इतवार की कविता: …लौ भर उम्मीद
लौ भर उम्मीद !
जिनकी आंखें नहीं होतीं
उन्हें भी मिलता है रौशनी का साथ
छुअन और उष्मा का अहसास
जिनके कान और ज़बान नहीं होते
उन्हें भी मिलता है भाषा का साथ
संकेतों के गुच्छे,
आंख और होठों की थिरकन की पढ़न
अंग-प्रत्यंगों के संचलन
जिनका देश नहीं होता
उनका ठौर होता है अनवरत सफ़र
जिनका कोई समाज नहीं होता
उनका संवाद होता है आत्ममंथन
जिनका कोई कुरान और पुराण नहीं होता
उनके पास होता है
सोच-विचार का अनंत आकाश
धरातल पर अंगड़ाई लेती कल्पना
और
संघर्ष के बीच खिलती-सजती आस
कुछ-कुछ उस आग की तरह
जब हज़ारों-लाखों बरस पहले घुप्प अंधेरे के बीच
चकमक पत्थर की रगड़ से पैदा हुई होगी चिंगारी
कुछ-कुछ हौले-हौले आघात करती उस ध्वनि की तरह
जो स्वरों की रगड़ाहट से पैदा की होगी झंकार
चिंगारी जबान होकर बनी होगी दीये की लौ
झंकार को मिला होगा यौवन
और नाच उठा होगा संगीत
फिर,
रच गयी होंगी कथायें और कवितायें
ताकि
अंधेरे को मिल सके रौशनी
शोर को संगीत
और
आघात-संघात और प्रतिघात के बीच
झिलमिलाती लौ भर उम्मीद
- उपेन्द्र चौधरी
कवि/पत्रकार
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