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MSP की लड़ाई जीतने के लिए UP-बिहार जैसे राज्यों में शक्ति-संतुलन बदलना होगा

किसान इस बात को समझ गए हैं कि MSP उनका जायज हक है, यह बात अब पूरे देश के किसानों की अनुभूति का हिस्सा बन गयी है। और जैसा मार्क्स ने कहा, कोई विचार जब जनगण की अनुभूति बन जाता है तो वह एक Material force हो जाता है।
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फ़ोटो साभार: सोशल मीडिया

ऐतिहासिक किसान-आंदोलन में जीत दर्ज कर किसान अब अपने घरों को लौट चुके है, स्वाभाविक ही, पूरे रास्ते भर युद्ध जीत कर लौट रही सेना की तरह उनका वीरोचित स्वागत हुआ। किसान नेताओं ने अपनी भावनाएं और इरादे बिल्कुल साफ कर दिए हैं- वे कृषि के कारपोरेटीकरण के लिए दृढ़प्रतिज्ञ, अहंकारी मोदी सरकार को घुटनों पर ला कर खुश बहुत हैं, पर वे इसे मुकम्मल जीत नहीं मानते, समझौते पर सरकार क्या कर रही, इस पर वे कड़ी निगरानी रखेंगे और लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाने के लिए फिर दिल्ली लौटेंगे।

एक नेता ने इस सामूहिक भावना को स्वर दिया, " सेनाएं एक मोर्चा फतह करने के बाद कुछ दिन आराम करने के लिए लौट रही हैं।"

इसीलिए किसान-नेताओं ने आंदोलन स्थगित करने की बात की है, ख़त्म करने की नहीं। समझौते के क्रियान्वयन की वे 15 जनवरी को समीक्षा करेंगे और उसके आधार पर आगे की रणनीति तय करेंगे।

इस आंदोलन के गर्भ से निकला किसानों का पहला broad-based अखिल भारतीय संगठन संयुक्त किसान मोर्चा अब स्थायी तौर पर मौजूद रहेगा और ऊपर से नीचे तक उसका सुव्यवस्थित ढांचा खड़ा होगा।

दरअसल, गौर से देखा जाय तो यह युद्धरत सेनाओं के दोनों ही पक्षों के लिए एक अस्थायी युद्धविराम जैसा है और इस बात को दोनों पक्ष अच्छी तरह समझ रहे हैं।

कानूनों की वापसी और समझौते के पीछे पंजाब में security concern का जो नैरेटिव सरकार द्वारा चलाया जा रहा है, वह face-saving की कोशिश है और किसान- आन्दोलन को, जो शांतिपूर्ण लोकतान्त्रिकता की पूरी दुनिया में मिसाल बन चुका है, बदनाम करते रहने के अभियान का ही जारी रूप है। ( यहां आंदोलन के दौर की ठोस स्थिति के बारे में कहा जा रहा है, उस hypothetical स्थिति के बारे में नहीं जब आंदोलन को दमन और षड़यंत्र के बल पर कुचलकर या खाली हाथ पराजित वापस लौटाया जाता। तब क्या होता वह उस ठोस स्थिति में तमाम forces की अंतःक्रिया से तय होता।)

किसान इस सच्चाई को अच्छी तरह समझ रहे हैं कि सरकार ने आंदोलन से होने वाले चुनावी नुकसान से डरकर समझौता किया है, पर वह अपनी नीतिगत दिशा और कार्पोरेटपरस्ती पर कायम है। इसलिए तमाम शातिर तरीकों से वह कृषि के कारपोरेटीकरण के उपाय तलाशती रहेगी और अनुकूल राजनैतिक महौल मिलते ही फिर आक्रामक रुख अपना सकती है। सरकार के प्रति अविश्वास का आलम यह है कि किसानों को यहाँ तक आशंका है कि अगर विधान-सभा चुनाव भाजपा जीत लेती है तो काले कानून वापस फिर लागू किये जाएंगे ! ( दरअसल मिलता-जुलता मन्तव्य कुछ भाजपा नेताओं ने व्यक्त भी किया है। )

जहां तक MSP की बात है, यह पहली बार राष्ट्रीय राजनीति का एजेंडा बन गयी है और किसान सरकार को इस पर लिखित तौर पर commit करने के लिए बाध्य करने में सफल हुए हैं। इस पर सरकार को engage करते हुए एक कमेटी बनवाने और उसमें मोर्चे के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करवाने में वे सफल हुए हैं। जबकि, सरकार तो MSP-procurement-PDS regime को पूरी तरह dismantle ही करने की दिशा में बढ़ रही थी,उसकी इस मुहिम पर फिलहाल रोक लग लगी है। इस सन्दर्भ में देखा जाय तो यह बेशक एक उल्लेखनीय सफलता है।

पर किसान इस बात को अच्छी तरह समझ रहे हैं कि सरकार MSP की कानूनी गारण्टी से बचने की हर मुमकिन कोशिश करेगी। राकेश टिकैत ने कहा कि सरकार ने कानून वापस लिए लेकिन MSP गारण्टी नहीं दी, इससे यह साबित हो गया कि MSP ज्यादा बड़ा मामला है।

किसान देख रहे हैं कि सरकार ने जो कमेटी बनाई है, उसके विषय को generalise कर दिया गया है, अनेक मुद्दों के साथ MSP को शामिल करके MSP की केन्द्रीयता को dilute किया गया है। उसमें संयुक्त मोर्चा के साथ ही कृषि-सुधारों के समर्थक, MSP विरोधी किसान नेताओं के लिए भी रास्ता खुला है, जिसका संयुक्त किसान मोर्चा ने विरोध किया था। उस कमेटी में सरकारी अधिकारी और कृषि विशेषज्ञ ऐसे ही शामिल होंगे, जो MSP पर सरकारी stand के साथ होंगे। इसीलिए किसान MSP पर हुए समझौते से बहुत आशान्वित नहीं हैं।

हालांकि, अब सरकार के लिए समझौते की भावना से पीछे हटना आसान नहीं होगा क्योंकि समझौते के पीछे करोड़ों किसानों की आकांक्षा और उनके आंदोलन की backing है तथा उसके फिर से उठ खड़े होने का डर है ।

दरअसल किसानों को अब यह बात समझ में आ गयी है कि उनकी मेहनत की कमाई लूटी जा रही है और उनके जीवन में तब तक कोई बेहतरी नहीं आ सकती जब तक उन्हें अपनी मेहनत और फसल की वाजिब कीमत नहीं मिल जाती। उन्हें उसका गणित भी अब मालूम हो गया है। वे चकित हैं कि जो सरकार कारपोरेट का 10 लाख करोड़ से ऊपर बैंक का कर्ज माफ कर चुकी, हर साल लाखों करोड़ उन्हें टैक्स में छूट दे रही है, वह उसका एक छोटा हिस्सा भी उनकी मेहनत की वाजिब कीमत के लिए देने को तैयार नहीं है। किसान अब इसका पूरा अर्थशास्त्र और इसके पीछे की राजनीति अच्छी तरह समझ गए हैं।

MSP उनका जायज हक है, यह बात अब पूरे देश के किसानों की अनुभूति का हिस्सा बन गयी है। और जैसा मार्क्स ने कहा, कोई विचार जब जनगण की अनुभूति बन जाता है तो वह एक Material force हो जाता है।

सारे संकेत हैं कि किसानों का अगला महाभारत इस देश में MSP के सवाल पर होगा और वह भी UP-पंजाब चुनाव के बाद और लोकसभा चुनाव के पहले।

दरअसल 9 दिसम्बर को सरकार और किसानों के बीच हुआ समझौता एक खास शक्ति संतुलन की अभिव्यक्ति और परिणाम था। वास्तव में, 1 साल से चलती लड़ाई दिए हुए शक्ति-संतुलन में एक घिसाव थकाव की लड़ाई बन गई थी, एक गतिरोध में फंस गई थी। उसे आगे ले जाने के लिए शक्ति संतुलन में और/या फिर परिस्थिति में रैडिकल बदलाव की जरूरत थी।विधानसभा चुनाव ने जैसे ही एक नई परिस्थिति बनाई, सरकार पीछे हटी। सरकार को और पीछे हटाने के लिए किसानों को अपने पक्ष में और बड़ा शक्ति-संतुलन निर्मित करना होगा और परिस्थिति में और अनुकूल बदलाव का इंतज़ार करना होगा। शायद यह अवसर उन्हें लोकसभा चुनाव के पहले मिलने वाला है।

इसके लिए जरूरी होगा कि पंजाब में किसानों की वैचारिक गोलबंदी इस उच्चतर स्तर पर पहुंचे कि वे अपने घटते जलस्तर व पर्यावरण की रक्षा के लिए कृषि का diversification सुनिश्चित करने की दिशा में सभी 23 फसलों की MSP गारण्टी की लड़ाई को जीवन मरण प्रश्न बनाएं। सर्वोपरि, UP, बिहार, MP समेत देश के अन्य तुलनात्मक रूप से पिछड़े कृषि वाले राज्यों के किसानों को इस बार मोर्चा संभालने के लिए बढ़ना होगा क्योंकि वे ही MSP के लाभों से सबसे ज्यादा वंचित हैं। जिस दिन ये पिछडे राज्यों के किसान अगड़े इलाके के किसानों से जुड़ जाएंगे, उसी दिन वह निर्णायक शक्ति संतुलन बनेगा, जब सरकार के लिए MSP से पीछे हट पाना नामुमकिन हो जाएगा।

समग्रता में किसानों को लड़ाई के फ्रंटियर को आगे ले जाना होगा ताकि कृषि के कारपोरेटीकरण को push करने की नित नवीन रूपों में जारी मुहिम को पीछे धकेला जा सके। यह एक continuous war होगा, MSP जिसका पहला अहम मोर्चा है।

इसके लिए सबसे पहले किसानों को लोकतांत्रिक जनमत के साथ मिलकर UP-पंजाब-उत्तराखंड का मोर्चा फतह करना होगा, 2022 में ।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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