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रांची : पैग़ंबर के अपमान के विरोध में प्रदर्शन के दौरान हुई 10 जून की हिंसा को किसने भड़काया?

शुक्रवार के विरोध प्रदर्शन के सिलसिले में सोशल मीडिया मैसेज किसने भेजे? पुलिस की तादाद नाकाफ़ी क्यों थी? क्या पुलिस को उन सोशल मीडिया मैसेज की जानकारी नहीं थी? ऐसे कई सवाल हैं, जिनके जवाब की दरकार अब भी है।
jharkhand

झारखंड की रांची में 10 जून  और उसके बाद हुई सांप्रदायिक हिंसा पर दो भागों में तैयार की गयी रिपोर्ट का यह आख़िरी हिस्सा है। इस रिपोर्ट के लेखक ने दोनों समुदायों के लोगोंप्रशासन/पुलिस प्रतिनिधियों और स्थानीय पर्यवेक्षकों/पत्रकारों से बात की है। उस हिंसा के सिलसिले में सोशल मीडिया पर डाले गये वीडियो और पोस्ट की समीक्षा की गयी है और उन्हें उद्धृत किया गया हैलेकिन न्यूज़क्लिक की ओर से उनकी प्रामाणिकता को स्वतंत्र रूप से सत्यापित नहीं किया जा सकता।

रांची (झारखंड)/नई दिल्ली: रांची में हुई उस हिंसा की शुरुआत किसने कीजिसमें पुलिस ने दो नौजवानों को कथित रूप से गोली मार दी थी, निलंबित किये जा चुके भाजपा नेता नुपुर शर्मा और नवीन कुमार जिंदल की पैग़म्बर मोहम्मद पर की गयी आपत्तिजनक टिप्पणी के विरोध में 10 जून को सडक पर उतरी हज़ारों लोगों की भीड़ को नियंत्रित करने के लिए अंधाधुंध गोलियां किसने चलायी थीं ?

न्यूज़क्लिक की ओर से इस घटना की जो जांच-पड़ताल की गयी है,उससे जवाब से कहीं ज़्यादा सवाल पैदा होते हैं।

झारखंड इदारा-ए-शरिया के महासचिव मौलाना कुतुबुद्दीन रिज़वी का कहना है कि सूबे के किसी भी धार्मिक संगठन की ओर से किसी भी विरोध मार्च का आह्वान नहीं किया गया था। उनका यह भी दावा है कि "लोगों से जुमे की सामूहिक नमाज़ के बाद अपने घरों को वापस जाने का आग्रह किया गया था।"

उनका आरोप है कि पुलिस ने मुसलमानों को मारने के इरादे से उन्हें निशाना बनाया।

उन्होंने न्यूज़क्लिक को फ़ोन पर बताया, प्रशासन ने बिना कोई चेतावनी के ही फ़ायरिंग शुरू कर दी थी। भीड़ को क़ाबू करने के और भी उपाय थेलेकिन पुलिस ने उनका इस्तेमाल नहीं किया। ऐसे भी मामले हैं, जिनमें प्रदर्शनकारियों को कई-कई गोलियां लगी हैं। इससे पता चलता है कि पुलिस की मंशा ठीक नहीं थी। प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ AK-47 जैसे घातक हथियारों के इस्तेमाल का क्या मतलब है। आप (पुलिस) आतंकवादियों से तो लड़ नहीं रहे थे।

उन्होंने कहा कि पैग़म्बर पर अभद्र टिप्पणी किये जाने के इतने दिन बीत जाने के बाद भी भाजपा प्रवक्ता (नूपुर शर्मा) को अभी तक गिरफ़्तार नहीं किया गया है।

उन्होंने आगे बताया,स्वाभाविक है कि जब धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचेगी, तो लोग सड़कों पर उतरेंगे ही। सड़क पर उतरने वाले आम लोग ही थे। यह प्रशासन की ज़िम्मेदारी थी कि उन्हें मारे बिना उन्हें नियंत्रित किया जाता। उनका कहना था कि प्रदर्शनकारी नूपुर शर्मा का पुतला जलाकर लौट रहे थेलेकिन उन पर पत्थरों से हमला कर दिया गया।

हालांकिउनके दावे की स्वतंत्र रूप से पुष्टि नहीं की जा सकी है।

यह पूछे जाने पर कि इतनी बड़ी भीड़ बिना किसी लामबंदी के सड़कों पर कैसे आ जातीमौलाना ने कहा: अगर धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचती हैतो 2,000-4,000 क्या 2-4 लाख की भीड़ भी सड़कों पर आ जायेगी। अगर यह मान भी लिया जाये कि विरोध प्रदर्शन ग़ैर-क़ानूनी थातो क्या प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाना ठीक था हर कोई नूपुर शर्मा की गिरफ्तारी की मांग कर रहा थालेकिन ऐसा हुआ नहीं। इसी चलते अपना विरोध दर्ज कराने निकले लोगों में आक्रोश था।

यह पूछे जाने पर कि क्या भीड़ को नियंत्रित करना और उन्हें हिंसा पर नहीं उतरने के लिए कहना मुस्लिम धर्मगुरुओं की ज़िम्मेदारी नहीं थीउन्होंने कहा: लोगों की अलग-अलग राय है। कुछ विरोध मार्च का समर्थन कर सकते हैंजबकि दूसरे इसके पक्ष में हो सकते हैं। लेकिन, अगर नागरिक सड़क पर आते हैंतो यह पुलिस की ज़िम्मेदारी है कि वे उनकी सुरक्षा करें और सुनिश्चित करें कि कहीं भी तोड़फोड़ न हो। यह क़ानून को लागू करने वाली एजेंसियों की पूर्ण विफलता है। अगर पहले भीड़ पर पत्थर फेंका जाता हैतो स्वाभाविक रूप से भीड़ इससे उत्तेजित होगी।

ग़ौरतलब है कि 10 जून को जुमे की नमाज़ के बाद मेन रोड (एमजी रोड) पर इक़रा मस्जिद के पास हज़ारों की तादाद में लोग जमा हो गये थे और फ़िरयालाल चौक की ओर मार्च कर गये थे। यह जुलूस जैसे ही डेली मार्केट के सामने के हनुमान मंदिर पहुंचा थापथराव शुरू हो गया था।

पुलिस ने लाठीचार्ज करने के बाद पहले आंसू गैस के गोले दागे और फिर बिना किसी चेतावनी के प्रदर्शनकारियों पर कथित तौर पर गोलियां चलानी शुरू कर दीं।

इक़रा मस्जिद की शुमार रांची की बड़ी और मशहूर मस्जिदों में होती है। इसके आसपास के इलाक़ों को संवेदनशील माना जाता हैक्योंकि ये इलाक़े अतीत में भी कई बार धार्मिक जुलूसों के दौरान होने वाली सांप्रदायिक तनाव के गवाह बन चुके हैं।

अगर ऐसा थातो,सवाल है कि फिर प्रदर्शनकारियों को क्यों आगे बढ़ने दिया गया ?

स्थानीय निवासियोंहिंसा के बाद क्षेत्रों का दौरा करने वाले कार्यकर्ताओंचश्मदीद गवाहों और स्थानीय पत्रकारों से बातचीत करने के बाद यह बात सामने आयी कि लोग फ़ेसबुक और व्हाट्सएप के ज़रिये मिले मैसेज़ से प्रदर्शन के लिए लामबंद हुए थे। इसकी शुरुआत किसने कीयह कोई नहीं जानता। अगर इंटरनेट पर लोगों से जुमे की नमाज़ के बाद रैली में शामिल होने की अपील करने वाले मैसेज़ प्रसारित हो रहे थेतो क्या पुलिस को यह बात पता नहीं थी अगर नहीं थीतो सवाल है कि ऐसा क्यों था ?

और अगर पुलिस को इस सिलसिले में पहले से जानकारी थीतो सवाल है कि आंदोलनकारियों को रोकने के लिए पुलिस बल की पर्याप्त तैनाती क्यों नहीं की गयी ?

इन सवालों के जवाब इसलिए नहीं मिल सके, क्योंकि वरिष्ठ पुलिस अधिकारी अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ते रहे।

इक़रा मस्जिद के नमाज़ की नुमाइंदगी करने वाले ओबैदुल्ला क़ासमी ने साफ़ तौर पर कहा कि किसी भी सामाजिक या धार्मिक संगठन की ओर से इस तरह के विरोध का कोई आह्वान नहीं किया गया था।

उन्होंने कहा,किसी ने एक ऐसी अपील पोस्ट की थी, जिसमें लोगों से शुक्रवार को विरोध मार्च निकालने के लिए कहा गया था। जब यह बात मेरी जानकारी में लायी गयीतो मैंने जुलूस से एक दिन पहले गुरुवार को ही सोशल मीडिया पर साफ़ कर दिया था कि किसी भी संगठन की ओर से इस तरह का कोई आह्वान नहीं किया गया है। मैंने लोगों से इस तरह की पोस्ट पर ध्यान नहीं देने का आग्रह किया था। अगले दिन,यानी शुक्रवार के तक़रीर के दौरान मैंने लोगों से कहा था कि किसी भी धार्मिक संगठन की ओर से बंद या विरोध प्रदर्शन का कोई ऐलान नहीं किया गया है। इसलिए, नमाज के बाद अपने-अपने घरों को लौट जाना जायें। हमें ऐसी किसी भी गतिविधि में शामिल नहीं होना चाहिए, जिससे शांति और अमन-चैन भंग हो।"

उनका कहना था,”मौलाना क़ासमी ने शहर की तमाम मस्जिदों से इसी तरह की अपील की थी। पुलिस प्रशासन को भी पहले से अलर्ट कर दिया गया था।”

ऐसे में सवाल है कि तमाम मस्जिदों से अपील और ऐलान के बाद भी इतनी बड़ी भीड़ आख़िर जमा कैसे हो गयी इस सवाल के जवाब में मौलवी ने कहा: यह पुलिस की ओर से की गयी एक चूक है। उन्होंने संभावित विरोध रैली की जानकारी को गंभीरता से नहीं लिया। सोशल मीडिया पोस्ट वायरल थीलेकिन यह पुलिस अधिकारियों और उनकी ख़ुफ़िया जानकारी जुटाने वाली इकाइयों का ध्यान खींचने में नाकाम रही ऐसा नहीं है कि पुलिस पूरी तरह से अनजान थी।"

यह पूछे जाने पर कि सोशल मीडिया पर वायरल उस मैसेज़ के पीछे कौन हैतो उन्होंने कहा: यह तो जांच का मामला है। पुलिस को निष्पक्ष जांच करनी चाहिए और जो भी दोषी पाया जाता है, उसके ख़िलाफ़ कार्रवाई करनी चाहिए। इसके साथ ही जवाबदेही तय करने के लिए अंधाधुंध पुलिस फायरिंग की भी जांच होनी चाहिए।

पुलिस में दर्ज करायी गयी शिकायत में दोनों मृतक नौजवानों के पिता ने आरोप लगाया कि मंदिर की छत से लोग प्रदर्शनकारियों पर पथराव कर रहे थे और गोलियां चला रहे थे। उनका कहना था कि मंदिर की छत से परेशानी शुरू हुईऔर प्रदर्शनकारियों ने उन पर हमला करने के बाद जवाबी कार्रवाई की।

मृतक मुदस्सिर आलम (16) के पिता परवेज़ आलम ने अपनी शिकायत में भैरव सिंह सहित कुछ लोगों के नाम लिये हैं, उनका कहना है कि वे मंदिर की छत से प्रदर्शनकारियों पर पथराव कर रहे थे और गोलियां चला रहे थे।

भैरव सिंह रांची के एक हिंदुत्व चरमपंथी हैंजो अपने नफ़रत भरे भाषणों और मुसलमानों के आर्थिक बहिष्कार के आह्वान को लेकर कुख्यात हैं। पिछले साल मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के काफ़िले पर हमला करने के बाद वह सुर्ख़ियों में आये थे। फ़िलहाल वह ज़मानत पर बाहर है।

न्यूज़क्लिक ने इस आरोप के समर्थन में कई वीडियो फ़ुटेज का विश्लेषण कियालेकिन वे फ़ुटेज इन दावों का समर्थन करने के लिहाज़ से नाकाफ़ी हैं।

मंदिर के पुजारी श्यामानंद पांडे से जब सिलसिलेवार तरीक़े से उस दिन हुई घटनाओं को बताने के लिए कहा गयातो उनका आरोप था कि पहले प्रदर्शनकारियों ने मंदिर की तरफ़ पत्थर फेंके थे।

उनका कहना था,मैं उस समय मंदिर में था। भीड़ ने पुतला फूंका। अचानक 5,000-10,000 प्रदर्शनकारी यहां जमा हो गये। उस समय ज़्यादा से ज़्यादा 40 पुलिसकर्मी मौजूद थे, जो उस भारी भीड़ को नियंत्रित कर पाने में नाकाम रहे। भीड़ ने मंदिर को चारों तरफ़ से घेर लिया था और पथराव कर दिया था,ऐसे में यहां कई लोग शरण ले रहे थे। इनमें पुलिसकर्मी भी शामिल थे।"  

उन आरोपों के बारे में पूछे जाने पर कि प्रदर्शनकारियों पर पहले उनके मंदिर की छत से पत्थरों और गोलियों से हमला किया गया थाउस 30 साल के पुजारी का कहना था, यह ग़लत है। हमने एक भी पत्थर नहीं मारा। वहां पुलिसकर्मी और पत्रकार थे, जो ख़ुद को बचाने के लिए मंदिर के अंदर आ गये थे। हो सकता है कि उन्होंने मंदिर की ओर फेंके गये पत्थरों से दंगाइयों को जवाब दिया हो।

यह पूछे जाने पर कि मंदिर के भीतर पुलिस और पत्रकारों के अलावा कौन-कौन था और कितने लोग वहां शरण लिए हुए थेतो पांडे ने जवाब दिया कि जब जुलूस डेली मार्केट पहुंचा, तो उस समय कम से कम 13 लोग भीतर थे। उन्होंने कहा कि पुलिस और पत्रकारों के भीतर आ जाने के बाद यह संख्या बढ़ गयी थी।

क्या उस समय मंदिर में भैरव सिंह भी मौजूद थे इस सवाल के जवाब में पुजारी ने कहा: हमारे इस मंदिर के प्रवेश और निकास दोनों पर द्वारों पर सीसीटीवी कैमरे हैं। मैं ज़िम्मेदारी के साथ कह सकता हूं कि हिंसा से पहले कोई बाहरी व्यक्ति मंदिर के भीतर मौजूद नहीं था। इसके साथ ही पहली मंज़िल से किसी ने पत्थर नहीं फेंका था। इतना तो पक्का है। मैं तीसरी मंज़िल या छत के बारे में नहीं जानता।

सिंह ने अपने ऊपर लगे आरोपों से इनकार किया है।उन्होंने न्यूज़क्लिक से बताया, मैं 10 जून को पूरे दिन घर पर ही था। मैं वहां नहीं था। मेरे सेल फ़ोन लोकेशन की जांच कर लें। स्थानीय लोग मुझे जानते हैं। अगर मैं वहां मौजूद होतातो मुझे वीडियो फ़ुटेज या तस्वीरों में दिखाया जाता। सीसीटीवी फ़ुटेज निकाल कर चेक कर लें। यह मेरे ख़िलाफ़ झूठा आरोप है। असामाजिक तत्व मेरी छवि खराब करने की कोशिश कर रहे हैं।

 चश्मदीद क्या कहते हैं

इस संवाददाता ने जिन चश्मदीद गवाहों से बात कीउन्होंने कहा कि भीड़ उत्तेजित थी और वह मेन रोड पर फ़िरयालाल चौक की ओर जाना चाहती थी। जब बुज़ुर्गों और ज़िम्मेदार लोगों ने उन्हें रैली न करने के लिए मनाने की कोशिश कीतो उनका कहना था कि उनके साथ दुर्व्यवहार किया गया।

उन्होंने नाम न छापने का अनुरोध करते हुए कहा, “एक विरोध मार्च निकाले जाने की संभावना के बावजूद इक़रा मस्जिद के पास 10 से ज़्यादा पुलिसकर्मियों को तैनात नहीं किया गया था। अगर सुरक्षा बल तैनात होता, तो उस घटना को आसानी से टाला जा सकता था। प्रशासन को पता था कि यह कल होने वाला है। लेकिन, प्रशासन ने कोई कार्रवाई नहीं की।"  

सामूहिक नमाज़ के बाद उस दिन जो कुछ हुआउसका एक-एक ब्योरा देते हुए कुछ प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया, नमाज़ खत्म होने के कुछ ही समय बाद मस्जिद के बाहर भीड़ बढ़ गयी थी। डोरंडाहिंदपीढ़ी आदि जैसे आसपास के इलाक़ों के लोग वहां इकट्ठे हो गये थे। नारेबाज़ी करते हुए भीड़ फ़िरयालाल चौक की ओर बढ़ने लगी थी। पुलिस ने सड़क पर बैरिकेडिंग लगाकर उन्हें रोकने की कोशिश की थीलेकिन भीड़ ने उन्हें एक तरफ़ धकेल दिया और आगे बढ़ती रही। जुलूस जैसे ही डेली मार्केट टैक्सी स्टैंड पर पहुंचावहां हंगामा हो गया और पथराव शुरू हो गया। प्रदर्शनकारियों पर एक बांस को इस तरह से फेंका गया था कि उस इलाक़े से गुज़र रहे बिजली के तार आंदोलनकारियों पर आ गिरे। लेकिन, वह कोशिश नाकाम रही। पहला पत्थर किसने फेंकायह पता लगाना बहुत मुश्किल है।

चश्मदीदों के दूसरे समूह ने यद दलील देते हुए इस आरोप का खंडन किया कि पुलिस और स्थानीय हिंदू निवासियों पर "उपद्रवियों" की ओर से पत्थर फेंके गये थे। उनमें से एक ने कहा, "जब हम अपनी जान बचाने के लिए हनुमान मंदिर में भागेतो उन्होंने धार्मिक स्थल पर भी हमला शुरू कर दिया।"

ऐसी भी ख़बरें हैं कि लोगों से जुलूस निकालने का आग्रह करते हुए पर्चे भी बांटे गये थे। लेकिन, उस पर्चे में किसी संगठन का नाम नहीं था। इसके अलावा, एक ऐलान भी किया गया था।लेकिन, न्यूज़क्लिक को ऐसा कोई पर्चा नहीं मिला।

पहचान छुपाने का अनुरोध करते हुए एक शख़्स ने कहा कि उस दिन व्हाट्सएप और फ़ेसबुक पर एक मैसेज़ प्रसारित हो रहा थाजिसमें दावा किया गया था कि 10 जून को पूरे देश में पूर्ण रूप से बंदी रहेगी। उन्होंने उस वायरल गुमनाम मैसेज़ को अपने सेल फ़ोन पर भी दिखायालेकिन इसे किसी के साथ साझा करने से इनकार कर दिया।

उन्होंने बताया, हमने भी एक मीटिंग की थी और दुकानदारों से 10 जून को अपने-अपने व्यापारिक प्रतिष्ठान बंद रखने का अनुरोध किया था। हम एक-एक दुकान तक गये थे और उन लोगों से इस हड़ताल का समर्थन करने का आग्रह किया था। लेकिन, हमने जुलूस निकालने की कोई अपील नहीं की थी। सभी व्यापारियों ने सर्वसम्मति से उस बंद का समर्थन करने पर सहमति जतायी थी। शुक्रवार को लगभग पूरा डेली मार्केट बंद रहा।'

उस शख़्स ने आगे बताया कि फ़ेसबुक और व्हाट्सएप पर एक चिट्ठी भी वायरल हुई थी, जिसमें लिखा था कि इक़रा मस्जिद के पास से फ़िरयालाल चौक तक एक विरोध रैली का आयोजन किया जायेगा। लेकिन, उस शख़्स के पास इसे साबित करने के लिए कोई सबूत नहीं था। यह पूछे जाने पर कि क्या उनके पास वह चिट्ठी हैतो उन्होंने कहा, "नहींमेरे पास नहीं है। लेकिन, यह इंटरनेट पर घूम रही थी।

यह पूछे जाने पर कि बंद का आह्वान फिर किसने किया था और उन्होंने दुकानदारों से उस हड़ताल का पालन करने का आग्रह करने के लिए बैठक क्यों की थीउन्होंने कहा: हम नहीं जानते कि यह किसका आह्वान था। चूंकि इसका मक़सद हमारे पैग़ंबर के अपमान के ख़िलाफ़ शांतिपूर्ण विरोध दर्ज करना थाइसलिए लगा कि हमें किसी प्रदर्शन तो नहीं,लेकिन महज़ बंद की अपील करने में कोई नुक़सान नहीं है।

कथित तौर पर एक तीसरा मैसेज़ भी व्हाट्सएप पर वायरल हुआ थाजिसमें रांची के प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से 10 जून को होने वाले विरोध प्रदर्शन को कवर करने का अनुरोध किया गया था। राजधानी रांची से 100 किलोमीटर से ज़्यादा दूरी पर स्थित बोकारो से प्रसारित उस मैसेज़ में कहा गया था, “10 जून को जुमे की नमाज़ के बाद दोपहर 1.45 बजे मुस्लिम समुदाय केंद्र सरकार से नूपुर शर्मा को सलाखों के पीछे डालने की मांग करने के लिए मेन रोड स्थित इकरा मस्जिद के पास से मार्च निकालेगा। देश-विदेश के मुसलमान विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं और उसके ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज करा रहे हैं।

संपर्क करने पर एक शख़्स ने नाम नहीं छापे जाने का अनुरोध करते हुए इस बात की पुष्टि कर दी कि मीडिया को भेजा गया वह वायरल आमंत्रण उसी ने भेजा था।

उस शख़्स ने बताया, “मैं इक़रा मस्जिद में जुमे की नमाज़ अदा करने गया था, जहां मैंने लोगों से जुलूस के बारे में सुना। मैंने अपने एक परिचितजो एक पत्रकार है,उन्हें यह पूछने के लिए फ़ोन किया कि क्या उनके पास ऐसी कोई जानकारी है। उनके इनकार करने के बाद मैं मीडिया कवरेज के लिए वह चिट्ठी लिखने के लिए प्रेरित हुआ और इसे विभिन्न व्हाट्सएप समूहों पर शेयर कर दिया।

यह पूछे जाने पर कि उन्होंने बिना किसी पुष्टि के उस संभावित जुलूस के बारे में मीडिया को कैसे सूचित कर दियाउन्होंने कहा, "भारत बंद का एक आह्वान करता एक मैसेज़ पहले से ही सोशल मीडिया पर उसी तरह वायरल थाऔर लोग इसे विभिन्न व्हाट्सएप ग्रुप्स में प्रसारित कर रहे थे", जैसा कि बंद के लिए जारी किया जाने वाला किसी धार्मिक या सामाजिक संगठन का वायरल कॉल होता है। उस शख़्स ने अपनी ग़लती मानी।उसने कहा, "मुझसे ग़लती हो गयी। मैंने इसे बिना सत्यापित किये ही मीडिया को भेज दिया। यह मेरी ग़लती है।"

घटना के बाद से ही इस घटना को कवर कर रहे रांची के दो पत्रकारों ने बताया कि उस दिन वास्तव में हुआ क्या था।

पत्रकार असग़र ख़ान ने न्यूज़क्लिक को बताया, डेली मार्केट के व्यापारियों ने सर्वसम्मति से पैग़ंबर मोहम्मद के अपमान के ख़िलाफ़ अपना विरोध दर्ज करने के लिए अपनी व्यावसायिक गतिविधियों को बंद रखने का फ़ैसला किया था। उन्होंने बिना नारे लगाये चुपचाप मार्च करने की भी योजना बनायी थीलेकिन एक रात पहले पुलिस प्रशासन के साथ बैठक के बाद विरोध रैली आयोजित करने का कार्यक्रम रद्द कर दिया गया। उस फ़ैसले के मुताबिक़ ही यह बंद शांतिपूर्ण ढंग से चल रहा था।"

ख़ान ने कहा कि शुक्रवार की नमाज़ के बाद मेन रोड पर इक़रा मस्जिद के पास अप्रत्याशित रूप से भारी भीड़ जमा हो गयी।उन्होंने बताया, उस मजमें में भाग लेने वाले लोगों की उम्र 21-22 साल से ज़्यादा की नहीं थी। वे इतनी बड़ी संख्या में कैसे इकट्ठे हो गये किसने उन्हें लामबंद किया ये सब जांच के विषय हैं। लेकिन, इतना तो तय है कि किसी ने इन्हें लामबंद ज़रूर किया था। व्हाट्सएप मैसेज़ प्रसारित किये जा रहे थे और सोशल मीडिया पोस्ट इंटरनेट पर घूम रहे थे और लोगों से बड़ी संख्या में उस विरोध में शामिल होने का आह्वान किया जा रहा था।

भीड़ जब मेन रोड की ओर बढ़ी और जुलूस की शक़्ल में डेली मार्केट पहुंची, तो आरोप है कि हनुमान मंदिर के ऊपर से उन पर पथराव किया गया और गोलियां चलायी गयीं। उन्होंने साफ़ तौर पर बताया, "लेकिन, इसे साबित करने के लिए कोई ठोस सबूत नहीं है। 

एक अन्य पत्रकार आनंद दत्ता का कहना था कि यह पता लगाना मुश्किल है कि पहले पत्थर किसने फेंके। लेकिन, उन्होंने कहा कि एक बात तो बिल्कुल साफ़ है कि यह पुलिस की गंभीर चूक है।

उनका सवाल था,अगर लोगों को लामबंद किया जा रहा थातो सवाल है कि स्थानीय ख़ुफ़िया जानकारी लेने वाले लोग क्या कर रहे थे अगर कार्रवाई किये जाने जैसी ख़ुफ़िया जानकारी थीतो पुलिस की पर्याप्त संख्या में तैनाती क्यों नहीं थी प्रदर्शनकारियों को आगे बढ़ने से रोकने के लिए कई स्तर पर बैरिकेडिंग क्यों नहीं की गयी थी ज़रूरत से बेहत कम तादाद में पुलिस बल का इस्तेमाल क्यों किया गया था ?”  

दत्ता ने कहा कि पुलिस का दावा है कि प्रदर्शनकारियों ने उन्हें मारने के इरादे से कई राउंड गोलियां चलायी थीं,तो सवाल है कि गोलियां खाने वाले पुलिसकर्मी कौन हैं ?

दोनों पत्रकारों का कहना है कि हज़ारों की भीड़ को नियंत्रित करने के लिहाज़ से पुलिस की तैनाती बहुत ही कम थी।

पुलिस का दावा है कि चोटें उन्हें भी आयी हैंलेकिन यह पता नहीं है कि एक मामले को छोड़करजहां उनका इलाज चल रहा है और उन्हें किस तरह की चोटें आयी हैं।

स्थानीय लोगों की माने तो वहां 3,000 से 5,000 लोगों की भारी भीड़ थीलेकिन पुलिस का कहना है कि यह संख्या 8,000 से 10,000 तक थी।

उन्होंने आगे कहा, “ऐसे वीडियो क्लिप हैं, जिनमें पुलिसकर्मियों और पत्रकारों को आश्रय पाने के लिए मंदिर परिसर में भागते हुए देखा जा सकता है। ऐले वीडियो साक्ष्य भी हैजिसमें कुछ लोगों को मंदिर की छत पर खड़े दिखाया गया है। लेकिन, यह साफ़ नहीं है कि वे पथराव कर रहे थे या नहीं।

दत्ता ने यह भी बताया कि मौक़े पर पत्रकार और चरमपंथी थेजो पुलिस को उकसा रहे थे और मार्गदर्शन कर रहे थे कि कहां गोली चलानी है और किसे मारना है।

उनका आरोप है, “पुलिस की मौजूदगी में वे लोगों को मुसलमानों को मारने और उनके व्यापारिक प्रतिष्ठानों को आग लगाने के लिए उकसा रहे थे। वे पुलिस को अलग-अलग दिशाओं में गोली चलाने के लिए भी कह रहे थे।

'पाकिस्तानियों को मार डालो'

घटना के वायरल हुए उस वीडियो में कुछ पत्रकारों को प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ बेहद आपत्तिजनक टिप्पणी करते हुए और पुलिस से लाठीचार्ज करने और उन्हें गोली मारने के लिए कहते हुए सुना जा सकता है।

ऐसे ही एक पत्रकार अशोक गोप हैंजिन्हें पथराव पर एक फ़ेसबुक लाइव के दौरान यह कहते हुए सुना जा सकता है: यह तस्वीर रांची की है। यह कश्मीर की याद दिलाती हैजहां पत्थरबाज़ ईंटबाज़ी करते हैं। लोग इस्लाम के नाम पर क़हर बरपा रहे हैं और ग़ुंडागर्दी दिखायी दे रही है। यही है इस्लाम का असली चेहरा। इस्लाम के नाम पर आतंक फैलाया जा रहा है। इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है ?"

इसके बाद वह चिल्लाते हुए कहता है, "मारो... इस्लाम के नाम पर ख़ून-ख़राबा हो रहा है।"

लगातार होती पुलिस फ़ायरिंग की आवाज़ के बीच उन्हें पुलिस से कहते हुए सुना जा सकता है, “उन पर गोली चलाओ। आप कर क्या रहे हैं आपके इस काम से कुछ भी हासिल नहीं होगावह जैसा है, वैसे ही ख़त्म होगा। आगे बढ़ो और उन्हें निशाना बनाकर गोली चलाओ।

दूसरे लोगों को भी प्रदर्शनकारियों को गोली मारने के लिए पुलिस को उकसाते हुए देखा और सुना जा सकता है।

गोप एक बार फिर चिल्लाते हुए कहता है, जल्दी करोआगे बढ़ो। पाकिस्तानी इसी डेली मार्केट इलाक़े में रह रहे हैं। उन्हें गोली मारोमार डालो।"

वह प्रदर्शनकारियों को गालियां देना जारी रखता है और पुलिस से उनकी दुकानों को तहस-नहस करने के लिए कहता है। उसे अपने पूरे 40 मिनट के उस वीडियो में भी ऐसा ही कहते हुए सुना जा सकता है, जिसे उसने अपने यूट्यूब चैनल-मुखेर संवाद पर पोस्ट किया है।

यह वीडियो उसकी फ़ेसबुक टाइमलाइन पर भी उपलब्ध है। गोप से उसकी टिप्पणी पाने के लिए हमने संपर्क किया था,लेकिन संपर्क नहीं हो सका।

 क्या गोली चलाना ही एकमात्र विकल्प था?

उस हिंसा के दो दिन बाद,यानी 12 जून को रांची के उपायुक्त छवि रंजन ने उस पुलिस कार्रवाई का बचाव किया और कहा कि पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर गोलियां इसलिए चलायी थी, क्योंकि यह "आख़िरी चारा" था।

उन्होंने कहा, "भीड़ को नियंत्रित करने और तितर-बितर करने की इसलिए ज़रूरत थी, क्योंकि यह आख़िरी उपाय रह गया था।उन्होंने दावा किया कि मानक संचालन प्रक्रिया का "कड़ाई से पालन" किया गया था और मजिस्ट्रेट को "अपरिहार्य परिस्थितियों" के तहत सख़्त फ़ैसला लेना था।

यह पूछे जाने पर कि एसओपी (लाठीचार्जआंसू गैस के गोलेपानी के तोपों का इस्तेमाल आदि) का पालन करने के बजाय उन्होंने उस तरह का बेहद सख़्त फ़ैसला क्यों लियाइसका जवाब देते हुए डिप्टी एसपी रैंक के एक अफ़सर ने कहा, “उस पुलिस कार्रवाई की आलोचना करना बहुत आसान है। तेज़ी से बदलती ज़मीनी स्थिति का विश्लेषण करके ही व्यवस्था को बनाये रखने के फ़ैसले लिए जाते हैं। एक बार जब आप उन मोड़ लेती घटनाओं की समीक्षा करेगेतो आप समझ जायेंगे कि वैसा करना अपरिहार्य क्यों था। हमारी कार्रवाई कितनी सही और तार्किक थी, हमारे लिए अभी इस बारे में कुछ भी कह पाना इसलिए मुनासिब नहीं होगा, क्योंकि मामले की जांच चल रही है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

 https://www.newsclick.in/Ranchi-Violence-Who-Triggered-June-10-Violence-During-Prophet-Row-Protest

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