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नूंह: पटरी पर लौट रही ज़िंदगी लेकिन बेघर हुए BPL परिवार कहां जाएंगे ?

नूंह हिंसा के बाद ज़िंदगी एक बार फिर पटरी पर लौट रही है, दुकानें खुल रही हैं, इंटरनेट सेवा बहाल कर दी गई है, लेकिन एक बड़ा सवाल ये है कि बीपीएल श्रेणी के जिन बेगुनाह लोगों के घरों पर बुल्डोज़र चला दिया गया अब वे कहां जाएंगे?
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नूंह में हुई हिंसा के बाद जिंदगी एक बार फिर से पटरी पर लौटती दिखाई दे रही है। फिरोज़पुर झिरका, नगीना, तावडू के बाद हम नल्हड़ गांव पहुंचे। एक तरफ अरावली की पहाड़ी और कुछ खेत जिनमें इस वक़्त ज्वार, बाजरा दिखा जबकि इसी पक्की सड़क के दूसरी तरफ छोटे-छोटे गांव बिखरे पड़े हैं, कोई 10 घर का तो कोई 12 से 14 घरों का। ये सड़क जहां ख़त्म होती है वहां स्थित है नल्हड़ शिव मंदिर। अरावली की गोद में स्थित इस मंदिर का द्वार बेहद ख़ूबसूरत और भव्य है जबकि अंदर एक छोटा मंदिर है।

चारों तरफ खामोशी

हम मंदिर से कुछ पहले ही रुक गए। मंदिर को जाती सड़क सुनसान थी। चारों तरफ खामोशी पसरी थी। एक ऐसी ख़ामोशी जिसमें आज भी एक डर तैर रहा था। इस सुनसान सड़क पर एक लड़का दिखा जिसका घर सड़क से लगे गांव में था, ये गांव मंदिर के सबसे क़रीब स्थित है। हमने लड़के से पूछा क्या आपको डर लग रहा है, क्या आप घर छोड़कर भागे थे? तो उसका जवाब था ''मैं क्यों भागूं मैं तो हिंदू हूं''।

ये बोलकर वे सड़क पर आगे बढ़ गया और हमारी नज़र उन काले धब्बों पर गई जो सड़क पर 31 जुलाई के दिन गाड़ियों के जलने के बाद आज भी नहीं मिटे थे।

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हमने मंदिर में जाकर पुजारी से मिलने की कोशिश की लेकिन किसी ने कहा वे मंदिर में नहीं हैं, तो किसी ने कहा वे सो रहे हैं। हम पुजारी जी से 31 जुलाई की उस सच्चाई के बारे में बात करना चाहते थे जिससे जुड़े तमाम तरह के दावे किए जा रहे थे, लेकिन मुलाकात नहीं हो पाई।

नल्हड़ मंदिर

नल्हड़

मंदिर से निकल कर हम सड़क से लगे गांव में पहुंचे ये गांव सड़क से बिल्कुल सटा हुआ है। गांव, मंदिर से इतना क़रीब है कि उस दिन की घटना के बारे में यहां के लोग चश्मदीद के तौर पर सब कुछ बयां कर सकते हैं। गांव में रहने वाले लोगों ने बताया कि वे कोरी समुदाय के हैं, 8 से 10 घरों वाले इस गांव के लोगों से हमने बातचीत की। हमने 31 जुलाई के बारे में उनसे पूछा। इन लोगों ने बताया कि गलती मेवों( मेवाती मुसलमान) की थी, लेकिन जब हमने उनसे पूछा कि ये आपको कैसे पता? तो उनका जवाब था ऐसा कहा जा रहा है, लेकिन कौन कह रहा है ये वे नहीं बता पाते। हमने उनसे पूछा कि उन्होंने क्या कुछ देखा तो उनका जवाब था हमने कुछ नहीं देखा क्योंकि गोलियों के चलने की आवाज़ आ रही थी इसलिए हम लोग घर में छुप गए थे।

ये गांव सड़क और खेत के बीच में स्थित है। इतने हंगामे के बीच गांव के लोगों ने कुछ न देखा हो ये कैसे हो सकता है?

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प्रशासन ने स्कूल खुलने का आदेश दे दिया था हमें गांव में कुछ बच्चे दिखे, हमने एक लड़की से पूछा कि आप स्कूल क्यों नहीं गईं तो क़रीब ही बैठी उनकी मां ने जवाब दिया आज नहीं जाएगी। स्कूल नूंह शहर में है। डर लगता है कुछ दिन बाद माहौल ठीक हो जाएगा तो जाएगी।

हिंदू-मुसलमान के बीच कोई मनमुटाव नहीं हुआ

हालांकि गांव की एक महिला ने हमें बताया कि यहां कभी भी हिंदू-मुसलमान के बीच कोई मनमुटाव नहीं हुआ। ''हम दोनों ही एक दूसरे के शादी-ब्याह में शामिल होते रहे हैं''।

नल्हड़ के गांव एक साथ नहीं हैं बल्कि थोड़ी-थोड़ी दूरी पर बिखरे पड़े हैं। कोरी समुदाय के गांव से निकल कर हम कुछ आगे बढ़े तो एक और गांव दिखा। ये भी क़रीब 6 घरों का एक झुरमुट था। ये घर मुसलमानों के थे जिसमें सिर्फ महिलाएं, बच्चे और कुछ बुजुर्ग थे। हमने पूछा कि घर के पुरुष कहां हैं तो पता चला कोई यहां नहीं रहता। सब गाड़ी (ट्रक) चलाने वाले या फिर शहरों में काम करने वाले हैं।

हमने इन महिलाओं से भी 31 जुलाई की हिंसा के बारे में पूछा तो उनका जवाब था कि ''हमने कुछ नहीं किया। हमने भी सुना ही है देखा कुछ नहीं।'' लेकिन गांव की एक स्कूल जाने वाली लड़की ने बिट्टू बजरंगी के उसी वीडियो का जिक्र किया जिसमें चैलेंज देकर आने की बात कही गई थी।

इस बच्ची से हमने पूछा कि वो स्कूल क्यों नहीं गई, तो उसने जवाब दिया कि ''जाऊंगी एक-दो दिन के बाद।'' लेकिन उस लड़की की मां ने भी कहा, ''मेरी जवान बेटी है। अभी स्कूल नहीं भेजेंगे, डर लगता है। माहौल कुछ ठीक होगा फिर ज़रूर स्कूल जाएगी।''

उम्मीद भरी बेटियों की दोस्ती

हमने उस लड़की से पूछा कि क्या उसकी हिंदू सहेलियों के व्यवहार में नूंह हिंसा का असर पड़ा है? हमारा सवाल अभी पूरा भी नहीं हुआ होगा कि लड़की ने बहुत ही चहकती हुई आवाज़ में जवाब दिया, ''क्यों असर पड़ेगा, वो मेरी सहेली है। हम स्कूल तो नहीं जा रहे लेकिन फोन पर बात हो रही है।''

इस बच्ची की ये बात बहुत उम्मीद जगा रही थी। साथ ही इस बात की तस्दीक कर रही थी कि नल्हड़ के इन दोनों गांव में एक दूसरे के लिए कोई मनमुटाव नहीं था। लेकिन दोनों ही गांव की माएं फिलहाल अपनी बेटियों को स्कूल भेजने में थोड़ा झिझक रही थीं। लेकिन हां उन्होंने ये साफ कर दिया कि स्कूल तो बेटियां ज़रूर जाएंगी लेकिन कुछ दिन बाद।

नल्हड़ गांव जहां बुल्डोज़र चला

इस गांव से निकल कर हम नल्डल के उन गांव में पहुंचे जहां प्रशासन के बुल्डोज़र ने अपनी 'पावर' दिखाई थी। इन गांव तक कोई सड़क नहीं जाती वाहिद खेतों से होकर गुज़रने वाली पगडंडी ही थी। पहाड़ी और खेतों के बीच कुछ ऊंचाई पर स्थित थोड़ी-थोड़ी दूरी पर दो जगह मलबे का ढेर दिखा जो बता रहा था कि यहां कभी गांव बसा करते थे।

खेतों से होते हुए हम गांव में पहुंचे तो देखा दो बुजुर्ग एक पेड़ की छाया में बैठे थे, और आस-पास उनके टूटे आशियानों का मलबा था। कुछ मिट्टी के कच्चे घर तो कुछ पक्के मकानों को ऐसा तोड़ा गया था कि लोगों को सामान निकालने तक की भी मोहलत नहीं मिली। उनकी झोपड़ियों में अनाज रखने वाली बड़ी सी टंकी दबी दिखी। टूटी चारपाई, पिचक गए बक्से और प्लास्टिक के घड़े, टोकरियां, और टूटने के बाद अधूरी सी दिखने वाली दीवारें, चूल्हे सब टूट गए थे लेकिन ईंटों को जोड़ कर खाना बनाने का जुगाड़ किया गया था।

इससे पहले कि हम उनसे बैठकर बात शुरू करते उन्होंने कहा कि आप देखिए कैसे हमारे घरों को तोड़ दिया गया है। आज भी सामान दबा हुआ है। वे घूम-घूम कर टूटे घरों को दिखाने लगे। किसी तरह बचाए गए अनाज को दिखाया।, टूटे घरों की जगह बारिश से बचने के लिए चारपाई पर तानी गई पन्नियों से बनी झोपड़ी दिखाने लगे। वे बताने लगे कि वैसे तो हम पेड़ के नीचे रहते हैं लेकिन जब बारिश आती है तो इन्हीं पन्नियों के नीचे सिर छुपाने के लिए आ जाते हैं।

BPL कार्ड धारकों के घर पर चला दिया बुल्डोज़र

BPL कार्ड वालों के घर पर चला दिया बुल्डोज़र

नल्हड में तोड़े गए घरों के लोगों ने बताया कि वे सभी BPL कार्ड (गुलाबी और सफेद) कार्ड वाले हैं। यहां मिले बुजुर्ग पीर मोहम्मद और उनकी पत्नी आसिया ने बताया कि उनको तो सरकार की तरफ से 2700-2700 रुपये की वृद्धा पेंशन भी मिलती है।

बेटी को रिश्तेदारों के घर भेज दिया

पीर मोहम्मद और उनके भाई ने जिस कुनबे को यहां बसाया था वे पूरी तरह से उजाड़ दिए गए। घर के छोटे-छोटे लड़के भी डर से रिश्तेदारों के पास चले गए हैं। पीर मोहम्मद के भाई ने बताया कि उनकी 20-22 साल की बेटी है जिसे उन्होंने डर की वजह से अपनी बड़ी बेटी के पास भेज दिया है।

''सामान निकालने की भी मोहलत नहीं दी''

हमने इन लोगों से पूछा कि आप लोगों के घर पर बुल्डोज़र क्यों चलाया गया? तो बुजुर्ग आसिया कहती हैं, ''या तो ये अल्लाह जाने या फिर सरकार।'' इन लोगों को शिकायत है कि अगर घर तोड़ना ही था तो कम से कम पहले नोटिस दे दिया जाता और अगर नोटिस नहीं भी दिया तो सामान निकालने के लिए वक़्त ही दे देते। आसिया कहती हैं, ''आते ही तोड़ना चालू कर दिया, सामान नहीं निकालने दिया। थोड़ा समय दे देते तो हम ग़रीब अपना सामान निकाल लेते। अब कहां से ख़रीदें और कहां रहें ये बताओ। कुछ नहीं सुनी। कुछ मोहलत ही दे देते ताकि हम अपना सामान निकाल लेते।''

''पहले नोटिस नहीं दिया गया''

हमें वो नोटिस दिखाया गया जिसे हरियाणा वन विभाग की तरफ से जारी किया गया था और उस पर 30-6-2023 की तारीख पड़ी थी। जबकि लोगों का कहना था कि एक तरफ घर टूट रहे थे और दूसरी तरफ उनके हाथ में ये नोटिस पकड़ाए जा रहे थे। हमने उनसे पूछा कि आप लोग यहां कब से रह रहे हैं? तो उनका जवाब था जब अंग्रेज चले गए तब सन 1947 में हम यहां आकर बसे थे। वे कहते हैं कि, ''हम यहां बूढ़े हो गए और हमसे पहले हमारे बुजुर्ग भी यहीं ख़त्म हो गए।'' इन लोगों ने एक दलील दी की जिस वक़्त ये लोग यहां आकर बसे थे उस वक़्त ज़मीनों को ज़बानी वादों पर दे दिया जाता था।

तोड़े गए घर

''यहां आते ही भड़ाभड़-भड़ाभड़ शुरू हो गए''

हमने इन लोगों से पूछा कि 31 जुलाई के दिन क्या हुआ था क्या उन्होंने कुछ देखा था? उन्होंने जवाब दिया हां, देखा था और जैसे एक-एक बात को याद कर बताने लगे। ''उस दिन यहां झगड़ा हुआ। हम यहीं अपने घर पर बैठे थे। यहां से (मंदिर की तरफ से) आए और वहां (दूसरी तरफ) से भी आए। इससे पहले पता नहीं कहां लड़ाई हुई, कहां नहीं। लेकिन यहां आते ही भड़ाभड़-भड़ाभड़ शुरू हो गए''। इन लोगों ने यह भी बताया कि गोलियों की चलने की आवाज़ें भी आ रही थी। हमने उनसे पूछा कि क्या आपने किसी को मंदिर को घेरते हुए देखा था? तो उनका कहना था ''नहीं हमने जो देखा सामने सड़क पर होते हुए देखा।''

''मंदिर में भंडारा होता है तो हमारे बच्चे, हम जाकर खाते हैं''

हमने लोगों से पूछा कि क्या 31 जुलाई की घटना के बाद नल्हड़ गांव के लोग एक बार फिर से पहले की तरह भाईचारे से रह पाएंगे? तो पीर मोहम्मद ने बहुत ही विश्वास के साथ हाथों को जोड़ते हुए कहा, ''बहुत ही मिलकर रहते थे और ऐसे ही रहते आएंगे, हम भाई जैसे रहते हैं।'' वहीं आसिया कहती हैं कि इनके (हिंदू समाज के लोगों के) यहां कुछ होता है तो हम खाते हैं और जब हमारे यहां कुछ होता है तो ये खाने आते हैं। मंदिर में भंडारा होता है तो हमारे बच्चे, हम जाकर खाकर आते हैं। हम तो ख़ूब ख़ुश रहते हैं। हमारे बीच कोई हिंदू-मुसलमान नहीं है। हम आगे भी ऐसे ही रहेंगे।'' फिर वे अफसोस जाहिर करते हुए लहज़े में कहती हैं, ''पता नहीं कहां से आ गए, ये पीछे से दुनिया आई, यहां नल्हड़ का कोई नहीं।''

घर टूटने के बाद खुले में ही रह रहे ये परिवार कभी तेज़ धूप और उमस से बचने के लिए पेड़ के नीचे चले जाते हैं तो कभी बारिश से बचने के लिए पन्नी तान लेते हैं। इन बुजुर्गों को किस बात की सज़ा दी गई समझ से परे है।

''वोट हमने बीजेपी को दिया था''

बातों-बातों में पता चला कि इन लोगों ने बीजेपी को वोट दिया था लेकिन जब उनके घर गिरा दिए गए तो कोई मदद के लिए नहीं आया। आसिया और पीर मोहम्मद के साथ ही उनके भाई कहते हैं, ''वोट हमने बीजेपी को दिया था, हम बीजेपी के साथ हैं। अभी जो सरकार चल रही है हम इसमें हैं, लेकिन सरकार ने ही घर गिरा दिया।''

ख़ुद को ठगा सा महसूस कर रहे इन लोगों को समझ नहीं आ रहा कि जब इनकी कोई गलती नहीं थी तो उन्हें सज़ा क्यों दी गई।

4 अगस्त को हुई बुल्डोज़र कार्रवाई के दौरान नल्हड मंदिर के सबसे क़रीब पहाड़ी पर बने जिन मुसलमानों के घर तोड़े गए हमने उनसे भी बात की। तेज़ धूप में सिर पर पीने का पानी लेकर आ रही एक महिला मिलीं। उनका भी घर तोड़ दिया गया था। उन्हीं के साथ मिली शाहिना ने बताया कि वे भी BPL (Below Poverty Line) कार्ड वाले हैं और उनके घरों पर भी बुल्डोज़र चला दिया गया है। ''उन्होंने कुछ नहीं बोला, घंटे भर पहले एक पर्चा सा दे गए और कहा कि मकान टूटेंगे। हम सामान निकाल ही रहे थे कि वे आ गए और कहा हटो-हटो और बुल्डोज़र चला दिया। उस वक़्त इतनी फोर्स लगी थी।'' शाहिना बताती हैं कि घर के लड़के डर से रिश्तेदारों के यहां चले गए जबकि छोटे बच्चे पेड़ की छाया में पड़े हैं। बस ऐसे ही पड़े हैं, चटनी से रोटी खा रहे हैं।''

टूटा घर

नल्हड़ गांव में जितने भी घर टूटे सभी मुसलमानों के थे और ये सभी ख़ुद को ग़रीबी रेखा के नीचे वाले बताते हैं। ऐसे में इनके घर क्यों तोड़े गए?

अतिक्रमण और हिंसा में शामिल होने के नाम पर हुई बुल्डोज़र कार्रवाई करने वालों ने ये कैसे तय कर लिया की सड़क किनारे बसे कोरी समाज का कोई गुनाह नहीं जबकि पहाड़ी पर बसे मुसलमान गुनहगार हैं?

ऐसे में हाईकोर्ट की ''जातीय सफाया'' वाली टिप्पणी याद आती है जिसमें बुल्डोज़र एक्शन पर सवाल उठाते हुए रोक लगाई गई थी। 

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