वीरा साथीदार के दो साथी—अंबेडकर और मार्क्स
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भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की केंद्रीय समिति द्वारा 14 अप्रैल 2021 को हाल में दिवंगत महाराष्ट्र इप्टा के समन्वयक और प्रसिद्ध फिल्म कलाकार इप्टा के साथी विजय वैरागड़े उर्फ़ वीरा साथीदार की याद में कॉमरेड पी सी जोशी एवं डॉ भीमराव अंबेडकरकी जयंती पर "अंबेडकर की वैचारिकी और भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन का अंतर्संबंध" विषय पर एक ऑनलाइन संगोष्ठी का आयोजन किया गया। कॉमरेड वीरा साथीदार का कोरोना संक्रमण से 12 अप्रैल की रात नागपुर के एम्स अस्पताल में निधन हो गया था। लेखक, कवि, विचारक, सामाजिक कार्यकर्ता, 'विद्रोही' पत्रिका के संपादक तथा मार्क्सवादी-अंबेडकरवादी समन्वय की वैचारिक स्पष्टता के साथ ज़मीनी संघर्षों में भी अग्रणी रहने वाले वीरा दलित-वंचित लोगों के जन-जागरण हेतु लेखन-गायन-संगठन-आंदोलन जैसे अनेक क्षेत्रों में सक्रिय थे।
सन 2014 में वीरा की अभिनीत मराठी फिल्म 'कोर्ट' को सर्वोच्च राष्ट्रीय पुरस्कार मिलने के बाद कला जगत में उनकी पहचान प्रमुखता से हुई। न्याय-व्यवस्था की विसंगतियों तथा शारीरिक अस्वच्छ श्रम के रोज़गार से जुड़े लोगों के प्रति असंवेदनशीलता पर प्रकाश डालती इस फिल्म में लोकगायक नारायण कांबले की केन्द्रीय भूमिका वीरा ने निभाई थी। सन 2016 में इंदौर में हुए इप्टा राष्ट्रीय सम्मेलन में वे प्रतिनिधि के तौर पर शरीक हुए और 2018 में पटना में आयोजित इप्टा के प्लेटिनम जुबली समारोह में नागपुर इप्टा के नाटक 'मसीहा' की टीम के साथ वीरा साथीदार ने शिरकत की थी।
आयोजन की शुरुआत इप्टा की जानी-मानी परम्परा जनगीत गायन से हुई। नाशिक इप्टा से श्रावस्ती मोहिते ने मराठी भाषा के इस भीम गीत को स्वर दिया। आयोजन का संचालन कर रहीं उषा आठले ने बताया कि मराठी भाषा के इस गीत का अर्थ कुछ इस तरह है - बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर को याद करने के लिए भक्ति, श्रद्धा एवं कर्मकाण्ड में कैद करने या उनकी मूर्तिपूजा की जरूरत नहीं है बल्कि वैचारिकी को जानने, समझने, अमल करने और उसे कार्यरूप में जिन्दा रखने की ज्यादा जरूरत है। यदि हम सच्चे भीम सैनिक या अंबेडकर को मानने वाले हैं तो उन्हें इन आडंबरों से मुक्त करवाना होगा। इस मराठी जनगीत के बोल हैं - "माझा भीम मले भेंटतो नाहीं..."।
जनगीत के बाद संगोष्ठी की शुरुआत करते हुए श्री वीरेंद्र यादव ने कहा कि भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन और अंबेडकर की वैचारिकी स्वाधीनता आंदोलन के दौरान ही विकसित हुए और दोनों के बीच अंतर्संबंध भी उसी दौरान बने। सन 1917 में रूस में हुए वामपंथी आंदोलन में मार्क्स की सैद्धांतिकी एवं वैचारिकी उसके केंद्र में थी। भारत में वामपंथी आंदोलन के शरुआती दौर पर लोग यह आरोप लगाते हैं कि इन आंदोलन में दलित मुद्दों की उपस्थिति नहीं थी, लेकिन यह सही नहीं है क्योंकि मार्क्स ने अपने शुरुआती दौर 1853 में भारत के संबंध में जो लेख लिखे वे भारत की इसी जातिगत व्यवस्था पर केंद्रित हैं जिसमें उनका लेख "द फ्यूचर रिजल्ट्स ऑफ़ ब्रिटिश रूल इन इंडिया" उल्लेखनीय है। वर्ण आश्रम यानि जातिव्यवस्था के सूत्र हमें मार्क्स के इस लेख और एकाधिक अन्य लेखों में मिल जाते हैं। मार्क्स ने जातिव्यवस्था को सबसे बड़ी बाधा करार दिया था लेकिन कालांतर में जब 1925 में भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की विधिवत स्थापना हुई तब उसकी प्रस्तावना में जाति का प्रश्न और वर्णाश्रम व्यवस्था के तहत श्रमिकों का जो परम्परागत शोषण था उसको समाहित नहीं किया गया। इस सम्मेलन में दक्षिण भारत के वामपंथी नेता कॉमरेड सिंगारावेलर जो खुद मछुआरा सम्प्रदाय से आते थे, वे भी शामिल हुए थे। उन्होंने कहा कि जब श्रमिकों का शोषण समाप्त होगा और समाजवादी व्यवस्था आएगी तो अन्य सारे शोषण स्वतः ही समाप्त हो जाएँगे। मार्क्स के सिद्धान्त का मूल है कि जाति का प्रश्न आधार से जुड़ा प्रश्न नहीं है, अधिरचना का प्रश्न है और आर्थिक आधार व आर्थिक संघर्षों के जरिये भारतीय समाज में जब परिवर्तन होगा तो जाति, धर्म व अन्य तरह के अंतर्विरोध अपने आप ही समाप्त हो जाएँगे।
यादव कहते हैं, “इसके बरअक्स अंबेडकर का चिंतन उनके खुद के व्यावहारिक जीवन के अनुभवों से जुड़ा हुआ था। अमरीका और इंग्लैण्ड में अध्ययन करने के बावजूद दलित पृष्ठभूमि होने के कारण उन्हें खुद जगह-जगह भेदभाव का सामना करना पड़ा। अंबेडकर के लिए दलित या जाति का प्रश्न कोई चिंतन, सैद्धांतिकी या विचार का प्रश्न न होकर व्यावहारिक जीवन का प्रश्न था। इसलिए 1927 में जब उन्होंने तालाब से पानी लेने का निर्णय लिया और मनुस्मृति को जलाया, उस समय उन्होंने कहा कि यह आंदोलन सार्वजनिक जीवन में दलितों के उद्धार का आंदोलन है। लेकिन इस आंदोलन में उन्हें वामपंथियों का वैसा सहयोग नहीं मिला जैसा अपेक्षित था। अंबेडकर वर्गभेद को पूरी तरह नहीं नकारते थे। वे जाति को एक बंद वर्ग की तरह व्ख्यायायित करते हैं। अंबेडकर दास केपिटल से सहमत नहीं थे, साथ ही वे वर्ग संघर्ष के भी खिलाफ थे लेकिन सन 1956 में उनकी मृत्यु के कुछ समय पहले उन्होंने अपने भाषण में बुद्ध और मार्क्स में एकता के बिंदु तलाश किये थे। उन्होंने कहा था कि वामपंथियों के मुख्य मुद्दे श्रमिकों, किसानों, पीड़ितों की समस्याओं एवं समाजवाद की स्थापना तो थे लेकिन जातिगत भेदभाव को खत्म करना वामपंथी आंदोलन का मुख्य मुद्दा नहीं था जिससे दलितों के आत्मसम्मान को ठेस पहुंची। वामपंथियों के अनुसार मुख्य प्रश्न जाति या वर्ण का नहीं है बल्कि अधिरचना का प्रश्न है जो समाजवाद आने से हल हो जाएगा इसलिए दलित आंदोलन का वामपंथी आंदोलन से विलगाव रहा जो बाद तक जारी रहा।”
यादव आगे कहते हैं कि चाहे वामपंथी हों या आंबेडकरवादी, दोनों को आत्मावलोकन की जरूरत है। जिस विचार के साथ कम्युनिस्ट आंदोलन की शुरुआत हुई थी, निकट भविष्य में वह पूरा होता हुआ नहीं दिख रहा है बल्कि थोड़ा पीछे हो गया है और इसी तरह जाति उन्मूलन पर अंबेडकर की वैचारिकी भी उस तरह आगे नहीं बढ़ी जिस तरह वे चाहते थे। जाति प्रश्न आज भी अधूरा छूटा हुआ है। जाति केन्द्रीयता आज भी है बल्कि और ज्यादा बढ़ गई है। आज पी सी जोशी और अंबेडकर दोनों के जन्मदिन पर हमें मार्क्सवाद और अंबेडकरवाद के मिलन बिंदुओं को तलाशने की जरूरत है, जाति और वर्ग संघर्ष में जो कमियां रहीं उन्हें पूरा करने की जो स्थिति बन रही है वह सराहनीय है और आगे उम्मीद की किरण दिखती है। इन दोनों वैचारिकी के मेल से ही भारत में आने वाले भविष्य का रास्ता प्रशस्त होगा।
सभा में मौजूद सम्भाजी भगत ने कहा कि, “हमें जाति बनने के गतिनियम को समझना बहुत जरूरी है। इसे समझे बिना जाति की पूरी संरचना, जातिगत व्यवस्था को समझ नहीं पायेंगे और जब तक जाति व्यवस्था को नहीं समझेंगे, भारतीय समाज को नहीं समझ पाएंगे। कोई जाति आस्तित्व में आई है तो क्यों आई? उस समय का उत्पादन तंत्र क्या था और किसी जाति के इस तरह अस्तित्व में आने की क्यों जरूरत पड़ी? जिस तरह आधार और अधिरचना का अन्तर्सम्बन्ध है, जाति व्यवस्था भी बिलकुल इसी तरह की है। जिस तरह जड़, बीज, पेड़ का चक्र चलता रहता है बिल्कुल उसी तरह जाति व्यवस्था का चक्र है। जाति में भी वर्ग की गैरबराबरी का सिद्धांत है जो बाबा साहेब ने दिया है। एक दलित या अछूत जाति अपने से नीची जाति का शोषण करती है और उससे नीचे वाली जाति अपने से नीची जाति का शोषण करती है और यह सिलसिला नीचे तक लगातार चलता रहता है। अपने से निचले तबके का शोषण करते वक्त वे अपने पर हुए शोषण को भूल जाते हैं। लेकिन संकीर्ण सोच के लोग जो समझना ही नहीं चाहते, वही जातिवाद, ब्राह्मणवादी या सामन्ती हैं। समाज में उत्पादन साधन व्यवस्था से ही जातिव्यवस्था कायम हुई है।”
सम्भाजी मानते हैं “वर्तमान में यदि हम सच में इस समस्या का हल निकालना चाहते हैं तो वामपंथियों और अंबेडकरवादियों को अपने आपसी मतभेदों और अहंकार को भुलाकर साथ आकर लड़ने और चुनौतियों का एकजुट सामना करने की जरूरत है। जमीनी काम न करने की वजह से यह दूरियाँ आई हैं। हमें जमीनी काम करने की जरूरत है। पिछली गलतियों को नजरअंदाज करके किस तरह आगे बढ़ना है, मिलकर यह सोचने की जरूरत है।”
विद्रोही चळवळ के महासचिव रहे सुबोध मोरे ने कहा कि आज बहुत महत्त्वपूर्ण दिन पर बहुत महत्त्वपूर्ण बातें हुई हैं। इतिहास में कम्युनिस्ट पार्टी से जो गलतियाँ हुई हैं उन्हें बार-बार कहने से कुछ नहीं होगा बल्कि जो गलतियां हुई हैं उन्हें सुधारने की जरूरत है। पार्टी के शुरुआती दौर में नेतृत्व में लकीर के फ़क़ीर की तरह मार्क्सवाद को लागू करने की कोशिश की। हालाँकि मार्क्स ने 1853 में जाति के बारे में लिखा था लेकिन वो जाति की बहुत गहरी समझ का परिचायक नहीं था। हमें आज के समय और अपने देश की परिस्थितियों के अनुसार मार्क्सवाद को समझना और लागू करना होगा। आज जिस तरह की समस्याएं समाज के सामने हैं उसमें चाहे अंबेडकर की वैचारिकी हो या मार्क्स की, दोनों को मिलकर आगे बढ़ना होगा।
वे आगे कहते हैं, “सन 1925 से लेकर 1943 तक का जो समय है उसमें कम्युनिस्ट पार्टी का काम भूमिगत तरीके से चल रहा था जिसमें उनकी कुछ सीमाएँ थीं। उसी दौर में टेक्सटाइल मिल के अछूत मजदूरों के संघर्ष और भेदभावपूर्ण शोषण के खिलाफ कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा कोशिश जरूर की गई। सन 1928 और 1934 की जो टेक्सटाइल मजदूरों की जो हड़तालें हुईं उनमें दलित मजदूरों की मांगें तो उठाई गईं लेकिन बाद में उसका फॉलोअप नहीं हुआ। ये सही बात है कि उस वक्त कम्युनिस्टों की जो भी सीमाएँ रही हों, दलितों का प्रश्न उनके संघर्षों में प्रमुखता से नहीं उठाया जा सका। हम अपनी इस कमजोरी या गलती को स्वीकार भी करते हैं। लेकिन यह भी सच है की दक्षिणी राज्यों में कम्युनिस्ट पार्टी ने वर्ग के साथ-साथ जाति के सवाल पर भी बहुत आंदोलन किये और सफलता भी हासिल की है। कुछ मुद्दों पर वामपंथी और आंबेडकरवादी एक साथ भी आये और संघर्ष भी किया। इतिहास में भी इस तरह की अनेक घटनाओं या आंदोलन का उल्लेख नहीं किया गया है जो गलत है। अंबेडकर का अख़बार जनता पेपर 1930 से 1955 तक निकलता रहा जिसमें इन संयुक्त आंदोलनों की जानकारी हमें मिलती है जिसमें मजदूरों, किसानों के संघर्ष में वामपंथी और आंबेडकरवादी साथ आकर संघर्ष और आंदोलन किये।”
प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय सचिव विनीत तिवारी ने साथी वीरा साथीदार को याद करते हुए बताया कि वीरा साथीदार महाराष्ट्र में उस आंदोलन के जीवंत हिस्से थे जो दलित एवं मार्क्सवादी आंदोलन के साथ उन बातों को लेकर आगे बढ़ना चाहते हैं जो समाज की बेहतरी के लिए हों। उन्होंने आगे कहा, “मैं इतिहास पर पर्दा डालने के हक में नहीं हूँ बल्कि इतिहास को सही परिपेक्ष्य में समझने के पक्ष में हूँ। जमीनी काम करने का अर्थ केवल लोगों के बीच जाकर ‘एक हो जाओ’ का नारा लगाना ही नहीं होता बल्कि उतना ही महत्त्वपूर्ण होता है इतिहास के अनसुलझे सवालों को हल करना इसका मतलब पुरानी बातों पर आपस में उलझना नहीं है बल्कि इतिहास को सही परिपेक्ष्य में जानना है। मार्क्स ने कहा है और जिसे अंबेडकर भी मानते थे कि ‘अपने समय की निर्मम आलोचना, खुद अपने आप की भी, अपनी मान्यताओं की भी निर्मम आलोचना करनी चाहिए।’ तो चाहे मार्क्स हों या अंबेडकर किसी को भी निर्मम आलोचना से परे नहीं रखा जा सकता। यदि हम आलोचना नहीं करेंगे तो इसका मतलब है कि हम उनके विचारों को दफ़न कर रहे हैं। विचार पूजे जाने के लिए नहीं होते बल्कि सबक लेकर आगे बढ़ने के लिए होते हैं।”
तिवारी दोनों विचारधाराओं के मसले पर कहते हैं, “अंबेडकरवाद का मसला हो या मार्क्सवाद का, ये अगर बौद्धिक बहसों तक ही सीमित रहेगा तो जाहिर है कि उससे या लाल-नीले की प्रतीकात्मकता से बात नहीं बनेगी। बौद्धिक बहसों से हमें समझने में मदद मिल सकती है, नये विचार या नये प्रस्थान बिंदु मिल सकते हैं। मैं बौद्धिक बहसों की आलोचना नहीं कर रहा मैं उन्हें भी काम मानता हूँ। यह भी उतना महत्त्वपूर्ण काम होता है और उससे वैसी ही फसल तैयार होती है जैसे एक किसान खेत में पसीना गिराता है। ये जो हमारा मानसिक श्रम है इसको यदि हम ठीक तरह से तैयारी के साथ करें तो यह भी हमें कुछ प्रस्थान बिंदु दे सकता है जहाँ से हम जनपक्षधर समाज, जनपक्षधर आंदोलन को आगे बढ़ाने में कुछ नये सूत्र, कुछ नये रास्ते तलाश कर सकें। अंबेडकर "सर्वहारा की तानाशाही के सिद्धान्त".के खिलाफ थे। मैंने जो अंबेडकरको पढ़ा तो पाया कि उनके ऊपर मार्क्सवाद को लेकर जो असरात थे, वो मुख्यतः अमरीकन और इंग्लैण्ड के मार्क्सवादियों के थे। रूसी, जर्मनी मार्क्सवादियों से उनका वास्ता नहीं रहा था, कम्युनिस्ट इंटरनेशनल (कॉमेंटर्न) के वे कभी हिस्सेदार भी नहीं बने इसलिए समाजवाद और मार्क्स के "सर्वहारा की तानाशाही" को लेकर उनकी समझ सही नहीं बनी। सर्वहारा की तानाशाही को लेकर मार्क्स के आशय को अंबेडकरकी समझ पर सवाल हैं।”
अंबेडकर के आखिरी दिनों का जिक्र करते हुए वे आगे कहते हैं, “अंबेडकर ने भारत में जातिवाद की समस्या को पहचाना और लड़ाई लड़ी। अंबेडकर अपने आखिरी दिनों में जो किताब लिख रहे थे और जो पूरी नहीं हो पाई जिसका शीर्षक वे भारत और साम्यवाद रखना चाहते थे उसके उसके तिरेसठ पेज टाइप्ड पेज आनंद तेलतुम्बड़े के पास हैं, जिसमें उन्होंने कम्युनिस्ट आंदोलन और उनके द्वारा शुरू किये गए दलित आंदोलन के बीच की दरारों पर रौशनी डाली। यह तकलीफदेह है कि अंबेडकर ने कम्युनिस्टों के लिए बहुत ही खराब भाषा का प्रयोग किया और उतना तकलीफदेह यह भी है कि उस वक्त कम्युनिस्टों ने अपने प्रस्तावों में अंबेडकर के आन्दोलन को अंग्रेज साम्राज्यवादियों की साजिश करार दिया। अपने वक्त के दो बड़े आंदोलन जो शोषितों की शोषण से मुक्ति के लिए प्रतिबद्ध थे, आपस में एकदूसरे के साथ तालमेल नहीं बिठा पाए। कम्युनिस्टों की पहली प्राथमिकता वर्ग संघर्ष थी तो अंबेडकर के लिए जातिवाद मुक्ति। दलित तबके में भी जातिवाद अपनी जड़ें फैलाए हुए है तो जातिवाद को केवल ऊपरी तौर पर खत्म नहीं किया जा सकता। बाद में जाति आधारित जितनी भी राजनीतिक पार्टियां बनीं, उन्होंने इस जातिवाद को और मजबूत ही किया। इससे न तो दलितों के संघर्ष का भला हुआ और न ही वर्ग संघर्ष का। आज इतने वर्षों बाद भी हम देख सकते हैं कि ज्यादातर दलित ही गरीब हैं और ज्यादातर गरीब ही दलित हैं।”
वे आगे उदाहरण देते हैं अपने व्यक्तव्य में कहते हैं, “मुश्किल से एक प्रतिशत लोग ही दलित वर्ग के तौर पर ऊँचे तबके तक पहुँचते हैं। दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे किसान आंदोलन ने अपने भीतर के जातिवाद के प्रश्न को भले वक्ती तौर पर खत्म किया हो लेकिन आज वहाँ हमें जातिवाद नहीं दिखता क्योंकि किसान और खेत मजदूर के तौर पर दलित किसान हों या गैरदलित किसान, दलित मजदूर हों या गैरदलित मजदूर दोनों के ही तात्कालिक और दीर्घकालीन हित एक दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। परस्पर हितों की इस समानता ने पंजाब और हरियाणा को आपस में रंजिश भुलाकर एक साथ आने के लिए मजबूर कर दिया। जिंदगी की रोजमर्रा की जो हकीकतें होती हैं उनसे ही वो मोर्चा खुलता है जहाँ अलग-अलग तबके एक दूसरे के साथ खड़े होते हैं। यह वक्त है कि हम ऐसी एकजुटताएँ बढ़ा सकें और आज सबके सामने मौजूद फासीवाद के खतरे का सामना कर सकें। न तो अंबेडकर फासीवाद के पक्ष में थे और न ही मार्क्सवादी कभी फासीवाद को बर्दाश्त कर सकते हैं। पूँजीवाद के जरिये जिस तरह लोगों पर लगातार जबरन चीजें थोपी जा रही हैं, लोगों को आपस में बाँट-बाँट कर अलग करने की साजिशें की जा रही हैं, इनसे पूँजीपति वर्ग को छोड़कर सभी तबकों पर कोड़े की मार पड़ेगी चाहे वे दलित हों या गैरदलित। और यही हमला हर शोषित तबके को एक साथ लाने की बुनियाद बन सकता है। और इसमें हमारे इप्टा के साथियों, कलाकारों के गीत हों, नाटक हों, नृत्य हों। ये सब दरारों को पाटने में एक सही समझ का निर्माण करने में अपनी अहम भूमिका निभा सकते हैं। इन सांस्कृतिक औजारों का इस्तेमाल कॉमरेड पी सी जोशी ने बखूबी किया। बंगाल के अकाल के दौरान इप्टा और प्रलेस की भूमिका ऐतिहासिक रही। कम्युनिस्ट पार्टी ने भी बिना वर्ग संघर्ष या जाति संघर्ष का नाम लिए जनांदोलन के जरिये जनता के दिलों में अपनी अमिट छाप छोड़ी। ऐसी तमाम मिसालें लोगों की नजर में लाना जरूरी हैं। मेरा मानना है कि आज देश जितनी भी बुरी हालत में हो लेकिन इसमें जो भी अच्छा है उसकी वजहों को अगर ढूढेंगे तो उसकी बुनियाद में गाँधी, नेहरू, अंबेडकर, भगत सिंह, सुभाष बोस जैसे अनेक लोग आएँगे। उन्हें भुलाकर या हाशिये पर धकेल कर इस हिंदुस्तान को मुमकिन नहीं किया जा सकता था।”
भारतीय जन नाट्य संघ के राष्ट्रीय महासचिव राकेश ने इस चर्चा के अंत में कहा कि आज की परिचर्चा का सार यह है कि वर्तमान की चुनौतियां से निपटने के लिए हम कैसे अपने नये औज़ार विकसित करें। जब आज़ादी की लड़ाई चल रही थी तो अंबेडकर उसे केवल अंग्रेजों से देश की आज़ादी के रूप में नहीं देख रहे थे। वे इसे दलित, अछूत, और एक दमित राष्ट्र के संघर्ष के रूप में देख रहे थे। तमाम बातों के बाद जनता के बीच सीधा-सादा संदेश जाता है कि दुनिया दो हिस्सों में बँटी है अमीर और गरीब। शोषक और शोषित। लेकिन हिंदुस्तान में शोषित और शोषक के बीच कितनी तहें हैं जिन्हें अंबेडकर पकड़ते हैं। अंबेडकर चिंतन को विवेक और तर्क के रूप में हमारे सामने रखते हैं वहीं मार्क्सवादी चिंतन का मूल आधार ही वैज्ञानिक तर्क और चिंतन है। पिछले दिनों में जिन तर्कशीलों की हत्याएँ हुईं, वो सारे वही थे जो तर्क और चिंतन, वैज्ञानिक तर्क के जरिये सच्चाई को लोगों के सामने रख रहे थे। लोगों के सामने तर्क और विवेक के जरिए सच्चाई रखने वाले लोगों पर हमले किये गए, जेलों में डाला गया, कैद किया गया और तमाम लोगों के ऊपर दूसरी तरह से हमले किए गए। विशेष रूप से आज सांस्कृतिक मोर्चे पर काम करने वाले हम लोगों के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि हम आपसी मतभेद, रंजिश एवं भेदभाव भूलकर एकजुट होकर संघर्ष करें।
चर्चा को समापन की ओर ले जाते हुए राकेश आखिर में कहते हैं, “कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो में लिखा है कि अब तक का इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास रहा है। भारत के संदर्भ में अगर हम इसके शब्दों पर न जाकर मूल आशय को समझें तो यहाँ वर्ग संघर्षों का नहीं बल्कि वर्ग और जाति संघर्षों का इतिहास रहा है। सबसे ज्यादा आत्म चिंतन, आत्म समीक्षा का विषय यह है कि विभिन्न मोर्चों पर लड़ने वाले हमारे साथी चाहे वह दलित, आदिवासी या अन्य मोर्चे हों, उन्हें कैसे सुरक्षित रखा जाए। हम अपने औज़ार नये तरह से कैसे तराशें, यह समझने की जरूरत है। और यही बात हमें बार-बार इतिहास को खँगालने और उसके पन्ने पलटने को मजबूर करती है। जब हम इतिहास को समझेंगे तभी हम भविष्य की कोई राह बना पाएँगे। कॉमरेड पी सी जोशी के औज़ारों के कारण ही आज हम इप्टा एवं प्रलेस के मंच पर खड़े हैं। आज भले हममें बिखराव हो गया हो लेकिन आज हमारे सामने चुनौती यह है कि सबको मिलकर एकजुट कैसे किया जाए? वीरा साथीदार को बहुत सम्मान के साथ याद करते हए यह समझने की जरूरत है कि वे एक अलग पृष्ठभूमि से आये थे लेकिन विगत कुछ दिनों से लगातार इप्टा के साथ मिलकर काम कर रहे थे। उन्होंने नागपुर में तो इप्टा का गठन किया ही लेकिन अमरावती से लेकर पूरे विदर्भ में इप्टा के गठन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। जिस तरह वीरा साथीदार को इप्टा ने अपने साथ जोड़ा, सम्भाजी भगत आज हमारे साथ हैं, उसी तरह हमें एक राह के अन्य साथियों को जोड़ने और एकजुट करने की जरूरत है। हम सभी को हमें अपने औज़ार पैने करने के लिए जो जरूरतें हैं उन्हें तलाशना है।”
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