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वन भूमि पर दावों की समीक्षा पर मोदी सरकार के रवैये से लाखों लोगों के विस्थापित होने का ख़तरा

विशिष्ट मार्गदर्शिका का अभाव और केंद्रीय निगरानी की मशीनरी न होने के कारण राज्य दर राज्य वन भूमि पर अधिकारों के दावों के मामले अलग-अलग हैं।
वन भूमि पर दावों की समीक्षा पर मोदी सरकार के रवैये से लाखों लोगों के विस्थापित होने का ख़तरा

वन भूमि पर लोगों के दावों के निपटान की समीक्षा में राज्यों के साथ एक समन्वयकारी की भूमिका निभाने की जवाबदेही से नरेन्द्र मोदी सरकार के हाथ झाड़ने के साथ, ऐसी खबरें आ रही हैं कि प्रदेशों में लोगों के दावों को खारिज कर दिया गया है, यहां तक कि 50 फीसदी तक दावों के खारिज किए जाने के उदाहरण भी मिले हैं। केंद्र सरकार के जनजातीय कार्य मंत्रालय ने इस संबंध में अभी तक कोई गाइडलाइन तय नहीं की है, जबकि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राज्य सरकारों को वन अधिकार अधिनियम 2006 के अंतर्गत अपने यहां वनों की भूमि पर खारिज किए गए दावों की समीक्षा करने का निर्देश दिए हुए दो साल से भी अधिक हो गए हैं।

सर्वोच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति अरुण कुमार मिश्रा की अध्यक्षता में तीन सदस्य खंडपीठ द्वारा फरवरी 2019 में दिए गए एक आदेश के मुताबिक कि राज्य अपने यहां की वन भूमि पर नागरिकों के मौजूदा दावों की समीक्षा करें, जिन्हें वहां की सरकारों ने खारिज कर दिया है। यह दावे वन अधिकार अधिनियम 2006 के तहत व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों श्रेणियों में किए गए हैं। इस कानून को अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वनवासी ( वन अधिकार की मान्यता) अधिनियम 2006 के रूप में भी जाना जाता है।

केंद्रीय निगरानी मशीनरी और विशिष्ट दिशा-निर्देश के अभाव में, राज्य सरकारों द्वारा लोगों के खारिज किए गए दावों के निपटान में भिन्न-भिन्न मानदंड अपनाए जा रहे हैं। इसके परिणामस्वरूप, वैध दावेदारों को भी अपनी जमीन पर अतिक्रमणकारी ठहराए जाने का खतरा उत्पन्न हो गया है और ऐसे मामलों की तादाद कई मिलियन में हो सकती है।

मंत्रालय के अद्यतन आंकड़ों के मुताबिक, फरवरी 2021 तक वन भूमि पर व्यक्तिगत और सामूहिक अधिकारों के तहत पूरे देश में कुल 20,01,919 मामले खारिज कर दिए गए थे, इतनी ही तादाद में लोगों के दावे स्वीकार भी किए गए हैं। मोटे तौर पर पूरे देश में 45 फ़ीसदी दावों को खारिज कर दिया गया है, जबकि 4.61 लाख मामले निपटान के लिए लंबित हैं। इन आंकड़ों को अंतिम रूप से सर्वोच्च न्यायालय में पेश किया जाएगा, क्योंकि वही इसकी समीक्षा करेगा कि इस मामले में उसके आदेश का अनुपालन हुआ है या नहीं।

ओडिशा में वन अधिकार पर शोध-अनुसंधान कर रहे तुषार दास ने कहा, “ मध्य प्रदेश सरकार वेब-साइटों के जरिए आवेदन मंगा कर अपने लोगों के दावों की समीक्षा कर रही है। ओडिशा में, जैसे कि आरोप लगाए जा रहे हैं, कुछ मामलों में जिला मुख्यालयों ने ग्राम सभाओं की अनदेखी कर सीधे तौर पर दावों की समीक्षा कर ली है। इस तरह, समीक्षा के मामले में विभिन्न राज्यों द्वारा अपनाये जा रहे दृष्टिकोणों में एकरूपता नहीं है। ये दावे ऐसे हैं, जिन्हें राज्यों ने पहले खारिज कर दिया था। कई राज्यों में तो खारिज किए गए दावों की समीक्षा की तादाद बहुत ज्यादा है।”

क्या ये समीक्षाएं, एकरूपता के अभावों के बावजूद, वन अधिकार अधिनियम 2006 के प्रावधानों के मुताबिक की जा रही हैं?

मध्य प्रदेश, जिसने वन भूमि पर अधिकार के दावों की समीक्षा के लिए वेबसाइट के माध्यम से आवेदन मंगवाए हैं, वहां दावों को खारिज करने का मामला सबसे ज्यादा है। आंकड़े बताते हैं कि मध्य प्रदेश में व्यक्तिगत वन अधिकार के तहत प्राप्त हुए 5.85 लाख दावों में से मात्र 2.30 लाख दावे ही समीक्षा के लिए स्वीकार किए गए हैं। जाहिर है कि 61 फ़ीसदी दावों को खारिज कर दिया गया है। इसी तरह, वन भूमि पर सामुदायिक स्वामित्व-अधिकार के तहत किए गए 42,000 दावों में से मात्र 28,000 मामलों में ही स्वत्वाधिकारों का वितरण किया गया है।

जबलपुर उच्च न्यायालय में जून 2021 के अंतिम सप्ताह में एक जनहित याचिका दायर की गई थी। सतना जिले की मवासी जनजाति की एक महिला द्वारा दायर की गई इस याचिका में आरोप लगाया गया था वन अधिकार अधिनियम 2006 के मुताबिक ग्राम सभा के माध्यम से किए गए दावों को इस आधार पर खारिज कर दिया गया क्योंकि वे एमपी वन मित्र पोर्टल पर अपलोड नहीं किए गए थे। याचिका में कहा गया है कि मध्य प्रदेश सरकार द्वारा अपनाए जा रही प्रक्रिया वन अधिकार अधिनियम 2006 का उल्लंघन है, जिसमें वन भूमि पर दावों के निपटान के लिए त्रिस्तरीय पारदर्शी निगरानी प्रणाली बनाने की बात कही गई है।

त्रि-स्तरीय निगरानी प्रणाली में ग्राम सभा स्तर पर गठित वन अधिकार समिति शामिल होती है, जिसके बाद प्रशासनिक उप-मंडल और जिला स्तर का पैनल होता है, जो ग्रामसभा के फैसले की समीक्षा करता है। याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया कि राज्य सरकार ने वेब-आधारित आवेदन मंगवाए हैं, जिसका इस कानून में कोई जिक्र ही नहीं है। ऐसा कर सरकार वन अधिकार अधिनियम के प्रावधानों से बाहर चली गई है।

“सबडिवीजन स्तर की कमेटी द्वारा यह बहाना बनाया जा रहा है कि व्यक्तिगत दावे, जो ग्राम सभाओं द्वारा विधिवत स्वीकृत और मान्य हैं, उन पर आगे कोई कार्रवाई इसलिए नहीं की जा सकती क्योंकि वे दावे वन मित्र पोर्टल पर अपलोड होने में फेल हो गए हैं, जबकि यह प्रदत कानून के अंतर्गत कोई अत्यावश्यक प्रक्रिया नहीं है। व्यक्तिगत अधिकार के दावों को वन मित्र पोर्टल पर इसलिए अपलोड नहीं किए जा सके क्योंकि पोर्टल 2012 के बाद अपलोड किए गए दावों को स्वीकार ही नहीं करता है। इसका मतलब है कि 2012 के बाद किया गया कोई भी दावा मान्य नहीं है।” ये बात जबलपुर में रहने वाले अधिवक्ता अमित सिंह ने न्यूज़क्लिक से कही।

अधिवक्ता ने आगे कहा,“राज्य सरकार के अधिकारियों द्वारा समाज के हाशिये पर पड़े लोगों- जो कि निरक्षर हैं- के लिए ऐसे सिस्टम का इजाद करना और उनके द्वारा इस तकनीकी प्रक्रिया को अपनाते हुए पोर्टल के जरिए अपने व्यक्तिगत अधिकारों के दावे जताने की अपेक्षा पाल लेना, बिल्कुल अकल्पनीय और अव्यावहारिक है।”

आरोप है कि ओडिशा में, पिछले साल वन भूमि पर दावों का निपटान करते समय ग्राम सभाओं को कथित रूप से दरकिनार कर दिया गया था, जब सरकार द्वारा कोविड-19 महामारी से निपटने के लिए लगाए गए प्रतिबंधों के कारण सार्वजनिक सभाओं को प्रतिबंधित कर दिया गया था, अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति विकास, अल्पसंख्यक एवं पिछड़ा वर्ग कल्याण विभाग द्वारा उनके दावों को खारिज कर दिया गया था।

विभाग की प्रधान सचिव रंजना चोपड़ा ने न्यूज़क्लिक से बातचीत में कहा,“ खारिज किए गए दावों की समीक्षा की हमारी प्रक्रिया वन अधिकार कानून के मुताबिक ही है। इस मामले में चूंकि स्वत: ही संज्ञान लेकर समीक्षा करने का निर्देश मिला है, लिहाजा हमने सभी जिला प्रशासनों से कहा है कि वे खारिज किए गए आवेदकों के दावे का पुनर्अपील किए जाने का इंतजार न करें। सभी खारिज आवेदनों पर विचार करने और उनकी समीक्षा करने के लिए जिला प्रशासनों से कहा गया है।”

रंजना ने कहा,“ समीक्षा का काम कोविड-19 से जुड़े कामों की वजह से बाधित हुआ है लेकिन हम उम्मीद करते हैं कि एक-दो सप्ताह में यह काम पूरा कर लिया जाएगा। पर ओडिशा में अन्य राज्यों के मुकाबले खारिज किए गए दावों की दर बहुत ही कम है। जिला स्तर के प्रशासन से इन मामलों पर समानुभूतिपूर्वक विचार करने के लिए कहा गया है।”

प्रधान सचिव के इन दावों के बावजूद, ऐसे कई मामले सामने आए हैं जिनमें ओडिशा सरकार पर इन दावों के निपटान में नियम-कायदों का पालन नहीं करने का आरोप लगाया गया है। जनजातीय समुदायों के लगभग 2,000 सदस्यों ने जनवरी 2020 में एक विरोध प्रदर्शन किया था। इन समुदायों का आरोप था कि सरकार ने सूबे के एक गंजाम जिले में ही 50 फ़ीसदी दावों को खारिज कर दिया था। इस प्रदर्शन को चार संगठनों-अखिल भारतीय किसान मजदूर सभा, आदिवासी भारत महासभा, गंजम जिला आदिवासी मंच, और गंजाम जिला ग्राम सभा समुख्या ने अपना समर्थन दिया था।

राज्य सरकार ने तब दावा किया था कि 6,613 आवेदन जो खारिज किए गए हैं, वे अन्य परम्परागत वनवासियों के थे, जिनमें दावेदार कम से कम तीन पीढ़ी पहले से वनों में रहते आने का प्रमाण पेश नहीं कर सके थे। लेकिन सरकार की तरफ से इन आवेदनों को खारिज किए जाने की कार्रवाई का इस आधार पर विरोध किया था कि ग्रामसभाओं से शीर्ष कमेटी को वन अधिकार अधिनियम के मुताबिक अन्य परम्परागत वनवासियों के दावे को निरस्त करने का कोई अधिकार नहीं है।

इसी तरह, ओडिशा में कटक के दक्षिणी किनारे में स्थित चंडका वनजीवन अभयारण्य में रहने वाले 52 परिवारों के व्यक्तिगत अधिकार के दावे को भी सरकार द्वारा खारिज कर दिया गया था, जबकि इसकी कोई लिखित वजह नहीं बताई गई थी। वन अधिकार अधिनियम के प्रावधानों के विपरीत दावेदारों को केवल “मौखिक” रूप से बता दिया गया था कि उनके आवेदनों को इसलिए खारिज कर दिया गया है कि किसी और को वह भूमि पट्टे पर दी गई है। दावेदारों ने आरोप लगाया कि वे सरकार के इस निर्णय के खिलाफ उच्च अदालत का रुख इसलिए नहीं कर सके क्योंकि उनके पास इस बारे में कोई लिखित विवरण नहीं था।

ओडिशा सरकार ने भी वन भूमि पर दावों के निपटान को कारगर बनाने के लिए वेब-आधारित आवेदन का प्रारूप बनाया हुआ है, जबकि इस अनुप्रयोग को लेकर मध्य प्रदेश में सवाल खड़े किए गए हैं। राज्य सरकार ने इन दावों की समीक्षा में सहायता के लिए सैटेलाइट से चित्र मंगाने के लिए ओडिशा स्पेस एप्लीकेशन सेंटर से भी बातचीत की है।

ओडिशा सरकार ने वन भूमि पर समुदाय अधिकारों के 15,000 दावों में से 7,000 से भी कम स्वामित्व दिए हैं, जिसमें खारिज होने की दर लगभग 46 फ़ीसदी रही है। व्यक्तिगत वन अधिकार मामले में ओडिशा का रिकॉर्ड काफी अच्छा है, यद्यपि 6.23 लाख दावों में से लगभग 4.45 लाख मामलों में अधिकार दिए गए हैं, यहां खारिज किए जाने वाले दावों की दर मात्र 28.57 फ़ीसदी रही है।

बताया जाता है कि ओडिशा की तुलना में अन्य राज्यों में वनों की भूमि पर अधिकारों के दावों को खारिज करने की दरें काफी ऊंची हैं। हाल की एक रिपोर्ट के अनुसार, असम के लखीमपुर जिले में वनों की भूमि पर अधिकार मांग रहे 80 फ़ीसदी आवेदनों को राज्य सरकार ने खारिज कर दिया है। लखीमपुर जिला प्रशासन को वन भूमि पर अधिकार के दावे के साथ 3,390 आवेदन मिले थे, जिनमें 2,700 सौ से अधिक आवेदनों को खारिज कर दिया गया था। असम के वन विभाग के अनुसार, पड़ोसी राज्यों ने उसकी लगभग 2,436 हेक्टेयर वन भूमि पर अतिक्रमण कर लिया है, जबकि स्थानीय लोगों ने 4,440 हेक्टेयर भूमि पर कब्जा जमा लिया है।

कर्नाटक में भी वन की भूमि पर अधिकार के दावे करने वाले आवेदनों को बड़ी संख्या में निरस्त कर दिया गया है। इसके मैसूर जिले में, पिछले साल नवंबर में वन भूमि पर व्यक्तिगत अधिकार के दावे करने वाले आवेदनों को इस आधार पर ही फौरन खारिज कर दिया गया था कि उनका दावा नागरहोल टाइगर रिजर्व की वन भूमि के दायरे में आता है।

जैसा कि आरोप लगाया गया है, अनुमंडलीय स्तरीय कमेटी न केवल जनजातियों की भूमि पर उनके अधिकार की मान्यता देने में विफल रही है बल्कि इसके बाद उन्हें पुनर्वास करने में भी फेल हो गई है। यह भी आरोप लगाया गया है कि उसने कर्नाटक हाई कोर्ट की तरफ से गठित तीन सदस्यीय पैनल की रिपोर्ट को कोई तवज्जो नहीं दी है, जिसमें साफ कहा गया है कि टाइगर रिजर्व से विस्थापित हुए आदिवासियों को पुनर्वासित किए जाने की आवश्यकता है।

सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ द्वारा समीक्षा का निर्देश दिए जाने के बाद, फरवरी 2020 तक, देश के 14 राज्यों द्वारा वन भूमि पर अधिकार के दावों के लगभग 5.5 लाख आवेदनों को निरस्त कर दिया गया है। पश्चिम बंगाल में यह दर सबसे ऊंची यानी 92 फ़ीसदी थी।

फिर, वन अधिकार अधिनियम कहता है कि जब तक वन अधिकार पर दावे को मान्यता देने और उसे निहित करने की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती, किसी भी व्यक्ति या समुदाय को उस भूमि से बेदखल नहीं किया जा सकता। इसके विपरीत, कई राज्यों में जनजातीय एवं वनवासियों को जबरन उनकी भूमि से विस्थापित किए जाने की रिपोर्ट है।

उत्तराखंड में, वन गुर्जर जनजाति समुदाय के सदस्यों ने आरोप लगाया कि जब उन्होंने राजाजी नेशनल पार्क में लगे कैंप को इस बिना पर खाली करने से इनकार किया कि वन भूमि पर उनके अधिकार का दावा प्रशासन के पास विचाराधीन है, तो वन विभाग के अधिकारियों ने उनके साथ मारपीट की।

महाराष्ट्र के तडोबा अंधेरी टाइगर रिजर्व के बफर जोन में पिछले साल जुलाई में वनवासियों और वन विभाग के अधिकारियों के बीच भिडंत की रिपोर्ट है। यहां भी वनवासियों ने अपने कब्जे की भूमि को छोड़ने से इंकार कर दिया था।

एक अन्य घटना में, मध्य प्रदेश के बुरहानपुर जिले के जनजातीय समुदाय ने वन विभाग के कर्मियों पर उनके घरों को जला देने का आरोप लगाया था जबकि उनका दावा निपटान के लिए प्रशासन के पास लंबित है। गुजरात के डांग जिले में भी अनुसूचित जनजाति वनवासी समुदाय ने भी आरोप लगाया कि पिछले साल राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के दौरान वन विभाग के अधिकारियों ने उनकी झोपड़ियों में आग लगा दी थी, जबकि उनके दावे का निपटान अभी बाकी है। डांग जिले के अधिकारियों ने वन भूमि की पिछले साल की सेटेलाइट तस्वीरों से तुलना के आधार पर जनजातीय परिवारों को वहां से बेदखल कर दिया था, जबकि इस तकनीक का वन अधिकार अधिनियम की तीन स्तरीय निगरानी प्रक्रिया में कोई उल्लेख ही नहीं है।

जनजातीय मंत्रालय को एक ई-मेल भेज कर पूछा गया है कि क्या ऐसी कोई गाइडलाइन है, जिसे केंद्र ने वनों की भूमि पर दावे के खारिज आवेदनों की समीक्षा के लिए राज्य सरकारों को जारी किया है? इस लेख के लिखे जाने तक मंत्रालय की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं की गई है। केंद्र सरकार की तरफ से जवाब मिलने पर उसे इस आलेख में शामिल कर लिया जाएगा।

सर्वोच्च न्यायालय की तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ, जिसने पहले वनवासियों को उनकी भूमि से बड़े पैमाने पर बेदखल करने का आदेश दिया था, जिनके वन भूमि पर दावों को राज्य सरकारों ने 13 फरवरी, 2019 को खारिज कर दिया था, बाद में खंडपीठ ने महज 15 दिन बाद उस पर रोक लगा दिया पर खारिज दावों की समीक्षा के लिए अपनाई जाने वाली किसी प्रक्रिया का उल्लेख नहीं किया था। जिस तारीख को बेंच ने बेदखली का आदेश जारी किया था, उस 13 फरवरी की तारीख तक लगातार सुनवाई में, जनजातीय कार्य मंत्रालय और केंद्र सरकार का कोई भी अधिवक्ता अधिनियम का बचाव करने के लिए न्यायालय में मौजूद नहीं था।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।

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