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बतकही: अब तुमने सुप्रीम कोर्ट पर भी सवाल उठा दिए!

“क्या तुम किसी की बात नहीं मानोगे…। हम तुम्हे मनमानी नहीं करने देंगे। अपनी 26 जनवरी ख़राब नहीं करने देंगे।”
बतकही: अब तुमने सुप्रीम कोर्ट पर भी सवाल उठा दिए!

पड़ोसी आज बहुत गुस्से में थे। इसलिए आप की जगह शुरू में ही तुम पर उतर आए। और मुझे देखते ही गोला दाग दिया- अब तुमने सुप्रीम कोर्ट पर भी सवाल उठा दिए!

अच्छा, नहीं उठाने थे क्या!

नहीं, मतलब तुम सुप्रीम कोर्ट पर कैसे सवाल उठा सकते हो!

जैसे आप उठाते रहे हो

मैं....हम...हम तो कभी भी नहीं

क्यों आपने नहीं कहा था कि अगर सुप्रीम कोर्ट राममंदिर के पक्ष में फ़ैसला नहीं देगा, तो आप नहीं मानेंगे।

अयं, हां...हूं...पड़ोसी पहले ही जवाब पर बगले झांकने लगे। ...तो हमने कोई सवाल उठाया तो नहीं, फ़ैसला मान लिया न।

पड़ोसी के इस मासूम जवाब पर हँसी भी नहीं आई। अच्छा, आपके पक्ष में फ़ैसला आया तो आपने मान लिया।

तो क्या हुआ। वहां मंदिर था, तो मंदिर के पक्ष में फ़ैसला आना ही था। इसमें क्या ग़लत है। मतलब तुम कह रहे हो कि सुप्रीम कोर्ट ने ग़लत फ़ैसला दिया।

नहीं, बिल्कुल सही फ़ैसला दिया। कितना बढ़िया फ़ैसला दिया यह मानते हुए कि- वहां 16वीं सदी से बाबरी मस्जिद थी, 1949 में वहां मूर्तियां रखना गैरक़ानूनी था, आपराधिक षड़यंत्र के तहत 6 दिसंबर 1992 को मस्जिद गिरा दी गई, लेकिन फिर भी वहां मंदिर बनना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट ने ख़ुद कहा, “यह एकदम स्पष्ट है कि 16वीं शताब्दी का तीन गुंबदों वाला ढांचा हिंदू कारसेवकों ने ढहाया था, जो वहां राम मंदिर बनाना चाहते थे। यह ऐसी ग़लती थी, जिसे सुधारा जाना चाहिए था।

तुम कहना क्या चाहते हो। तुम्हे आख़िर सुप्रीम कोर्ट पर अविश्वास क्यों है?

मेरी छोड़िए, आपको अविश्वास क्यों था। आपने क्यों कहा था कि आस्था का मसला कोर्ट में हल नहीं हो सकता।

वो तो पुरानी बात है। जबसे मोदी जी सत्ता में आए हैं तबसे तो हमें पूरा विश्वास था कि सुप्रीम कोर्ट मंदिर के पक्ष में ही फ़ैसला देगा। आपको याद नहीं हमने 2014 के बाद से ही कहना शुरू कर दिया था कि सुप्रीम कोर्ट का जो फ़ैसला होगा, हम मानेंगे।

वाह!...आप और आपका मानना। ...आपका मानना भी आपकी सुविधा के अनुसार है। फिर आपने सबरीमाला का फ़ैसला क्यों नहीं माना। क्यों रिवीज़न कोर्ट में गए। क्यों आपके नेता ने कहा कि कोर्ट को ऐसा फ़ैसला नहीं देना चाहिए जो लागू न कराया जा सके। भूल गए हों तो पढ़िए 2018 के अख़बार। क्या कहा था उस समय के भाजपा अध्यक्ष और आज के गृहमंत्री अमित शाह ने- उन्होंने सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश से जुड़े सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सवाल उठाते हुए कहा था कि अदालत को वही फ़ैसले सुनाने चाहिए, जिनका पालन हो सके। उन्होंने कहा सरकार और कोर्ट को आस्था से जुड़े मामलों में फ़ैसले सुनाने से बचना चाहिए। ऐसे आदेश नहीं देने चाहिए जो लोगों की आस्था का सम्मान नहीं कर सकें।

मतलब अब कोर्ट न्याय-अन्याय की बजाय लोगों की आस्था और भावनाओं के अनुसार फ़ैसला देगा।

तुम कहना क्या चाह रहे। मैं तुमसे सवाल पूछ रहा था, और तुम उलटे मुझसे ही सवाल पूछने लगे कि मैं सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का सम्मान नहीं करता। कांग्रेस से क्यों नहीं पूछते कि उसने शाहबानो का फ़ैसला क्यों पलट दिया था।

आप फिर लौटकर आ गए कांग्रेस पर। अरे कांग्रेस ने जो किया, उसे उसका ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा।

मतलब तुम मुसलमानों से कोई सवाल नहीं पूछोगे!

हा हा, अब आप कांग्रेस से कूदकर हिन्दू-मुसलमान पर आ गए। अपनी असलियत पर...। मैं पड़ोसी की हरक़त (रणनीति) पर मुस्कुराया। भाई मैं संघी और मुसंघी में कोई फ़र्क़ नहीं करता।

मेरी बात सुनकर पड़ोसी जी तिलमिला गए। क्या बात करते हो तुम। मैं कह रहा हूं कि सुप्रीम कोर्ट की बात तुम्हें माननी ही होगी।

भाई मैं कौन होता हूं मानने या न मानने वाला। मैं किसान तो नहीं।

नहीं, पर उनके समर्थक तो हो

हां, वो तो हूं। सौ फ़ीसदी हूं। और आपको भी होना चाहिए। आप ही दिल्ली बॉर्डर पर जाकर किसानों को समझा दीजिए कि चार सदस्यीय जो कमेटी सुप्रीम कोर्ट ने बनाई है वो बिल्कुल निष्पक्ष है।

इसे पढ़ें : शुक्रिया सुप्रीम कोर्ट...! लेकिन हमें इतनी 'भलाई' नहीं चाहिए

आप किसानों को समझा दीजिए कि कृषि विशेषज्ञ कहे जाने वाले पद्मश्री अशोक गुलाटी इन क़ानूनों के पैरोकार नहीं हैं। उन्होंने नहीं लिखा कि कृषि क़ानून सही दिशा में आगे बढ़ा हुआ एक कदम हैं और विपक्ष भटकाव की स्थिति में है। 1 अक्टूबर 2020 को द इंडियन एक्सप्रेस में लिखा उनका लेख पढ़िए। और ये आज की बात नहीं वे शुरू से ही नवउदारवार के पैरोकार हैं।

उनके अलावा दूसरे सदस्य अनिल घनावत शेतकारी संगठन महाराष्ट्र के अध्यक्ष हैं। जो सरकार से अपील कर चुके हैं कि ये क़ानून वापस नहीं लिये जाने चाहिये।

इस कमेटी के एक और सदस्य जो अब कमेटी छोड़ने की बात कह रहे हैं, पूर्व सांसद भूपिन्द्र सिंह मान अखिल भारतीय किसान संयोजन समिति के अध्यक्ष हैं। ये वही अखिल भारतीय किसान संयोजन समिति है जिसने कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर से मिलकर क़ानूनों का समर्थन किया था।

चौथे सदस्य डॉ. प्रमोद कुमार जोशी साउथ एशिया अंतर्राष्ट्रीय फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट के निदेशक हैं। जो कृषि बाज़ार को नियंत्रण मुक्त करने की वकालत करते रहे हैं।

विस्तार से इनके बारे में जानने के लिए आप हमारे साथी राज कुमार का यह लेख पढ़िए- सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाई गई कमेटी के चारों सदस्य कृषि क़ानूनों के समर्थक हैं

तुम समझाने की बात कर रहे हो या भड़काने की।

अब आप जो समझो। आपकी कमेटी जिस लायक हो वो समझा दीजिए।

नहीं, तुम चाहे कुछ भी कहो। हम तुम्हे मनमानी नहीं करने देंगे। अपनी 26 जनवरी ख़राब नहीं करने देंगे।

अच्छा आपकी 26 जनवरी!

जानते हैं 26 जनवरी को क्या हुआ था?

हां, क्या बिल्कुल बेवकूफ़ समझ रखा है। 26 जनवरी 1950 को हमारे देश का संविधान लागू हुआ था। इतना तो हम जानते हैं।

तो ये भी जानते होंगे कि आप और आपके वैचारिक पिता कभी भी इस संविधान को नहीं मानते थे। उनके अनुसार तो जातिवादी और दलित व महिला विरोधी मनु स्मृति ही देश का संविधान होना चाहिए था।

भारत की संविधान सभा ने 26 नवंबर, 1949 को संविधान का अनुमोदन किया था। इसके 4 दिन के भीतर आरएसएस ने अपने अंग्रेज़ी मुखपत्र 'आर्गनाइजर' (नवम्बर 30) में एक सम्पादकीय लिखा, जिसमें कहा गया- 'हमारे संविधान में प्राचीन भारत में विकसित हुये अद्वितीय संवैधानिक प्रावधानों का कोई ज़िक्र नहीं है। मनु के क़ानून, स्पार्टा के लयकारगुस और ईरान के सोलोन से बहुत पहले लिखे गए थे। मनुस्मृति में प्रतिपादित क़ानून की सारे विश्व प्रशंसा होती है और अनायास सहज आज्ञाकारिता पाते हैं। लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए ये बेकार हैं।'  

क्या आपने इसे नहीं पढ़ा!

आपने तो कभी तिरंगे झंडे को भी मान न दिया। आपके संगठन ने क्या कहा था हमारे तिरंगे के बारे पता है- पढ़िए :

स्वतंत्रता की पूर्वसंध्या पर जब दिल्ली के लाल किले से तिरंगे झण्डे को लहराने की तैयारी चल रही थी आरएसएस ने आर्गनाइज़र के 14 अगस्त, 1947 वाले अंक में राष्ट्रीय ध्वज के बारे में लिखा- वे लोग जो किस्मत के दाँव से सत्ता तक पहुँचे हैं वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगे को थमा दें, लेकिन हिंदुओं द्वारा न इसे कभी सम्मानित किया जा सकेगा न अपनाया जा सकेगा। तीन का आँकड़ा अपने आप में अशुभ है और एक ऐसा झण्डा जिसमें तीन रंग हों बेहद ख़राब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुक़सानदेय होगा - आर्गनाइज़र, 14 अगस्त, 1947.

इससे पहले भी संघ ने ऑर्गनाइज़र के 17 जुलाई, 1947 के "राष्ट्रीय ध्वज" शीर्षक वाले संपादकीय में, "भगवा ध्वज" को राष्ट्रीय ध्वज स्वीकार करने की मांग की थी।

अब कुछ साल पहले जाकर नागपुर में आपके मुख्यालय पर तिरंगा फहराया है, वरना तो हमेशा भगवा ही लहराता था।

और आज आप तिरंगे और 26 जनवरी की दुहाई दे रहे हो। जबकि 26 जनवरी का मान संविधान से है। आप और आपके संगठन ने कभी न संविधान को मान दिया, न संविधान के रचनाकार को। बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर आपकी आंखों में आज भी खटकते हैं। उनका नाम लेना आपकी और आपके नेताओं की मजबूरी है, लेकिन उनके विचार से आपका दूर का भी नाता नहीं। आप तो आज भी इस कोशिश में हो कि किस तरह इस संविधान को बदलकर हिंदूराष्ट्र जिसे मैं अंधराष्ट्र कहता हूं की स्थापना की जाए।   

पड़ोसी मुझे घूर-घूरकर देख रहे थे। बोले अभी शाखा में जा रहा हूं। लौटकर बात करता हूं।

मैंने कहा- ज़रूर। इंतज़ार रहेगा।

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