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बुलडोज़र कार्रवाई के बाद महरौली : “हम रहने वाले हैं उसी उजड़े दयार के”

दिल्ली के महरौली में DDA ने अतिक्रमण के ख़िलाफ़ कार्रवाई की, इस दौरान जिन लोगों के घर टूटे अब वे किस हाल में हैं ये जानने की कोशिश की गई।
mehrauli

कई मर्तबा उजड़ कर बसी दिल्ली के महरौली में क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी की मज़ार है, जिनके लिए लोगों की मान्यता है कि वो जबतक इस शहर के लिए दुआ करते रहेंगे दिल्ली को कोई नहीं उजाड़ सकता, लेकिन उन्हीं की मज़ार से चंद गली छोड़कर एक ऐसा मंज़र था जहां से गुज़रते हुए जो दिखा उसे देखकर ये शेर याद आया :

“दिल्ली जो एक शहर था आलम में इंतख़ाब

रहते थे मुंतख़ब ही जहां रोज़गार के


उस को फ़लक ने लूट के बरबाद कर दिया

हम रहने वाले हैं उसी उजड़े दयार के”

महरौली में अतिक्रमण के ख़िलाफ़ DDA की कार्रवाई के बाद कुछ इन्हीं उजड़े दयारों का आंखों देखा हाल :

ज़ार-ज़ार रोती आंखों में ऐसे अनगिनत सवाल थे जिनके जवाब में भी सवाल ही दिख रहे थे, जिस जगह पर ये मिट्टी और मलबे के ढेर थे, एक वक्त ये हंसते-बसते घर हुआ करते थे, यहाँ बच्चों के सिर पर साया हुआ करता था। घरों पर कुछ इस क़दर बुलडोज़र चला कि तय करना मुश्किल था कि किस जगह घर था और किस जगह सड़क, सब कुछ बराबर कर दिया गया, बिल्कुल एक समान। लोगों के आशियाने को ज़मीन में कुछ यूं मिला दिया गया था जैसे कार्रवाई करने वाले बताना और जताना चाहते थे कि एक दिन यूं ही सब मिट्टी हो जाना है।

पोतियों और बेटियों को लेकर कहां जाऊं : फहीमन

अपने उजड़े दयार पर बैठीं बुज़ुर्ग फहीमन कभी मलबे में से कुछ साबुत ईंटों को जुटा रही थीं तो कभी तिनका-तिनका जोड़कर रखी गईं ईंटों को साफ़ करते हुए सिसकने लगती थीं। घर के जिस हिस्से पर प्रशासन ने पीले रंग से निशानदेही बनाई थी वो भी अब मलबे का हिस्सा बन चुका है, बार-बार हमें वो निशान दिखाकर फहीमन बस यही सवाल करती थीं, ''मेरे बराबर का घर छोड़ दिया और मेरे घर के ठीक बग़ल में पोस्टऑफिस को भी छोड़ दिया, ये कैसी कार्रवाई की गई जिसमें चुन-चुनकर घरों को पस्त कर दिया गया?''

फहीमन और वो पीला निशान जो प्रशासन की तरफ़ से लगाया गया था

फहीमन का बड़ा परिवार है, बेटे, बहुओं के साथ ही पोते-पोतियां भी हैं, लेकिन अब सब दर-बदर हो गए हैं। वो कहती हैं, ''मेरा घर बेटियों और पोतियों वाला है। इतने बड़े घर को लेकर मैं कहां-कहां किराये का घर लूंगी, और घर ले भी लिया तो उसका किराया कहां से दूंगी, हम रोज़ कमाने-खाने वाले लोग हैं लेकिन सरकार को हम पर ज़रा भी तरस न आया।'' ये कहते-कहते एक बार फिर आंसुओं का सैलाब उमड़ आया। फहीमन के घर को टूटे हुए चार दिन हो गए लेकिन आज भी आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे।

महरौली ऑटो स्टैंड से हमारा सफ़र शुरू हुआ और आर्किलॉजिकल पार्क से वापसी हुई और इस दौरान जहां-जहां भी DDA का बुलडोज़र चला ऐसा कोई नहीं मिला जिसके आंसू चार दिन बाद भी थम गए हों? वही बदहवासी सा आलम, वही मलबे में तब्दील हुए घर को निहारती विरान आंखें, और वही ढेरों सवाल।

फहीमन, जिनका घर टूटा और कुनबा बिखर गया 

फहीमन बताती हैं, ''हम यहां क़रीब 30-40 साल से रह रहे हैं, हमारे पास बिजली के बिल हैं, वे कार्ड है जिससे हम वोट देने जाते हैं फिर क्या सबूत दें कि ये हमारा घर है...ये हमारी ज़मीन है?''

फहीमन हमसे बात करते हुए इतनी बदहवास थी कि लगातार चारों तरफ़ देख रही थीं और कह रही थीं कि, ''DDA वालों ने कहा है कि जल्द से जल्द ये मलबा साफ़ करो वर्ना ये भी उठाकर ले जाएंगें।'' वो हमसे पूछती हैं कि क्या वाक़ई DDA वाले ये सब भी उठाकर ले जाएंगे? इसके साथ ही वो पूछती हैं, ''क्या हम यहां दोबारा घर बना सकते हैं?''

फहीमन के किसी भी सवाल का जवाब हमारे पास नहीं था। उनके साथ उनकी पोती भी लगातार मलबा साफ़ करवा रही थी।

फहीमन की पोती, जिसका 12वीं का बोर्ड एग्ज़ाम है

फहीमन की एक पोती बारहवीं में पढ़ती हैं, जिसके बोर्ड एग्ज़ाम हैं ऐसे में घर का मलबा साफ़ करे या फिर पढ़ाई करे, हमारे हर सवाल के जवाब में वो बस एक ही जवाब दोहरा रही थीं, "अब क्या कहूं? कुछ कहने के लिए नहीं बचा।'' फहीमन का एक पोता नौंवी में पढ़ता है, जिस दिन घर टूटा था उस दिन वो साइंस का पेपर देने स्कूल गया था जब वो पेपर देने गया था तब घर था और जब लौटा तो घर की जगह पर मलबा था।

''तुर्की में मदद भेज रहे हो लेकिन यहां के लोगों को उजाड़ रहे हो''

जिस जगह फहीमन का घर टूटा वहीं एक और महिला बेतहाशा रोती हुई मिली, बताने लगी, "40 साल से ज़्यादा हो गए हमारे परिवार को यहां रहते हुए। मेरी मां सिंगल मदर थीं, हम छोटे-छोटे थे, मेरे अब्बू का इंतकाल हो गया था, इतनी मेहनत करके हमारी मां ने हमें इस मुकाम तक पहुंचाया था। घर ऐसे ही नहीं बनता, घर इंसानों के जज़्बातों से बनता है और कार्रवाई करने वालों को ये ईंट पत्थरों का लगता है जो तोड़ कर चले गए, मेरे भतीजे के सिर पर एग्ज़ाम हैं, पढ़ाई है"...और ये कहते-कहते सिसकियों का एक तूफ़ान उमड़ पड़ा। कुछ संभल कर फिर बातचीत शुरू हुई...

जिनका घर टूटा 

''ये G-20 लेकर आ रहे हैं, उसी की वजह से ये सब हो रहा है, अगर उसकी वजह से ये कार्रवाई हो रही है तो कम से कम हमें कहीं और ज़मीन तो दे देते, बोल रहे हैं ज़मीन DDA की है, DDA उस वक़्त कहां होता है जब ये घर बनते हैं? तुम तुर्की में इतनी मदद भेज रहे हो, लेकिन यहां के लोगों को उजाड़ रहे हो, तुम तुर्की की मदद कर रहे हो ताकि दुनिया कहे कि यहां की सरकार कितनी अच्छी है, लेकिन तुम तो सिर्फ़ उजाड़ना जानते हो।''

''हमें तो नोटिस भी नहीं मिला''

फहीमन के टूटे घर के पास ही हमें गगन कुमार मिले, हाथों में कुछ पेपर थामे वो बिजली ऑफिस के लिए निकले थे लेकिन ये जानने के लिए इधर आ गए कि और किनके घर टूटे हैं। गगन बताते हैं, ''पानी-बिजली सब काट दिया एक दम से, हमारे साथ तो बहुत बुरा हुआ। 10 दिन तो छोड़ो दो-तीन दिन का टाइम मांगते रहे पर किसी ने नहीं सुनी, बोले यहां तालाब बनेगा, शायद तालाब ज़्यादा ज़रूरी था भारत के लोग नहीं। ग़रीब आदमी की कोई क़ीमत नहीं है। जब हम ज़मीन की रजिस्ट्री करवाने गए, बिजली-पानी के कनेक्शन के लिए गए तब उन्होंने ये जांच क्यों नहीं की कि ये ज़मीन किसकी है? 

गगन कुमार के घर पर भी बुलडोज़र चला है

पिन कोड में फंसा पेंच?

हम, लोगों की आपबीती सुन ही रहे थे कि एक शख़्स मीडिया से बेहद नाराज़ दिखे, कहने लगे, "अब यहां क्या लेने आए हो? जो होना था हो गया, अब आपकी रिपोर्ट क्या इनका घर बनवा देगी? देश में कोई नहीं बचा सुनने वाला, हमें हमारे हाल पर छोड़ दीजिए।'' कुछ देर बाद ही उन्होंने सवाल किए कि, ''कार्रवाई करने वालों ने कहा कि जो कागज़ महरौली-30 के बने हैं वो लद्दे सराय (लाडो सराय ) में आते हैं, तो अगर ये जो हमारा घर टूटा है ये लद्दे सराय में आता है तो इसके एक तरफ़ घर और दूसरी तरफ़ पोस्ट ऑफ़िस जिसपर महरौली-30 लिखा है वो कैसे बच गए?"

मलबों में तब्दील हुए घरों को देखते हुए आगे बढ़ना मुश्किल हो रहा था, क़दम बोझिल हो रहे थे, बुलडोज़र की कार्रवाई थम चुकी थी लेकिन ज़ेहन में मुसलसल यही सवाल घूम रहा था कि अब आगे क्या होगा? 

यहां एक नहीं बल्कि बहुत से ऐसे दामन थे जो आंसूओं से भीगे थे। महरौली आर्किलॉजिकल पार्क के पीछे जंगल की तरफ़ पहुंचे तो वहां कुछ औरतों को रोते हुए एक-दूसरे से बस एक ही सवाल करते पाया 'अब क्या होगा'...'क्या हम दोबारा यहां घर बना लें'? 

''हमसे हमारा ही घर तुड़वाया गया''

हमें देख उन्हें लगा कि कोई मदद आई है लेकिन मायूसी हाथ लगी और फिर मलबे का ढेर दिखाते हुए एक शख़्स कहने लगे, "बहुत फोर्स लगी थी। कोई कुछ कहने की कोशिश कर रहा था तो कह रहे कि 'उठा ले इसको', हमारे लड़कों को उठा रहे थे तो हमने हाथ-पैर जोड़कर, मिन्नतें करके उन्हें छुड़वाया। हमसे कहा गया कि अगर घर का कुछ हिस्सा बचाना चाहते हो तो अपना घर ख़ुद तोड़ना शुरू कर दो, हमने एक दीवार तोड़ी भी लेकिन फिर वो आए और हमारी दुकान और मकान पर बुलडोज़र चला दिया। हमने घर बचाने की कोशिश की तो घर को ऐसा रौंदा कि अगर अंदर कुछ बचा भी हो तो बिल्कुल ही पस्त हो जाए। हम मस्जिद से लगे कब्रिस्तान में रह रहे हैं, क्या करें कहां जाएं, हमें तो कोई नोटिस भी नहीं मिला जबकि हमारे तो बिजली के मीटर भी लगे हैं। बस आए और बुलडोज़र चलाना शुरु कर दिया, हमारे घरों को रौंद दिया। चार दिन हो गए घर टूटे, घर में लड़कियां हैं, हम चार दिन से नहीं नहाए, कहां जाएं, बेटी है कहां ले जाऊं उसको? बच्चों के पेपर चल रहे हैं अगर घर बदल कर कहीं जाऊं तो बच्चों का पेपर छूट जाएगा।'' 

बिना नोटिस घर तोड़ने का आरोप

''मम्मी हमारा घर टूट गया''

हो सकता है इन घरों को ग़लत तरीक़े से बनाया गया हो लेकिन जिस तरह से कार्रवाई की गई क्या उसे जायज़ ठहराया जा सकता है? ज़ार-ज़ार रोती एक महिला ने बताया कि,''मेरी दो साल की बच्ची ने अभी ठीक से बोलना भी नहीं सीखा लेकिन जब भी वो मलबे के क़रीब से गुज़रती है तो कहती है 'मम्मी हमारा घर टूट गया', जिस दिन घर टूटा उस रात तेज़ हवाएं चल रहीं थीं। हम छोटे-छोटे बच्चों को लेकर कैसे खुले आसमान के नीचे रहे हम ही जानते हैं, ना खाना खाया ना बच्चों को स्कूल भेजा, क्या करें अब भी यूं ही खुले आसमान के नीचे पड़े हैं।" जंगली पेड़ों के नीचे कब्रिस्तान में जगह-जगह चारपाई पर अपनी दुनिया समेटे इन औरतों के पास बस एक ही सवाल था कि अब हम क्या करें? 

ज़ार-ज़ार रोती हिना के आंसूओं को उनकी दो साल की बेटी ने बहुत ही मोहब्बत से पोछ दिया। अम्मी को बेतहाशा रोते देखकर वो भी बेज़ार हुई जा रही थी। हिना कभी अपनी मासूम बच्ची को संभाल रही थी तो कभी लगातार गिरते आंसुओं को अपने दामन में समेट रही थी। हिना ने कहा, ''ग़रीब आदमी एक-एक ईट जोड़कर घर बनाता है लेकिन एक झटके में सब तोड़कर चले गए।"

हिना बेटी के साथ, जिनका घर टूटा

खुले आसमान के नीचे एक महीने के बच्ची

किसका घर सरकारी नियमों की अनदेखी करके बना था किसका नहीं उससे अलग एक सवाल ये है कि आख़िर ये लोग इस हालत में क्यों हैं? घर टूटने के बाद बगल में ही एक मस्जिद और कब्रिस्तान में कुछ परिवार रह रहे हैं जहां एक चारपाई पर लेटी छोटी बच्ची पर नज़र पड़ी तो पता चला कि बच्ची महज़ एक महीने की है और DDA की कार्रवाई के दौरान घर टूटने के बाद से वो भी खुले आसमान के नीचे ही है। अचानक ही चारों तरफ़ से परेशान औरतों ने अपना दुख बयान करना शुरू कर दिया। एक ने कहा, ''घर टूटा उसके बाद से कोई झांकने नहीं आया, खुले आसमान के नीचे बच्चे सो रहे हैं। बच्चों की तबीयत बार-बार ख़राब हो रही है, दवा लेकर भी आ रहे हैं लेकिन जब खुले आसमान के नीचे ही सो रहे हैं तो तबीयत तो ख़राब होगी ही ना।'' 

''स्कूल की ड्रेस भी मलबे में दब गई''

अंकिता नौवीं में पढ़ती है, एग्ज़ाम चल रहे हैं, घर टूट चुका है, वॉश रूम नहीं है जंगलों में जाते हैं, मां के साथ टूटे घर का मलबा समेटे या पेपर की तैयारी करे उसे समझ नहीं आ रहा। अंकिता ने बताया कि उसकी क्लास की एक सहेली के घर पर भी बुलडोज़र चला है और उसकी तो स्कूल ड्रेस भी मलबे में ही कहीं दब गई और अब वो घर के कपड़ों में ही पेपर देने जा रही है। अंकिता ने बहुत उम्मीद के साथ हमसे कहा कि हमारी बस इतनी बात रख दीजिए कि, ''हमारा घर हमें यहीं दोबारा बना लेने दें वर्ना हम स्कूल कैसे जाएंगे अभी हम स्कूल नहीं बदल सकते।''

नौंवी की छात्रा, पेपर चल रहे हैं और घर टूट गया

ये भी देखें : महरौली ग्राउंड रिपोर्ट : DDA के Bulldozer Action से बेघर हुए सैकड़ों लोग!

अंकिता के टूटे घर ने बहुत से सवाल खड़े किए हैं। क्या वो इस वक़्त स्कूल बदल सकती है? क्या बच्चों की परीक्षा तक ये कार्रवाई नहीं टाली जा सकती थी? अंकिता क्यों झुग्गी में रहती है, आख़िर उस नारे का क्या हुआ जिसमें कहा गया था ''जहां झुग्गी वहीं मकान'' और अंकिता को वॉश रूम के लिए जंगल में क्यों जाना पड़ता है और अगर वो जंगल में जाती है तो उसकी सुरक्षा किसकी ज़िम्मेदारी है ?

हमें नहीं पता इन सवालों के जवाब कौन देगा, बस ऐसा महसूस हो रहा था कि इन सवालों को भी बुलडोज़र तले मलबे में दबा दिया गया है। हम आगे बढ़ गए और महरौली आते वक़्त रास्ते पर हो रही उस सफेद पुताई का ख़्याल आ गया जिसके आगे G-20 का पोस्टर लगा था और जिसपर लिखा था 'वसुधैव कुटुम्बकम्'। 

कितनी अजीब बात है, G-20 सम्मेलन के दौरान दिल्ली ख़ूबसूरत दिखे इसलिए एक अच्छी राशि खर्च की जा रही है लेकिन जिस जगह को ख़ूबसूरत बनाया जा रहा है उससे चंद क़दम की दूरी पर लोगों के पास बुनियादी सहूलियत नहीं है। 

हम आगे बढ़ते जा रहे थे और उजड़े घरों के साथ दिल दुखाने वाली हक़ीक़त टकराती जा रही थी....

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