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राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को संविधान की भावना को बरक़रार रखना  चाहिए

क्या उपराष्ट्रपति की मिमिक्री/नकल पर बोलने से सर्वोच्च पद का कोई उद्देश्य पूरा होगा?
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फाइल फ़ोटो। PTI

यह काफी असाधारण सी बात है कि भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू एक विपक्षी नेता द्वारा उपराष्ट्रपति की नकल करने के मुद्दे पर भारत के उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ का बचाव करने उतर गई। दरअसल, वे तब चुप थीं जब धनखड़ ने कई मौकों पर ऐसे काम किए जो संविधान के वादों और आदर्शों के खिलाफ जाते थे।

राष्ट्रपति, जिन्होंने "संविधान की रक्षा, उसके संरक्षण और बचाव" की शपथ ली है, तब चुप क्यों थीं जब धनखड़ ने केशवानंद भारती के फैसले पर सवाल उठाते हुए एक स्पष्ट बयान दिया था? उस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संसद, संविधान के मूल ढांचे में संशोधन नहीं कर सकती है। धनखड़ ने उस समय देश को नाराज़ कर दिया जब उन्होंने दावा किया था कि संसद, संविधान में संशोधन करने के मामले में सर्वोच्च संस्था है, भले उनका दावा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बरकरार रखे गए संविधान के बुनियादी ढांचे के सिद्धांत का उल्लंघन करता हो।

राष्ट्रपति के.आर. नारायणन की विरासत

राष्ट्रपति को तब हस्तक्षेप करना चाहिए था जब उपराष्ट्रपति धनखड़ ने संविधान के बुनियादी ढांचे के सिद्धांत पर अनावश्यक हमला किया था, जिसे भारत के मुख्य न्यायाधीश ने हमें मार्गदर्शन करने वाले बेहतरीन संविधान के रूप में वर्णित किया था। उनके पूर्ववर्ती, विशेष तौर पर राष्ट्रपति के॰आर॰ नारायणन, यह कहते हुए संविधान की महिमा को कायम रखने में सबसे आगे रहे कि, "हमें इस पर विचार करना होगा कि क्या यह संविधान है जिसने हमें विफल किया है और क्या ये हम हैं जिन्होने संविधान को विफल किया है।"

उन्होंने यह ऐतिहासिक बयान तब दिया था जब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी निज़ाम ने संविधान की समीक्षा करने का इरादा व्यक्त किया था। वाजपेयी ने इसकी समीक्षा करने के अपने फैसले को बदल दिया और संविधान की "कार्यप्रणाली" की समीक्षा के लिए न्यायमूर्ति एमएन वेंकटचलैया की अध्यक्षता में एक आयोग नियुक्त किया था।

जब संविधान की रक्षा की बात आई, तो नारायणन के पास संवैधानिक नैतिकता का पालन करते हुए, प्रधानमंत्री वाजपेयी का मुकाबला करने की ताकत थी। तो फिर धनखड़ की नकल राष्ट्रपति मुर्मू को बोलने पर क्यों मजबूर करती है जबकि बुनियादी ढांचे के सिद्धांत पर हमला करने पर वह चुप और उदासीन रहती हैं?

राज्यपाल की कार्रवाई पर चुप्पी

राष्ट्रपति विपक्ष शासित राज्यों के कई राज्यपालों के कार्यों पर भी चुप रहीं, खासकर तब-जब उन्होंने विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर कोई निर्णय न लेकर विधायी कार्यों को बाधित कर दिया था। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु, केरल और पंजाब की सरकारों को सुप्रीम कोर्ट का रुख करना पड़ा।

जब सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि एक अनिर्वाचित राज्यपाल लोगों द्वारा विधिवत निर्वाचित विधान सभा के निर्णयों को पलटने का काम नहीं कर सकता, तभी उनमें से कुछ राज्यपालों ने उन विधेयकों पर निर्णय लिए। पंजाब में, भारत के मुख्य न्यायाधीश डॉ. डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने 9 नवंबर, 2023 के अपने आदेश में, राज्य द्वारा पारित कुछ विधेयकों को अनुमति नहीं देने के पंजाब के राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित के रुख को अस्वीकार कर दिया था,  जिसमें राज्यपाल ने विधानसभा सत्र की वैधता पर ही सवाल उठा दिया गया था। 

शीर्ष अदालत ने राज्यपाल की कार्रवाई को "आग से खेलना" करार दिया और तीखी टिप्पणी की कि "विधानमंडल के सत्र पर संदेह पैदा करने का कोई भी प्रयास लोकतंत्र के लिए बड़े खतरों से भरा होगा"।

जब सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा नियुक्त उन राज्यपालों के ऐसे सभी कार्यों को संविधान का उल्लंघन करने के लिए जिम्मेदार ठहराया, तो तब भी आप चुप रहीं। उन्हें तब कहना चाहिए था कि वे जो कर रहे हैं वह संविधान को नकारना है, जिस संविधान के "संरक्षण, रक्षा और बचाव" की शपथ वे बंधी हैं। राष्ट्र की प्रमुख होने के नाते, उन्हें धनखड़ की मिमिक्री के 'मुद्दे' पर विपक्षी दलों के साथ शामिल होने से बचना चाहिए था, जिसका संविधान से कोई लेना-देना नहीं है।

राष्ट्रपति का नाम राजनीति में घसीटा जा रहा है

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को प्रधानमंत्री और गृहमंत्री सहित भाजपा नेतृत्व द्वारा घसीटा जा रहा है, जिन्होंने हाल के चुनाव अभियानों के दौरान बड़ा मजबूत दावा किया था कि भाजपा ने पहली बार गणतंत्र के सर्वोच्च पद पर किसी आदिवासी महिला को चुना है। ऐसा करते हुए, उन्होंने चुनावी मुकाबले के दौरान समर्थन हासिल करने के लिए परोक्ष रूप से राष्ट्रपति के पद पर बैठे व्यक्ति को घसीटा।


यह निश्चित रूप से उस राष्ट्रपति के उस दफ्तर की छवि और गरिमा को चोट पहुंचाना है, जिसे राजनीतिक दलों और उनके विचारों से ऊपर रहना चाहिए। यह उचित होता यदि राष्ट्रपति मुर्मू ने भाजपा नेतृत्व से चुनाव अभियानों में उनका नाम न लेने की अपील की होती। यह समझ से परे है कि वह सत्तारूढ़ दल के इन पक्षपातपूर्ण विचारों का विरोध क्यों नहीं करतीं हैं।

मणिपुर पर चुप्पी

सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी के बावजूद कि राज्य मशीनरी लोगों के जीवन और आज़ादी की रक्षा करने में विफल रही है, मुर्मू मणिपुर में जारी हिंसा पर भी चुप रहीं। उन्हें यह मामला उठाना चाहिए था क्योंकि शासन का संवैधानिक विचार पूरी तरह से ध्वस्त हो गया था। संविधान के रक्षक के रूप में, उन्हें मौलिक कानून की रक्षा में एक स्टैंड लेना चाहिए था, खासकर जब इसका उल्लंघन किया जा रहा हो, और मोदी शासन इस पर चुप्पी साधे हुए हो।

जब मणिपुर में हिंसा राज्य में हमारी संवैधानिक सुरक्षा को नष्ट कर रही थी, तो वह संघर्षग्रस्त इलाके के लोगों के लिए मरहम का काम कर सकती थी। इससे उनका कद ऊंचा हो जाता। लेकिन धनखड़ की नकल/ का मुद्दा उठाने से उनके सर्वोच्च पद का उद्देश्य कैसे पूरा होगा? अब समय आ गया है कि सर्वोच्च पद की गरिमा को बरकरार रखा जाए और उसकी रक्षा की जाए। मिमिक्री

लेखक ने भारत के राष्ट्रपति केआर नारायणन के ऑफ़िसर ऑन स्पेशल ड्यूटि के रूप में कार्य किया है। व्यक्त विचार निजी हैं।

इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

President Draupadi Murmu Must Uphold the Constitution

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