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तिरछी नज़र: शौक़ बड़ों की चीज़ है

प्रधान सेवक का बड़ा मन है, बड़ी इच्छा है, बड़ा सपना है, उन्हें बड़ा शौक़ है...। उनका शौक़ बड़ा है, इसलिये उनके मकान का काम चल रहा है, आम आदमी का शौक़ छोटा है इसलिये आम आदमी के मकान का काम बंद है।
तिरछी नज़र: शौक़ बड़ों की चीज़ है
कार्टून साभार: Sajith Kuma

शौक़ बड़ी चीज़ है, जी भर के कीजिये। वास्तव में शौक़ होना ही, शौक़ छोटा हो या बड़ा, बड़ी चीज़ है। शौक़ बड़ी चीज़ ही नहीं बल्कि बड़ों की चीज़ भी बन गई है। बड़ों की चीज़ इसलिए क्योंकि छोटों को, आम जनता को खाने-पीने का इंतजाम करने से, मरने से इतनी फुरसत ही कहाँ है कि वह शौक़ रखे और अपने शौक़ पूरे करने की इच्छा करे। आज कल शौक़ करना तो अमीरों का काम है, फुरसत का काम है। जनता शौक़ कहाँ से करे और कैसे करे। जो थोड़े बहुत शौक़ थे भी, वे महामारी की भेंट चढ़ गए।

आम लोग, आम जनता भी इच्छा रखती थी, शौक़ फरमाती थी। पर वह पुराने ज़माने की बात थी। कोई खाने-पीने का शौक़ रखता था तो कोई पहनने-ओढ़ने का। किसी को गाड़ी की इच्छा थी तो किसी को अपने मकान की। हर आदमी कोई न कोई शौक़ रखता था, इच्छा पाले बैठा था। वो भी क्या दिन थे! जाने कहाँ गये वो दिन।


लेकिन 'जनता के सेवकों' को तो अपने शौक़ पूरा करने में बीमारी का, महामारी का कोई फर्क नहीं पड़ता। आज भी कोई बड़ा सेवक नई जगह कार्यभार संभालने पर अपने आफिस की साज-सज्जा बदल सकता है। नया फर्नीचर और परदे खरीद सकता है भले ही पुराने अफसर ने दो दिन पहले ही ये चीजें बदली हों। बड़े बाबुओं को तो अपने घर के फर्नीचर के भी पैसे मिलते हैं। ये बाबू अपनी नई सरकारी गाड़ी भी उसी जनता के टैक्स के पैसे से खरीद सकते हैं जिस जनता को अपने टैक्स के पैसे से मुफ्त शिक्षा प्रदान किये जाने में दिक्कत होती है। आप सरकारी खर्च पर अपने काफी सारे शौक़ और इच्छाएँ पूरी कर सकते हो बस मिज़ाज शौक़ीन होना चाहिये।

यह बात तो 'सेवकों' और 'जनसेवकों' के बारे में है। पर अगर सेवक 'प्रधान सेवक' हो तो !  फिर वहाँ तो कोई लिमिट ही नहीं है, शौक़ और इच्छाओं की। अगर आप चाहें तो आप दिन में चार बार कपड़े बदल सकते हैं। दस लाख का सूट पहन सकते हैं। और कोई आपको दस लाख का सूट 'गिफ्ट' दे सकता है। वैसे भी सेवकों को भेंट मिलती ही रहती हैं, और प्रधान सेवक जी को तो और भी ज्यादा मिलेंगी। वे तो अधिक 'काम' की चीज़ हैं। सिर्फ एक ही तो शौक़ है प्रधान सेवक जी को, अच्छा पहनने का। आपको, प्रधान सेवक जी को,जैसा कि सुनते हैं, विदेशी मशरूम खाने का भी शौक़ है। सुना है, अस्सी हजार रुपये किलो मिलता है वह मशरूम। प्रधान सेवक जी को सिर्फ यह दूसरा ही तो शौक़ है, खाने-पीने का। देश के लिए, जनता के लिए अट्ठारह-अट्ठारह घंटे काम करने वाला व्यक्ति, सिर्फ तीन घंटे सोने वाला व्यक्ति क्या एक टाइम भी ढंग से, मनपसंद खाना खाने का शौक़ नहीं फरमा सकता है !

वाहन का शौक़ कौन नहीं रखता है? किसे इच्छा नहीं होती है कि उसका अपना वाहन हो। उसके पास कार हो। कार नहीं तो स्कूटर-मोटरसाइकिल ही हो। पर आम आदमी इस कोरोना काल में एक साइकिल भी नहीं खरीद पा रहा है। पहले तो पैसे ही नहीं हैं। और अगर पैसे हैं भी तो शो रूम बंद हैं, उत्पादन बंद है। गाड़ी मिल भी रही हो तो घर के लोग तूफ़ान उठाये रहते हैं कि यहाँ तो खाने के लाले पड़े हैं और तुम्हे गाड़ी की पड़ी है। कोई गाड़ी नहीं आएगी.पर ' प्रधान सेवक' उनकी गाड़ी (हवाई जहाज) तो आ भी गई। इस आपदा काल में भी आ गई। खाने के लाले पड़े हैं फिर भी साढ़े आठ हज़ार करोड़ में आ गई है। उनका बड़ा शौक़, उनकी बड़ी इच्छा पूरी हो गई है।

मकान, यह तो लोगों का सपना होता है। मकान बनाने का लोगों को बहुत शौक़ होता है। शौक़ बड़ा तो है, लेकिन सभी पालते हैं। सभी की बहुत इच्छा होती है कि अपना एक मकान हो। लोग जीवन भर की गाढ़ी कमाई लगा देते हैं एक मकान का सपना पूरा करने के लिये। पर इस महामारी के काल में यह शौक़, इच्छा, सपना अधूरा ही है। कोई मकान बनवा भी रहा होता है तो, बारम्बार लगते और बढ़ते लॉकडाउन में उसका यह सपना, सपना ही बन कर रह गया है। कभी मज़दूर गाँव चले जाते हैं तो कभी मज़दूर हैं तो रेत, सीमेंट और बदरपुर नहीं है। और सब कुछ है तो लॉकडाउन लग जाता है। काम बंद है, पर प्रधान सेवक जी का मकान तो बन रहा है। लगातार बन रहा है। महामारी में भी बन रहा है, लॉकडाउन में भी बन रहा है। हजारों करोड़ में बन रहा है। प्रधान सेवक का बड़ा मन है, बड़ी इच्छा है, बड़ा सपना है, उन्हें बड़ा शौक़ है कि वे अगले चुनाव से पहले ही इस मकान में शिफ्ट हो जाएँ। उसके बाद न जाने उसमें कौन रहे । उनका शौक़ बड़ा है, इसलिये उनके मकान का काम चल रहा है, आम आदमी का शौक़ छोटा है इसलिये आम आदमी के मकान का काम बंद है।

आम आदमी शौक़ नहीं पाल सकता है, वह तो इच्छा ही कर सकता है। उसे पता है कि कोरोना की तीसरी लहर भी आएगी। और तीसरी ही क्यों, सरकार ऐसे ही चलती रही तो चौथी, पाँचवी भी आएगी। वह तो बस यही इच्छा कर सकता है कि बीमारी में मरे तो बीमारी से ही मरे। समुचित इलाज के बाद मरे, न कि डॉक्टरों और अस्पतालों की कमी से मरे। बिस्तरों और ऑक्सीजन की कमी से न मरे। दवाइयों की कमी से न मरे। मरे तो श्मशान, कब्रिस्तान मिल जाएँ, और अगर गंगा-गोदावरी के किनारे दफ़ना भी दिया जाए तो उसके शव की इज़्ज़त की जाए। उस पर ओढ़ाई गई रामनामी चादर हटाई न जाए। उसके शव को नंगा न किया जाए। बस यही एक छोटी सी चिंता है, छोटी सी इच्छा है। और आप कहें तो छोटा सा शौक़ है। बस ज़िन्दा रहने का शौक़ है या फिर सम्मान से मरने का शौक़ है। अगर पूरा हो सके तो ।

आमीन...!    

(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)

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