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साहिबाबाद: कारखानों के चलने के कारण मजदूरों को थोड़ी राहत लेकिन परेशानी भी बहुत ज्यादा

गाजियाबाद के इस औद्योगिक क्षेत्र में कारखानों के चालू रखने की अनुमति दिए जाने के बावजूद हालात खुशनुमा नहीं हैं। निर्माताओं को जहाँ पूर्ण उत्पादन सुविधाओं का उपयोग करने में समस्याओं से दो-चार होना पड़ रहा है, वहीं श्रमिकों के बीच में वेतन में कटौती और छंटनी का अंदेशा बना हुआ है।
साहिबाबाद: कारखानों के चलने के कारण मजदूरों को थोड़ी राहत लेकिन परेशानी भी बहुत ज्यादा
मात्र प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल.

उत्तर प्रदेश के साहिबाबाद विधानसभा क्षेत्र में कोविड-19 की स्थिति प्रचलित स्तर से कुछ अलग नहीं है। गाजियाबाद जिले के इस हिस्से के हालात के बारे में किसी से भी पूछेंगे तो आमतौर पर यही जवाब सुनने को मिलेगा: कि हालात “बदतर” हैं।

हालाँकि साहिबाबाद के मामले में कहें तो यह एक ऐसा क्षेत्र है जो अपने औद्योगिक क्षेत्र में प्रमुख इंजीनियरिंग निगमों को समायोजित करने का दावा करता है, लेकिन इस प्रकार के वक्तव्य असल में जमीनी हकीकत का खुलासा करने से कहीं अधिक छिपाने का काम करते हैं।

ऐसा नहीं है कि यह उप-इलाका वर्तमान में पूर्ण लॉकडाउन के तहत चल रहा है। योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार द्वारा आंशिक ‘कोरोना कर्फ्यू” के तौर पर संदर्भित राज्यव्यापी लॉकडाउन लागू किये जाने के बावजूद, औद्योगिक ईकाईयों के संचालन की अनुमति प्रदान की गई है। 

ऐसा भी नहीं है कि इस शहरी इलाके में स्वास्थ्य के मोर्चे पर चीजें नियंत्रण से बाहर चली गई हो, भले ही राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में कोविड-19 संक्रमण लगातार कहर बरपा रहा है। साहिबाबाद के विधायक सुनील शर्मा का दावा है “पर्याप्त व्यवस्था की गई हैं” हालाँकि उन्होंने स्वीकार किया कि ये “सुधार” लेकिन “सिर्फ अभी” जाकर देखने में आ रहे हैं।

साहिबाबाद के निवासियों, जिनमें से एक बड़ा वर्ग उन परिवारों से संबंधित है जिसके एक या उससे अधिक सदस्य औद्योगिक श्रमिक के तौर पर कार्यरत हैं, की मुश्किलों के पीछे मुख्य वजह यह है कि छोटे और मझौले उद्योगों को समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, जो भारत के विनिर्माण क्षेत्र के जीवनरेखा हैं।

श्रमिकों, ट्रेड यूनियन नेताओं, कंपनी प्रबंधन, श्रम अधिकारियों और एक विशेषज्ञ के साथ किये गए साक्षात्कारों से खुलासा हुआ है कि केंद्र द्वारा सूक्ष्म, लघु एवं मझौले उद्योगों (एमएसएमई) क्षेत्र से लंबे समय से मुहँ मोड़ लेने का खामियाजा निर्माताओं को भुगतना पड़ रहा है। 
‘कंपनी ने हमारे मासिक वेतन का भुगतान करना बंद कर दिया है’

द इंड्यूर प्राइवेट लिमिटेड में कार्यरत एक श्रमिक के मामले पर गौर करें। यह कंपनी सरकार के स्वामित्व वाली नेशनल थर्मल पॉवर कारपोरेशन लिमिटेड (एनटीपीसी) सहित देश के प्रमुख विद्युत् संयंत्रों की कोयले की राख से निपटान की जरूरतों को पूरा करने का काम करती है। 

कंपनी में 1985 से कार्यरत इस श्रमिक ने शनिवार को फोन पर न्यूज़क्लिक को बताया “यहाँ के श्रमिकों को पिछले 12 महीनों में से मात्र चार महीनों का ही वेतन प्राप्त हुआ है।” कार्यवाही के डर से उन्होंने नाम न छापने का अनुरोध किया था।

पिछले साल कंपनी ने अपने 300 से अधिक श्रमिकों के साथ – जिसमें 90 स्थाई और बाकी अस्थाई रोल पर थे, मई माह में उत्पादन फिर से शुरू कर दिया था, जब इसके काम को राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के चलते तकरीबन दो महीने के लिए ठप कर दिया गया था। हालाँकि चीजें पहले जैसी नहीं रहीं।

इंड्यूर में इंजीनियरिंग कामगार यूनियन के सचिव महावीर सिंह गुसाईं का कहना था कि मांग में लगातार गिरावट के चलते ही सम्भवतया कारखाने के फिर से शुरू होने के बाद उत्पादन को “इसकी क्षमता से आधे तक” ले आया गया था। व्यापार की स्थिति कितनी अंधकारमय थी,इसी बात से लगाया जा सकता है कि मई में सिर्फ स्थाई श्रमिकों को ही काम पर वापस बुलाया गया था – बाकियों के लिए कंपनी के दरवाजे बंद कर दिये गये थे। 

अगस्त आते-आते कंपनी प्रबंधन को अपने शेष कर्मचारियों की श्रम लागत को भी वहन कर पाना भारी पड़ने लगा था। अफ़सोस जताते हुए गुसाईं कहते हैं “कंपनी ने हमें हमारा मासिक वेतन देना बंद कर दिया। श्रमिकों को उनके वेतन का कुछ हिस्सा जब-तब चुकाया जाता है, वो भी काफी मिन्नतें करने के बाद। कई बार के विरोध प्रदर्शन के बावजूद प्रबंधन ने यूनियन की मांगों को अनसुना कर दिया है।” 

उसी माह, सेंटर ऑफ़ इंडियन ट्रेड यूनियंस (सीटू) से सम्बद्ध यूनियन ने जिला श्रम आयुक्त के समक्ष बकाया वेतन को लेकर एक आधिकारिक शिकायत दर्ज की थी। मामला अभी लंबित पड़ा है। अगर कोई भविष्य निधि और ईएसआई धनराशि की बात करे जो “एक साल से भी अधिक समय से लंबित है” तो जैसा कि गुसाईं आरोप लगाते हैं, यह कहानी और भी ज्यादा विकट हो जाती है।

गाजियाबाद के उप श्रम आयुक्त (डीएलसी), राजेश मिश्रा इस बात की पुष्टि की कि पिछले साल इंड्यूर के प्रबंधन के खिलाफ एक शिकायत दर्ज हुई थी। उनका कहना था “हमने इस सन्दर्भ में श्रम आयुक्त से जांच की अनुमति मांगी है। हम इस अनुरोध के मंजूर होने की प्रतीक्षा में हैं।”
न्यूज़क्लिक ने इस बाबत इंड्यूर कंपनी के एक अधिकारी से भी संपर्क साधा, जिन्होंने श्रमिकों के आरोपों का खंडन करते हुए कहा कि “श्रमिकों को उनके पूरे वेतन का भुगतान किया जा रहा है।” हालाँकि उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि कंपनी प्रबंधन के खिलाफ जिला श्रम अदालत में एक मामला लंबित है। अधिकारी का कहना था कि “कुछ श्रमिकों की शिकायतें हैं, और हम अदालत में इसका जवाब देंगे।”

लेकिन मौजूदा परिस्थियों के पीछे क्या कारण हैं? यह पूछे जाने पर अधिकारी का तर्क था कि “ऐसा नहीं है कि हम नहीं चाहते हैं कि हमारे श्रमिक खुश रहें। लेकिन दिन-प्रतिदिन हालात इतने कठिन होते जा रहे हैं कि बाजार में टिके रहना भी कठिन होता जा रहा है।” मोदी सरकार की “खराब नीतियों” पर दोषारोपण करते हुए उनका कहना था कि, विशेषकर जो कंपनियां कोयला क्षेत्र से जुडी हैं, उनकी वजह से कंपनी को तार्किक तौर पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है, क्योंकि व्यसाय उनके प्रदर्शन पर निर्भर करता है।

अधिकारी की ओर से एक अन्य शिकायत यह थी कि: केंद्र पिछले साल से महामारी से उत्पन्न आर्थिक झटकों के खिलाफ मझौले और छोटे उद्यमों को किसी भी प्रकार का बचाव प्रदान करने में पूरी तरह से विफल रही। अफ़सोस जताते उन्होंने कहा “इस बार तो हम कोई भी उम्मीद नहीं कर रहे हैं।”

‘एमएसएमई क्षेत्र को उधार की नहीं, बल्कि सरकारी निवेश की दरकार है’

पिछले साल केंद्र ने एक विशेष कोविड-19 पैकेज की घोषणा की थी, जिसमें अन्य चीजों के अलावा, तीन लाख करोड़ रूपये की जमानत मुक्त स्वचालित ऋण योजना, ई-लिंकेज बाजार का प्रावधान, और 200 करोड़ रूपये तक के सरकारी खरीद में भाग लेने के लिए वैश्विक खिलाडियों पर प्रतिबंध लगाने जैसे प्रावधान शामिल थे। 

आईआईटी-दिल्ली के अर्थशास्त्र के प्रोफेसर जयन जोस थामस ने इस पैकेज को “अच्छी चीज” लेकिन “अपर्याप्त” बताया।

उनका कहना था “दो आर्थिक तत्व होते हैं: आपूर्ति और मांग। जहाँ तक पहले का संबंध है, पिछले कुछ समय से, या कहें 90 के दशक से, एमएसएमई क्षेत्र को हासिल होने वाले ऋण में गिरावट आई है। वाणिज्यिक बैंकों द्वारा औद्योगिक क्षेत्र को दिए गए ऋण के तकरीबन कुल ऋण में से 15% हिस्सा मिलता था, जो 2017-18 में पांच प्रतिशत से भी कम हो चुका है।”

देश में ज्यादातर एमएसएमई बड़े स्वदेशी कंपनियों एवं सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों (पीएसयू) के ऑर्डर्स पर निर्भर हैं। उनका कहना था “वह इकोसिस्टम अब टूट चुका है, कुछ इसलिए क्योंकि अब हमारे पास कई पीएसयू नहीं रहे, और इसलिए भी क्योंकि भारतीय कंपनियों ने उच्च दक्षता को ध्यान में रखते हुए अपने ऑर्डर्स को यहाँ के एमएसएमई क्षेत्र से स्थानांतरित करना शुरू कर दिया है।” 

थॉमस आगे कहते हैं कि यह एक “घातक चक्र” है- पर्याप्त मांग न होने के कारण कम दक्षता है; ऑर्डर्स नहीं हैं क्योंकि छोटी कम्पनियां पर्याप्त प्रतिस्पर्धी नहीं हैं।

उनके अनुसार, यही वह जगह है जहाँ पर सरकारी हस्तक्षेप भूमिका बेहद अहम हो जाती है। थामस के अनुसार “वर्तमान में एमएसएमइ क्षेत्र को उधार की नहीं, बल्कि भारी मात्रा में सार्वजनिक निवेश की दरकार है। आत्मनिर्भर भारत का केंद्र का नारा तभी कहीं अधिक सार्थक हो सकता है जब सार्वजनिक निवेश के जरिये इस क्षेत्र में मांग को पुनर्जीवित करने के प्रति गंभीर प्रतिबद्धता हो।”  
संयुक्त राष्ट्र औद्योगिक विकास संगठन (यूएनआईडीओ) द्वारा किये गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक भारत में लॉकडाउन के बाद से चावल मिलों के क्षेत्र को छोड़कर, जहाँ उत्पादन कथित तौर पर घटकर आधा रह गया था, विनिर्माण 2020 में बंद हो गया था। सर्वेक्षण रिपोर्ट में निष्कर्ष के तौर पर व्यवसायों को फिर से शुरू करने को एक “महा चुनौती” करार दिया गया है, क्योंकि अन्य कारणों के साथ-साथ एमएसएमई के उत्पादों की मांग के संबंध में “अत्यधिक अनिश्चितताएं” बनी हुई थीं।

हालाँकि यह पिछले साल के तरह ही समान दृश्यों के दुहराव के रूप में प्रकट हो सकता है, राष्ट्रव्यापी के विपरीत राज्यव्यापी लॉकडाउन जिसे इस दफा रुक-रूककर लगाया जा रहा है, के कारण विनिर्माण का काम इस बार पूरी तरह से ठप नहीं पड़ा है, कम से कम साहिबाबाद में तो ऐसा नहीं हुआ। लेकिन चीजें खुशनुमा होने से कोसों दूर हैं।

‘एक भी फैक्ट्री ऐसी नहीं है, जहाँ कोई श्रमिक इस वायरस की चपेट में न आया हो’

साहिबाबाद औद्योगिक संघ के कार्यालय सचिव, चरणजीत सिंह ने दावा किया कि कच्चे माल की भारी कमी बनी हुई थी – जो आमतौर पर पास के दिल्ली से आ रही थी, लेकिन कोरोनावायरस के कारण हाल- फिलहाल औद्योगिक क्षेत्र की कई उत्पादन इकाईयों को उनकी पूरी क्षमता का उपयोग करने में रोक रही है। 

उन्होंने बताया कि “मजदूरों की भी कमी है। फसल कटाई का सीजन होने के कारण अधिकांश मजदूर अपने गाँव चले गए थे। वे अभी तक लौट कर नहीं आये हैं।” सिंह के अनुसार महामारी फैलने के डर से भी अधिकांश श्रमिकों ने पलायन करने और अपने परिवारों के पास लौट जाने के विकल्प को चुना।

सीटू, गाजियाबाद के क्षेत्रीय अध्यक्ष, ईश्वर त्यागी इससे सहमत दिखे। उन्होंने आरोप लगाय “साहिबाबाद में ऐसी एक भी फैक्ट्री नहीं होगी, जहाँ इस साल एक भी मजदूर कोविड-19 का शिकार न हुआ हो। यहाँ तक कि कई कंपनियों में प्रबंधन अधिकारियों तक के बीच में अफरा-तफरी मची हुई है। वे फैक्ट्री का दौरा करने से परहेज कर रहे हैं।”

रविवार के दिन गाजियाबाद जिले में कोविड-19 के 273 ताजा मामले देखने को मिले, यहाँ तक कि मई माह में पोजिटिविटी रेट 14% के आसपास बनी हुई है। संभवतः सकारात्मक माहौल को दिखाने के लिए जिले की परीक्षण क्षमता के कम उपयोग के जरिये मामलों की संख्या को सबसे अच्छे तरीके से समझाया जा सकता है।

साहिबाबाद से भाजपा विधायक, शर्मा हालाँकि फोन पर बेहद आश्वस्त नजर आये, जब उनसे उनके विधानसभा क्षेत्र में दूसरी लहर से निपटने के लिए की गई तैयारियों के सिलसिले में पूछा गया। उन्होंने न्यूज़क्लिक को बताया “पिछले महीने मामलों में उछाल एक चौंकाने वाली घटना के तौर पर सामने आया था। लेकिन अब पर्याप्त मात्रा में इंतजाम कर लिए गए हैं।”

उनके अनुसार शनिवार दोपहर तक गाजियाबाद जिले में सरकारी और निजी अस्पतालों में कुल मिलाकर 750 बेड उपलब्ध थे। शर्मा ने दावा किया “हम यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि जिस किसी को भी ऑक्सीजन की जरूरत है, उसे वह उपलब्ध हो जाये। दवाओं की कालाबाजारी भी अब बंद हो गई है।”

हालाँकि चिंताएं सिर्फ इतनी ही नहीं हैं। सीटू के त्यागी का आरोप था “अधिकांश कारखानों में श्रमिकों की सुरक्षा के लिए कोई उपाय नहीं अपनाए गए हैं। कुछ को मास्क और सेनेटाईजर वितरित किये गए हैं। लेकिन ज्यादातर मामलों में श्रमिकों को खुद के भरोसे छोड़ दिया गया है।”

ट्रेड यूनियन की मांग है कि औद्योगिक मजदूरों को टीकाकरण में प्राथमिकता दी जाये। त्यागी कहते हैं “हमारी यह भी मांग है कि सरकार फैक्ट्री मालिकों को इस कठिन समय में श्रमिकों के वेतन में कटौती या छंटनी न करने के निर्देश जारी करे।”

शनिवार को शर्मा का कहना था कि मुझसे “सिर्फ महामारी के बारे में प्रश्न” पूछे जायें। उन्होंने न्यूज़क्लिक को बताया “साहिबाबाद में 29 नगरीय स्वास्थ्य केंद्र हैं, जहाँ टीके की डोज लगाई जा रही है।”

 कोविन डैशबोर्ड के अनुसार गाजियाबाद जिले में कुल 107 साईट हैं, जिनमें से 101 सरकारी और 6 निजी हैं, जहाँ पर टीकाकरण चल रहा है। हालाँकि एक रिपोर्ट के मुताबिक गाजियाबाद में रविवार के दिन कोई टीकाकरण अभियान नहीं चलाया गया।

गाजियाबाद के डीएलसी, मिश्रा का कहना था कि यह श्रमिकों पर निर्भर करता है कि वे खुद का टीकाकरण करा लें। हाल के दिनों में वेतन में कटौती की घटनाओं के बारे में पूछने पर उनका कहना था: “हमें इस प्रकार की अभी तक सिर्फ एक या दो शिकायतें ही प्राप्त हुई हैं। जहाँ तक हम जानते हैं, उसके मुताबिक इस प्रकार की बड़े पैमाने पर छंटनी की कोई घटना अभी तक सुनने में नहीं आई है।”
भले प्रशासन इससे राहत की साँस ले रहा हो, लेकिन अनिल पाण्डे जैसे श्रमिकों के लिए इसमें राहत की कोई वजह नहीं है। 54 वर्षीय पाण्डेय साहिबाबाद के होली फेथ इंटरनेशनल प्राइवेट लिमिटेड, जो कि स्कूल और कालेज की किताबों की छपाई के मामले में मशहूर है, में कार्यरत हैं। जैसे ही कोविड-19 मामले बढ़ते हैं, पाण्डेय जो कि इसके एक बार भुक्तभोगी रह चुके हैं, इन दिनों वे काफी चिंतित रहते हैं।

पाण्डेय ने न्यूज़क्लिक से कहा “पिछले साल मई में जब उत्पादन फिर से शुरू हुआ तो उसके बाद प्रबंधन ने हमारे वेतन में 40% तक की कटौती कर दी थी।” इस साल के जनवरी माह में ही जाकर मासिक भुगतान को फिर से बहाल किया जा सका था, जिससे अनुमान लगाया जा रहा था कि कंपनी की वित्तीय हालत पटरी पर वापस लौटने की दिशा में बढ़ रही है।

हालाँकि, फिर अप्रैल का महीना आया। कंपनी में 1988 से कार्यरत पाण्डेय ने दावा किया कि “उत्पादन एक बार फिर से धीमा हो गया, क्योंकि ऑर्डर्स एक के बाद एक रद्द होने लगे।” हालाँकि कर्मचारियों को पिछले माह का पूरा वेतन मिल गया था, लेकिन हकीकत उनके सामने मुहं बाए खड़ी है।

“क्या होगा यदि प्रबंधन एक बार फिर से हमारे वेतन में कटौती कर दे? क्या यह पिछले साल की पुनरावृत्ति होगी – या उससे भी बदतर हालात होने जा रहे हैं?

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।

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