 10,000 करोड़ 2 लाख माइक्रो फूड एन्टरप्राईसेज़ के लिए, जो ग्रामीण औद्योगिक समूहों के रूप में विकसित किये जाएंगे और कॉरपोरेट्स के लिए सप्लाई चेन के रूप में कार्य करेंगे;

3. 20,000 करोड़ समुद्री मछली और अंतरर्देशीय मत्स्यपालन के विकास हेतु मुलभूत ढांचा तैयार करने के लिए प्रधान मंत्री मत्स्य संपदा योजना के लिए;

4. खुरपका और ब्रुसेलोसिस व अन्य पशु चिकित्सा के लिए राष्ट्रीय पशु रोग नियंत्रण कार्यक्रम के वास्ते 13,343 करोड़;

5. डेरी आधारभूत ढांचे के लिए 15,000 करोड़; 6. 4000 करोड़ हरबल पौधों को प्रोत्साहित करने के लिए;

7. गंगा किनारे औषधीय पौधों के रोपण हेतु 800 हेक्टेयर के कॉरिडॉर के विकास के लिए;

8. 500 करोड़ मधुमक्खी पालन के लिए।

आप कह सकते हैं कि तीन कृषि कानूनों के साथ ये 8 प्रस्ताव इसलिए थे ताकि कृषि व संबंधित कार्य में अधिक पूंजी प्रविष्ट हो। नकदी की तंगी में फंसे मोदी सरकार ने किसी तरह इनके लिए 1.5 लाख करोड़ का आवंटन कर दिया।

केपीएमजी (KPMG), जो कि एक प्रमुख रेटिंग एजेंसी है, ने अनुमान लगाया है कि इन तीन कानूनों और 8 अन्य प्रस्तावों के जरिये सरकार अगले-चार वर्षों में कॉरपोरेटों द्वारा 1-1.5 लाख करोड़ यूएस डॉलर (13.7-20.5 अरब रुपये) का फार्म-गेट निवेश करा सकेगी। परंतु ज्ञात हो कि कॉरपोरेट घराने इतना निवेश और उसपर रिटर्न की पुनप्राप्ति परंपरागत व्यापारियों और किसानों के कीमत पर ही कर सकते हैं।

लेकिन ध्यान रहे कि यह फार्म-गेट निवेश केवल मूलढांचागत गतिविधियों, जैसे प्राथमिक प्रसंस्करण, भण्डारण, गुणवत्ता परख और मानकीकरण व लॉजिस्टिक्स मूल ढांचा आवश्यकताओं के लिए है, जिसमें संगठित रिटेल और ई-कॉमर्स मूलढांचे को शामिल नहीं किया गया है। अब संगठित रिटेल, जिसका अधिकतर हिस्सा ई-कॉमर्स के माध्यम से होता है सम्पूर्ण व्यापार का 10-12 प्रतिशत है और इसमें ई-कामर्स का हिस्सा 2023-24 तक 15 प्रतिशत तक और 2025-26 तक 40 प्रतिशत तक पहुंचेगा। यदि कृषि सामग्रि के लिये यही अनुपात माना जाए, तो अमेज़न, वॉलमार्ट या फ्लिपकार्ट, रिलायंस रीटेल और टाटा रीटेल जैसे ई-कामर्स कम्पनियां 15 लाख के कुल कृषि व्यापार में से करीब 2-4 लाख करोड़ केवल कृषि पदार्थों की ई-मार्केटिंग से हथिया सकते हैं। यह किसकी कीमत पर होगा? किराना और परंपरागत व्यापारियों की कीमत पर! इसके मायने हैं 1 करोड़ किराना दुकान, जिनके वर्षिक टर्न ओवर 5 लाख प्रति किराना हो, बिज़नेस से बाहर हो जाएंगे; यदि संगठित कॉरपोरेट ई-कॉमर्स कृषि उत्पादों के कुल व्यापार का 40 प्रतिशत हथिया लें।

इसलिए कृषि कानूनों के चलते केवल किसान ही नहीं प्रभावित होंगे, बल्कि छोटे व्यापारियों का भी भट्ठा बैठ जाएगा। सीएआईटी (CAIT), जो कि छोटे व्यापारियों की शीर्ष संघीय संस्था है, के तहत छोटे व्यापारी बड़ी ई-कॉमर्स कम्पनियों के विरुद्ध काफी समय से प्रतिरोध कर रहे हैं। आदर्श स्थिति यह होती कि वे किसानों के आन्दोलन से जुड़ते और बड़े कॉरपोरेटों के विरुद्ध लड़ते। दुर्भाग्यवश विपक्षी दलों व सिविल सोसाइटी की कल्पनाशीलता और प्रभाव के अभाव में ये दोनों प्रमुख सामाजिक शक्तियां साथ न आ सकीं।

खैर, प्रमुख बिंदु यह है कि उदार सुधारों के कई पक्षधर तर्क करते हैं कि किसानों के लिए जो भी घाटे हों, कृषि व्यापार में कॉरपोरेट घुसपैठ कुछ क्षेत्रों में किसानों को और कुछ फसलों के लिए, कुछ खास मौसमों में लाभ जरूर देगा। हो सकता है कि यह सच भी हो पर इसका उल्टा भी सच हो सकता है कि बाज़ार मूल्यों में कॉरपोरेट तिकड़म कुछ मौसमों में, कुछ क्षेत्रों और फसलों के मामले में कई किसानों को भारी नुकसान पहुंचाए। इसलिए किसानों के हितों की रक्षा के लिए कुछ कदम अपरिहार्य हैं। पर इन्हीं को निर्मला जी ने पूरी तरह नज़रंदाज़ कर दिया है।

एक ऐसा प्रस्ताव है न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी, जो प्राइस डेफिसिएंसी पेमेंट (PDP) योजना के जरिये होगी। यानी किसान को एमएसपी और कम बाज़ार मूल्य (यदि सरकार एमएसपी पर फसल न खरीदे) के बीच का अंतर अदा कर दिया जाएगा। यह मध्य प्रदेश में भाजपा के ही शासन में एक पायलट प्रॉजेक्ट के रूप में 2018 में लागू किया गया था-भावांतर भुगतान योजना के नाम से। मोदी ने वायदा किया था कि इसे 2019 के लोकसभा चुनाव से पूर्व पूरे देश में विस्तारित किया जाएगा। पर निर्मला जी का बजट ऐसे किसी मूल्य गारंटी का जिक्र तक नहीं करता।

इसका एक और अभिनव विकल्प प्रस्तावित किया गया है, जो कुछ हद तक कृषि माल फ्यूचर्स (agricultural commodity futures) की भांति है। नाममात्र की कुछ कीमत पर किसान एफसीआई से कुछ फ्यूचर्स खरीद सकते हैं जिसको एमएसपी के समान मूल्य पर खरीदा जाता है। और, यदि वे खुले बाज़ार में बेहतर मूल्य नहीं प्राप्त कर सकते, वे अपने फ्यूचर्स प्रमाणपत्र (futures certificates) के बदले में अपने उत्पाद को एफसीआई को बेचकर यह मूल्य पा सकते हैं। सच्चाई में यह व्यवस्था स्वयं कुछ हद तक कॉरपोरेट घरानों द्वारा मूल्य को एमएसपी से नीचे गिराने के विरुद्ध बचाव कर सकता है।

मूल्यों को स्थिर करने के लिए एक और हथियार हो सकता है ऐसा फंड जो मार्केट स्थिरता हेतु बाज़ार में हस्तक्षेप (market intervention) करेगा। यह ‘मार्केट इंटरवेंशन स्कीम-कम-प्राइस स्टेबिलाइजे़शन स्कीम’(Market Intervention Scheme-cum-Price Stabilization Scheme) है जिसके तहत एफसीआई जैसी कोई सरकारी एजेंसी कृषि उत्पाद को खरीदकर मूल्यों को बढ़ा सकता है। ऐसा एक प्रॉजेक्ट सरकार द्वारा चलाया भी गया था और इस योजना के लिये आवंटन को 2020-21 के बजट आंकलन के बरखिलाफ 2021-21 के बजट आंकलन में घटाकर मात्र 500 करोड़ कर दिया गया। इसी तरह फसल बीमा योजना को केवल 300 करोड़ बढ़ाया गया।

चौथा विकल्प भी है जो आन्दोलनकारी किसान मांग रहे हैं-निजी कम्पनियों द्वारा बड़े पैमाने पर एमएसपी से कम कीमत पर खरीदने के विरुद्ध कानूनी गारंटी; यानी एमएसपी से कम पर खरीद को संज्ञेय अपराध बनाना। मोदी के बजट ने इस समस्या को स्वीकारा तक नहीं, उसका समाधान करना तो बहुत दूर की बात है।

अब जय श्रीराम ब्रिगेड सीतारमन की जयजयकार कर रहा है और गोदी मीडिया बजट को किसान-पक्षधर बजट कह रही है क्योंकि 16.5 लाख करोड़ कृषि ऋण में 10 प्रतिशत इजाफा किया गया है, फसल-कटाई के बाद प्रयोग होने वाला कृषि मूल ढांचा विकसित करने हेतु उपकर (cess), सूक्ष्म (micro) सिंचाई के लिए 10,000 करोड़ और ग्रामीण मूल ढांचा विकास फंड के लिए अतिरिक्त 10,000 करोड़ आवंटन। ये रूटीन या नगण्य आवंटन हैं। दरअसल जब 2014-15 में मोदी पहली बार सत्ता में आए थे, कुल कृषि ऋण 8.5 लाख करोड़ था और 6 वर्षों में यह लगभग दूना हो गया। यह औसत 16 प्रतिशत प्रति वर्ष के दर से बढ़ता रहा और वर्तमान बजट में जो 10 प्रतिशत बढ़त प्रस्तावित है, प्रवृत्ति या ट्रेन्ड रेट से कुछ कम है। यह रेट का घटना उस स्थिति में है जब मंदी के वर्ष में भी कृषि का सकारात्मक विकास हुआ है। 50,000 प्रति एकड़ की कीमत पर माइक्रो सिंचाई के लिए 10,000 करोड़ रुपये केवल 20 लाख एकड़ को कवर करेंगे, जबकि केवल विदर्भ जैसा एक सूखाग्रस्त जिला ही 240 लाख एकड़ का है! कृषि मूल ढांचा विकास फंड या आरआईडीएफ नाबार्ड के अंतरगत आता है और उसको पुनर्वित्त करते हैं कुछ वाणिज्यिक बैंक और आरबीआई। आश्चर्य की बात नहीं कि फाईनेंस बिल में अनुदान की मांग या ‘डिमांड्स फॉर ग्रान्ट् में उसका जिक्र नहीं आता।

सबसे बुरा तो है कि उर्वरक सब्सिडी में 22,186 करोड़ कटौती की गई है। और यह तब हो रहा है जब 17 सालों में कुल जीडीपी में कृषि का भाग रिकार्ड 20 प्रतिशत तक पहुंचा; और यह 2016 और 2017 में 16 प्रतिशत पर अटका रहने लगा था। यह खाद सब्सिडी कटौती कृषि को वापस यूपीए के दिनों में ढकेल देगी, जब 2 प्रतिशत विकास तक दर्ज करना तक बड़ी बात थी। इसके अलावा, सब्सिडी कट न हो तो कॉरपोरेट कम्पनियों को जो आशा बंधी हुई है कि ग्रामीण आय का विस्तार करने वाले उच्च ग्रामीण विकास पर सवार होकर मंदी से आराम से रिकवरी की जा सकेगी, और एफएमसीजी और विलासिता के सामान के लिए ग्रामीण मार्केट का विस्तार होगा, वह निराशा में बदल जाएगी। और देखें, तो ‘पीएम किसान के लिए आवंटन को 2020-21 के बजट अनुमान की तुलना में 10,000 करोड़ काटा गया है, और इसको समझना मुश्किल है। क्या 20 प्रतिशत किसान अचानक धरती से गायब हो गए हैं? मोदी जी वोट लेने के लिए जो कुछ एक हाथ से देते हैं, दूसरे हाथ से उससे ज्यादा छीन लेते हैं।

2016 में, 70वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर मोदी ने बड़े धूमधाम से घोषणा की कि किसानों की आय 7 वर्षों में, यानी 2023 में दूना हो जाएगी। क्या अगले वित्तीय वर्ष में सचमुच वह दूना हो जाएगी? यदि 7 वर्षों में उसे दूना होना था, तो कृषि का जीडीपी 10.8 प्रतिशत कंपाउंड विकास दर प्रतिवर्ष से बढ़ा होता, पर प्रथम 5 वर्ष में इसका औसत वार्षिक विकास 4.8 प्रतिशत था और पांचवे वर्ष में यह 4.6 प्रतिशत हो गया। छठे वर्ष में कृषि में सकल मूल्य वर्धित 7.5 प्रतिशत रहा। इस रफ्तार से किसानों की आय को दूना करने में 5 वर्ष लग जाएंगे। तो यह उसी तरह की जुमलेबाज़ी लगती है जैसी ‘‘5 साल में 5 खरब की अर्थव्यवस्था’ की बात थी!

केवल किसान ही नहीं, यहां तक कि खेत मजदूर भी, और संपूर्ण ग्रामीण भारत गहरे संकट में डूबता जा रहा है। जबकि लॉकडाउन और प्रवासी संकट के मद्देनज़र मनरेगा के लिए आवंटन को 2020-21 के बजट प्राक्कलन (Estimate) में 61,500 करोड़ से बढ़ाकर संशोधित प्राक्कलन में 1,11,500 करोड़ किया गया था, 2021-22 के संशोधित प्राक्कलन में पुनः उसे घटाकर 73,000 करोड़ किया गया, मानो कि खेत मजदूरों का संकट केवल 1 साल तक ही रहेगा। शायद यह इसलिए कि बजट स्वीकार ही नहीं कर रहा कि मंदी वर्ष चल रहा है।

मंदी का संपूर्ण सामाजिक प्रभाव, खासकर ग्रामीण गरीबों पर, अभी महसूस किया जाना बाकी है। न केवल मनरेगा फंड, बल्कि 2020-21 के दौरान वृद्धों, विधवाओं और विकलांगों के लिए राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम के तहत आवंटन को वापस ले लिया गया है। 2020-21 के 9197 रु के बजट प्राक्कलन के खिलाफ संशोधित प्राक्कलन के अनुसार पिछले फिस्कल में 42,617 करोड़ खर्च हो चुका था। यह तीर्व बढ़त प्रधानतः इसलिए हुई कि लॉकडाउन के दौरान 1000 रुपये प्रतिमाह का अनुग्रह भुगतान 4 करोड़ सबसे जरूरतमंद लाभार्थियों को किया गया था, जिसे 3 माह बाद बंद कर दिया गया। एनएसएपी के लिए 2021-22 का बजट प्राक्कलन 8200 करोड़ तक घटाया गया। इससे पता चलता है कि सरकार राजकोषीय दृष्टिकोण से इस निष्कर्ष पर पहुंच चुकी है कि करोना के चलते आया संकट लॉकडाउन के खत्म होते ही खत्म हो गया, और अब गरीबों को विशेष राहत की आवश्यकता नहीं है। पर पहले से ही रोजगार दसियों हजार की संख्या में खत्म हो रहे हैं, खासकर अनिश्चित अनौपचारिक श्रमिक के लिए। बजट इस समस्या को तवज्जो नहीं देता। सरकार ने कोई ऐसी स्कीम नहीं शुरू की जिससे उनकी परेशानी कम हो सके।

कृषि क्षेत्र में फंड्स का संकुचन

केंद्रीय बजट 2021-22 में बढ़ा हुआ आवंटन केवल कुछ खास योजनाओं के लिए है, जैसे स्वास्थ्य कार्यक्रम और जल जीवन मिशन। 2021-22 के कृषि और संबंधित कार्यों के लिए औसत आवंटन 2020-21 के बजट प्राक्कलन (Estimate)- 583688 करोड़ रुपये से घटकर 382204 करोड़ हो गया है। शायद मोदी जी को लगता है कि एक-दो वोट-बटोरने वाले स्कीमों पर फोकस करने से और बाकी के लिए वेलफेयर हॉलिडे (welfare holiday) घोषित करना अधिक राजनीतिक समझदारी है, बजाय इसके कि ढेर सारे विकास व कल्याण योजनाओं पर धन बिखेरना। निर्मला के बजट ने घोषणा की है कि इस वर्ष 1 करोड़ अधिक लाभार्थियों को उज्ज्वला स्कीम के तहत गैस कनेशन दिये जाएंगे, जो हमेशा महिलाओं के बीच वोट खींचने की अच्छी तरकीब साबित होती है। पर उन्हें जरूर यह याद रखना होगा कि 1960 के दशक में इसी तरह के प्लान के कारण कांग्रेस 1969 में 9 राज्यों में सत्ता गवां बैठी थी। यह ज्ञातव्य है कि पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु जैसे प्रमुख राज्यों में इसी साल चुनाव होंगे।

(लेखक आर्थिक और श्रम मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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