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विशेष: किसानों के 'संविधान निर्माता', कमेरों के लड़ाका दीनबंधु चौधरी सर छोटूराम

''हम गोरे बनियों (व्यापारियों) का शासन बदल कर काले बनियों का शासन नहीं चाहते। हम चाहते हैं कि भारत में किसान-मज़दूर का राज हो।''
Sir Chhotu Ram
फ़ोटो साभार : The Quint

ये 8 जनवरी 1945 की शाम थी और आज़ादी से पहले के पंजाब प्रांत की राजधानी लाहौर में सूबे की सरकार के सबसे वरिष्ठ मंत्री देर रात तक कुछ फाइलों पर हस्ताक्षर करते रहे। फाइल्स थी भाखड़ा-नांगल बांध परियोजना से जुड़े तमाम मामलों को अंतिम स्वीकृति देने की और मंत्री का नाम था रह्बर-ए-आज़म दीनबंधु चौधरी सर छोटूराम। यही सर छोटूराम उसके अगले दिन यानी 9 जनवरी 1945 को अंतिम सांस लेते हैं और अपने जीवन के अंतिम दिन भी किसानों को ऐसी सौगात देकर जाते है जिससे आज पूरे पंजाब, हरियाणा और उत्तरी राजस्थान की फसलें लहराती है। किसानों को बंपर पैदावार देती है इसी के बल पर भूखे भारत के गोदाम किसानों ने भरे हैं।

किसानों के हित में जितने कानून, नीतियां और योजनायें उन्होंने बनाई उसके लिए उनको अगर ‘किसानों का संविधान निर्माता’ भी कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। वैश्विक स्तर पर शोषित और शोषक की लड़ाई को बड़े-बड़े विद्वान् ‘वर्ग-संघर्ष’ के भारी-भारी शब्दों में समझाते हैं उसको आम किसान-मजदूर को कमेरा और लुटेरा की लड़ाई जैसे शब्दों से बेहद आसानी से समझाने वाले, कमाऊ और खाऊ के बीच की रेखा को खींचने वाले, राजनैतिक आज़ादी से पहले आर्थिक-सामजिक आज़ादी के पक्षधर छोटूराम ताउम्र कमेरों के लड़ाका रहे।

उनकी लड़ाई निजी जीवन में भी कम नहीं थी। उनका जन्म तात्कालिक पंजाब प्रांत के रोहतक (अब हरियाणा के झज्जर) जिले के गढ़ी सांपला गांव में 24 नवम्बर 1881 को एक 10 बीघा जमीन पर खेती करने वाले और साहूकारों के कर्ज में डूबे सुखीराम ओहल्याण के यहां हुआ। नाम रखा गया राम रिछपाल लेकिन घर में सबसे छोटे होने के चलते सब छोटू नाम से बुलाते थे। स्कूल गए तो छोटूराम नाम लिख दिया गया। प्रारंभिक शिक्षा (मिडल) झज्जर से पूरी की, पूरे रोहतक जिले में अव्वल रहे। लेकिन साहूकारों की बेहिसाब सूदखोरी के चलते परिवार कर्ज में कर्ज में डूबा था। बड़ी मुश्किल से फिर से कर्ज लेकर अपने चाचा राजेराम की मदद से दिल्ली के क्रिश्चियन मिशन स्कूल में प्रवेश लिया। यहां पर प्रिंसिपल ने उनकी प्रतिभा को देखते हुए ना सिर्फ फ़ीस से माफ़ी दे दी बल्कि छः रूपया महीना वजीफ़ा भी तय किया। इसके सहारे इंटरमीडिएट तक की पढाई पूरी की लेकिन फिर संकट सामने दिख रहा था। ऐसे में सहारा बने हिसार में जन्मे और बंगाल में व्यवसायरत सेठ छाजूराम उन्हें आगे की शिक्षा के लिए आर्थिक सहायता दी। 1905 दिल्ली के सैंट स्टीफंस कॉलेज से अपनी स्नातक तक की शिक्षा पूरी की और तुरंत बाद कालाकांकर रियासत के राजा रामपाल सिंह के यहां नौकरी करने लगे। साथ ही अंग्रेजी अखबार ‘हिन्दुस्तान’ का सम्पादन करने लगे। 1907 कानून की पढाई के लिए आगरा चले गए, 1911 में इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय के आगरा कॉलेज से कानून की डिग्री पूरी की।

1912 में रोहतक वापस लौटे और बतौर वकील काम करने लगे। साथ में सामाजिक हित के लिए काम करने लगे, शिक्षा पर विशेष जोर दिया और रोहतक में एक विद्यालय की स्थापना की। शिक्षा के लिए ये काम वो ताउम्र करते रहे और अनगिनत विद्यालय और छात्रावासों की स्थापना उन्होंने अपने जीवनकाल में की। छोटूराम ने किसानों में राजनीतिक चेतना जगाने के लिए साल 1915 में उन्होंने उर्दू साप्ताहिक 'जाट गजट' का प्रकाशन शुरू किया, जी हां आपने सही पढ़ा उर्दू साप्ताहिक। भारत में पैदा हुई उर्दू, आम किसान-मजदूर की भाषा उर्दू जिसे इतिहास और वर्तमान की सही समझ नहीं रखने वाले और अपना राजनैतिक एजेंडा सेट करने वाले सिर्फ मुस्लिमों की भाषा साबित करने में लगे रहते है। इसमें उनका लिखा लेख ‘ठग बाज़ार की सैर’ और सत्रह लेखों की श्रृंखला 'बेचारा जमींदार' ने व्यापक बहस खडी की। इसके चलते अंग्रेज सरकार ने उन्हें ‘भयानक व्यक्ति’ कहा।

ऐसे सामाजिक और जागरूक व्यक्ति का सक्रिय राजनीति से दूर रहना कहां संभव था। उन्होंने 1916 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सदस्यता ली और रोहतक कांग्रेस कमिटी की स्थापना की। पहले अध्यक्ष बने, अध्यक्ष रहते हुए ही असहयोग आंदोलन में महात्मा गांधी से वैचारिक असहमति के चलते 1920 में कांग्रेस छोड़ दी। उनका मानना था कि बिना आर्थिक और सामाजिक न्याय के आज़ादी की लड़ाई अधूरी है, उनकी ये वैचारिकी समय के साथ मजबूत होती चली गयी और जरूरत पड़ने पर वे इसके लिए खुलकर अपना पक्ष रखने से कभी नहीं हिचकिचाए। जब भारतीय समाज में व्याप्त भेदभाव का अध्ययन करने 1927 में साइमन कमीशन भारत आया तो पूरी कांग्रेस ने उसका विरोध किया, लेकिन बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर के साथ-साथ चौधरी छोटूराम कमीशन के पक्ष में खड़े हुए। साइमन कमीशन का लाहौर रेलवे स्टेशन पर स्वागत करने गये। कांग्रेस के स्वतंत्रता संग्राम से असहमति पर 1929 में एक पत्रकार के सवाल करने पर वे इन शब्दों में स्पष्ट करते है “'हम गोरे बनियों (व्यापारियों) का शासन बदल कर काले बनियों का शासन नहीं चाहते। हम चाहते हैं कि भारतवर्ष में किसान-मजदूर का राज हो।“ 

राजनैतिक यात्रा

चौधरी छोटूराम ने 1923 में पंजाब के प्रसिद्ध मुस्लिम नेता सर फजले हुसैन के साथ मिलकर किसानों का एक मजबूत संगठन बनाया जिसे यूनियनिस्ट पार्टी (जमींदारा लीग) नाम दिया गया। इस पार्टी ने ग्रामीणों को धर्म के आधार पर नहीं बल्कि उनके आर्थिक आधार पर एकजुट करने का काम किया। यह पार्टी हिंदू-मुस्लिम एकता की प्रबल समर्थक थी। पार्टी के गठन के अवसर पर छोटूराम ने कहा था कि आज से कोई भी किसान, चाहे वह दलित हो या सवर्ण, अगर वह जमींदारा पार्टी से जुड़ा है तो वह जमींदार कहलाएगा। वह जमींदारा पार्टी का सच्चा सिपाही और जमींदार होगा।

पंजाब एक मुस्लिम बहुल प्रांत था। शहरी हिंदुओं का व्यापार, वाणिज्य और लोक सेवाओं में दबदबा था। पेशेवर साहूकार भी बहुसंख्यक हिंदू थे। 1923 में पंजाब विधान परिषद चुनाव में छोटूराम विजयी हुए। यूनियनिस्ट पार्टी बहुमत प्राप्त पार्टी के रूप में उभरी। सितंबर 1924 में छोटूराम जब कृषिमंत्री बने तो पंजाब के गैर-कृषि हिंदू और मुस्लिम, विशेष रूप से व्यापारी और साहूकार नाराज हो गए और उन्होंने इसका विरोध किया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि छोटूराम किसानों के पुरजोर समर्थक थे।

चौधरी छोटूराम ने मंत्री के रूप में किसानों के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी। इसलिए, शहरी तबका उनका दुश्मन बन गया। छोटूराम ने ग्रामीण इलाकों और ग्रामीणों के विकास के लिए कई कदम उठाए। परिषद के तीसरे चुनाव में छोटूराम ने फिर जीत दर्ज की लेकिन शहरी हिंदुओं के विरोध के कारण उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया। 1927 में छोटूराम को पंजाब विधान परिषद में यूनियनिस्ट पार्टी का नेता चुना गया। वे इस पद पर 1936 तक रहे। 1937 के यूनाइटेड पंजाब प्रोवेंशियल असेंबली चुनावों में यूनियनिस्ट पार्टी ने 175 सीटों में से 95 सीटों पर जीत दर्ज़ कर बहुमत हासिल किया। तब लाहौर अविभाजित पंजाब प्रांत की राजधानी हुआ करता था। 1 अप्रैल 1937 को पंजाब में यूनियनिस्ट पार्टी के मंत्रिमंडल ने शपथ ली। छोटूराम विकास मंत्री बने और ये विभाग उनके पास 1941 तक रहा। बाद में छोटूराम को राजस्व मंत्री बनाया गया और वे इस पद पर अपनी मृत्यु (9 जनवरी 1945) तक रहे।

सुनहरे क़ानूनों का सुनहरा चरण

यूनाइटेड पंजाब में चौधरी छोटूराम ने किसानों के हितों को सर्वोपरि महत्व दिया। वे कहा करते थे कि मैं पक्का खेतिहर हूं और इनके हक के लिए लड़ना मैं अपना सर्वोपरि कर्त्तव्य समझता हूं। सन 1932 की सर्वजातीय काँफ्रेंस में किसान का राज स्थापित करने कि लिए उन्होंने मंडी बिल, कर कानून, भूमि सुधार व कर्मचारी कानून आदि का परिचय देकर अपने आपको किसानों का सच्चा हितैषी सिद्ध कर दिया। सन् 1937 में पंजाब प्रोविंशियल असेंबली के चुनाव संपन्‍न हुए। सन 1936 में पंजाब में 57% मुस्लिम, 28% हिन्दू, 13% सिक्ख और 2% ईसाई थे। इस जनसंख्या का 90% भाग किसानों का था, जिनमें से 80% किसान कर्जदार थे। यूनियनिस्ट पार्टी व्यावहारिक स्तर पर 90% आबादी के हितों की रक्षक थी। पंजाब विधान परिषद के चुने हुए सदस्य और मंत्री की हैसियत से छोटूराम ने किसानों को साहूकारों के चंगुल से छुड़ाने, उनकी भूमि को भूमि कर से मुक्त कराने, लगान हटाने और उनके आर्थिक विकास के लिए मंत्रिमण्डल में सदा आवाज उठायी और इनसे संबंधित कानून बनाने में प्रमुख भूमिक निभाई।

 उन्होंने जो कानून बनाए उनको किसानों ने ‘सुनहरे कानून’ ( golden acts ) और शहरियों एवं साहूकारों ने उनके द्वारा बनाए गए कानूनों को ‘काले कानून’ का नाम दिया। इन कानूनों से पंजाब के किसानों को शोषण से मुक्ति मिली और उन कानूनों ने पंजाब के किसान की तक़दीर बदल दी थी। पंजाब के इतिहास में वह ऐसा दौर था कि देहात का किसान मज़दूर उत्साह से लबरेज़ था तो व्यापारी छाती पीट रहा था। असल में किसान हितैषी कानून तो वे थे ही, इन सुनहरे क़ानूनों में एक मंडी एक्ट भी था जिसने उस समय गैर कृषक व्यापारी वर्ग को यूनियनिस्ट पार्टी व यूनियनिस्ट नेताओं के विरुद्ध लामबंद होने पर मजबूर कर दिया। साल 1938 में जब यूनियनिस्ट मंत्रिमंडल ने पंजाब विधान परिषद में किसान- मजदूर हितैषी कानूनों के बिल पास करवाए तो व्यापारियों, साहूकारों एवं सांप्रदायिक ताकतों ने ख़ूब विरोध किया।

इनमे से कुछ महत्वपूर्ण कानून इस प्रकार है:

कर्जा माफी अधिनियम (The Punjab Relief of indebtednes act 1935 & The Punjab Relief of indebtedness(Amendment) act 1940)

यह अधिनियम 8 अप्रैल 1935 को पारित किया गया। इस अधिनियम के तहत अगर कोई किसान अपने कर्जे की दोगुनी राशि चुका देता है तो वह कर्जमुक्त माना जाता है। इसके अलावा, इस अधिनियम के तहत किसान के खेत, मकान, खेती के उपकरण और एक तिहाई अन्न कुर्क नहीं किया जा सकता है।

कर्जदार रक्षक कानून (The Punjab Debtors' Protection Act, 1936।)

यह अधिनियम 1936 में पारित किया गया। इस अधिनियम के तहत किसानों को कर्ज लेने के लिए साहूकारों से ज़बरदस्ती कर्ज लेने या ज़्यादा ब्याज देने से रोका गया।

पंजाब साहूकार पंजीकरण अधिनियम (The Punjab Registration of Moneylenders Act,1938)

यह अधिनियम 2 सितंबर 1938 को पारित किया गया। इस अधिनियम के तहत साहूकारों को सरकार से पंजीकृत होने की आवश्यकता पड़ती है। इससे साहूकारों पर अंकुश लगा और किसानों को अनाप-सनाप ब्याज से बचाया गया।

गिरवी/बंधक भूमि वापिस अधिनियम 1938

यह अधिनियम 9 सितंबर 1938 को पारित किया गया। इस अधिनियम के तहत 1901 के बाद कुर्की से बेची गई जमीनों को किसानों को वापस दिलाया गया। इस अधिनियम से लाखों किसानों को लाभ हुआ।

पंजाब कृषि-उत्पाद मार्केटिंग अधिनियम (The Punjab Agricultural Produce Marketing Act 1938)

यह अधिनियम 5 मई 1939 को पारित किया गया। इस अधिनियम के तहत नोटिफाइड क्षेत्रों में मार्केट कमेटियों का गठन किया गया। इन मार्केट कमेटियों के माध्यम से किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य दिलवाया गया।

पंजाब कृषि-उत्पाद मार्केटिंग अधिनियम 1939

इस अधिनियम के लागू होने के बाद मंडियों का पंजीकरण किया गया और महाजनों को लाइसेंस लेना आवश्यक कर दिया गया। मंडी मार्केटिंग समिति में 2/3 प्रतिनिधि किसानों के और 1/3 महाजनों के निर्धारित किए गए।

जब इस कानून का बिल पेश किया गया तो इसका विरोध करते हुए हिंदू महासभा के विधायक डॉ. गोकुलचंद नारंग ने इसे "मारकूट बिल" कहा। कई गैर-किसानों ने कहा कि इस बिल से उनका सर्वनाश हो जाएगा। डॉ. गोकुलचंद नारंग ने कहा, "इस बिल के पारित होने पर रोहतक का दो कौड़ी का जाट लखपति बनिया के बराबर मार्केटिंग समिति में बैठेगा।"

चौधरी छोटूराम ने इसका जवाब देते हुए कहा, "मैं डॉ. साहब से कहना चाहता हूं कि जाट एक अरोड़े से किसी भी तरह कम आदर का पात्र नहीं है। वह समय आ रहा है जब धन के गुलाम लोगों को परिश्रमी धनी जाट बहुत पीछे छोड़ देगा।"

यह बताना जरूरी है कि डॉ. गोकुलचंद नारंग हिंदू महासभा से जुड़े नेता थे और लगभग साहूकार भी थे। इसलिए, इन लोगों ने इस कानून को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की थी जबकि इनके कर्जे तले हर धर्म का किसान-मजदूर दबा हुआ था।

विडंबना यह है कि जिस मंडी कानून को पास करवाने में पुरानी पीढ़ी को कई स्तरों पर कई लड़ाइयां लड़नी पड़ीं। उसी कानून को वर्तमान सरकार ने नए कृषि कानूनों के नाम पर खत्म कर दिया है। सरकार इसे किसानों को आजादी का तोहफा देने का ढिंढोरा पीट रही थी और नई पीढ़ी गुमराह हो रही थी।

छोटूराम की वैचारिकी

चौधरी छोटूराम की राजनैतिक वैचारिकी को उनके द्वारा ‘जाट गजट’ में लिखे विभिन्न लेखों से समझा जा सकता है।

छोटूराम ने मोहम्मद अली जिन्ना के दो राष्ट्र सिद्धांत का पुरजोर विरोध किया और पाकिस्तान की स्थापना का विरोध किया। उनका व्यक्तित्व ऐसा था कि उनके कारण अविभाजित पंजाब प्रांत में न तो जिन्ना की चल पाई और न ही हिंदू महासभा की। वो उस पंजाब प्रांत की सरकार के मंत्री थे जिसका आज दो तिहाई हिस्सा पाकिस्तान में है। 1936 में फज़ले हसन की मृत्यु तक छोटूराम ने सांप्रदायिकता के ज्वार को रोकने में अहम भूमिका निभाई। जिन्ना ने कई दांव खेले, लेकिन यूनियनिस्ट नेता उनके प्रभाव में नहीं आए। हालांकि, फज़ले हुसैन की मृत्यु के बाद सांप्रदायिकता का जहर धीरे-धीरे प्रांत की राजनीति में घुलने लगा। बाद में, 1937 में लखनऊ में जिन्ना-सिकंदर हयात पैक्ट हुआ, जिसमें यूनियनिस्ट पार्टी के मुस्लिम सदस्य मुस्लिम लीग के सदस्य बन सकते थे। इस पैक्ट को छोटूराम से विश्वास में लिए बिना किया गया था। चौधरी छोटूराम की मृत्यु तक पंजाब में सांप्रदायिक तनाव नियंत्रण में रहा। उनकी मृत्यु के बाद यूनियनिस्ट पार्टी में ऐसा कोई नेता नहीं था जो इस पर नियंत्रण रख सके। आज हिन्दू मुसलमान के नाम पर जो उन्माद फैलाया जा रहा है, इसी तरह का माहौल उस समय मुस्लिम लीग व हिन्दू महासभा वाले बना रहे थे। तब चौधरी छोटूराम ने कहा था " इस देश के हिंदुओ व मुसलमानों को इस बात की गांठ बांध लेनी चाहिए कि न तो करोड़ों मुसलमानों को यहां से भगाया जा सकता है और न करोड़ों हिंदुओं को! हिंदुओं व मुसलमानों को साथ मे जीना व साथ मे मरना है। बड़ी दुःखद बात यह रही कि 9 जनवरी 1945 को रहबर-ए-आजम का इंतकाल हो गया। जीते जी धार्मिक उन्मादियों को संयुक्त पंजाब में घुसने तक नहीं दिया और दीनबंधु की मौत के बाद संयुक्त पंजाब का बंटवारा धार्मिक उन्मादियों ने करवा दिया। लोक में छोटूराम के लिए कहावत प्रचलित है की-

''भारत मां का कट कै हिस्सा न्यारा ना होता।

ज़िन्दा होता छोटू राम तो बंटवारा ना होता।'’

वे किसान की लूट का बड़ा कारण तथाकथित धर्म को मानते और यह समझते कि जब तक किसान धर्मआडंबरियों की पकड़ से नही छूट जाता तब तक उसे ठगे जाने से नही बचाया जा सकता । वे धर्म के नाम पर किए जाने वाले मिथ्याचारों को क्लोरोफार्म की संज्ञा देते है। वो लिखते है की “किसान! तेरा ईश्वर ही रक्षक है। सरकार तो अभी तक यह समझती है कि तू कंगाली का वर्णन करता है तो मकरापन करता है। तेरी तरफ़ से दुहाई देने वाला कोई समाचार पत्र नही है। तेरी बिरादरी कुंभकर्ण की नींद सोई हुई है। तेरा कुटुंब अस्त व्यस्त हैं। अगर इस बावले कुटुंब को कोई जगाने का प्रयत्न करता है तो मौलवियों, पंडितो के वर्ग में खलबली मच जाती है। थोड़ा-सा जागरुक होने के लक्षण कहीं दिखाई पड़े कि इन धर्म के शत्रुओं ने धर्म के नाम पर क्लोरोफार्म के फोहे सुंघाने आरंभ कर दिए।” धर्म की राजनीति की तह में जाते हुए वो कहते थे की "शहरी गैर जमींदारों में यह बात फैशन में प्रवेश कर गई है कि उचित अनुचित हर अवसर पर, हर बात में धर्म की टांग अड़ा देते हैं। किसी चीज का धर्म के साथ चाहे कोसों का भी वास्ता न हो लेकिन वह धर्म को उसमें घुसेड़ने का प्रयास करते हैं। वह मुसलमानों, हिन्दुओं और सिखों को तीन विभिन्न समूहों में बंटा हुआ रखना चाहते हैं ताकि वह प्रत्येक समूहों के भीतर धर्म की आड़ लेकर अपनी वरिष्ठता कायम रखें और धर्म की भांग पिलाकर जमींदारों पर हुक़ूमत करते रहें।" धर्म की राजनीति को वर्ग-हित से जोड़ते हुए लिखते है “मेरी नज़र में पूँजीवाद के समर्थक एक जैसे हैं। चाहे वह हिन्दू हो, या मुसलमान हो, या सिख हों, या ईसाई हों या अंग्रेज़ हों। मेरी परिभाषा में यह सब बनिए हैं। चाहे उनके नाम डॉक्टर गोकुल चंद और लाला सीता राम हों, चाहे मलिक बरकत अली या शेख़ मोहम्मद जान हो। चाहे सरदार संतोष सिंह हो और चाहे मिस्टर डेविडसन और मिस्टर गेस्ट हों।”

छोटूराम कहा करते थे कि “किसान को लोग अन्नदाता तो कहते हैं लेकिन यह कोई नहीं देखता कि वह अन्न खाता भी है या नहीं। जो कमाता है वही भूखा रहे यह दुनिया का सबसे बड़ा आश्‍चर्य है।“ अपने गुस्से को वो कुछ इन इस तरह तल्ख़ शब्दों में बयान करते है "राजा-नवाबों और हिन्दुस्तान की सभी प्रकार की सरकारों को कहता हूं कि वो किसान को इस कद्र तंग न करें कि वह उठ खड़ा हो। दूसरे लोग जब सरकार से नाराज़ होते हैं तो कानून तोड़ते हैं, पर किसान जब नाराज़ होगा तो कानून ही नहीं तोड़ेगा, सरकार की पीठ भी तोड़ेगा।" छोटूराम ने कृषक और वंचित वर्ग की जागृति का जो अभियान चलाया था, उसे उन्होंने सिर्फ यूनाइटेड पंजाब तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि पड़ोसी प्रांतों उत्तर प्रदेश और राजस्थान में भी चलाया। उन्होंने किसानों का एक मजबूत संगठन तैयार किया और उन्हें अपने बच्चों को शिक्षित करने का आह्वान किया। सेठ देवीबक्श सर्राफ के आर्थिक सहयोग से उन्होंने राजस्थान के कई ठिकानों में स्कूल खोले ताकि किसानों के बच्चे शिक्षित हो सकें। जन-जागृति के लिए उन्होंने लोगों को भेजा। खासतौर से शेखावाटी क्षेत्र में इसका बड़ा असर पड़ा।

आज किसानों की जमीनें नीलाम की जा रही है, ट्रैक्टर नीलाम किये जा रहे है, कदम-कदम पर किसान जलालत को भुगत रहे है, ऐसे में याद आती है छोटूराम युग के एक किसान की दास्तां। लाहौर हाईकोर्ट में मुख्य न्यायाधीश सर शादीलाल से एक अपीलकर्ता ने कहा कि “मैं बहुत गरीब आदमी हूं, मेरा घर और बैल कुर्की से माफ किया जाए!” तब न्यायाधीश सर शादीलाल ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा कि एक छोटूराम नाम का आदमी है, वही ऐसे कानून बनाता है, उसके पास जाओ और कानून बनवा कर लाओ। अपीलकर्ता छोटूराम के पास आया और यह टिप्पणी सुनाई। छोटूराम ने कानून में ऐसा संशोधन करवाया कि उस अदालत की सुनवाई पर ही प्रतिबंध लगा दिया।

छोटूराम खेती-किसानी को सबसे महत्वपूर्ण और पवित्र काम मानते हुए लिखते हैं "अगर दुनिया में कोई पेशा ऐसा है, जिसकी कमाई नेक है, तो वह पेशा हलपति जमींदार का है, अगर दुनिया में कोई मनुष्य ऐसा है, जो धैर्य और संतोष की जिन्दा मिसाल है तो वह यही जमींदार है।" किसान से आह्वान करते हुए कहते हैं – “ए ज़मींदार (किसान) तू समाज का निचला भाग नहीं है बल्कि सबसे श्रेष्ठ है। तुम हलपति ही नहीं, देखो तुम खेड़ापति और गढ़पति भी हो; तुम हुकूमत का तख़्त-ए-मश्क बनने के लिए पैदा नहीं हुए हो बल्कि हुकूमत करने के लिए पैदा हुए हो; तुम अपने असली स्वरूप को पहचान लो…”

चौधरी छोटूराम अपने चिर-परिचित अंदाज़ में लिखते हैं: "किसान कुंभकरण की नींद सो रहा है, मैं जगाने की कोशिश कर रहा हूं - कभी तलवे में गुदगुदी करता हूं, कभी मुंह पर ठंडे पानी के छींटे मारता हूं। वह आंखें खोलता है, करवट लेता है, अंगड़ाई लेता है और फिर जम्हाई लेकर सो जाता है। बात यह है कि किसान से फायदा उठाने वाली जमात एक ऐसी गैस अपने पास रखती है जिससे तुरंत बेहोशी पैदा हो जाती है और किसान फिर सो जाता है।" वे आगे लिखते है “जब दुनिया में सबसे बड़े और प्राचीनतम व्यवसाय से जुड़े लोग धर्म की सीमाओं से बाहर निकल कर स्वयं को संगठित करने की शुरुआत करते हैं तो पुजारी, मौलवी, ग्रंथि, ज्योतिषी, मुल्ला, क़ाज़ी, ज्ञानी, वक़ील, डॉक्टर, पत्रकार, दुकानदार और सभी बेहद बेचैनी महसूस करने लगते हैं। क्या तुम्हें यहां कोई मक़सद दिखाई नहीं देता? हां , यहां मक़सद है कि तेरे जाग जाने और संगठित हो जाने की सूरत में इन लोगों को अपनी रोज़ी और लीडरी खो जाने का डर है और तू यदि इनका दास ही बना रहना चाहता है तो इनके निर्देशों, संदेशों और उपदेशों के अनुसार आचरण कर ; इन्हें चंदा दे देकर इनके लिए धन जुटाता रह।”

चौधरी छोटूराम बार- बार कहा करते थे “ए भोले किसान, मेरी दो बात मान ले- एक बोलना सीख और एक दुश्मन को पहचान ले।” छोटूराम सरकारी लगान व साहूकारों के कर्ज में डूबते किसानों को देखकर आक्रोश स्वरूप अक्सर एक शेर गुनगुनाया करते थे।

"जिस खेत से दहकां को मयस्सर न हो रोजी।

उस खेत के हर खोश-ए-गंदुम को जला दो।"

9 जनवरी 1945 को सर छोटूराम का लाहौर में निधन हुआ। उनके पार्थिव शरीर को रोहतक लाया गया और उनका अंतिम संस्कार उन्हीं द्वारा स्थापित 'जाट हीरोज़ मेमोरियल सीनियर सेकेंडरी स्कूल' परिसर में हुआ। अंतिम संस्कार में भारी भीड़ जमा हुई। भोले- भाले ग्रामीण रोते हुए यह कह रहे थे - "हमारा राजा मर गया।"

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं शोधकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) 

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