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मेक इन इंडिया: स्मार्टफोन के रिकार्ड उत्पादन व निर्यात का खोखला सच

हाल ही में मोबाइल फोन के निर्यात में उल्लेखनीय वृद्धि के बारे में बहुत अधिक चर्चा हुई है। भारत सरकार की ओर से इसे तीव्र औद्योगिक विकास के लिए मोदी सरकार की मेक इन इंडिया व प्रोडक्शन लिंकड़ इंसेंटिव (पीएलआई) योजनाओं की सफलता के प्रमाण के तौर पर दिखाया जा रहा है। आइए इसके विश्लेषण के पहले सरकार द्वारा प्रस्तुत आंकडों पर गौर कर लेते हैं।
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फ़ोटो साभार: PTI

अप्रैल 2017 से मार्च 2018 की एक वर्ष की अवधि में मोबाइल फोन का आयात लगभग 3.6 अरब डॉलर था, जबकि फोन निर्यात मात्र 33.4 करोड़ डॉलर था। इस प्रकार शुद्ध निर्यात -3.3 अरब डॉलर (या कहें तो इतना आयात हुआ) था। वित्तीय वर्ष अप्रैल 2022 - मार्च 2023 में मोबाइल फोन का आयात घटकर 1.6 अरब डॉलर रह गया, जबकि निर्यात करीब 11 अरब डॉलर रहा। इस प्रकार शुद्ध निर्यात 9.8 अरब डॉलर हुआ। अर्थात 2017-18 की तुलना में 13.1 बिलियन डॉलर का सकारात्मक मोड़ आया। इसके आधार पर सरकार का कहना है कि भारत मोबाइल फोन निर्माण का बड़ा केंद्र बन गया है और इससे बड़ी संख्या में रोजगार सृजन हुआ है। इस सरकार के नौ साल पूरे होने के उपलक्ष्य में अगले साल के चुनावों के मद्देनजर जो प्रचार अभियान छेड़ा गया है, उसमें इसे बड़ी कामयाबी के तौर पर प्रस्तुत किया जा रहा है।

पर सच्चाई क्या इतनी ही है? क्या वास्तव में यह आंकड़े भारत में विनिर्माण को प्रोत्साहित कर बड़ी तादाद में युवाओं के लिए रोजगार सृजित करने के लिए मेक इंडिया व पीएलआई योजना की रणनीति को सही सिद्ध करते हैं और इससे देश की अर्थव्यवस्था को बड़ा लाभ मिलने वाला है। इसके गंभीर अध्ययन के लिए सर्वांगीण विश्लेषण की जरूरत है। इसके लिए पहले हमें समझना चाहिए कि असल में मोबाइल फोन उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार की रणनीति क्या रही है?

2016 में सरकार ने पहले आयातित मोबाइल फोन पार्ट्स पर लगने वाला आयात कर या टैरिफ बढ़ाया। अर्थात उसकी नीति देश में ही मोबाइल पुर्जों के विनिर्माण को बढ़ावा देने की थी। लेकिन अप्रैल 2018 में पलटकर इसने पूरे मोबाइल फ़ोन के आयात पर 20% टैरिफ लगा दिया। अब नीति यह थी कि भारत में ही मोबाइल फोन का अधिक उत्पादन हो। 2020 की शुरुआत में सरकार ने मोबाइल फोन उत्पादन को प्रोत्साहन देने के लिए पीएलआई योजना भी पेश की। इस योजना में सरकार भारत में मोबाइल निर्माताओं को, चाहे वे भारतीय हों या विदेशी कंपनी, भारत में उत्पादित हरेक फोन के बिक्री दाम अर्थात इनवॉइस मूल्य का 6% भुगतान करती है। उत्पादन के पांचवें वर्ष में इसे 4% तक नीचे लाया जाना है। इसके अलावा राज्य सरकारें भी कई तरह के कर व अन्य प्रोत्साहन प्रदान करती हैं, जैसे उनके राज्य में उद्योग लगाने के लिए बिजली और भूमि कीमत पर सब्सिडी।

इस योजना की एक प्रमुख कमी यह है कि सब्सिडी का भुगतान भारत में फोन को फिनिश करने पर उसके अंतिम दाम पर किया जाता है, उस पर नहीं कि इसमें भारत में विनिर्माण में कितनी वैल्यू एड होती है। अर्थात अगर 90 रु के पुर्जे आयात कर फोन असेंबल कर 100 रु में बेचा गया तो पूरे 100 रु पर 6 रु पीएलआई सबसिडी के रूप में मिलता है हालांकि देश में सिर्फ 10 रु ही वैल्यू एड हुई (90 रु तो आयात मेँ चला गया)। यह बहुत मायने रखता है। बात यह है कि विश्व व्यापार संगठन के नियमों के अंतर्गत भारत वैल्यू एड पर सबसिडी नहीं दे सकता।

अतः यह जानना अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है कि भारत में मोबाइल फोन विनिर्माण में कितना हिस्सा आयात किए गए पुर्जों का है, यहां उत्पादन में कितना मूल्य वर्द्धन किया गया और इससे शुद्ध निर्यात कितना हुआ। इससे ही यह मालूम होगा कि भारत में वास्तविक विनिर्माण वृद्धि कितनी हुई, रोजगार सृजन पर कितना असर पड़ा और पीएलआई में दी जाने वाली 6% सबसिडी से किसे लाभ हुआ?

इस संबंध में तीन शोधकर्ताओं राहुल चौहान, रोहित लांबा व रघुराम राजन के हाल में प्रकाशित शोधपत्र से कुछ दिलचस्प जानकारियाँ हासिल हुई हैं। इसके तथ्यों के आधार पर हम मेक इन इंडिया व पीएलआई योजना अंतर्गत मोबाइल फोन विनिर्माण व निर्यात में वृद्धि की सफलता का यथार्थ परक विश्लेषण कर सकते हैं।

शोधकर्ताओं ने जब उद्योग के विशेषज्ञों से बात की तो उन्हें बताया गया कि मात्र फिनिश्ड या तैयार फोन के आयात/निर्यात आंकड़ों के बजाय उन्हें इसके साथ ही मोबाइल कंपनियों ने इसके असेंबलिंग हेतु कितने पूर्ण या अर्ध नॉक-डाउन किट (सीकेडी) या इसके विनिर्माण हेतु इसमें इस्तेमाल होने वाले पुर्जों (सेमी-कंडक्टर, प्रिंटेड सर्किट बोर्ड, डिस्प्ले यूनिट, कैमरा, बैटरी, आदि) का आयात किया यह भी देखना चाहिए। गौरतलब है कि हम इनमें से किसी का भी निर्यात नहीं करते। इन दोनों के आयात/निर्यात आंकड़ों को मिलाकर देखने पर ही पता चलेगा कि मोबाइल फोन विनिर्माण को बढ़ावा देने की पीएलआई योजना का वास्तविक प्रभाव क्या है और देश वास्तव में निर्यातक बना है या आयात निर्भरता और भी अधिक बढ़ गई है।

इन सभी के आयात-निर्यात आंकड़ों के अध्ययन पर पाया गया कि जैसे ही सरकार ने 2018 में मोबाइल फोन के घरेलू विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिए तैयार फोन पर 20% आयात शुल्क लगाकर फोन आयात को महंगा कर दिया, तो इन पुर्जों का आयात अत्यंत तेजी से बढ़ने लगा (कुछ हद तक घरेलू बिक्री हेतु असेंबलिंग पहले भी होती थी)। यह आयात खास तौर तब बढ़ा जब घरेलू बिक्री के साथ निर्यात को भी बढ़ावा देने के लिए पीएलआई योजना के अंतर्गत सरकार तैयार फोन की कीमत पर 6% सबसिडी देने लगी अर्थात 2021 की अंतिम तिमाही से। वित्तीय वर्ष 2023 के व्यापार आंकड़ों के मुताबिक सेमी-कंडक्टर, प्रिंटेड सर्किट बोर्ड, डिस्प्ले यूनिट, कैमरा, बैटरी, आदि का कुल आयात 32.4 अरब डॉलर हो गया।

अगर तैयार फोन व इन पुर्जों के व्यापार आंकड़ों को मिलाकर देखें तो वित्तीय वर्ष 2017 में शुद्ध निर्यात -12.7 अरब डॉलर (अर्थात आयात) था। वित्तीय वर्ष 2023 में देखें तो भी शुद्ध निर्यात -21.3 अरब डॉलर हुआ अर्थात निर्यात बढ़ने के बजाय आयात ही बढ़कर 21.3 अरब डॉलर हो गया। इस प्रकार देश वास्तव में निर्यातक नहीं बना बल्कि हमारी आयात निर्भरता और भी बढ़ गई। यह तर्क दिया जा सकता है कि उनमें से कुछ पुर्जे कैमरा जैसी अन्य इलेक्ट्रानिक्स सामानों के विनिर्माण में लगते हैं। पर एक तो इन अन्य वस्तुओं के घरेलू विनिर्माण में कोई हालिया वृद्धि नहीं देखी गई है। दूसरे, आयात तभी बढ़े जब मोबाइल फोन विनिर्माण बढ़ा। माना जा सकता है कि कुछ नगण्य मात्रा को छोड़कर इसका लगभग सारा अंश मोबाइल फोन हेतु ही आयात हुआ है।

यहां तर्क दिया जा सकता है और सरकार व फोन कंपनियां दे भी रही हैं कि आरंभ में ऐसा ही होता है और बाद में भारत में पुर्जों का विनिर्माण बढ़कर देश में होने वाला मूल्य वर्द्धन बढ़ जाएगा। पर इसकि सच्चाई जानने के लिए हम चीन का उदाहरण ले सकते हैं। ब्लूमबर्ग के विश्लेषक एंडी मुखर्जी की रिपोर्ट है कि चीनी अर्थशास्त्री युकिंग जिंग के अध्ययन में पाया गया कि 2009 में चीन में पहले आई फोन के उत्पादन के वक्त चीन को इसके मूल्य में मात्र 6.5 डॉलर ही प्राप्त हुआ था। 10 साल बाद आई फोन एक्स में चीन का हिस्सा बढ़कर 104 डॉलर हो गया। किंतु यह बढा हुआ हिस्सा भी कुल मूल्य का मात्र 10% ही था! चीन के इस अनुभव से स्पष्ट है कि मोबाइल फोन आदि की वैश्विक आपूर्ति शृंखला की प्रकृति ऐसी है कि इसमें घरेलू हिस्सा बढ़ाना अत्यंत दुष्कर है।

उपरोक्त अध्ययनों के आधार पर हम कुछ निष्कर्ष निकाल सकते हैं। एक, मोबाइल फोन की असेंबलिंग बढ़ने से देश की निर्यात स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है। दो, चीन के आंकड़ों के आधार अनुमान लगाया जा सकता है पीएलआई व राज्यों की सब्सिडियों से जितनी रकम इन फोन कंपनियों को दी जा रही है देश को निर्यात से उतनी कुल आय भी नहीं हो रही है, शुद्ध आय तो दूर की बात है। अर्थात सार्वजनिक सबसिडी का लाभ इन पूंजीपतियों को ही हो रहा है। तीन, पीएलआई व राज्यों की सब्सिडियों से रोजगार सृजन के क्षेत्र में कोई बहुत बड़ा प्रभाव पड़ना दूर की कौड़ी ही नजर आती है। जबकि इसके लिए कर्नाटक व तमिलनाडु जैसे राज्यों ने श्रमिकों के अधिकारों में भारी कटौती की है। कर्नाटक में इन फोन कंपनियों को प्रोत्साहन देने के लिए ही कुछ महीने पहले 12 घंटे कार्य दिवस का कानून तक बनाया गया है।

(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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