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सीएए विरोधी आंदोलन पर शिकंजा: अब 7 दिन के अंदर 64 लाख जमा करने का नोटिस  

उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा भेजे गए नोटिस में कहा गया है कि अगर क्षतिपूर्ति की रक़म समय पर जमा नहीं हुई, तो प्रदर्शनकारियों की संपत्ति को ज़ब्त कर लिया जायेगा।
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लखनऊ में 19 दिसंबर, 2019 को हुए प्रदर्शन की एक तस्वीर।

उत्तर प्रदेश सरकार ने नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) के विरुद्ध प्रदर्शन में शामिल प्रदर्शनकारियों से दिन के अंदर 64 लाख रुपये जमा करने को कहा है। सरकार द्वारा भेजे गए नोटिस में कहा गया है कि अगर क्षतिपूर्ति की रक़म समय पर जमा नहीं हुईतो प्रदर्शनकारियों की संपत्ति को ज़ब्त कर लिया जायेगा।

 सीएए के विरुद्ध 19 दिसंबर 2019 को हिंसक प्रदर्शन के दौरान हुए सार्वजनिक नुक़सान की वसूली के यह नोटिस प्रदर्शनकारियों को भेजे जा रहे हैं। तहसीलदार सदर के कार्यालय से भेजे गए नोटिस में यह भी कहा गया है, अगर सरकारी आदेश का पालन नहीं किया गया तो उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता 2006 के अधीन उत्पीड़नात्मक करवाई की जायेगी। जिसके अंतर्गत प्रदर्शनकारियों कि गिरफ़्तारियाँ भी हो सकती हैं। 

 हालाँकि कुछ प्रदर्शनकारियों ने मुआवज़े को लेकर राजधानी में लगाई गई होर्डिंग्स के बाद ही इस को अदालत में चुनौती दे दी थी। आईपीएस एसआर दारापुरी (रिटायर्ड) जिनको गुरुवार दोपहर 64,37,637 रुपये अदा करने का नोटिस मिला हैवह पहले ही इस मामले को उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ में चुनौती दे चुके हैं।

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 दारापुरी सीएए के विरोध के बाद जेल से ज़मानत पर रिहा हुए हैं। उन्होंने ने बताया कि मुआवज़े को लेकर चल रहे मुक़दमे में 17 जून को सरकारी वकील ने जवाब दाखिल करने के लिए 10 दिन की मोहलत मांगी थी। इसी आधार पर अदालत ने अगली सुनवाई की तारीख़ जुलाई के दूसरे सप्ताह की दी है।

 रिटायर्ड आईपीएस कहते हैं कि 18 दिसंबर 2019 कि रात से ही पुलिस ने उनको नज़रबंद कर दिया था। दारापुरी प्रश्न करते हैं कि जब मैं पुलिस की मौजूदगी में 19 दिसंबर अपने घर में थातो हिंसा में हुए नुक़सान का मुआवज़ा मुझ से किस आधार पर माँगा जा रहा है

 दिलचस्प बात यह है कि रिहाई मंच के अध्यक्ष और प्रसिद्ध अधिवक्ता मोहम्मद शोएब भी 19 दिसंबर 2019 को अपने घर पर नज़रबंद थे। लेकिन सरकार द्वारा उनको भी वसूली का नोटिस मिला है।

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मोहम्मद शोएब कहते हैं कि सरकार बिना किसी ठोस आधार के केवल भय पैदा करने के नोटिस भेज रही है। उन्होंने कहा कि आपातकाल काल में भी वह जेल गये थे और फिर जाने को तैयार हैं। लेकिन ग़ैर संवैधानिक सीएए को मंज़ूर नहीं करेंगे।

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 सामाजिक कार्यकर्ता और कांग्रेस की नेता सदफ़ जाफ़र को भी वसूली का नोटिस मिला है। अपर ज़िलाधिकारी (पूर्व) के कार्यालय से प्राप्त नोटिस पर वह कहती है की सरकार अपने कट्टर सांप्रदायिक समर्थकों को संगठित रखने के लिए सेक्युलर नागरिकों को निशाना बना रही रही है। क्यूँकि कोविड-19 के विरुद्ध जंग में सरकार कि विफलता से सत्तारूढ़ दल की ज़मीन कमज़ोर हो गई है।

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योगी सरकार द्वारा रंगकर्मी दीपक मिश्रा (दीपक कबीर) को भी वसूली का नोटिस भेजा गया है। दीपक ने न्यूज़क्लिक से बात करते हुए कहा कि सरकार मनमाने तरीक़े से करवाई कर रही है। जबकि हर मामले में विरोधी पक्ष को भी अपनी बात कहने का अधिकार होता है। उन्होंने बताया कि वसूली के लिए लगाई गई विवादास्पद होर्डिंग्स में उनकी भी तस्वीर थी। जब उन्होंने इसका जवाब दिया तो सरकारी अधिकारियों ने उसे स्वीकार नहीं किया और सीधे नोटिस भेज दिया।

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 क़ानून के माहिर अधिवक्ता कहते हैं कि प्रदर्शनकारियों को सरकार द्वारा भेजे जा रहे नोटिस सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गये दिशा-निर्देशों के विरुद्ध है। कई प्रदर्शनकरियों के अधिवक्ता ज़िया जिलानी कहते है कि सरकार द्वारा भेजे जा रहे नोटिस का कोई क़ानूनी आधार नहीं है। वह कहते हैं कि जिन प्रदेशों में  क्षतिपूर्ति का क़ानून नहीं, वहाँ वसूली भी नहीं जा सकती है। उत्तर प्रदेश में  क्षतिपूर्ति का अध्यादेश 19 दिसंबर 2019 के बाद आया है। इसलिए वह किसी पुराने मामले पर लागू नहीं होता है।

 उल्लेखनीय है कि विवादास्पद संशोधित नगरिकता क़ानून के विरुद्ध नागरिक संगठनों ने 19 दिसंबर 2019 प्रदर्शन का ऐलान किया था। राजधानी लखनऊ में परिवर्तन चौक पर प्रदर्शन होना था। लेकिन प्रदर्शनकारियों और पुलिस के बीच कई इलाक़ों में हिंसक झड़प हो गई। जिसमें सम्पत्ति के नुक़सान के साथ एक व्यक्ति मौत भी हो गई थी। मृतक के भाई ने उस समय बताया था कि उनका भाई प्रदर्शन का हिस्सा नहीं था। उन्होंने पुलिस पर उनके भाई को गोली मारने का आरोप लगाया था। हालांकि पुलिस का कहना था कि इसके बारे में पूरी जांच के बाद ही कुछ कहा जा सकता है।

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इसके बाद बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारियों को गिरफ़्तार कर के जेल भेजा गया। जबकि इन प्रदर्शनकारियों का कहना था कि उनका प्रदर्शन शांतिपूर्ण था। पुलिस ने ही बर्बरता की। ये भी आरोप था कि कुछ अराजक तत्वों जिन्हें पुलिस की शय प्राप्त थी, उन्होंने ही हिंसा की और संपत्ति को नुकसान पहुंचाया। लेकिन इन आंदोलनकारियों-प्रदर्शनकारियों की बातों-आरोपों को पुलिस-प्रशासन ने सिरे से खारिज कर दिया और उन्हीं के खिलाफ मुकदमें करते हुए सार्वजनिक सम्पत्ति के नुक़सान कि वसूली के लिए सार्वजनिक स्थलों पर उनकी तस्वीरों के साथ होर्डिंग्स लगा दी। जिस पर  विवाद हो गया जो अदालत तक गया और प्रदर्शनकारियों ने इसका विरोध करते हुए इससे लिंचिंग के ख़तरे का आरोप लगाया। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस मामले में उत्तर प्रदेश प्रशासन को कड़ी फटकार लगाई और लखनऊ के डीएम और पुलिस कमिश्नर को सभी होर्डिंग्स को हटाने का आदेश दिया है। सरकार इस मामले को सुप्रीम कोर्ट ले गई जहां से ये एक बार फिर हाईकोर्ट में आ गया और अभी भी विचाराधीन है।

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