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क्या भारत के निजी कार्यस्थलों पर किसी दलित कर्मचारी को न्याय तक पहुंच हासिल है?

जब कैलिफ़ोर्निया राज्य ने सिस्को सिस्टम्स के ख़िलाफ़ जातिगत आधार पर भेदभाव का मुक़दमा दर्ज किया, तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय को झटका लगा। जब कैलिफ़ोर्निया राज्य क़ानूनी नज़र में धर्म के भीतर जाति को समाहित करने की कोशिश कर रहा है, तब किसी को भी भारत में मौजूद कानूनी प्रावधानों को देखकर लग सकता है कि हमारी क़ानून व्यवस्था दलितों को जातिगत भेदभाव से बचाने के लिए सक्षम है। रिद्धी शेट्टी आपके सामने उन चीज़ों को पेश कर रही हैं जो भारत में कार्यस्थलों पर होने वाले जातिगत भेदभाव में दोषसिद्धी के लिए बाधा बनती हैं।
CISCO

जून में कैलिफ़ोर्निया राज्य ने सिस्को पर जातिगत भेदभाव करने के आरोप में मुकदमा दायर किया था। यह मुकदमा एक भारतीय-अमेरिकी कर्मचारी से जाति के आधार पर भेदभाव के आरोप में दर्ज किया गया था।

कैलिफ़ोर्निया राज्य ने आरोप लगाया कि सिस्को, अपने कार्यस्थल को ग़ैरक़ानूनी भेदभाव से मुक्त करने में नाकामयाब रही है। लेकिन नागरिक कानून अधिकार के शीर्षक 7 में अमेरिका में 'जाति' का जिक्र नहीं है। इसलिए कैलिफोर्निया कोर्ट के सामने जो मुकदमा आया है, उससे निपटने के लिए कानून में पहले से ही उल्लेखित 'धर्म' के आधार पर भेदभाव वाले प्रावधान का सहारा लिया जा रहा है।

पहले भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जाति को 'धर्म' या 'वंश' के अंतर्गत लाकर जातिगत भेदभाव को खत्म करने की कोशिशें होती रही हैं।

यह उदाहरण हमें रोजगार क्षेत्र में भेदभाव की समस्या को दिखाता है। एक तरफ अमेरिका में जातिगत भेदभाव को दूर करने के लिए स्पष्ट कानूनी तंत्र की कमी है, दूसरी तरफ भारत में जातिगत भेदभाव को संवैधानिक तरीके से प्रतिबंधित किया गया है।

तो सवाल उठता है कि क्या भारत में कार्यस्थल पर निजी नियोक्ता को जातिगत भेदभाव के लिए जिम्मेदार ठहराए जाने वाले कानूनी प्रावधान बनाए गए हैं?

मौजूदा प्रावधान अपर्याप्त

सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1995 (PCR एक्ट) लाने के पीछे की मंशा अस्पृश्यता को बढ़ावा देने या ऐसा व्यवहार करने वालों को सजा देने के थी। यह कानून किसी भी पेशे में छुआछूत के आधार पर पैदा होने वाली "सामाजिक अपंगता" को अपराध ठहराता है।

"नेशनल कैंपेन ऑन दलित ह्यूमन राइट्स बनाम् भारत संघ" के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह कानून काम की जगह पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भेदभाव की पहचान करने में नाकामयाब रहा है। साथ में इसे कमजोर तरीके से लागू भी किया गया है।

इस कानून के पूरी तरह सक्षम ना होने के चलते "अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार की रोकथाम) कानून, 1989" पारित हुआ। इस कानून के ज़रिए आपराधिक जवाबदेही के दायरे को पिछले कानून की तुलना में काफी बढ़ा दिया गया।

इस कानून की धारा 4 (za)(E) में SC या ST समुदाय के व्यक्ति को किसी पेशे को अपनाने से रोकेने के लिए सजा का प्रावधान है। लेकिन जिस तरह की व्यवहार या कदमों को इस कानून में आपराधिक बनाया गया है, उनकी प्रवृत्ति 'गंभीर' है।

इन प्रावधानों का उपयोग किसी व्यक्ति को सजा देने के लिए हो सकता है। लेकिन वृहद स्तर पर जो सांस्कृतिक और भेदभावकारी तंत्र बना हुआ है, जिसके तहत कोई संगठन काम करता है, उसका कोई समाधान नहीं निकाला गया और ना ही उसे खत्म किया गया।

जैसा सिस्को की याचिका में जिक्र है, कार्यस्थल पर भेदभावकारी रवैया छोटे स्तर की आक्रामकताओं और पहचाने ना जाने वाले क्षणों में सामने आता है। प्राथमिक तौर पर इन्हें जातिवादी नहीं माना जाता। इसलिए जातिगत आधार पर रोज़गार भेदभाव की घटनाएं ST-SC कानून के तहत अत्याचार में नहीं आ पातीं। ऊपर से सिविल एक्ट की तरह, ST-SC एक्ट को भी ठीक ढंग से लागू नहीं किया गया। 

कानून काफ़ी अस्पष्ट, अनिर्दिष्ट है, जो कार्यस्थल पर भेदभाव से निपटने में अपर्याप्त है।

पहली बात, कोई भी कानून कर्मचारियों के लिेए शिकायत दर्ज करने, पूछताछ या सजा सुनाए जाने के बाद की प्रक्रिया का जिक्र नहीं करता। दूसरी बात, कानून के प्रावधान केवल व्यक्तिगत लोगों के आपराधिकरण पर ही केंद्रित है, संगठन को लेकर कोई बात नहीं है।

भेदभाव विरोधी कानूनों की आलोचना करते हुए नील गोटांडा कहते हैं, "जब कोई कानून केवल द्विपक्षीय रोज़गार संबंधों पर ही केंद्रित होता है, तो वे उस समझ को बाहर कर देते हैं, जिसमें बताया जाता है कि औपचारिक नस्लीय वर्गीकरण के परे, नस्ल का सांस्थानकि और ढांचागत आयाम भी होता है।" 

इसी तरह, ST-SC कानून के प्रावधान जाति की सांस्थानिक या ढांचागत आयाम की समझ को बाहर रखते हैं। इन प्रावधानों का इस्तेमाल किसी व्यक्ति को सजा देने के लिए होता है, लेकिन किसी संगठन के काम करने के तरीके के नीचे जारी बड़ी सांस्कृतिक और भेदभावकारी ढांचे की समस्या का कोई समाधान नहीं किया गया है।

इन चीजों को ध्यान में रखते हुए, यह कहना सही होगा कि भारत में रोज़गार क्षेत्र में प्रभावी ढंग से जाति आधारित भेदभाव को खत्म करने के लिए कानूनी ढांचे की कमी है।

संविधान के भीतर काम में समता का अधिकार दिया गया है, साथ में राज्य द्वारा इस अधिकार का उल्लंघन करने के कर्तव्य का भी जिक्र है।

हालांकि भारत में जाति आधारित भेदभाव पर प्रतिबंध लगाने वाले कुछ कानून हैं, लेकिन यह कानून कार्यस्थल पर अलग-अलग ढंग से किए जाने वाले भेदभाव की पहचान करने में सक्षम नहीं हैं।

कार्यस्थल पर समता के अधिकार की रक्षा करने का राज्य का दायित्व

संविधान ना केवल भेदभाव के खिलाफ़ अधिकार को मानता है, बल्कि राज्य को श्रम कानून के ज़रिए जाति आधारित भेदभाव को खत्म करने के लिए भी कहता है।

संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 15 (1) जाति के आधार पर भेदभाव ना किए जाने के अधिकार को मान्यता देते हैं। वहीं 19(1) के ज़रिए किसी भी पेशे को अपनाने की स्वतंत्रता मिलती है।

संविधान के भीतर काम में समता का अधिकार दिया गया है, साथ में राज्य द्वारा इस अधिकार का उल्लंघन करने के कर्तव्य का भी जिक्र है। इस कर्तव्य से निकलने वाले विधायी कानून जैसे समान पारिश्रमिक अधिनियम, 1976, दिव्यांगों के लिए RPWD कानून, 2016, महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न (निवारण, प्रतिषेध और प्रतितोष) अधिनियम, 2013 कार्यस्थल पर लैंगिक और विकलांगता के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित करते हैं।

श्रम कानूनों का उद्देश्य है कि निजी क्षेत्र में भी अधिकारों को सुरक्षा प्रदान की जा सके। दिव्यांगों के लिए RPWD कानून, 2016, महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न (निवारण, प्रतिषेध और प्रतितोष) अधिनियम, 2013 के ज़रिय यह बात साफ भी हो जाती है।

भाग-3 में जो अधिकार दिए गए हैं, वह केवल राज्य और उससे जुड़े संस्थानों तक सीमित हैं। इसलिए अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 15 (1) में जिन अधिकारों का जिक्र है, उन्हें किसी निजी क्षेत्र के नियोक्ता के खिलाफ़ इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। लेकिन इन प्रावधानों के यह तथ्य भेदभाव को खत्म करने के रास्ते में भेदभाव नहीं बन सकते।

संविधान का तीसरा भाग राज्य पर निजी नियोक्ताओं पर नियंत्रण और उनके द्वारा रोज़गार में भेदभाव पर प्रतिबंध लगाने की बात करता है।

इन्ही मूल्यों के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने विशाखा व अन्य बनाम् राजस्थान मामले में फ़ैसला दिया था। कोर्ट ने कहा कि निजी और सार्वजनिक कार्यस्थलों को नियंत्रित करने में राज्य की असफलता याचिकाकर्ता के संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 में दिए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।

कानून की खामियों को मानकर, कोर्ट ने विख्यात विशाखा गाइडलाइन जारी कीं, जिनके आधार पर बाद में कानून बना।

श्रम कानूनों का उद्देश्य है कि निजी क्षेत्र में भी अधिकारों को सुरक्षा प्रदान की जा सके। दिव्यांगों के लिए RPWD कानून, 2016, महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न (निवारण, प्रतिषेध और प्रतितोष) अधिनियम, 2013 के ज़रिए यह बात साफ भी हो जाती है।

एक और कानून बना देने से कार्यस्थल पर जातिगत भेदभाव खत्म नहीं होगा। खासकर तब जब संगठन "भेदभाव को वैध बनाने की प्रक्रिया" में संलिप्त हों।

संविधान राज्य से दलित और आदिवासियों के आर्थिक और शैक्षणिक अधिकारों को प्रोत्साहन देने (अनुच्छेद 46 और भाग XVI) के साथ-साथ कार्यस्थल पर मानवीय और सही स्थितियां सुनिश्चित करने (अनुच्छेद 42) के लिए कहता है।

इसलिए राज्य का कर्तव्य है कि वो कार्यस्थल पर होने वाले भेदभाव को रोके। शशि थरूर द्वारा 2016 में पेश किए गए भेदभाव विरोधी और समता विधेयक और CLPR का समता विधेयक कुछ ऐसे उदाहरण हैं, जिनसे पता चलता है कि कैसे रोज़गार क्षेत्र में जातिगत भेदभाव को प्रतिबंधित करने के लिए कानून बनाए जा सकते हैं।

एक और कानून बना देने से कार्यस्थल पर जातिगत भेदभाव खत्म नहीं होगा। खासकर तब जब संगठन "भेदभाव को वैध बनाने की प्रक्रिया" में संलिप्त हों, जहां यह संगठन ऐसे कानून बनाता है, जिनके ज़रिए इन संगठनों के ऊपर से भेदभाव विरोधी कानून बनाने का दबाव हट जाता है और भेदभावकारी ढांचे को बरकरार रखा जाता है।

फिर भी, यह एक गंभीर सामाजिक मुद्दे के समाधान की दिशा में शुरुआती कदम है। यह एक मौका है, जिसके ज़रिए हम संविधान में कल्पित भेदभाव रहित समाज का सपना पूरा कर सकते हैं।

(रिद्धी शेट्टी NALSAR लॉ यूनिवर्सिटी की छात्रा हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

यह लेख मूलत: द लीफ़लेट में प्रकाशित हुआ था।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Is Justice Accessible to a Dalit Employee in Private Workplaces in India?

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