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तमिलनाडु: कन्याकुमारी में मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कामगारों की सरकारी हस्तक्षेप की मांग

इन श्रमिकों के सामने एक और बड़ी चुनौती कन्याकुमारी की वह जलवायु भी है, जहां हर साल दो मानसून आते हैं, जिससे श्रमिक तक़रीबन सात महीने तक बिना किसी काम और आमदनी के रह जाते हैं।
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कन्याकुमारी ज़िले में मिट्टी और ग्रोग(बलुई मिट्टी) की खुदाई की अनुमति मांगने के लिए एआईएडब्ल्यूयू की अगुवाई में एक जल निकाय की ओर जा रहे मिट्टी के बर्तन बनाने वाले मज़दूर

कन्याकुमारी ज़िले में मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कामगारों को अपने उन कार्यों को बनाये रखने में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जिनमें वे सिद्धहस्त हैं। सरकार की ओर से लगाये गये कई प्रतिबंधों के चलते जहां मिट्टी और बारीक़ ग्रोग को हासिल करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य बन गया है, वहीं लोगों के दूसरी तरह के बर्तनों की ओर हो रहे झुकाव से इन श्रमिकों को कड़ी टक्कर मिल रही है।

अपने उत्पादों को लेकर किसी सुनिश्चित क़ीमतों की कोई गारंटी नहीं होने के चलते श्रमिक बाज़ार में माल की सुरक्षा और बिक्री के सिलसिले में पहले से मज़बूत और कहीं ज़्यादा प्रभावी सहकारी समितियों की मांग लगातार करते रहे हैं।

इन श्रमिकों के सामने एक और बड़ी चुनौती कन्याकुमारी की वह जलवायु भी है, जहां हर साल दो मानसून आते हैं, जिससे श्रमिक तक़रीबन सात महीने तक बिना किसी काम और आमदनी के रह जाते हैं।

मिट्टी के सामान को पकाने में इस्तेमाल की जाने वाली जलाऊ लकड़ी के साथ-साथ मिट्टी और ग्रोग की गुणवत्ता सहित कुछ अन्य कारकों ने भी उनके इस काम को और ज़्यादा चुनौतीपूर्ण बना दिया है।

श्रमिक अपनी रोज़ी-रोटी की सुरक्षा को सुनिश्चित किये जाने को लेकर सरकार की तरफ़ देखते हैं, जिसमें दूसरी बुनियादी सुविधाओं के साथ-साथ ज़रूरी मिट्टी और बारीक़ ग्रोग की खुदाई के प्रावधान हैं।

'सबसे पुराने कलात्मक क्रियाकलापों में से एक'

मिट्टी के बर्तन या कोई भी बर्तन बनाने का पेशा आदिकाल से ही वजूद में रहा है। देश के कई हिस्सों और ख़ासकर तमिलनाडु में हुई खुदाई से मिट्टी के ऐसे बर्तन मिले हैं, जिनसे सभ्यता की अवधि का अनुमान लगाने में मदद मिली है।

इन खुदाई में मिले घरेलू सामानों के अलावे विभिन्न तरह की उन सजावटी वस्तुओं की भी पहचान की जा रही है, जो साबित करती हैं कि सदियों पहले इस कला का अस्तित्व रहा होगा। इस काम के लिए असाधारण कौशल की ज़रूरत होती है, जिसकी शुरुआत मिट्टी और महीन ग्रोग को मिलाने और उसे चटख बनाने से लेकर अच्छा बनाने और इसे जलाऊ लकड़ी से चलने वाले चूल्हे में पकाने से होती है।

कन्याकुमारी ज़िले के थज़ाकुडी गांव के मिट्टी के बर्तन बनाने वाले एच अय्यप्पन ने बताया, "यह कलात्मक क्रियाकलाप कई सदियों से मौजूद है, क्योंकि पुरानी सभ्यता में लोगों ने अपने अस्तित्व के लिए हथियार और मिट्टी के बर्तन बनाये थे। देश भर और ख़ासकर तमिलनाडु में हो रही खुदाई से मिट्टी के ज़रिये सभ्यता की उम्र का पता लगाते हुए कई निष्कर्ष निकले हैं।"

छोटे-छोटे गांव में सैकड़ों मज़दूर अलग-अलग तरह की ज़रूरतों के लिहाज़ से अलग-अलग तरह के बर्तन बनाने में लगे हुए हैं।

अय्यप्पन ने बताया, “इनसे हमारी जो अहम ज़रूरतें पूरी होती हैं,उनमें मंदिर, घर और बाग़वानी की चीज़ें हैं। लेकिन, इनकी मांग इसलिए कम हो गयी है, क्योंकि लोगों का झुकाव दूसरे तरह के बर्तनों की तरफ़ हो गया है, हालांकि एक अच्छी-ख़ासी संख्या में लोग अब मिट्टी के इन बर्तनों के इस्तेमाल की ओर लौट रहे हैं।”

'श्रमिकों पर असर डालने वाले प्रतिबंध'

ऑल इंडिया एग्रीकल्चरल वर्कर्स यूनियन (AIAWU) के विरोध के चलते ज़िले भर के मज़दूरों पर मिट्टी और बारीक़ ग्रोग के खोदे जाने पर रोक लगी है। इनकी खुदाई की इजाज़त लेने के लिए आवेदन पत्र जमा करने को लेकर श्रमिकों को एक विभाग से दूसरे विभाग में दौड़ना-भागना पड़ता है।

मिट्टी के बर्तन बनाने वाले एस रमेश ने बताया, "पहले तो हमें जल निकायों से मिट्टी और ग्रोग मुफ़्त में मिल जाते थे। हम जो कुछ करते हैं, वह गाद निकालने की एक प्रक्रिया भर है, क्योंकि जल निकायों के बीच से वही मिट्टी ली जा सकती है, जो जल निकायों की भंडारण क्षमता बढ़ाने में मदद करती है।"

धरना स्थल पर प्रदर्शन कर रहे कार्यकर्ताओं के लिए खाना तैयार करतीं महिलायें

राजस्व, खनन एवं लोक निर्माण विभाग (PWD) के मिट्टी उत्खनन के नियमन से इन श्रमिकों की परेशानी बढ़ गयी है।

रमेश ने कहा, "फ़सल कटाई का मौसम ख़त्म होने के बाद हमें मिट्टी और ग्रोग लेने की इजाज़त दी जाती थी। लेकिन, अब हमें ऐसा करने से रोक दिया गया है। हम राज्य सरकार और ज़िला अधिकारियों से मांग करते हैं कि हमारे अनुमति पत्रों की सुचारू प्रक्रिया सुनिश्चित करें और अनुमति दें।"

एआईएडब्ल्यू और पॉटरी वर्कर्स यूनियन ने अपने काम और आजीविका को बनाये रखने के लिए 15 जल निकायों को चिह्नित करने की मांग की है।

एआईएडब्ल्यूयू की कन्याकुमारी ज़िला इकाई के अध्यक्ष एन एस कन्नन ने कहा, "अभी तक सम्बन्धित विभाग ने श्रमिकों के लिए मिट्टी की खुदाई के लिहाज़ से दो जल निकायों को ही निर्धारित किया है। यह तो नाकाफ़ी है, और हम जल निकायों के बढ़ाये जाने या फ़सल कटाई के मौसम के बाद खुदाई वाली पुरानी व्यवस्था को बहाल करने की मांग करते हैं।"

पुलिस और राजस्व अधिकारियों के साथ प्रदर्शन कर रहे कामगारों की बातचीत दौरान मिट्टी का इस्तेमाल करके हाथी बनाने वाली एक लड़की।

'सहकारिता को मज़बूत करने की ज़रूरत'

कामगारों ने इस काम में स्थिरता बनाये रखने के लिए सहकारिता व्यवस्था को मज़बूत करने की भी मांग की है। मौजूदा कुछ सहकारी समितियां बुरी हालत में इसलिए हैं, क्योंकि विभागों ने इन श्रमिकों पर बहुत ही कम ध्यान दिया है।

अय्यप्पन ने बताया, “सहकारिता प्रणाली महज़ कुछ गांवों में ही है, जिस पर सरकार को बहुत ध्यान देने की ज़रूरत है। इमारतों का ठीक से ख़्याल नहीं रखा गया है और यहां उत्पादों के रखे जाने के ख़्याल से भी अपर्याप्त जगह है। एक मज़बूत सहकारी प्रणाली ही श्रमिकों को बचाने में मददगार हो सकती है।”

पर्याप्त जगह की कमी और कौशल हासिल कराने की ओर ध्यान देना श्रमिकों की एक और मांग है, क्योंकि विभिन्न तरह के उत्पादों और उन्हें रखने की जगह के लिहाज़ से ज़्यादा प्रशिक्षण की ज़रूरत होती है।

कन्नन ने कहा, "इस उद्योग को फलने-फूलने के लिए सरकार को तक़रीबन 10-15 एकड़ में एक ऐसा पार्क स्थापित करना चाहिए, जिसमें मिट्टी और ग्रोग को जमा करने, उत्पाद बनाने, बर्तनों को पकाने के लिए चूल्हे और तैयार माल के भंडारण की सुविधा हो। इस उद्योग को जीवित रखने में ऐसी ही व्यवस्था मदद हो सकती है।"

बरसात के मौसम में राहत की मांग लंबे समय से लंबित एक और ऐसी मांग है, जिसे राज्य की किसी भी सरकार ने हल नहीं किया है। उनका कारोबार चलता रहे,इसके लिए कुशल और कला से जुड़े ये श्रमिक अब सरकार की सहायता और इसे लेकर उठाये जाने वाले ज़रूरी कदमों पर अपनी उम्मीदें टिकाये हुए हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें:
TN: Pottery Workers in Kanyakumari Seek Government Intervention

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