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बनारस में मोदी: बनारसी पूछ रहे हैं- ये किस बात के लिए और कैसा महोत्सव है?

जनता जानना चाहती है कि यह महोत्सव महंगाई का है, बेरोज़गारी का है, लचर कानून व्यवस्था का है या फिर पिछले पांच सालों में जितने घपले-घोटाले हुए है उनसे जनता का ध्यान भटकाने के लिए है?
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किसानों-मजदूरों के दिलों में राज करने वाले जनकवि रामधारी सिंह दिनकर के एक काव्य ग्रंथ का नाम है, "हारे को हरिनाम है"। यानी तुम्हारे कृत्य की पराजय। अमावस की रात की तरह ऐसी स्याह और प्रगाढ़ पराजय, जिसमें जीत की कोई आशा ही न बची हो। तब एक मद्धिम सी रोशनी की तरह उम्मीद बंधाता है-हरि का नाम। कुछ ऐसा ही हाल है भाजपा का, जो महंगाई, बेरोजगारी और बदहाल कानून व्यवस्था को सुधारने के मामले में बुरी तरह फेल हो चुकी है। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने समृद्धि और विकास की जो लफ्फाजी की थी, वह अबकी किसान आंदोलन में ध्वस्त हो गई। किसानों-मजदूरों के घरों में यह बात पहुंच गई है कि मोदी सिर्फ अंबानी-अडानी के आदमी हैं। ऐसे में भाजपा सरकार के पास सिर्फ एक ही सहारा बचा है। और वो हैं बनारसियों के नाथ-काशी विश्वनाथ।

काशी विश्वनाथ कारिडोर का लोकार्पण करने पीएम नरेंद्र मोदी धूम-धड़ाके के साथ बनारस पहुंचे हैं। इस मेगा इवेंट को कामयाब बनाने के लिए मोदी-योगी सरकार और भाजपा ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया है। बनारस के जाने-माने राजनीतिक विश्लेषक प्रदीप कुमार कहते हैं, "यूपी चुनाव में भाजपा की इमेज दांव पर लग गई है, क्योंकि उसकी मसीहाई छवि को किसान आंदोलन ने पलीता लगा दिया है। इस आंदोलन ने जो नैरेटिव पैदा किया उससे भाजपा का न सिर्फ का सांप्रदायिक चेहरा उजागर हुआ, बल्कि संघर्षों की आंधी में अच्छे दिन के झूठे सब्जबाग तार-तार हो गए। मोदी-योगी के पास कुछ बचा है तो सिर्फ नारा और हिन्दुत्व का सहारा। इसीलिए वह विकास कार्यों को छोड़कर काशी विश्वनाथ कारिडोर में मेगा इवेंट के जरिए अपनी पांच साल की नाकामियों, गलतियों और गड़बड़ियों को तोपने की कोशिश कर रही है। विश्वनाथ मंदिर में जो कुछ हो रहा है उससे एक बड़ा सवाल खड़ा हुआ है कि आखिर ये किस बात के लिए और कैसा महोत्सव है? जनता जानना चाहती है कि यह महोत्सव महंगाई का है, बेरोजगारी का है, लाचर कानून व्यवस्था का है या फिर पिछले पांच सालों में जितने घपले-घोटाले हुए है उनसे जनता का ध्यान भटकाने के लिए है?

संसद पर हमले के दिन बेशर्मी का ढोल-नगाड़ा

प्रदीप यह भी कहते हैं, "दुनिया में ऐसा कहीं देखने को नहीं मिलेगा, जहां तकरीबन छह-सात माह पहले अनगिनत लाशें गंगा में उतराई हुई मिली हों, लोग कतरा-कतरा सांसों के लिए तड़पकर मर गए हों, वहां शोक के बजाए जश्न मनाया जाए। शायद यह समूची दुनिया में अनोखा उदाहरण होगा। मेगा इवेंट का दिन भी ऐसा चुना जिस रोज दहशतगर्दों ने भारत की संसद पर हमला कर देश की संप्रभुता को बड़ी चुनौती दी थी। आज के दिन तो आंतक से मुकाबले का संकल्प दिवस मनाया जाना चाहिए था। मोदी सरकार और भाजपा को इन बातों पर अफसोस जाहिर करने के बजाए पूरी बेशर्मी के साथ ढोल-नगाड़े बजवा रही है, जिससे बनारस ही नहीं, देश का सभ्य समाज हैरान है।"

काशी विश्वनाथ धाम का लोकार्पण करने बनारस पहुंचे मोदी दो दिनों तक शहर में प्रवास करेंगे। इस दरम्यान वह शहर में आयोजित होने वाले विभिन्न समारोहों में हिस्सा भी लेंगे। अब से पहले मोदी पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान बनारस में तीन दिनों तक रूके थे। उस समय भाजपा प्रत्याशियों की प्रतिष्ठा दांव पर लग गई थी। मोदी के मेगा इवेंट को सुर्खियों में लाने के लिए अखबारी इश्तहारों पर पानी की तरह पैसे बहाए जा रहे हैं। दरबारी मीडियाकरों का एक बड़ा रेला भी दिल्ली और लखनऊ से बनारस पहुंच गया है।

मोदी-योगी सरकार को खुश करने के लिए बनारस शहर के तीन-चार अखबार पिछले बीस दिनों से विश्वनाथ कारिडोर पर अजब-गजब की कहानियां गढ़ रहे हैं। दावा यह किया जा रहा है कि साल 1669 में अहिल्याबाई होल्कर ने काशी विश्वनाथ मंदिर का पुनरुद्धार कराया और उसके करीब 352 साल बाद मोदी ने। यह इवेंट नहीं, बल्कि विश्वनाथ कॉरिडोर के जरिये अपने आततायी अतीत को सुधारने का संकल्प है। इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि एक हजार साल के अन्याय का प्रतिकार बिना किसी ध्वंस के हुआ है।

बाबा का सहारा लेकर मोदी ने किया शिवद्रोह!

मीडिया के झूठे-सच्चे दावों पर बनारसियों को तनिक भी यकीन नहीं है। सत्ता चाहे जिसकी भी रही, कभी किसी ने काशी विश्वनाथ मंदिर परिसर को न तो व्यापार का केंद्र बनाया और न ही इसका राजनीतिककरण किया। ऐन चुनाव से पहले बनारस में जिस तरह का मेगा इवेंट हो रहा है उसमें बनारसियों की तनिक भी रुचि नहीं है। काशी विश्वनाथ का नियमित दर्शन करने वाले भक्त वैभव कुमार त्रिपाठी मोदी के मेगा इवेंट से खासे नाराज हैं। वह कहते हैं, " बाबा का सहारा लेकर मोदी ने शिवद्रोह किया है। बनारस के हर प्रबुद्ध नागरिक को पता चल चुका है कि जिस जगह स्कंद पुराण रचा गया, उस पीठ और कई पुरातन मंदिरों को ढहा दिया गया। उन धरोहरों पर बुल्डोजर चलवा दिया गया जहां सालों-साल से लाखों लोगों की आस्थाएं जुड़ी हुई थीं। ध्वंसलीला का महिमामंडन करने वालों का सर्वनाश तय है। शिव किसी के कान में आकर नहीं कहेंगे कि वो तांडव करने जा रहे हैं। कुछ वक्त गुजरने दीजिए,  वह अच्छी तरह से समझा देंगे।"  

"जो लोग सर्वनाश के भागीदार बनेंगे उन्हें भी माफी नहीं मिलने वाली। विश्वनाथ मंदिर में इसलिए इवेंट किया जा रहा है, क्योंकि भाजपा नेताओं की रैलियों में भीड़ नहीं जा रही है। भाजपा के लोग समझ रहे हैं कि बाबा के नाम पर इमोशन जगा देंगे, पर अब ऐसा होने वाला नहीं है। सभी को पता चल गया है कि यह इवेंट सिर्फ चुनाव को प्रभावित करने के लिए आर्गेनाइज किया गया है। पश्चिम में भाजपा के लोग गांवों से खदेड़े जा रहे हैं। कहीं ठौर नहीं मिला तो पूर्वांचल में धमा-चौकड़ी मचाने आ गए गए हैं। कारिडोर परिसर में तमाम मूर्तियां और विग्रह इस तरह से रखे गए हैं जैसे वो कोई सामान हों। आज यहां तो कल वहां। विश्वनाथ मंदिर से दिव्य अनुभूति गायब हो गई है। मार्बल लगाकर मंदिर परिसर को चमकाने वालों को शायद यह पता ही नहीं है कि मंदिर आस्था का केंद्र है, व्यापार और सत्ता का नहीं।"

काशी विश्वनाथ कारिडोर में आयोजित कार्यक्रम को दरबारी मीडिया मुक्ति का उत्सव बता रही है। मीडिया रिपोर्ट्स में दावा किया जा रहा है कि मोदी की इसी मुक्ति कामी चेतना ने काशी विश्वनाथ मंदिर के एक हजार साल पुराने गौरव को लौटाया है। यह समझाने की कोशिश की जा रही है कि 11वीं सदी तक इस मंदिर की शक्ल ऐसी ही थी, जैसी मोदी ने बनवाई है। 17वीं सदी में औरंगजेब ने इसे तोड़ने का आदेश दिया। तब संस्कृत पढ़ने वाला उनका भाई दारा शिकोह बागी हो गया। दारा शिकोह ने औरंगजेब और इस्लाम से बगावत कर दी। तब औरंगजेब ने 18 अप्रैल, 1669 को मंदिर तोड़ने का फरमान जारी किया। 

‘थर्मस फ्लास्क’ में सांस ले रहे थे बाबा

दिल्ली में रहने वाले बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हेमंत शर्मा पीएम मोदी के पक्ष में खड़े दिखते हैं। वह "अमर उजाला" अखबार में लिखते हैं, "साल 1752 से लेकर 1780 तक मराठा सरदार दत्ता जी सिंधिया और मल्हारराव होल्कर ने मंदिर की मुक्ति के प्रयास किए। लेकिन साल 1777 और 80 के बीच इंदौर की महारानी अहिल्या बाई होल्कर को सफलता मिली।  उन्होंने मंदिर तो बनवा दिया, लेकिन वह पुराना वैभव और गौरव नहीं लौटा पाईं। साल 1836 में महाराजा रणजीत सिंह ने इसके शिखर को स्वर्ण मंडित कराया। पर भगवान शंकर मंदिरों के ‘थर्मस फ्लास्क’ में सांस लेते रहे। धीरे-धीरे मंदिर परिसर ऐसी बस्ती में बदल गया जिसके घरों में प्राचीन मंदिर कैद हो गए। कॉरिडोर बनवा कर पीएम मोदी ने अहिल्याबाई होल्कर के सपनों को विस्तार दिया है। परिसर के प्राचीन मंदिर जो चुराकर घरों में कैद कर लिए गए थे, उन्हें मुक्त कराया है।"

पत्रकार हेमंत शर्मा के इस लेख पर वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कुमार तल्ख टिप्पणी करते हैं। वह कहते हैं, "अहिल्याबाई होल्कर ने विश्वनाथ मंदिर का पुनरुद्धार तो जरूर कराया, लेकिन कहीं अपने नाम का न शिलापट् लगवाया और न ही ढोल-नगाड़ा बजवाया। अखबारों में लफ्फाजी लिखने की प्रतियोगिताएं भी पहली बार देखने को मिल रही हैं। महाराणा रणजीत सिंह ने जब विश्वनाथ मंदिर के कलश को स्वर्ण मंडित कराया तब भी उन्होंने उसका प्रचार नहीं किया। वह लोकार्पण भी करने नहीं आए। इसके बावजूद वह जनश्रुतियों में रहे और इतिहास बन गए। किसी भी राजा ने काशी विश्वनाथ मंदिर का राजनीतिककरण करके कोई फायदा नहीं उठाया। दरबारी मीडियाकर और अंधभक्त मोदी को अहिल्याबाई और महाराजा रणजीत सिंह के समक्ष खड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन बनारस की सांस्कृतिक विरासत पर बुल्डोजर चलवाने वालों को बनारस की जनता कभी माफ नहीं कर पाएगी। साथ ही वो सांस्कृतिक प्रेमी भी जो बनारस की पेचदार और खनकती गलियों में सुकून ढूंढने आया करते थे।"  

"गांव की लोग" की संपादक अपर्णा कहती हैं, "मोदी पहले यह बताएं कि वह देश के प्रधानमंत्री हैं या फिर हिन्दू नेता। विश्वनाथ मंदिर को लेकर जितनी कथाएं प्रचलित हैं उनके आधार पर मीडिया किस तरह का नैरेटिव गढ़ रही हैं। मीडिया जो नैरेटिव गढ़ रही है वह किसके हक में गढ़ रही है? विश्वनाथ मंदिर का जो नए सिरे से महिमामंडन किया जा रहा है और मोदी को महान नायक बताया जा रहा है उसका मुनाफा अंततः किसके हिस्से में जाएगा? आज संसद पर हमले की बरसी का दिन है। देश की संप्रभुता और लोकतंत्र पर जो हमला हुआ था उसके बारे में बीजेपी ने कोई रुख स्पष्ट नहीं किया? अलबत्ता उसी दिन विश्वनाथ मंदिर में उत्सवीकरण का तामझाम फैला दिया। मीडिया उसके पीछे के निहतार्थ को स्पष्ट करती तो अच्छा होता। उसे तो यह सवाल उठना चाहिए कि विश्वनाथ मंदिर के पुनरुद्धार के लिए जो पैसा आया, उसमें कितना चंदे का है और कितना सरकार ने दिया है? चंदे के पैसे को आस्था का पैसा मान लें तो सरकार से यह सवाल पूछने की जिम्मेदारी किसकी है? हिन्दुस्तानी नागरिकों का पैसा मंदिर में क्यों लगाया गया?  क्या किसी भी संप्रभु सरकार का काम धार्मिक स्थलों में पैसा लगाने  और जश्न मनाने का है?

पीएम नरेंद्र मोदी यूं ही बनारस नहीं आए हैं। वह हर उस अवसर को बारीकी से समझते हैं, जिससे जनता को लुभा सकें। जब मौका चुनाव का हो तो ऐसे अवसरों का लाभ लेने में तो वह कभी चूकते ही नहीं। यूपी में चुनाव नजदीक है। मंदी, महंगाई, बेरोजगारी जैसे मुद्दों के शीर्ष पर होने के कारण सरकार की हालत नासाज है। जनता बीजेपी के प्रति उदासीन है। जनता का रुख बदलने के लिए भाजपा नारे और जुमले गढ़ रही है, मेगा इवेंट भी कर रही है।

दिव्यता व भव्यता के बीच छत्तीस का आंकड़ा

वरिष्ठ पत्रकार विनय मौर्य कहते हैं, "मोदी को लगता है कि काशी विश्वनाथ कारिडोर इमेज सुधारने का जरिया है। उन्हें लगता है कि उनका नया नारा "भव्य काशी, दिव्य काशी-चलो काशी" हवा में तैरेगा। यह बात किसे नहीं मालूम कि दिव्यता और भव्यता के बीच छत्तीस का आंकड़ा होता है। जहां भव्यता होगी, वहां दिव्यता हो ही नहीं सकती। दिव्यता का रिश्ता आस्था से है और भव्यता का वैभव से। आस्था और वैभव का साथ भारतीय संस्कृति और अध्यात्म में कभी नहीं रहा। आसान शब्दों में समझा जा सकता है कि सत्ता और संत दो अलग-अलग चीजें हैं। संत का सत्ता के दरबार में क्या काम? यहां तो संतों और धर्माचार्यों को भाजपा नेताओं का दरबार सजाने में लगा दिया गया है। अगर सिर्फ दिव्यता की बात है तो काशी विश्वनाथ कारिडोर का लोकार्पण चारों पीठ के शंकराचार्यों से करना चाहिए था, पीएम नरेंद्र मोदी से तो कतई नहीं।"

चुनावी विश्लेषकों का मानना है कि मोदी विश्वनाथ कारिडोर के जरिए समूचे उत्तर भारत को साधने का सियासी खेल दिखाना चाहते हैं। उन्हें अच्छी तरह पता चल गया है कि योगी सरकार जनता को "गुड फील" कराने में नाकाम हो चुकी है। जनता के बीच से महंगाई, बेरोजगारी, दम तोड़ती कानून व्यवस्था का जो सवाल उठ रहा है, भाजपा और मोदी के पास उसका कोई जवाब नहीं है। इसीलिए वह धार्मिक नारों, ढोल-नगाड़ों, तिलक-आरती, घंट-घड़ियाल से जन-सरोकार के मुद्दों को दबाने की कोशिश में हैं। उनका जोर आस्था पर कम, मंदिर की भव्यता और मेगा इवेंट पर ज्यादा है।

बनारस के लोग अब यह सवाल उठा रहे हैं कि अगर भाजपा सरकार मनमानी कर रही है तो विपक्ष खामोश क्यों बैठा है? इस सवाल का जवाब देते हैं पत्रकार अमितेश पांडेय। वह कहते हैं, "विपक्ष की चुप्पी किसी को हैरान कर सकती है। इसके दो कारण हो सकते हैं। पहला, विपक्ष भी साफ्ट हिन्दुत्व की तरफ बढ़ रहा है। दूसरा, यह कि विपक्ष इस मुद्दे को तूल नहीं देना चाहता। उसकी कोशिश है कि चुनाव में काशी विश्वनाथ कारिडोर मुद्दा बनने की बजाय महंगाई, बेरोजगारी और बदहाल कानून व्यवस्था समेत सरकार की तमाम नाकामियों पर ही चर्चा हो। ऐसा सपा नेता अखिलेश यादव और कांग्रेस नेत्री प्रियंका गांधी के हालिया भाषण और बयानों से साफ-साफ परिलक्षित होता है।"

“धर्म की मार्केटिंग कर रहे मोदी”

कांग्रेस के प्रदेश संगठन सचिव अनिल यादव को लगता है कि समूचे पूर्वांचल में बीजेपी के खिलाफ गुस्सा है। वह कहते हैं, "मीडिया इवेंट से भाजपा का भला होने वाला नहीं है। पश्चिम के मुकाबले पूर्वांचल में भाजपा की स्थिति थोड़ी बेहतर है। जुमला, इवेंट और हिन्दुत्व के हथियार से एक खास तबके में भाजपा ने पहचान जरूर बनाई है, लेकिन दलित और ओबीसी तबका बेहद नाराज है। योगी सरकार के कार्यकाल में यही तबका पुलिस एनकाउंटर में मारा गया। दलित उत्पीड़न के मामले में पहले बुंदेलखंड अव्वल था और अब पूर्वाचल। योगी की सरकार सामंती नीति की शिकार अति पिछड़ी जातियां अब छिटक गई हैं। खासतौर पर वो जातियां जिन्हें भाजपा ने झूठा सब्जबाग दिखाकर बुलाया और उनके सपनों को ही ठग लिया। दलितों और पिछड़ों के उत्पीड़न व दमन के सारे रिकार्ड टूट गए। धर्म के नाम पर नए सिरे से जनता को मतिभ्रम करने की कोशिश की जा रही है, लेकिन मोदी-योगी को कोई सियासी मुनाफा होने वाला नहीं है। मेगा इवेंट की तड़क-भड़क दिखाने वाली मीडिया को पूर्वांचल के उन इलाकों में भी झांक लेना चाहिए जहां दलितों-पिछड़ों को विकास के बड़े-बड़े सपने दिखाए गए थे। मौका मिलते ही उनके घरों पर बुल्डोजर चलवा दिए गए।"

मोदी से दो बार चुनावी मुकाबला करने वाले पूर्व विधायक अजय राय साफ-साफ कहते हैं, "विश्वनाथ कारिडोर में सारा ड्रामा आगामी यूपी चुनाव को प्रभावित करने के लिए हो रहा है। मोदी सरकार धर्म की मार्केटिंग कर रही है। आस्था तो मन में होती है, इवेंट से नहीं। वह हिन्दुत्व का काढ़ा मार्केटिंग करके थोड़े ही पिला पाएंगे। बनारसियों को अब लड्डू बांटने की तैयारी चल रही है। मोदी ने बनारस में कई नई मान्यताएं भी गढ़नी शुरू कर दी है। बनारस में पहले शिवरात्रि पर ही शिव बारात निकला करती थी। अबकी आयोजकों को पैसे देकर फर्जी शिव बारात निकलवाई गई, जिससे काशी की सनातन परंपरा तार-तार हो गई। मोदी ने शिव दीपावली की नई परंपरा शुरू कराई है। शहर को झालरों और रंग-रोगन से सजाया-संवारा गया है। दुख इस बात का है कि इस अधर्म पर संत समाज चुप है और प्रबुद्ध नागरिक भी। लगता है कि अब बनारस में सारी धार्मिक चीजें मोदी के ही हिसाब से चलेंगी। बनारसियों की भावनाएं चोटिल हो रही हैं तो होती रहें। इस सरकार का महंगाई और बेरोजागारी से कोई वास्ता नहीं है। सब जगह फेल हो गए हैं तो बाबा विश्वनाथ की आड़ लेने चले आए।"

काशी विश्वनाथ कारिडोर के मेगा इवेंट का सबसे अधिक खामियाजा किसी को भुगतना पड़ रहा है तो वो हैं दिहाड़ी मजदूर और ठेला-गुमटी में धंधा करने वाले। हर बार की तरह इस बार भी इन्हें शहर से खदेड़ दिया गया है। ऑटो और रिक्शा चलाने वालों को भगा दिया गया है। ठेला-ठेली, रेहड़ी चलाने वालों के अलावा वो लोग ज्यादा परेशान हैं जो रोज कुंआ खोदते और पानी पीते हैं। मोदी के इस इवेंट से आम आदमी के अंदर आक्रोश पनप रहा है।

बनारस के जाने-माने समाजसेवी जीएस चतुर्वेदी कहते हैं, "मोदी के कार्यक्रम के चलते स्कूल-कालेज बंद करा दिए जाएं तो इसे क्या कहेंगे? देश को खंड-खंड करके अखंड होने का भ्रम फैलाने वाली भाजपा के बारे में लोगों को अच्छी तरह पता चल गया है कि विश्वनाथ कारिडोर का जलसा चुनावी इवेंट है। शायद मोदी बनारस को नया सियासी गढ़ बनाने के लिए किसी नए माडल की तरह गढ़ऩा चाहते हैं। वह भूल गए हैं कि अब से पहले जितने प्रोपगंडावाद छेड़े गए, उसे बनारसियों ने शिकस्त दे दिया। किसान आंदोलनकारियों ने सोशल इंजीनियरिंग के बैरोमीटर को पहले ही ध्वस्त कर दिया हैं। ऐसे में समृद्धि लाने के लिए अब न अच्छे दिन आएंगे की लफ्फाजी चलेगी, न मथुरा और काशी के नाम पर कोई उन्माद और प्रोपगंडा चल पाएगा।"

सपा प्रवक्ता मनोज राय धूपचंडी कहते हैं, "भाजपा इतिहास मिटाने में यकीन रखती है। मोदी उस गंगा को काशी विश्वनाथ मंदिर में एकाकाकार कराने की बात कर रहे हैं, जिसमें दर्जनों नाले गिरते हैं। पीएम ने साढ़े सात सालों में गंगा को साफ कराने में कोई रुचि नहीं दिखाई। योगी का कार्यकाल बीत गया तो शहर में कास्मेटिक विकास शुरू करा दिया। वह जबरिया गंगा मैया का बेटा बन गए, लेकिन किया कुछ भी नहीं। गंगा ही नहीं, वरुणा की दुर्गति देख लीजिए। इनका नारा है सोच ईमानदर, काम दामदार, यूपी में योगी सरकार। जनता को इन नारों में तनिक भी यकीन नहीं। जनता तो यह कह रही है, "सोच जातिवादी, झूठ दमदार, ऐसी है यूपी की योगी सरकार।"

(बनारस स्थित विजय विनीत वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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