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सामाजिक कार्यकर्ताओं की देशभक्ति को लगातार दंडित किया जा रहा है: सुधा भारद्वाज

जेल में अपने तजुर्बों का हवाला देते हुए और कामगारों की नुमाइंदगी करने वाली एक वकील के तौर पर जानी-मानी कार्यकर्ता कहती हैं कि भारत अब भी संविधान में किये गये इंसाफ़ और बराबरी के वादों को साकार करने से दूर है।
Sudha Bharadwaj

जब सुधा भारद्वाज को 28 अक्टूबर 2018 को उसी साल हुई भीमा कोरेगांव हिंसा को भड़काने में उनकी कथित भूमिका के लिए गिरफ़्तार कर लिया गया था, तो देश में अविश्वास की लहर दौड़ गयी थी। इसके पीछे की वजह काफ़ी हद तक उनके वर्गगत पृष्ठभूमि और असरदार अकादमिक रिकॉर्ड थी। एक जाने-माने अर्थशास्त्री की बेटी भारद्वाज ने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान(IIT), कानपुर से उस गणित विषय में पांच साल का इंटिग्रेटेड कोर्स किया था, जो विषय सबसे ज़्यादा हैरान और परेशान करने वाला माना जाता है। मध्यम वर्ग इस बात से चकित था कि उन्होंने भारतीय नागरिकता ग्रहण करने के लिए अपना अमेरिकी पासपोर्ट और राष्ट्रीयता तक को छोड़ दिया था। उन्हें लेकर यह बात दिमाग़ में उठती है कि एक आराम की नौकरी करने के बजाय वह छत्तीसगढ़ के औद्योगिक कामगारों के बीच काम करने चली गयीं। साल 2000 में वह उन कामगारों के मुकदमों को लड़ने के मक़सद के साथ एक वकील बन गयीं, जिन्हें अक्सर बड़े कॉरपोरेट्स के ख़िलाफ़ खड़े होने को लेकर परेशानी झेलनी पड़ती थी।

तक़रीबन तीन साल जेल में बिताने के बाद भारद्वाज पिछले महीने ज़मानत पर रिहा हुई थीं। उनकी ज़मानत की शर्तें उन्हें भीमा कोरेगांव मामले पर बोलने और मुंबई छोड़ने पर रोक लगाती हैं, हालांकि अब उन्हें ठाणे में रहने की इजाज़ता दे दी गयी है। न्यूज़क्लिक ने उनसे इस मामले पर कोई सवाल नहीं पूछा, और उन्होंने विनम्रता के साथ ऐसे किसी भी सवाल का जवाब देने से इनकार कर दिया, जिसके बारे में उन्हें लगा कि इसका जुड़ाव कहीं से भी तय की गयी उन शर्तों के साथ है। इस साक्षात्कार के पहले हिस्से में भारद्वाज ने जेल के क़ैदियों साथ अपनी बातचीत के आधार पर उन क़ैदियों के लिए गणतंत्र दिवस, संविधान और क़ानून के मायने पर बात की है।

आपने पिछले तीन गणतंत्र दिवस जेल में ही बिताये हैं। जेल में इस दिन को किस तरह मनाया जाता था?

हमने 2019 और 2020 के गणतंत्र दिवस समारोह को जेल की सलाखों से देखा था।

हमने?

प्रोफ़ेसर शोमा सेन (भीमा कोरेगांव मामले में एक आरोपी) और मैं। 2019 में पुणे की यरवदा जेल में हम फ़ांसी या मौत की सज़ा पाये क़ैदियों वाली कोठरी में थे, हालांकि इसे हल्के तौर पर बताने के लिए सेपरेट यार्ड के रूप में बताया जाता था।

एक गलियारे वाले किसी ऐसे बड़े पिंजरे की कल्पना करें, जिसके आगे काली कोठरियां हों। सेन मेरे बगल की कोठरी में थीं। वहां दो अन्य महिलायें थीं, दोनों को मौत की सज़ा सुनायी गयी थी। वे 25-26 साल से जेल में थीं और अपनी फ़ांसी का इंतज़ार कर रही थीं। हमें धूप लेने के लिए दोपहर 12 बजे से दोपहर 12.30 बजे के बीच 30 मिनट के अलावे पिंजरे जैसे उस ढांचे से बाहर निकलने की इजाज़त नहीं थी। उन 30 मिनटों में बाक़ी क़ैदी बैरक के भीतर रहते थे। 

सलाखों के बीच के सुराख के ज़रिये हम पेड़ों और खेलते हुए बच्चों को देख सकते थे (हंसते हुए)...छह साल से कम उम्र के बच्चों को जेल में अपनी मां के साथ रहने की इजाज़त होती है और इस तरह, दो साल तक हमने जेल की सलाखों से गणतंत्र दिवस समारोह को देखा था।

क्या यह मुंबई की उस भायखला जेल में भी अलग था, जहां आपको और सेन को फ़रवरी 2020 में उस समय स्थानांतरित कर दिया गया था, जब भीमा कोरेगांव मामले को पुणे पुलिस से ले लिया गया था और राष्ट्रीय जांच एजेंसी को सौंप दिया गया था?

भायखला में तो मैं दूसरों के साथ बैरक में रहती थी। भायखला एक प्रीतिकर जगह थी। गणतंत्र दिवस 2021 पर हम झंडा फहराने के लिए दूसरों के साथ खड़े होते थे। जेलों में तो यह समारोह ऐसे ही होता है। जेल अधीक्षक और उनके अधीनस्थ कर्मचारी अच्छी तरह से आयरन किये हुए वर्दी पहनकर झंडे को सलामी देते हैं। जेल अधीक्षक लंबा भाषण नहीं देते थे। (हंसते हुए) वे हम सभी को गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं देते थे। हमें बूंदी और वड़े मिलते थे। (हंसते हुए)

भायखला के मुक़ाबले यरवदा जेल में समारोह थोड़ा ज़्यादा बढ़िया ढंग से संपन्न होता था, क्योंकि यह एक सेंट्रल जेल है। गणतंत्र दिवस से कुछ दिन पहले वे उस जगह की रंगाई-पुताई और सफ़ाई कराते थे। कुछ महिला क़ैदी 26 जनवरी के समारोह के लिए सुबह-सुबह सुंदर रंगोली बनाने आती थीं,जो कि छोटी-छोटी और प्यारी भी होती थी। (हंसते हुए)

जेल में बंद क़ैदियों के लिए गणतंत्र दिवस और संविधान के क्या मायने हैं?

(हंसती हैं) जेल के क़ैदी बाहर के लोगों से बहुत अलग नहीं होते हैं। मसलन,दलित समुदाय और अम्बेडकरवादियों के मन में इस संविधान के प्रति भावनात्मक भाव इसलिए हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि इसी संविधान से उन्हें अधिकार हासिल हुए हैं। यह बात उन आदिवासियों को लेकर भी काफ़ी हद तक सही है, जिन्हें लगता है कि [पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम], पांचवीं अनुसूची और छठी अनुसूची उन्हें संविधान से मिले हैं और इन्हें इनसे दूर नहीं किया जाना चाहिए। वास्तव में झारखंड और छत्तीसगढ़ में पत्थलगड़ी आंदोलन लोगों के इसी विश्वास का नतीजा था कि उनके पास अपनी ज़मीन पर वह जन्मजात अधिकार हैं, जो कि संविधान में निहित हैं।

मैं एक मज़दूर संघ (छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा) से जुड़ी हुई हूं। हम गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस को उत्साह के साथ मनाते थे, क्योंकि हमारा विश्वास है कि संविधान में निर्देशक सिद्धांतों के चलते ही श्रम क़ानून बनाये गये हैं।

लेकिन, निश्चित ही रूप से जेल की सज़ा से संविधान को लेकर नज़रिया तो बदल जाता होगा ?

जेल में बंद लोग संविधान को लेकर नहीं सोचते। लेकिन, वे आपराधिक क़ानून में अपने हक़ों को लेकर बहुत जागरूक हैं। वे ख़ासकर अपने साथ हुए नाइंसाफ़ी को गहराई से तब महसूस करते हैं, जब उन्हें ज़मानत देने से इनकार कर दिया जाता है, या कहानी के उनके पहलू की पर्याप्त नुमाइंदगी नहीं होती है, या इसलिए कि जांच अधिकारियों ने उन्हें ग़लत तरीक़े से फ़ंसाने के लिए पैसे लिये हों या जब वकीलों ने उन्हें धोखे दिये हों या फिर जब उनके मामलों में बेहद देरी हो रही हो। वही इंसान किसी शख़्स के साथ हुई नाइंसाफ़ी को गहराई से महसूस कर करता है,जिसके ख़ुद के साथ ज़ुल्म हुआ हो।

जेल में रहने के दौरान क्या कभी आपके सामने यह नाइंसाफ़ी दिखी ?

सुप्रीम कोर्ट ने 23 मार्च, 2020 को स्वत: संज्ञान लेते हुए आदेश दिया था कि कोविड-19 महामारी के कारण जेलों को बंद कर दिया जाये। 24 मार्च को प्रधान मंत्री ने राष्ट्रीय स्तर पर लॉकडाउन का आदेश दे दिया। 25 मार्च को भायखला जेल में महिलाओं ने अनायास अपना नाश्ता और दोपहर का खाना खाने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा, "हमें रिहा करो, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने विचाराधीन क़ैदियों को रिहा करने का आदेश दे दिया है।" (हंसते हुए) उन्होंने कहा था कि वे इस वायरस से (जेल के बजाय) अपने परिवार के लोगों के साथ मरना पसंद करेंगे।

इसे लेकर इस क़दर हंगामा हुआ था कि जेल अधिकारी दहशत में आ गये थे। जेल अधीक्षक ने कहा था कि वह उन लोगों के लिए अंतरिम ज़मानत पाने की कोशिश करेंगे, जिन्हें दोष सिद्ध हो जाने पर सात साल से कम की सज़ा होगी। उन्होंने हमसे अपने बैरक में लौट आने का अनुरोध किया था। हर शख़्स बेहद उत्तेजित था।

ऐसा लगता है कि वे इस तरह  की ख़बरों पर बहुत बारीक़ नज़र रखते हैं।

वे कोर्ट से जुड़ी ख़बरों पर बहुत बारीक़ नज़र रखते हैं। जब आर्यन ख़ान (फ़िल्म स्टार शाहरुख़ ख़ान का बेटा) जेल में था, तो लोग दिन-रात टीवी देखते थे। वे कहते थे, "बेचारा, वह जेल से कब बाहर आयेगा ?" भायखला जेल में आर्यन को लेकर ग़ज़ब की सहानुभूति थी। (हंसती हैं)।

बेशक, एनडीपीएस(नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट) के तहत मामले में क़ैद किये गये लोग कह रहे थे, "हमारे मामले में भी आर्यन मामले जितनी जल्दी सुनवाई होनी चाहिए।" कुल मिलाकर, भायखला जेल में सब के सब आर्यन के समर्थन में थे।

अगर दूसरे शब्दों में कहा जाये, तो जेल में बंद लोगों के लिए संविधान और क़ानून उनके साथ हुई नाइंसाफ़ी को समझने की एक कसौटी बन जाते हैं, भले ही वे सटीक प्रावधानों को जानते हों या नहीं?

वे इस बात को लेकर बहुत जागरूक हैं कि इंसाफ़ में हुई देरी इंसाफ़ से वंचित रह जाने की तरह है। महामारी के दो सालों के दौरान मुश्किल से कोई अदालती कार्यवाही हो पायी। कोई मुलाक़ात (नज़दीकी सगे-सम्बन्धियों से मुल़ाकात) भी नहीं होती थी। विचाराधीन क़ैदियों के मामले ठप हो गये थे। इसका दुखद असर पड़ा था।

मांग समुदाय की एक बुज़ुर्ग महिला मथुराबाई काले को ही लें। इस समुदाय के लोग गाते हैं और भीख मांगते हैं। उन्हें जेल में नहीं होना चाहिए था, क्योंकि उन्हें ज़मानत मिल गयी थी। लेकिन, वह 15,000 रुपये की ज़मानत का इंताज़ाम करने में असमर्थ थी। इसलिए, उन्हें रिहा नहीं किया गया और कोविड-19 से मौत हो गयी। मेरा मोटा-मोटी अनुमान है कि ऐसे 25% -30% लोग इसलिए जेल में बंद हैं, क्योंकि वे ज़मानत नहीं दे सकते।

क्या आप बता सकती हैं कि यह ज़मानत प्रणाली नाइंसाफ़ी को कैसे बनाये रखती है?

जिस शख़्स के पास किसी न किसी रूप में ज़ायदाद है, वह ज़मानतदार बन सकता है। यह ज़मानतदार की ज़िम्मेदारी होती है कि विचाराधीन व्यक्ति सुनवाई के दौरान पेश हों। अगर विचाराधीन क़ैदी ग़ायब हो जाता है, तो ज़मानतदार को पैसे (ज़मानत दिये जाने को लेकर तय की गयी रक़म) का भुगतान करना होगा।  विचाराधीन शख़्स को उस ज़मानतदार को ढूंढ़ना होता,जिसके पास ज़ायदाद हो और जिसके पास राशन कार्ड हो। विडंबना यही है कि जिनके पास राशन कार्ड होता है, वे ग़रीब होते हैं और जिनके पास ज़ायदाद होती है या तो उनके पास राशन कार्ड नहीं होते या अब राशन कार्ड के वे पात्र नहीं रह गये होते हैं।

हालांकि,एक विकल्प होता है। कोई शख़्स अदालत जा सकता है और ज़मानत आदेश को उस ज़मानत में बदल सकता है,जिसे नक़द ज़मानत कहा जाता है। अगर वह शख़्स तब भी ज़मानत राशि का भुगतान नहीं कर पाता है, तो अदालत को आदर्श रूप से उसे निजी ज़िम्मेदारी पर रिहा कर देना चाहिए। हालांकि, अगर उस शख़्स की ज़मानत का आदेश हाई कोर्ट से मिला है, तो यह संशोधित ज़मानत आदेश भी उसी अदालत का होना चाहिए। अगर वह शख़्स ग़रीब है और वकील नहीं रख सकता है, तो वह ज़मानत मिलने के बाद भी जेल से बाहर नहीं निकल सकता है।

क्या हमारे क़ानूनों में यह एक वर्गीय पक्षपात नहीं है?

(हंसते हुए) बेशक, बिल्कुल है। हुसैनआरा ख़ातून मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अगर कोई शख़्स तीन महीने में ज़मानत देने या ज़मानत राशि का भुगतान करने में असमर्थ है, तो यह माना जाना चाहिए कि वह शख़्स ग़रीब है। इसलिए, उन्हें निजी मुचलके पर रिहा किया जाना चाहिए। वह ज़माना जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर जैसे जजों का था। वे शायद यह समझ गये थे कि ग़रीब लोग जेलों में सड़ रहे हैं और यह उनकी ग़लती नहीं है कि वे ग़रीब होते हैं। क़ानून जिस तरह बनाये जाते हैं और जिस तरह उन्हें लागू किया जाता है, इनमें निश्चित रूप से वर्ग बहुत बड़ी भूमिका निभाता है।

फिर इससे हमारे संविधान का क्या?

(15 सेकंड तक लगातार हंसती हैं)। आपके इस सवाल का जवाब असल में डॉ बीआर अंबेडकर की एक टिप्पणी में निहित है। संविधान सभा में एक भाषण में डॉ अम्बेडकर ने कहा था, "26 जनवरी 1950 (जिस दिन संविधान लागू हुआ था) को  हम अंतर्विरोधों के जीवन में दाखिल हने जा रहे हैं...राजनीति में तो हम एक व्यक्ति एक वोट और एक वोट एक मूल्य के सिद्धांत को मान्यता देंगे।लेकिन, अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में हम... इसी एक व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत को खारिज करते रहेंगे।" मैं उनके इस विचार से पूरी तरह सहमत हूं। (फिर हंसती हैं)

दिसंबर, 2019 में नागरिकता संशोधन अधिनियम के ख़िलाफ़ देशव्यापी विरोध प्रदर्शन शुरू हो गये थे। इसका एक तत्व सार्वजनिक तौर पर प्रस्तावना का पढ़ा जाना था। जब इसके बारे में आपने अख़बारों में पढ़ा था, तो आपकी क्या प्रतिक्रिया थी ?

मुझे ख़ासकर दिल्ली के शाहीन बाग़ में इस तरह का विरोध को देखकर ख़ुशी हुई थी। सीएए का विरोध उन "हम, भारत के लोगों" का था, जिनके साथ हमारा संविधान शुरू होता है। यह बदक़िस्मती ही थी कि महामारी ने सीएए के उस विरोध को ख़त्म कर दिया, जो कि शायद किसान के विरोध के तर्ज पर ही बड़ी जीत हासिल करता।

एक साल बाद पूर्वोत्तर दिल्ली में दंगे हुए। गिरफ़्तार होने से पहले आप क़ानून की प्रोफ़ेसर थीं। ग़ैर-क़ानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत सीएए विरोधी प्रदर्शन की अगुवाई करने वाले नौजवान पुरुषों और महिलाओं के जेल से बाहर आने पर आपकी क्या प्रतिक्रिया थी?

मैं नताशा नरवाल, देवांगना कलिता और आसिफ़ इक़बाल तन्हा को ज़मानत देने के दिल्ली हाई कोर्ट के आदेश को पढ़ पाई थी। (ये वे कार्यकर्ता हैं, जिन पर दंगों की पटकथा लिखने का आरोप है और जिनके ख़िलाफ़  यूएपीए के तहत आरोप पत्र दायर किये गये थे।)

हालांकि, जेल में रहते हुए आपने उस ज़मानत आदेश को पढ़ने में दिलचस्पी दिखायी और उसकी एक प्रति भी हासिल की थी? यह तो अद्भुत है।

संयोग से मेरे वकीलों ने मुझे ज़मानत का आदेश दिया था, जो मुझे बहुत दिलचस्प लगा था। यूएपीए की एक धारा है, जो कहती है कि अगर प्रथम दृष्टया मामला बनता है, तो ज़मानत नहीं दी जा सकती है। यानी कि गुण-दोष के आधार पर ज़मानत मिल पाना बेहद मुश्किल है। न्यायाधीशों ने कहा था कि प्रथम दृष्टया नरवाल, कलिता और तन्हा के ख़िलाफ़ कोई मामला ही नहीं बनता है। लेकिन, इससे भी अहम बात यह है कि उन्होंने यूएपीए के दुरुपयोग की भी बात कही थी।

यूएपीए का दुरुपयोग किया गया है। (असम के नेता और विधायक) अखिल गोगोई को उनके ख़िलाफ़ यूएपीए के तहत लगाये गये आरोपों से बरी कर दिया गया था। कई मामलों में तो यूएपीए का इस्तेमाल असंतुष्टों के ख़िलाफ़ किया गया है। त्रिपुरा को ही लें, जहां वकीलों के एक समूह ने सांप्रदायिक दंगों की घटनाओं की जांच की थी। न सिर्फ़ उन बकीलों,बल्कि सोशल मीडिया पर उन वकीलों की रिपोर्ट को पोस्ट करने वालों पर भी यूएपीए के तहत मामले दर्ज किये गये थे। जिस सहजता से लोगों पर देशद्रोह, आतंकवाद और ग़ैरक़ानूनी गतिविधियों के आरोप लगाये जा रहे हैं, वह असहमति को लेकर बढ़ती असहिष्णुता की गवाही देता है।

क्या भारत सरकार का यह आचरण हमारे संवैधानिक मूल्यों के ख़िलाफ़ है?

बहुत ही ज़्यादा। भारत के संवैधानिक इतिहास के शुरुआती सालों में ही 1962 में केदार नाथ सिंह के दिये फ़ैसले में कहा गया था कि धारा 124 A को तब तक लागू नहीं किया जा सकता, जब तक कि कोई भाषण हिंसा को नहीं उकसाता है। पिछले सात दशकों में पुलिस धारा 124A की इस व्याख्या को समझ ही नहीं पायी है। जब पुलिस सात दशकों तक कुछ नहीं समझ सकती है, तो भविष्य में इसकी बहुत कम संभावना रह जाती है। इसलिए, धारा 124A को क़ानून की किताब से हटा दिया जाना चाहिए।

सीएए का विरोध करने पर जेल में बंद नौजवानों को लेकर आपकी क्या प्रतिक्रिया थी?

जब ज़ुल्म बढ़ जाता है, तो नौजवानों के लिए यह ज़रूरी हो जाता है कि वे इसके ख़िलाफ़ खड़े हों। मुझे ख़ुशी है कि ये लोग ऐसा ही कर रहे हैं।

प्रस्तावना अपने सभी नागरिकों के लिए "विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और अराधना की स्वतंत्रता" को सुरक्षित करने का वादा करती है। क्या ये शब्द जेल में बंद विचाराधीन क़ैदियों के लिए एक क्रूर मज़ाक लगते हैं?

जेल में आपको अराधना की पूरी आज़ादी होती है (खुलकर हंसते हुए)। लंबे समय से जेल में बंद लोग काफ़ी निराश महसूस करते हैं। वे अपने लिए दुआ करने में लग जाते हैं। मुसलमान नमाज़ अदा करते हैं, हिंदू व्रत (उपवास) रखते हैं और गणपति की पूजा करते हैं, और ईसाई हलेलुय (भक्तिगीत) गाते हैं। जेल में बंद कई महिलाओं को उनके परिवारों ने छोड़ दिया है। कम से कम पुरुषों से उनकी पत्नियां मिलने आती है। (हंसती हैं)। ऐसे लोग भी हैं, जिनके पास कोई वकील ही नहीं हैं। वे इस बात में यक़ीन करने के लिए मजबूर हो जाते हैं कि क़िस्मत ही  उन्हें जेल ले आयी है और क़िस्मत ही उन्हें जेल से बाहर निकालेगी। उनकी यह धर्मपरायणता उनकी भक्ति नहीं, बल्कि उनकी लाचारी का नतीजा है। यह बहुत दुखद है।

क्या आपने जेल में रहते हुए धर्म का रुख़ किया?

मैं ऊपर वालों में यक़ीन करने वाली आस्तिक नहीं हूं। लेकिन,हां, इंसानों में बहुत यक़ीन करती हूं।

वास्तव में विचार और अभिव्यक्ति की आज़ादी विचाराधीन क़ैदियों के लिए तो नहीं है?

(हंसते हुए) निश्चित रूप से आपको एकजुट और संगठित नहीं होना चाहिए। आपको किसी की ओर से बोलना नहीं है।

जब भी किसी विचाराधीन क़ैदी को जेल भेज दिया जाता है और उससे भी बुरी बात यह है कि वह दोषी ठहराये बिना ही जेल के भीतर सालों बिता देता है, तो क्या "व्यक्ति की गरिमा" हासिल करने के संवैधानिक वादे का उल्लंघन नहीं होता है ? हमारे न्यायशास्त्र में तो किसी आरोपी को तब तक निर्दोष माना जाता है, जब तक कि वह दोषी साबित न हो जाये।

जब मैं यरवदा जेल के भीतर दाखिल हुई थी, तो मुझे दरवाज़े से लगे कमरे में जाने के लिए कहा गया था। शाम का वक़्त था, जगह अजीब थी, और मुझे अपने कपड़े उतारने के लिए कहा गया।"ठीक है, मैं क़ानून की नज़र में अपराधी हूं"(हंसते हुए), लेकिन इससे मेरे भीतर की गरिमा को चोट पहुंची थी। क़दम-क़दम पर गरिमा की पट्टी होती है। बिना किसी की ओर देखे और "चाची, जल्दी करो” कहे बिना तो स्नान करना भी संभव नहीं होता है।" (हंसते हुए) दूसरों को परेशान करने के जोखिम के चलते आप रात में खर्राटे लेने से भी डरते हैं।

पुणे की यरवदा जेल में बंद होने से पहले आप 2018 में दो महीने के लिए नज़रबंद थीं। क्या विचाराधीन क़ैदियों को जेल में बंद करने के बजाय उनके साथ व्यवहार करने का एक अपेक्षाकृत ज़्यादा मानवीय तरीक़ा नज़रबंदी नहीं हो सकती है?

अगर किसी शख़्स के पास घर है और उसके पास काम पर गये बिना भी उस घर में रहने के लिए पर्याप्त बैंक बैलेंस है, तो कृपया उन्हें हाउस अरेस्ट करें। लेकिन, निश्चित रूप से विचाराधीन क़ैदी इतने गरीब होते हैं कि उनके पास घर नहीं होते और उन्हें रोज़ी-रोटी के लिए बाहर जाना पड़ता है।

ऐसे में आख़िर रास्ता क्या है? हमने कई विचाराधीन क़ैदियों को एक दशक या उससे भी ज़्यादा समय तक जेलों में बंद रखे रहा और फिर उन्हें बरी कर दिया गया। यह तो बेहद क्रूरता है।

सवाल यह नहीं होना चाहिए कि हम विचाराधीन क़ैदियों को जमानत देते हैं या नहीं ? सवाल तो यह होना चाहिए कि क्या उन्हें जेल जाने की ज़रूरत भी है ? इस बात की जांच की जानी चाहिए कि क्या आरोपी फ़रार हो सकता है या उनके पास सबूतों से छेड़छाड़ करने या पुलिस को प्रभावित करने के साधन हैं।

ये मानदंड किसी और से कहीं ज़्यादा ग़रीबों पर लागू होने चाहिए। जब एक कमाने वाले को जेल में डाल दिया जाता है, तो ज़रा उनके परिवारों, ख़ासकर उनके बच्चों की दुर्दशा की कल्पना करें। वे कैसे जीवित रहते होंगे ? ये विचाराधीन क़ैदी वकीलों को किस तरह भुगतान कर पायेंगे ? जेल के क़ैदियों के बीच रह रहे इन ग़रीबों के सिर पर छत थी; उनके पास दो समय का भोजन था, उनके पास डॉक्टर थे,लेकिन  फिर भी महामारी की दो लहरों के दौरान वे जेल से बाहर निकलना चाहते थे। मैंने एक दोस्त-एक बेघर भिखारी को ज़मानत दिलाने में मदद की थी। वह भायखला जेल छोड़ना चाहती थी।

इसके पीछे का मनोविज्ञान क्या है?

तमाम चीज़ों के बावजूद लोगों के लिए आज़ादी बहुत क़ीमती होती है। (हंसते हुए)

बतौर एक कार्यकर्ता आपने सालों तक मज़दूर वर्ग और ग़रीबों के साथ काम किया है। हमने सभी नागरिकों को इंसाफ़ और बराबरी हासिल करने को लेकर प्रस्तावना में किये गये संवैधानिक वादे को किस हद तक साकार किया है?

हम इंसाफ़ और बराबरी के वादे को साकार करने से बहुत दूर हैं। फिर भी एक वादे के तौर पर उनका होना बेहद अहम है। हमें यह विश्वास दिलाया गया है कि भारत के विकास के इस मॉडल का कोई दूसरा विकल्प नहीं है। लेकिन, नीति निर्देशक सिद्धांतों में कहा गया है कि धन को कुछ लोगों के बीच केंद्रित नहीं किया जाना चाहिए और देश के संसाधनों का इस्तेमाल ज़्यादा  से ज़्यादा संख्या में लोगों के हित में किया जाना चाहिए।

मैं उन लोगों से असहमत हूं, जो यह कहते हैं कि (इंदिरा गांधी ने 42 वें संशोधन के ज़रिये) समाजवाद शब्द को जबरन संविधान में डाल दिया था और इसलिए इसे हटा दिया जाना चाहिए। समाजवाद संविधान में उल्लेखित  निर्देशक सिद्धांतों, पांचवीं और छठी अनुसूची और इसी तरह के दूसरे प्रावधानों में स्पष्ट होता है।

क्या आपको लगता है कि सियासी क़वायदों और संवैधानिक वादों के बीच की खाई समय के साथ बढ़ी है?

हां, निश्चित ही रूप से। हमने शुरुआत में बड़े क़दम उठाये थे। लेकिन, जैसे ही दक्षिणपंथी अर्थशास्त्र सत्ता पर काबिज हुआ, वैसे ही देश की हालत खराब होती गयी। जब मैं जेल से बाहर आयी, तो मेरे लिए सबसे चौंकाने वाली बात यह थी कि हमारे समाज में नफ़रत कितनी गहराई तक जा चुकी है। जब मुझे गिरफ़्तार किया गया था, तो हालात काफी ख़राब थे। लिंचिंग शुरू हो गयी थी। लेकिन, अब तो नफ़रत वाली सभायें (तथाकथित धर्म संसद के सिलसिले में) खुले तौर पर नरसंहार का आह्वान करती हैं।

क्या आपको लगता है कि राजपथ पर परेड करने से बेहतर कोई और तरीक़ा गणतंत्र दिवस मनाने का है?

परेड हमारे सैन्य कौशल को प्रदर्शित किये जाने को लेकर ज़्यादा है। आज जब आप देशभक्ति की बात करेंगे, तो लोग तुरंत सैनिकों वाली देशभक्ति के बारे में सोचेंगे। आशा कार्यकर्ताओं (मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता) की देशभक्ति के बारे में क्या कहा जाना चाहिए ? उनकी तरह की देशभक्ति को तो दंडित किया जा रहा है। मैं एक ऐसे सैनिक को जानती हूं, जिन्हें कारगिल युद्ध के लिए मेडल मिला था। वह राजस्थान स्थित अपने गृहनगर में अवैध खनन के खिलाफ लड़ाई लड़ते रहे हैं। जिस हद तक उन्हें पुलिस ने प्रताड़ित किया है, वह अविश्वसनीय है। उनका कहना है कि उन्होंने देश के लिए लड़ाई लड़ी, लेकिन आज उनकी सुनने वाला कोई नहीं है।

तो आप क्यो सोचती हैं कि गणतंत्र दिवस किस तरह मनाया जाये?

मुझे लगता है कि प्रस्तावना को सार्वजनिक तौर पर पढ़े जाने का विचार एक अद्भुत विचार है। शायद हर मोहल्ले, हर गांव में इसके पढ़े जाने का इंतज़ाम हो। शायद लोगों को एक दूसरे से बात करनी चाहिए और प्रस्तावना को लेकर अपनी समझ को गहरा करना चाहिए। यह महज़ बराबरी और आज़ादी को लेकर ही बात नहीं करती,बल्कि उस भाईचारे के बारे में भी बात करती है, जो काफी उपेक्षित शब्द है। भाईचारा इसलिए अहम है, क्योंकि हम सभी बहुत अलग-अलग हैं। तमिलनाडु के लोग कश्मीर के लोगों से बहुत अलग हैं और इसी तरह, केरल के लोग पूर्वोत्तर के लोगों से बहुत अलग हैं। हमें एक दूसरे की संस्कृति का सम्मान करना चाहिए।

(सुधा भारद्वाज के साथ साक्षात्कार का दूसरा भाग 27 जनवरी को प्रकाशित किया जायेगा। इस दूसरे भाग में वह छत्तीसगढ़ के औद्योगिक श्रमिकों के लिए काम करने को लेकर अपने वर्गगत विशेषाधिकारों को छोड़ने, अपनी अमेरिकी नागरिकता को छोड़ने की वजह, श्रमिकों के यूनियन बनाने का के पीछे के मक़सद, जेल में बीती ज़िंदगी, अपनी बेटी से अलग किये जाने, और उनका इंतजार कर रहे अनिश्चित भविष्य के बारे में बात करती हैं।)

एजाज़ अशरफ़ एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Patriotism of Social Activists is Increasingly being Punished: Activist Sudha Bharadwaj

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