नज़रिया: पीएफ़आई पर प्रतिबंध, यानी मुसलमानों का दानवीकरण

पापुलर फ्रंट ऑफ़ इंडिया (पीएफ़आई) को ग़ैरक़ानूनी संगठन घोषित करते हुए उस पर पांच साल के लिए प्रतिबंध लगाने की केंद्र की घोषणा का साफ़ मतलब है, मुसलमानों का दानवीकरण करना।
इस कार्रवाई से केंद्र की हिंदुत्ववादी भारतीय जनता पार्टी सरकार और उसके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह विभाजनकारी संदेश एक बार फिर दे दिया है कि मुसलमान और उनके संगठन भारत के लिए ख़तरनाक हैं और उनसे बातचीत या डायलॉग करने की ज़रूरत नहीं है—उनसे सिर्फ़ सरकार की हथियारबंद ताक़त से निपटा जाना चाहिए।
पीएफ़आई पर प्रतिबंध की इस कार्रवाई से नरेंद्र मोदी सरकार ने एक और काम किया हैः देश के सार्वजनिक सामाजिक-राजनीतिक जीवन से मुसलमानों को ओझल/ग़ायब कर देने (बहिष्करण exclusion) की प्रक्रिया को और तेज़ करना। यह नरेंद्र मोदी की मातृसंस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चिर-परिचित हिंदुत्व एजेंडा का ख़ास हिस्सा है।
पीएफ़आई पर प्रतिबंध सिर्फ़ इसलिए लगाया गया है कि वह मुसलमानों का संगठन है। अगर वह हिंदुओं का संगठन होता, तो उस पर प्रतिबंध हरगिज़ न लगता। बहुत-सारे हिंदू/हिंदुत्ववादी संगठन, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष जुड़े हुए हैं, कैमरा और माइक्रोफ़ोन चालू करके खुलेआम ग़ैरकानूनी बर्बर गतिविधियों को अंजाम देते फिरते हैं। लेकिन उनका बाल भी बांका नहीं होता।
इस प्रतिबंध को हमें इस्लामोफ़ोबिया (इस्लाम से डर और नफ़रत) के संदर्भ में देखना होगा, जो भारत-समेत दुनिया के कई देशों में पिछले कुछ दशकों में सरकारी तौर पर पाला-पोसा गया है। इसने संस्थाबद्ध रूप ले लिया है।
भारत में 2014 में कट्टर हिंदुत्ववादी नेता और गुजरात हिंसा-2002 के मामले में बदनाम रहे नरेंद्र मोदी के पहली बार प्रधानमंत्री बनने के बाद से इस्लामाफ़ोबिया का सैलाब आ गया है। पीएफ़आई पर प्रतिबंध उसी का हिस्सा है।
इसे आगामी लोकसभा चुनाव (2024) से भी जोड़कर देखा जाना चाहिए। इस चुनाव में जाने और फिर से इसे जीतने के लिए नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी को कुछ ‘नये औजार’ चाहिए, ताकि बहुसंख्यकवादी/हिंदुत्ववादी आख्यान को और ज़्यादा कर्कश, और ज़्यादा डरावना, और ज़्यादा क़ामयाब बनाया जा सके। 2019 में यह ‘औजार’ पुलवामा ने उपलब्ध कराया था।
28 सितंबर 2022 को भारत सरकार ने ग़ैरक़ानूनी गतिविधि निरोधक क़ानून (यूएपीए), 1967 के तहत पीएफ़आई को ग़ैरकानूनी संगठन घोषित किया और उस पर पांच साल के लिए प्रतिबंध लगा दिया। सरकार के गृह मंत्रालय की ओर से कहा गया कि पीएफ़आई ‘आतंकवादी गतिविधियों के संचालन’ में लगा हुआ है और इसके लिए वह देश में और देश के बाहर से ‘धन जुटाता रहता है’। सरकार ने यह भी कहा कि पीएफ़आई ‘देश की सुरक्षा के लिए ख़तरा’ है।
गृह मंत्रालय के तहत काम करनेवाली राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने देश भर में पीएफ़आई के कई दफ़्तरों/ठिकानों पर छापा मारा, तलाशी-ज़ब्ती की, और संगठन के कई नेताओं/कार्यकर्ताओं को गिरफ़्तार किया। गिरफ़्तार किये गये लोगों की संख्या 200 से ऊपर बतायी जाती है। इन सब के ख़िलाफ़ और पीएफ़आई के ख़िलाफ़ एनआईए की ओर से जो एफ़आईआर (प्रथम सूचना रिपोर्ट) दर्ज करायी गयीं, उनमें वे आरोप लगाये गये हैं, जिनका ज़िक्र ऊपर किया जा चुका है।
ग़ौर करने की बात है कि ये सब अभी आरोप हैं, सबूत नहीं, और उन्हें अदालत में साबित होना बाक़ी है। लेकिन अदालत में मामला जाने, मुक़दमा शुरू होने और फ़ैसला आने में कई साल लग सकते हैं। तब तक पीएफ़आई के नेताओं/कार्यकर्ताओं को जमानत दिये बग़ैर, जेलों में रखा जायेगा। यही केंद्र सरकार की मंशा लगती है।
भीमा कोरेगांव-16 (बीके-16) का मामला याद करिये। ये विचाराधीन बंदी चार सालों से जेलों में बंद हैं और मुक़दमा शुरू होने का इंतजार कर रहे हैं। इनमें से एक बंदी जेल में ही चल बसा। दो बंदी फ़िलहाल ज़मानत पर जेल से बाहर हैं।
(लेखक कवि व राजनीति विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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