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सांडर्स की हत्या के बाद राजगुरु ने अपने दोस्त से क्या कहा? स्वतंत्रता आंदोलन के लड़ाके की अनसुनी दास्तां!

जैसे ही ब्रिटिश अफसर सांडर्स अपनी मोटरसाइकिल पर पैर रखने वाला था, राजगुरु ने आगे बढ़कर गोली चला दी, जो सीधा उसके सिर में जा लगी। भगत सिंह ने भी आगे बढ़कर ज़मीन पर ढेर पड़े हुए अंग्रेज़ पर दनादन आठ गोलियाँ चला दीं, उन्हीं राजगुरु की आज जयंती है… 
RAJGURU
क्रांतिकारी राजगुरु। फोटो साभार गूगल

क्रांतिकारी इतिहास में ऐसे कई वीरों का वर्णन मिलता है, जो मृत्यु के सामने निर्भीक हो कर सीना ताने खड़े रहे। ऐसे ही एक क्रांतिकारी रहे राजगुरु जिनकी एकमात्र इच्छा ही क्रांतिपथ पर अपने प्राणोत्सर्ग करना थी। क्रांतिकारी दल की कोई भी गतिविधि जिसमें जान जाने का खतरा रहता, उसे राजगुरु खुद करने की पहल करते।

प्रारम्भिक जीवन 

राजगुरु का पूरा नाम शिवराम हरि राजगुरु था, शिवराम का जन्म 24 अगस्त 1908 को पूना के खेड़ गाँव में हरिनारायण और पार्वती देवी के घर हुआ। बचपन में ही उनके पिता का बीमारी के चलते देहांत हो गया, जिससे उनका बचपन बेहद आर्थिक तंगी में गुज़रा। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के ही एक मराठी प्राइमरी स्कूल में हुई, उसके बाद कुछ पढ़ाई पूना के ‘न्यू इंग्लिश हाई स्कूल’ में हुई।  उनका अधिकतर समय खेलकूद में व्यतीत होता, जिसके कारण उन्हें अक्सर बड़े भाई से डांट पड़ती रहती थी। एक दिन बड़े भाई ने शिवराम को घर से निकलने को कह दिया। 

राजगुरु, को बचपन में ही तिलक को देखने का अवसर प्राप्त हुआ, जब तिलक, खेड़ गाँव में एक भाषण देने आए हुए थे। राजगुरु ने तिलक की स्वराज और देशप्रेम से जुड़ी अनेकों कथायें सुनी हुई थीं, उस दिन भी राजगुरु तिलक से अत्यंत प्रभावित हुए और उनके अंदर देश प्रेम की अग्नि और अधिक प्रबलता से धधक उठी। 1919 के जलियांवाला कांड ने उनके अंदर के देशप्रेमी को बेहद विचलित कर दिया। इन सब का असर ऐसा रहा कि उन के अंदर देश हित में कुछ कर गुजरने की भावना बलवती होती रही। 

राजगुरु बेहद घुमंतू किस्म के व्यक्ति थे। उनकी संस्कृत पढ़ने की बहुत पुरानी इच्छा उन्हें बनारस के संस्कृत विद्यालय ले गई। किराये की जगह ले कर रहने के लिए उनके पास नहीं थे इसलिए वे अपने एक गुरु के घर रहने लगे और बदले में घरेलू कामों में उनका हाथ बंटाते। परन्तु यह व्यवस्था अधिक दिनों तक न चल सकी।  बनारस में उनका यह समय काफी तंगहाली और संघर्षों में गुज़रा। उन्होंने पेट पालने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के यत्न किए, चाहे वो मज़दूरी हो अथवा नौकरी या अध्यापन। 

बनारस में रहते हुए उन्होंने खुद को काफी मज़बूत बना लिया था। वे वहाँ नियमित रूप से निशानेबाज़ी और मल्लविद्या का अभ्यास करते। उन्हें बनारस के एक हाईस्कूल में ड्रिल मास्टर की नौकरी मिल गयी, तत्पश्चात उन्होंने अपना एक अखाड़ा भी स्थापित किया। वहां वो नौजवानों को कुश्ती व लाठी चलाने का प्रशिक्षण देते। इसी दौरान चंद्रशेखर आज़ाद के एक साथी विश्वनाथ वैशम्पायन, बनारस में क्रन्तिकारी दल से सम्पर्क बनाने के प्रयास में आये।

वैशम्पायन, राजगुरु के देशप्रेम और दृढ़ता से बहुत प्रभावित हुए और समय आने पर उन्होंने राजगुरु को चंद्रशेखर आज़ाद से मिलवाया। आज़ाद भी उनके आत्मविश्वास, साहस और दृढ़ निश्चयता से प्रभावित हुए और उनको अपने दल का सदस्य बनाने का निर्णय किया। इस तरह शिवराम राजगुरु का हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक पार्टी में प्रवेश हुआ, और उनको पार्टी का गुप्त नाम मिला रघुनाथ।

पहला ‘एक्शन’ 

शिव वर्मा के साथ राजगुरु को दिल्ली में एक व्यक्ति की हत्या करने का कार्य सौंपा गया। पार्टी ने यह पाया था कि दिल्ली का एक जाना माना नेता शहर में साम्प्रदायिक तनाव फ़ैलाने का काम कर रहा है। फैसला लिया गया कि शिव वर्मा दो रिवाल्वरों का इंतेज़ाम करें, और राजगुरु को अपने साथ रख इस काम को अंजाम दें। परंतु कुछ कारणवश परिस्थिती ऐसी बनी कि राजगुरु को अकेले ही इस काम को करने का निर्णय लेना पड़ा।  

तयशुदा दिन निर्धारित स्थल पर जैसे ही उस व्यक्ति की कार का दरवाज़ा खुला, राजगुरु की गोली सीधे कार से उतरते व्यक्ति के सीने में जा धंसी। राजगुरु तुरंत ही मथुरा की दिशा में रेलवे लाइन के सहारे दौड़ पड़े। पुलिस भी उनका पीछा करते हुए आ गयी। वो किसी तरह गोलियों की बौछार से बचते खेतों की तरफ सरक गए, और एक खेत में कई घंटों तक पानी और कीचड़ में पड़े रहे। चूंकि कोई यह अंदाज़ा नहीं लगा सकता था कि वो इस कड़कड़ाती ठंड में पानी से भरे खेत में छुप सकते हैं, सो पुलिस वाले सूखे खेतो में उनकी तलाश कर के चले गए। तब राजगुरु ने खेत से निकल कर उसी हालत में वापिस अपना रास्ता पकड़ा, वे सुन्न शरीर में भी चलते चले गए और मथुरा जाने वाली एक गाड़ी में जगह पाकर सो गए। 

अगली सुबह जब नहा धो कर उन्होंने अख़बार में अपनी रात की घटना का ब्यौरा ढूंढा, तो उनके होश उड़ गए। राजगुरु ने जिस व्यक्ति को गोली मारी, वो उनका असल टारगेट नहीं बल्कि उसके ससुर थे। एकमात्र ख्याल जो उनके ज़हन में था, वो ये कि पार्टी द्वारा दिए गए पहले ही काम में उन्होंने गड़बड़ कर दी, जिससे एक निर्दोष व्यक्ति की जान गई। भले ही राजगुरु को ताउम्र एक निर्दोष व्यक्ति की जान लेने का दुःख और अपराधबोध रहा ,परन्तु इस घटना के साथ उनके क्रांतिकारी जीवन की एक मज़बूत शुरुआत हुई। 

राजगुरु न सिर्फ बिना डरे खतरनाक काम को अंजाम देने के लिए तैयार रहते थे, बल्कि वे शहीद होने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। शहादत के लिए राजगुरु, भगत सिंह से एक किस्म की प्रतिद्वंदिता रखते थे, जो दल के अन्य सदस्यों के लिए हास्य-विनोद का एक रोचक स्त्रोत रहता था। यह प्रतिद्वंदिता सिर्फ देश के लिए पहले बलिदान देने तक ही सीमित थी, बाकि तौर पे भगत सिंह से उन्हें बेहद लगाव था। वे कभी किसी भी कठिन मौके पर भगत सिंह का साथ देने से नहीं चूके। राजगुरु को भी दल में सबसे बहुत प्रेम और स्नेह मिला। उनकी सरलता और हंसमुख स्वभाव ही उनकी खासियत थी, जो समय समय पर दल में उन्हें हास्य विनोद का केंद्र बनाती।  

दल में राजगुरु के सोने के किस्से बहुत मशहूर थे, साथी लोग लिखते हैं कि वे चलते चलते भी सो सकते थे। साथियों के बीच मज़ाक चलता था कि राजगुरु अपने सोने कि आदत की वजह से पकड़े जाएंगे जोकि आगे जा कर सच भी हुआ। एक रोज़ ऐसे ही चर्चा चल रही थी कि पुलिस क्रांतिकारियों को किस प्रकार की शारीरिक यंत्रणाएं देती है। बात निकली कि पुलिस के अमानुषिक अत्याचार किसी भी व्यक्ति का धैर्य डिगा सकते हैं। राजगुरु के मन में जाने क्या सूझी कि खाना बनाते वक़्त उन्होंने गर्म-गर्म संडासी को सीने पे तीन जगह दाग दिया। पूछे जाने पर उन्होंने जवाब दिया की वो यह परखना चाह रहे थे की पुलिस का टार्चर सहने की क्षमता है या नहीं। 

सांडर्स वध में अग्रणी भूमिका

साइमन कमीशन का पूरे भारत में ज़ोर शोर से विरोध चल रहा था। पंजाब में भी कमीशन का शांतिपूर्ण ढंग से विरोध करने का निर्णय लिया गया। लाला लाजपत राय के नेतृत्व में साइमन वापिस जाओ के नारों ने माहौल काफी गर्म कर दिया, जिस से पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ा। इस लाठीचार्ज में लाला जी को काफी चोटें आईं, और परिणामस्वरूप उनकी मृत्यु हो गयी। 

भगत सिंह के प्रस्ताव के अनुसार राष्ट्र के इस अपमान का बदला लेना बेहद ज़रूरी था, फलस्वरूप लाहौर के पुलिस सुपरिटेंडेंट स्कॉट को गोली मारने का निर्णय लिया गया ।  जब चार दिन लगातार ऐसा हुआ कि स्कॉट निर्दिष्ट स्थान से निकला ही नहीं, तो राजगुरु ने बेक़रार हो कर, स्कॉट को उसके दफ्तर के भीतर जा के मार आने की पहल की।  इसपर आज़ाद ने उन्हें डपट दिया।  

फिर एक दिन जब कार्यालय से एक पुलिस अफसर अपने मुंशी के साथ मोटरसाइकिल ले कर निकला, तो सब चौकन्ने हो गए, जयगोपाल ने इशारा किया कि देखो शायद वो आया। भगत सिंह ने इंगित किया कि ये वो नहीं मालूम होता। राजगुरु को लगा कि भगत सिंह चाहते हैं कि वो ज़रा नज़दीक उनकी पहुंच में आ जाये तो वो गोली मारें। वो अफसर जैसे ही मोटरसाइकिल पे पैर रखने वाला था राजगुरु ने आगे बढ़ कर गोली चलाई, जो सीधा उसके सिर में जा लगी। भगत सिंह ने बढ़ कर ज़मीन पे ढेर पड़े हुए अंग्रेज़ पर दनादन आठ गोलियाँ चलाईं।

वापिस जब दल के सभी लोग इकट्ठे हुए, तो सबने राजगुरु की हिम्मत और निशाने की प्रशंसा की। परन्तु राजगुरु कुछ बुझे बुझे से जान पड़ रहे थे, सो भगवानदास माहौर ने जब उनसे इसका सबब पूछा तो वो सांडर्स के संदर्भ में बोले कि “कितना सुंदर नौजवान था, जाने उसके घर वालों पे क्या बीत रही होगी”।  उनका मन सांडर्स को मारने के बाद बेहद ग्लानि से भर गया था।

समाजवाद: घोड़ा या गधा?  

राजगुरु 'एक्शन' में ज्यादा विश्वास रखते थे और दल की विचारधारा और भविष्य के कार्यक्रम की बहस आदि मामलों में कम ही रूचि रखते थे, लेकिन वो दल और उसके उद्देश्य के लिए प्रतिबद्ध थे।  समाजवाद के मामले में उनका पढ़ना-लिखना न के बराबर ही था, लेकिन वो इस ध्येय के लिए पूरी तरह समर्पित थे।  एक बार जेल में उनकी समाजवाद पर एक आर्यसमाजी मास्टर आज्ञाराम से बहस हो गई।  जो गहमा-गहमी में बदल गयी।  मास्टर आज्ञाराम ने राजगुरु पर व्यंग्य करते हुए कहा, "समाजवाद- समाजवाद चिल्लाते हो! जानते भी हो कि वह है क्या? पहले घोड़े और गधे की तमीज करना सीख लो, फिर बहस करना" जवाब में राजगुरु ने भी उसी उत्तेजना से कहा, "देखिये मास्टर जी! समाजवाद घोड़ा है या गधा यह तो मैं नहीं जनता, लेकिन इतना कह देता हूं कि अगर वह गधा है, तो भी आगे चलकर देश और दुनिया में उसी का बोलबाला होगा। और तब आपको भी उसके सामने सर झुकाना पड़ेगा।"

समाजवाद में राजगुरु का ये 'विश्वास' उनके जीवन की भौतिक परिस्थितिओं के कारण भी था।  बनारस में छात्र जीवन के बारे में राजगुरु ने एक बार अपने साथी शिव वर्मा को कहा था, "गरीबी कितना बड़ा अभीशाप है! उसमें कितना अपमान और कितनी चुभन है…सारा दिन जानवर की तरह हड्डी तोड़ परिश्रम करने के बाद भी मैंने गालियां खाई हैं।  झिड़कियां सुनी हैं, जानते हो किसलिए?- दो रोटियों के लिए! हां, सिर्फ दो रोटियों के लिए…" 

गिरफ़्तारी और फांसी  

अप्रैल 1929 में भगत सिंह और दत्त के असेंबली बम कांड में गिरफ़्तारी देने के बाद, लाहौर और सहारनपुर बम फैक्ट्री पकड़े जाने से कई साथियों की गिरफ़्तारी हो चुकी थी। बहुत कम ही ऐसे ठिकाने थे जिनकी खबर पुलिस को नहीं थी। पर पुलिस के पास सांडर्स की हत्या में राजगुरु के शामिल होने की जानकारी थी, इसलिए महाराष्ट्र में उनकी तलाश की जा रही थी।  राजगुरु वैसे तो पूना में सुरक्षित थे, परन्तु एहतियात न बरतने और वाचाल प्रवृत्ति का होने के कारण वे पुलिस की नज़र में आ गए। एक जुलूस में राजगुरु जोश में आ कर “लॉन्ग लिव रिवोल्यूशन’' और “डाउन विद इम्पीरियलिस्म” के नारे लगा बैठे। चूंकि ये लाहौर षड्यंत्र के अभियुक्तों के नारे थे, सो आसपास चल रहे सी। आई। डी के अफसर चौकन्ने हो गए।

इस घटना के चंद दिन बाद ही उन्हें रात के वक़्त सोते हुए गिरफ्तार कर लिया। एचएसआरए के एक मुख्य गनमैन के बतौर सांडर्स की हत्या के इलज़ाम में उनके ऊपर केस चला। लाहौर पहुंचकर वो भगत सिंह द्वारा शुरू की गई भूख हड़ताल के समर्थन में उतर आये। अंततः ट्रिब्यूनल ने अपनी कार्यवाई पूरी की और अक्टूबर 1930 में राजगुरु को भी सुखदेव और भगत सिंह के साथ फांसी की सज़ा सुना दी गई।  23 मार्च 1931 को राजगुरु ने अपने प्यारे मित्रों के साथ मृत्यु का वरण किया। इस अलबेले क्रांतिकारी की जो गाथा, कई वर्ष पहले खेड़ के एक छोटे से गांव से शुरू हुई थी, वो भारत के जान मानस में सदा के लिए अमर हो गई।

(लेखक अंकुर गोस्वामी और हर्ष वर्धन जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली में समाजशास्त्र के शोधार्थी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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