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मुनव्वर फ़ारूकी वाले मामले ने लोकतंत्र के विचार को भ्रामक बना डाला है 
इंदौर में जिस मनमाने ढंग से पुलिस और न्यायपालिका, फारुकी वाले मामले से निपट रही है, वो एक खतरनाक संदेश दे रहा है। 
मोनिका धनराज
18 Jan 2021
मुनव्वर फारुकी।
मुनव्वर फारुकी।

नए वर्ष का आग़ाज स्टैंड-अप कलाकार मुनव्वर फ़ारूकी के लिए एक कटु सत्य के साथ हुआ, जिन्हें एक ऊँची पहुँच रखने वाले दक्षिणपंथी युवा की जिद के चलते ही इंदौर में गिरफ्तार कर लिया गया। इस बारे में न्यायपालिका का कहना था कि फ़ारूकी ने हिन्दू भावनाओं को आहत किया है और साक्ष्यों के इसके विपरीत होने के बावजूद उन्हें जमानत देने से इंकार कर दिया। लेकिन जब गैर-हिन्दुओं ने अपनी आहत भावनाओं का दावा किया है तो न्यायाधीशों ने अलग तरीके से इस पर कार्यवाई की है। मोनिका धनराज लिखती हैं कि कानून के इस प्रकार से चयनात्मक तरीके से अपनाए जाने से हमारी न्याय प्रणालियों पर गहरी चिंताएं पैदा होने लगती हैं और लोकतंत्र के पोषित मानदंडों का ह्रास होने लगता है।

1 जनवरी की शाम स्टैंड-अप कामेडियन मुनव्वर फ़ारूकी इंदौर के कैफ़े मुनरो में करीब 100 लोगों के समूह के समक्ष अपने नियमित प्रदर्शन को प्रस्तुत करने वाले थे। हालाँकि जैसे ही वे मंच पर पहुंचे, स्थानीय भारतीय जनता पार्टी विधायक मालिनी गौड़ के पुत्र एकलव्य गौड़ द्वारा उन्हें बाधा पहुँचाई गई। गौड़ का कहना था कि शो को रद्द कर दिया जाना चाहिए क्योंकि फ़ारूकी ने अतीत में हिन्दू देवी-देवताओं का मजाक उड़ाने का काम किया था। 

इस घटना के व्यापक स्तर पर वायरल हुए वीडियो में फ़ारूकी को गौड़ के साथ तर्क करते हुए देखा जा सकता है, जिसमें वे कह रहे हैं कि उन्होंने अपने पिछले वीडियो, जिस पर सोशल मीडिया में हंगामा हुआ था, के लिए माफ़ी मांगते हुए एक वीडियो को यू ट्यूब पर अपलोड किया था। जनवरी 2021 के इस वीडियो में फ़ारूकी को विनम्रता के साथ गौड़ के सवालों का जवाब देते हुए देखा जा सकता है, जिसमें वे दर्शक दीर्घा में बैठे सदस्यों को शांत रहने के लिए कह रहे होते हैं जब वे गौड़ के कुछ आरोपों पर प्रतिक्रिया अपनी व्यक्त कर रहे थे।

जल्द ही गौड़ वहां से चले जाते हैं और लगा जैसे हालात शांत हो गए हैं। फ़ारूकी अपने दैन्दिन दिनचर्या को शुरू कर देते हैं। हालाँकि इसके कुछ ही मिनटों के भीतर ही आयोजन स्थल के बाहर भीड़ जमा हो जाती है और कार्यक्रम के आयोजकों को इस शो को रद्द करने के लिए मजबूर होना पड़ता है, क्योंकि आयोजन के मालिक ने अचानक से खुद के हाथ पीछे खींच लिए थे।

उस दिन फ़ारूकी ने हिन्दू देवी-देवताओं के विरुद्ध एक भी शब्द नहीं कहे थे। इसके कुछ समय बाद जल्द ही पुलिस पहुँच गई थी और उन्हें और साथ में चार अन्य कामेडियनों एवं आयोजकों को हिरासत में ले लिया गया था।

गौड़ की शिकायत पर पुलिस ने उन सभी पाँचों के खिलाफ भारतीय दण्ड संहिता की धारा 295-ए के तहत (जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण इरादे से धार्मिक भावनाओं को आहत करने का कार्य), 298 (इरादतन धार्मिक भावनाओं को आहत करने), 269 (लापरवाही बरतने जिससे बीमारी फैलने की आशंका हो), 188 (लोक सेवक के विधिवत आदेश की अवज्ञा का कृत्य) और 34 (सामूहिक मंशा) का मामला दर्ज किया गया था।

गौड़ जो कि दक्षिणपंथी समूह हिन्द रक्षक संगठन के संयोजक भी हैं, ने प्रेस के साथ अपनी बातचीत में कहा था कि उन्होंने शिकायत इसलिए दर्ज की थी क्योंकि फ़ारूकी ने “हिन्दू देवी-देवताओं को अपमानित करने का काम किया था और गोधरा दंगों में गृह मंत्री अमित शाह का नाम घसीट कर उनका भी मजाक उड़ाया था।”

फ़ारूकी और अन्य दोषियों को 2 जनवरी के दिन मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया गया था, जिन्होंने उनकी जमानत याचिका के अनुरोध को यह कहते हुए ठुकरा दिया कि इस रिहाई से कानून और व्यवस्था के भंग होने की आशंका है। 5 जनवरी को अतिरिक्त जिला एवं सेशन जज यतीन्द्र कुमार गुरु ने एक बार फिर से उनकी जमानत याचिका ख़ारिज कर दी।

ठीक उसी दिन पुलिस ने फ़ारूकी के परिचित सदाक़त खान को भी अदालत परिसर से गिरफ्तार कर लिया। उस पर 1 जनवरी की घटना के दौरान गौड़ पर अभद्र टिप्पणी करने का आरोप लगाया गया था। 13 जनवरी के दिन सेशन कोर्ट ने भी इसी आधार का हवाला देते हुए खान की जमानत याचिका ख़ारिज कर दी।

पिछली गर्मियों की घटनाओं पर नजर डालते हैं 

15 जून 2020 को न्यूज़ 18 के न्यूज़ एंकर और मैनेजिंग एडिटर अमीश देवगन ने अपने आर-पार नामक डिबेट शो की मेजबानी करते हुए उस कार्यक्रम में 13 वीं शताब्दी के सूफी संत मोईनुद्दीन चिश्ती को “आक्रांता” और “लूटेरा” के तौर व्याख्यायित किया था, और इस बात का इशारा किया था कि उन्होंने इस्लाम को अपनाने के लिए हिन्दुओं को डराने और धमकाने का काम किया था।

रात के समय चले इस टीवी बहस के देश भर में प्रसारण के बाद, देवगन के खिलाफ राजस्थान, तेलंगाना, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में कुल सात एफआईआर दर्ज हुई थीं जिसमें उनके खिलाफ आईपीसी की धारा 153 बी (राष्ट्रीय एकीकरण पर पूर्वाग्रहपूर्ण अभिकथन अभियोगपत्र), 295ए एवं 298, 153ए (धर्म के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देना, सद्भाव को बनाये रखने के खिलाफ पूर्वाग्रहपूर्ण कृत्य) एवं 505(2) के तहत (विभिन्न वर्गों के बीच में घृणा या दुर्भावना पैदा करने वाले बयान देना) दायर किये गए थे।

22 जून को देवगन की ओर से संविधान के अनुच्छेद-32 के तहत अंतरिम राहत के लिए एक याचिका दाखिल की गई थी। 26 जून को जब उनकी याचिका सुनवाई के लिए पेश की गई थी तो उस दौरान भी देवगन को गिरफ्तार नहीं किया गया। इसके बजाय सर्वोच्च न्यायालय ने अपने अंतरिम आदेश को पारित करने के दौरान अगली सुनवाई तक के लिए एफआईआर पर किसी भी अगली कार्यवाही पर रोक लगा दी और देवगन को किसी भी दण्डात्मक कार्रवाई से सुरक्षा प्रदान कराने का आदेश दिया।

7 दिसंबर को देवगन के खिलाफ एफआईआर को रद्द करने की मांग करने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर से पुलिस को किसी भी प्रकार की दण्डात्मक कार्यवाई न करने के निर्देश दिए थे और कहा था कि जब तक वे जांच में सहयोग करते हैं, उन्हें अंतरिम राहत मिलती रहेगी।

अलग-अलग लोग, अलग-अलग कानून?

जब इसका प्रसारण सारे देश में हो रहा था तो लाखों लोगों ने देवगन के शो को देखा और सुना था। सबसे पहली बात तो यह है कि इसमें पुलिस द्वारा कभी भी गिरफ्तारी नहीं की गई, उपर से अदालत द्वारा अनीश देवगन की भविष्य में गिरफ्तारी के खिलाफ भी सुरक्षा मुहैय्या करा दी गई। फ़ारूकी के मामले से इतने गहरे विरोधाभास का उदाहरण शायद ही कहीं देखने को मिले। कई प्रत्यक्षदर्शियों के कथनानुसार फ़ारूकी ने 1 जनवरी के दिन हिन्दू देवी-देवताओं के खिलाफ एक भी आपत्तिजनक शब्द नहीं कहे थे। इस शो के तमाम वीडियो भी इस बात की पुष्टि करते हैं। इतना ही नहीं, इंडियन एक्सप्रेस अख़बार से अपनी बातचीत में तुकोजी गंज पुलिस थाने के थाना प्रभारी कमलेश शर्मा ने इस बात की पुष्टि की कि “उनके खिलाफ हिन्दू देवी-देवताओं या केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह को अपमानित करने के कोई सबूत नहीं हैं।” इंडिया टुडे को भी उन्होंने यह बताया था “शिकायतकर्ताओं द्वारा दी गई दो वीडियो फुटेज की हमने जांच की है। उनमें भी कुछ भी दुर्भावनापूर्ण नहीं पाया गया है।” इस प्रकार उक्त घटना की इन कई वीडियो में इस बात की पुष्टि हो जाती है कि उसने कुछ भी गलत नहीं किया था। इस सबके बावजूद उन्हें पुलिस हिरासत में ले लिया गया। इससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण उनके परिचित खान की गिरफ्तारी का मामला रहा। जब उन्हें हिरासत में ले जाया जा रहा था तो पुलिस की मौजूदगी में ही एक व्यक्ति ने खान को गाली दी और थप्पड़ मारा था।

इस हमले का एक वीडियो भी सोशल मीडिया में शेयर किया जा रहा है, और दक्षिणपंथी समूहों के कई समर्थक और सदस्य इस हमलावर की जमकर वाहवाही कर रहे हैं। पुलिस ने इस शख्स की भी गिरफ्तारी नहीं की है। इसके बजाय उनके द्वारा इस पर कोई कार्रवाई न करते हुए और कानून का उल्लंघन करते हुए एक मोटरसाइकिल में दो पुलिसकर्मियों के बीच में खान को ठूंसकर वहां से जाते हुए रिकॉर्ड किया गया, जिसमें उनमें से किसी ने भी हेलमेट नहीं पहन रखा था। 

खान को 1 जनवरी वाली घटना की वीडियो में देखा जा सकता है, जिसमें वे स्थिति को काबू में करने और फ़ारूकी को बचाने की कोशिश करते दिख सकते हैं। जब खान के वकील तर्क पेश किया कि उनके मुवक्किल को झूठे आधार पर गिरफ्तार किया गया है और इसलिए उन्हें जमानत दी जानी चाहिए तो इस मामले की सुनवाई कर रहे अतिरिक्त सेशन जज का कहना था कि चश्मदीद गवाहों और वीडियो सबूत दर्शाते हैं कि खान भी दूसरों के साथ आरोपकर्ता के खिलाफ गाली-गलौज करने में शामिल थे, जब वे लोग शो को रोकने की कोशिश कर रहे थे। उसके नाम का उल्लेख पहली नोटिस में है और इसलिए सदाकत खान भी हिन्दू धार्मिक भावनाओं को आहत करने में शामिल है, जिसमें हिन्दू देवी-देवताओं के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणियां करने और महिलाओं और बच्चों को आपत्तिजनक चीजें दिखाने का अपराध शामिल है।”

न्यायाधीश के अनुसार आरोपी ने “उन्माद भड़काया” और “उसे जमानत देने से कानून-व्यवस्था को बनाये रखने में समस्या उत्पन्न होने का अंदेशा है, क्योंकि समाज का एक वर्ग इससे नाराज हो सकता है।”

मजेदार तथ्य यह है कि जब खान को जमानत दिए जाने आपत्ति जताते हुए पुलिस ने भी तर्क रखा कि एक वीडियो में खान को फ़ारूकी का बचाव करते हुए देखा जा सकता है।

जमानत, न कि जेल 

इंदौर की अदालत ने फ़ारूकी, खान और बाकियों को जमानत देने से इंकार करते हुए स्पष्ट तौर पर जमानत दिए जाने की स्थापित मान्यताओं से विचलन का काम किया है। वे जमानत के मामले में न्यायशास्त्र के आधार पर भी गलत हैं। 1977 में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश वीआरकृष्ण अय्यर ने राजस्थान सरकार बनाम बालचंद मामले में कहा था कि जमानत देने से इंकार करना अनुच्छेद 21 के तहत किसी व्यक्ति की निजी आजादी पर प्रतिबंध है। उन्होंने कहा,  

“मूल नियम को संभवतया जमानत के तौर पर संक्षिप्त किया जाना चाहिए, न कि जेल में। सिवाय जहाँ पर परिस्थितियां न्याय से भागने या न्याय की प्रक्रिया को विफल करने की कोशिशों का इशारा करती हों या अपराध की पुनरावृति या गवाहों को डराने-धमकाने और इस प्रकार के अन्य कृत्य...।”

मोती राम बनाम एमपी मामले में भी न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर के विचार में, 

 “प्री-ट्रायल बंदीकरण के अपने गंभीर दुष्परिणाम हैं। संभावित निर्दोष प्रतिवादियों को जेल की जिंदगी में मनोवैज्ञानिक एवं शारीरिक अभावों के अधीन रहना पड़ता है जो कि आम तौर पर दोषी प्रतिवादियों की तुलना में कहीं अधिक गंभीर परिस्थितियां होती हैं। जेलों में बंद प्रतिवादी के पास यदि कोई नौकरी है तो वह उसे खो देता है, और उसे अपने बचाव के लिए की जा सकने वाली तैयारियों से रोक दिया जाता है। उतनी ही महत्वपूर्ण बात यह है कि उसके बंदी बनाये जाने से उसके परिवार के निर्दोष सदस्यों पर अक्सर इसका भारी दबाव पड़ता है।”

इन सिद्धांतों की पुष्टि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गई है और बारम्बार इसे दोहराया गया है। अभी हाल ही में अर्नब मनोरंजन गोस्वामी बनाम महराष्ट्र राज्य वाले मामले में, जहाँ न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ और इंदिरा बनर्जी की पीठ ने कहा “अदालतों को जमीन पर मौजूदा हालत के प्रति संवेदनशील रहना चाहिए- जेलों और पुलिस स्टेशन में जहाँ पर मानवीय गरिमा का कोई रक्षक नहीं है। हमारे हाथ में जो काम प्राथमिक जिम्मेदारी के तौर पर है, वह है सभी नागरिकों की स्वतंत्रता को संरक्षित रखने का दायित्व। हम ऐसे किसी दृष्टिकोण को लागू नहीं कर सकते हैं, जिसके इस बुनियादी उसूल को उलटे रूप में अमल में लाने के दुष्परिणाम देखने को मिलें।”

पीठ ने उच्च न्यायालयों और न्यायपालिका की अन्य शाखाओं द्वारा जमानत दिए जाने के लायक मामलों में जमानत न दिए जाने को लेकर भी खिंचाई की। यह पाया गया कि जिला न्यायपालिका “भले ही पदानुक्रम में अधीनस्थ की भूमिका में हो, लेकिन नागरिकों की जिंदगियों के महत्व को लेकर या उन्हें न्याय मुहैया कराने के कर्तव्य के सन्दर्भ में कहीं से भी अधीनस्थ नहीं है।

इसके चलते उच्च न्यायालयों को इसका बोझ वहन करना पड़ता है, जब अदालतें पहले उदाहरण में अग्रिम जमानत देने या योग्य मामलों में जमानत देने से इंकार कर देती हैं। यही क्रम सर्वोच्च न्यायालय में भी देखने को मिलता है, जब उच्च न्यायालय कानून के दायरे के अंतर्गत आने वाले मामलों में  जमानत या अग्रिम जमानत नहीं देते हैं।”

इसके अलावा फ़ारूकी एक स्टैंड-अप कामेडियन हैं, और एक ऐसी कला का प्रदर्शन करते हैं जिसमें दर्शकों पर इच्छित प्रभाव डालने के इरादे से तथ्यों की जगह पर कल्पना और अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन को शामिल किये जाने का चलन है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने आशुतोष दूबे बनाम नेटफ्लिक्स मामले में उल्लेख किया था कि रचनात्मक कलाकार की आजादी, लोकतंत्र का सारतत्व है। अदलात का कहना था “समाज की कुरीतियों को उजागर करने का यह एक प्रमुख प्रारूप है जिसमें उसके एक व्यंग्यात्मक स्वरुप को चित्रित किया जाता है। स्टैंड-अप कामेडियन उसी उद्देश्य को प्रदर्शित करते हैं। अपने चित्रण में वे व्यंग्य को इस्तेमाल में लाते हैं और खराबियों को इस हद तक बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं कि यह उपहास का पात्र बन जाता है। समाज की बुराइयों को मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत करने के लिए स्टैंड-अप कामेडियन व्यंग्य का सहारा लेते हैं।”

वास्तव में दोषी कौन है?

जिस मनमाने तरीके से इंदौर में पुलिस और न्यायपालिका, फ़ारूकी वाले मामले से निपट रही है उससे रूह कंपा देने वाले सन्देश को भेज रही है। यह दर्शाता है कि असहमति की आवाज के साथ कोई व्यक्ति कितना बेबस हो सकता है। यह हमें इस तथ्य से अवगत कराता है कि न्याय तक पहुँच बना पाने का अधिकार और कानून की समान सुरक्षा की गारंटी का अधिकार प्रत्येक नागरिक को उपलब्ध नहीं है। यह आवश्यक संवैधानिक सिद्धांतों जैसे कि बोलने की आजादी, समानता और जीने, एवं निजी स्वतंत्रता के अधिकार का हनन करता है। यह लोकतंत्र और संविधान के अन्तस्तल को अपवित्र करने का काम करता है, और ऐसा करते हुए यह उन लाखों लोगों को आहत करने का काम करता है जो लोकतंत्र में भरोसा रखते हैं।

मूल तौर पर यह लेख द लीफलेट में प्रकाशित हुआ था।

(मोनिका धनराज एक वकील हैं, जिन्होंने एनयूजेएस, कोलकाता से स्नातक की पढ़ाई की है। कानून और समाज कैसे एक दूसरे को प्रभावित करते हैं, को लेकर इनकी गहन रूचि है। एक स्वघोषित तर्कवादी के तौर पर अपनी कानून की पढ़ाई के दूसरे वर्ष से ही क्वांटिटेटिव एप्टीट्युड सिखा रही हैं। व्यक्त विचार उनके खुद के हैं।)

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Munawar Faruqui Case Makes Idea of Democracy Illusory

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India
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