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सर्वहारा कवि मुक्तिबोध 'अभिव्यक्ति के ख़तरे' उठाने की बात करते थे...

पूंजीवाद को मरण, रिक्त और व्यर्थ कहने वाले महाकवि मुक्तिबोध औद्योगिक समय की चुनौतियों से निपटने के लिए आजीवन नई शब्दावली गढ़ते रहे…
Muktibodh
फ़ोटो साभार : Quora

"अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया,

ज्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम…"

ये पंक्तियां महाकवि की उपाधि रखने वाले गजानन माधव मुक्तिबोध की हैं। मुक्तिबोध हिंदी साहित्य का वो नाम हैं जो जिंदगी की कशमकश से लेकर सामाजिक आंदोलनों का पर्याय बने। उनकी रचनाएं गहरे अंतर्द्वंद्व और तीव्र सामाजिक अनुभूति के साथ ही उन सवालों का जवाब ढूंढने में मददगार बनीं, जिनके जवाब आसान नहीं थे। मुक्तिबोध कवि होने के साथ-साथ नई कविता के मर्मज्ञ आलोचक भी थे। उन्होंने हिंदी काव्योलचना की क्षेत्र में बहुत मार्मिक, बहुत आगे का काम किया।

ये तो सभी जानते हैं कि मुक्तिबोध को अपने जीवन काल में न तो बहुत पहचान मिली और न ही उनका कोई भी स्वतंत्र कविता संग्रह प्रकाशित हो सका, लेकिन उन्होंने अपने जीवन में कभी समझौता नहीं किया। वे आर्थिक तंगी के मारे थे बावजूद इसके पैसों को कभी अपने उसूलों के आड़े नहीं आने दिया। उन्हें प्रगतिवादी कविता और नई कविता के बीच का सेतु माना जाता है। उनके पाठकों की एक बड़ी संख्या है, जो सच्चाई, यथार्थ और जीवन के संघर्षों में मुक्तिबोध को एक बड़ा मार्गदर्शक मानते हैं।

यूं तो मुक्तिबोध का जन्म 13 नवंबर, 1917 को मध्यप्रदेश में हुआ लेकिन छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव से उनका बहुत गहरा नाता रहा है। यही उनकी कर्मस्थली मानी जाती है, जहां उन्होंने अपना गहन साहित्य रचा। 'ब्रह्मराक्षस' और 'अंधेरे में' मुक्तिबोध का सांसारिक संघर्ष भला कौन भूल सकता है। वे 1958 से लेकर इस दुनिया को अलविदा कहने तक राजनांदगांव के दिग्विजय कॉलेज से जुड़े रहे। यहीं पर उनके निवास स्थल को मुक्तिबोध स्मारक के रूप में यादगार बनाकर वहां हिंदी के दो अन्य साहित्यकार पदुमलाल बख्शी और डॉ.बलदेव प्रसाद मिश्र की स्मृतियों को संजोये हुए 2005 में एक संग्रहालय की स्थापना भी की गई।

वे विद्रोही थे, किसी भी चीज से समझौता नहीं करते

साहित्य के जानकार मानते हैं कि मुक्तिबोध अपनी रचना में बहिर्मुख प्रगतिवादी दृष्टिकोण को और लेखक की आत्मा को एक साथ संयोजित और प्रतिबिंबित करते थे। वे विद्रोही थे, किसी भी चीज से समझौता नहीं करते थे। मुक्तिबोध ने स्वयं लिखा है कि मैं नौकरियां पकड़ता और छोड़ता रहा। शिक्षक, पत्रकार, पुनः शिक्षक, सरकारी और गैर सरकारी नौकरियां। निम्न-मध्यवर्गीय जीवन, बाल-बच्चे, दवा-दारू, जन्म-मौत में उलझा रहा।

भले ही मुक्तिबोध ने 11 सितंबर 1964 को बीमारी के चलते अपनी आंखें मूंद ली, लेकिन वो कभी जिंदगी की जंग नहीं हारे क्योंकि बीमारी ने उन्हें मार तो दिया, पर तोड़ नहीं सकी। मुक्तिबोध का फौलादी व्यक्तित्व अंत तक वैसा ही रहा। जैसे जिंदगी में किसी से लाभ के लिए समझौता नहीं किया, वैसे मृत्यु से भी कोई समझौता करने को तैयार नहीं थे। वे मरे, हारे नहीं। क्योंकि वो मानते थे कि मरना कोई हार नहीं होती। उनके निधन के वर्ष ही उनका पहला कविता संग्रह 'चांद का मुंह टेढ़ा है' प्रकाशित हुआ जिसे वो अपनी आंखों से देख नहीं पाए। लेकिन दुनिया ने उनकी जिंदगी, उनके विचार को इस संग्रह के माध्यम से जरूर देखा।

मुक्तिबोध की रचनाएं

पेश है मुक्तिबोध की पुण्यतिथि पर उनकी कुछ खास कविताओं की पंक्तियां जो आज भी उनके विचारों को साफ तौर से दुनिया के सामने बिना किसी लाग-लपेट के रखती हैं। मुक्तिबोध इस अच्छी दिखने वाली दुनिया का सच लोगों के सामने रखते हैं।

"और उल्टे पैर ही निकल जाओ यहां से,

ज़माना खराब है हवा बदमस्त है;

बात साफ-साफ है,

यहां सब त्रस्त हैं ;

दर्रों में भयानक चोरों की गश्त हैं।"

मुक्तिबोध प्रेम में सपने बुनने की बजाय सच को स्वीकार करने की सलाह देते हैं।

"...सचमुच मुझे दंड दो कि हो जाऊं

पाताली अंधेरे की गुहाओं में विवरों में

धुएं के बादलों में

बिलकुल मैं लापता

लापता कि वहां भी तो तुम्हारा ही सहारा है

इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है

या मेरा जो होता-सा लगता है, होता सा संभव है

सभी वह तुम्हारे ही कारण के कार्यों का घेरा है, कार्यों का वैभव है

अब तक तो ज़िंदगी में जो कुछ था, जो कुछ है

सहर्ष स्वीकारा है

इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है

वह तुम्हें प्यारा है।"

मुक्तिबोध सब स्वीकारने और समझौते करने में अंतर भी स्पष्ट करते हैं। मुक्तिबोध ने दुनिया का अस्तित्व स्वीकारा है मगर शोषण और दमन के साथ कभी समझौता नहीं किया। वो अभिव्यक्ति के खतरे उठाने की बात किया करते हैं...

“...अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे

उठाने ही होंगे।

तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।

पहुंचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार।"

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