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चमोली आपदा : इकोलोजी, सुरक्षा को ध्यान में रख विकास परियोजनाओं की समीक्षा करने की ज़रूरत  

इन परियोजनाओं से इन इलाक़ों में रहने वाले आम लोगों को लाभ मिलना था, लेकिन वे अब लाभ की जगह आपदाएं झेल रहे हैं।
चमोली आपदा

उत्तराखंड में हाल ही में आई पर्यावरणीय आपदा से सरकार को इकोलोजी/पारिस्थितिक प्रबंधन और संवेदनशीलता के बारे कई सबक ले लेने चाहिए। चमोली में हुए जानलेवा हादसे को रोका जा सकता था, बशर्ते इलाके में भारी निर्माण और इमारत निर्माण की गतिविधियां नहीं होती। डी. रघुनंदन के अनुसार यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना अधिकारियों को नींद से जगाने और पर्यावरण का संज्ञान लेने का जरिया होनी चाहिए। 

7 फरवरी 2021 को उत्तराखंड के चमोली जिले में आई भीषण आपदा में 30 से अधिक लोगों की जान जा चुकी है और 150 से अधिक लोग लापता या फंसे हुए। दुख की बात यह है कि ज्यादातर मृतक मजदूर हैं जो बुनियादी ढाँचों और हाइड्रो-इलेक्ट्रिक पावर परियोजनाओं में काम कर रहे थे, ये सब रेनी गाँव के पास ऋषिगंगा नदी पर 13.2 मेगावाट की छोटी परियोजना पर काम कर रहे थे जो पूरी तरह से तबाह हो गई है। धौलीगंगा के पास में मौजूद बड़ा यानि 520 मेगावाट का तपोवन बिजली संयंत्र भी बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गया है और कई मजदूर फंस गए हैं।

इन परियोजनाओं से इलाके में रहने वाले आम लोगों को लाभ मिलना था, लेकिन वे अब लाभ की जगह आपदा को झेल रहे हैं। यह विडंबना ही है क्योंकि ऐसी लापरवाह और कथित तौर पर "विकासात्मक" गतिविधियां इस तरह की दुर्भाग्यपूर्ण आपदाओं का प्रमुख कारण रही हैं, भले ही वे घटना का मुख्य कारण हमेशा न रही हो।

आपदा के पीछे का सटीक कारण और परिस्थितियां अभी भी उभर कर सामने आ रही हैं। ऐसा लगता होता है कि ग्लेशियल झील के फटने के बारे में पहले की अटकलें सटीक नहीं थीं। अब ऐसा लगता है, भारत और विदेश में उपग्रह इमेजरी के अध्ययन के आधार पर और भारतीय विशेषज्ञ टीमों द्वारा जो प्रारंभिक टिप्पणियां की गई थी उसके मुताबिक यह आपदा चट्टानी पर्वत-की-चोटी के एक बड़े हिस्से के टूटने से हुए  बड़े पैमाने के भूस्खलन के कारण हुई थी। और इसके परिणामस्वरूप हाल ही में जमा हुई बर्फ हिमस्खलन के जरिए और चट्टानों की बड़ी मात्रा के ढहने से भारी बाढ़ और तबाही आ गई। कुछ संदेह ऐसा भी है कि हो सकता है अस्थिर चट्टान के ऊपर ग्लेशियर के एक हिस्से के टूट कर गिरने से घटनाओं की यह पूरी श्रृंखला शुरू हुई हो सकती है।

विकास और इकोलोजिकल ग़फ़लत

कारण जो कुछ भी हो, लेकिन ये परियोजनाएं नासमझ मानव-निर्मित "विकास" के परिणामों की गंभीर याद दिलाटी हैं जो चेतावनी के सभी संकेतों की घनघोर उपेक्षा करती हैं। इससे दो पहलू सामने आते हैं और दोनों के परिणाम एक ही है, कि विशेष रूप से पश्चिमी हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में समान आपदाएं आती है क्योंकि जलवायु परिवर्तन और निर्माण परियोजनाओं के क्षेत्र में बिना सोचे-समझे योजना बनाई जाती है।

इन इलाकों में असंख्य सड़कों, बिजली संयंत्रों और अन्य बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए गैर-जिम्मेदाराना दौड़ ने समस्या को बढ़ा दिया गया है। हिमालय को नई और अस्थिर पर्वतमाला के रूप में जाना जाता है।

अब यह सब जानते है कि मानव निर्मित ग्लोबल वार्मिंग के कारण ध्रुवीय बर्फ के आवरणों के पिघलने के साथ-साथ ग्लेशियरों का तेजी से पिघलना और सिकुड़ना शुरू हो गया है। भारत और विदेशों दोनों में हाल के अध्ययनों से पता चला है कि पहले के दशकों की तुलना में ग्लेसियर के पिघलने की दर काफी तेज़ हुई है। भारत में, ग्लेशियर पूर्वी इलाके की तुलना में पश्चिमी हिमालय में अधिक तेजी से पिघल रहे हैं।

ग्लेशियर पिघलने से बड़े तालाब या ग्लेशियल झीलें बनती हैं,’ जिनके नाके कभी-कभी टूट जाते हैं। इस प्रकार पानी की बड़ी मात्रा में बह कर नीचे के इलाके में फ्लैश बाढ़ का कारण बन जाती है, जैसा कि पहले चमोली में हुआ था। यह प्रक्रिया पश्चिमी हिमालय में तेजी से चल रही है जिससे अस्थिरता और फ्लैश बाढ़/फ्लड की संभावना बढ़ रही है।

इन इलाकों में असंख्य सड़कों, बिजली संयंत्रों और अन्य बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए गैर-जिम्मेदाराना दौड़ ने समस्या को बढ़ा दिया गया है। हिमालय को नई और अस्थिर पर्वतमाला के रूप में जाना जाता है। इनमें अक्सर भूस्खलन होता हैं, बादल फटने और बाढ़ से सामान्य परिस्थितियों में भी चट्टानें और अन्य मलबे नीचे आते हैं। पहाड़ी इलाकों में पहले ही बस्तियों के विस्तार, सड़क निर्माण, जल स्रोतों की कमी और मिट्टी और चट्टानों को काटने, पेड़ की कटाई करने से स्थानीय इकोलोजी/पारिस्थितिकी तंत्र पर भारी दबाव पड रहा था। इससे भूस्खलन और बारिश के पानी का प्रवाह बढ़ता है जिससे स्थानीय जलधाराओं और नदियों में बाढ़ आती है। विशेष रूप से वर्तमान सरकार के तहत इस तरह की लापरवाही की निर्माण परियोजनाओं ने इस तरह के विनाश को नए और खतरनाक स्तरों पर पहुंचा दिया है।

भारी निर्माण परियोजनाएं आने वाली हैं 

अब इस क्षेत्र में कई जलविद्युत परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं। वर्तमान में, राज्य में लगभग 100 बांध हैं, बावजूद इसके कई ओर बांधों का निर्माण किया जाएगा। इनमें से कई को नदी-नालों की परियोजना के रूप में माना जाता है, लेकिन व्यवहार में, इसमें पानी और निर्माण की कुछ गतिविधियाँ भी शामिल हैं। कुछ अनुमानों के अनुसार, 450 से अधिक पनबिजली परियोजनाओं की योजना बनाई गई है, जिसका अर्थ है कि एक परियोजना चंद दर्जन किलोमीटर के दायरे में मौजूद हो सकती है।

इस परियोजना की पर्यावरणीय मंजूरी को 100 किलोमीटर से कम की 53 परियोजनाओं में विभाजित कर मंजूरी ली गई थी जिसने मंजूरी को आसान बना दिया था। परियोजना की समीक्षा करने वाली समिति ने सड़क की चौड़ाई 10 मीटर तक बढ़ा दी, जिसमें 24 मीटर तक पहाड़ी की कटाई शामिल है।

2016 में शुरू हुई 14,000 करोड़ रुपये की चार-धाम परियोजना पर बड़े पैमाने का सड़क निर्माण का काम चल रहा है। इसका उद्देश्य चार धाम महामार्ग राजमार्ग, होटल और अन्य बुनियादी ढांचे सहित 800 किलोमीटर से अधिक सड़कों के जरिए उत्तराखंड में चार प्रमुख तीर्थ स्थलों को जोड़ना है। इस परियोजना के लिए पर्यावरणीय मंजूरी को 100 किलोमीटर से कम की 53 परियोजनाओं में विभाजित कर मंजूरी ली गई थी जिसने मंजूरी को आसान बना दिया था। परियोजना की समीक्षा करने वाली समिति ने सड़क की चौड़ाई 10 मीटर तक बढ़ा दी, जिसमें 24 मीटर तक पहाड़ी की कटाई शामिल है।

इससे भी बड़ी चिंता सड़क पर कटाई और पहाड़ियों के खुरचने की है, जिसे भौंडे और खतरनाक तरीके से डायनामाइटिंग के माध्यम से अंजाम दिया जाता है, ऐसा अक्सर सीधे खड़े स्लोप के साथ किया जाता है। ढलानों को बांधने और ताजा वृक्षारोपण में कमी से पैदा हुई हलचल (अपर्याप्त स्थिरीकरण) के कारण तेजी से भूस्खलन की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। डेवलपर्स की प्राथमिकताएं स्पष्ट रूप से परियोजना को तेज करना हैं, ताकि निवेशकों के लिए अधिक लाभ कमाया जा सके, और परिणाम सुरक्षा नियमों का घनघोर उलंघन। 

इन इलाकों में सीधे नुकसान के अलावा, भविष्य में बाढ़ की घटनाओं की संभावनाओं और उसके भयंकर असर को बढ़ा देता है। मलबे नदी के तल को बढ़ाते हैं, जिससे बाढ़ और बाढ़ की संभावना बढ़ जाती है, जैसा कि 2013 की आपदा में हुआ था।

केदारनाथ, जिसने 2013 में बड़े पैमाने के नुकसान का सामना किया था उस केदारनाथ शहर को आसपास के वातावरण पर पड़ने वाले असर को ठीक से न कम समझकर फिर से बनाया जा रहा है। बाढ़ और अन्य आपदाओं की अधिक घटनाओं के कारण शहर खतरे के साए में आ गया है। इन नाजुक इलाकों में मौजूद बस्तियों की सहने की क्षमता पर कोई विचार नहीं किया गया है।

कम ऊंचाई वाले इलाकों में आवासीय बस्ती बनाना और मंदिर में तीर्थयात्रा वाले यातायात को विनियमित करने जैसे विकल्पों को धता बता दिया गया है। भीषण मौसम की घटनाओं, भूस्खलन, ढलान अस्थिरता और ग्लेशियर पिघलने वाले इस क्षेत्र की सक्रिय निगरानी और उसका ठोस अवलोकन लगभग नहीं के बराबर हैं।

उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में जारी सभी परियोजनाओं की पूर्ण सुरक्षा की और पर्यावरणीय समीक्षा करने की जरूरत है। यह जरूरी है कि इस विनाशकारी रास्ते को बिना देरी किए उलट देना चाहिए। 

अन्यथा, भविष्य में भी इस तरह की आपदाएं होती रहेंगी। (आईपीए सेवा)

डी. रघुनंदन वरिष्ठ पत्रकार हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

यह लेख मूल रूप से The Leaflet में प्रकाशित हुआ था।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें। 

Chamoli Disaster: Need to Review Development Projects with Ecology, Safety in Mind

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