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अमेरिका क्यों तीनों कृषि क़ानूनों का समर्थन करता है?
भारत सरकार द्वारा अपनाई गई नीति, अमेरिका और यूरोपीय संघ की बहुराष्ट्रीय खाद्यान्न कंपनियों के लिए भारत के विशाल बाजारों तक अपनी पहुंच बना पाने  में मददगार साबित होगी।
शिन्ज़नी जैन
15 Feb 2021
kisan

4 फरवरी को अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने भारत से अनुरोध किया है कि कृषि कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे किसानों के साथ वह संवाद स्थापित कर मतभेदों को हल करने की कोशिश करें। विदेश विभाग के प्रवक्ता नेड प्राइस ने जोर देते हुए कहा है कि: “हमारा मानना है कि शांतिपूर्ण विरोध किसी भी जीवंत लोकतंत्र की निशानी होती है, और हमने नोट किया है कि भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस बारे में यही कहा है।”

हालांकि इस बयान के साथ एक स्पष्टीकरण भी जुड़ा हुआ था। तीनों कृषि कानूनों के बारे में बात करते हुए प्राइस ने इसमें जोड़ा “सामान्य तौर पर अमेरिका ऐसे क़दमों का स्वागत करता है जिनसे भारत के बाजारों की दक्षता में सुधार लाने और पहले से कहीं अधिक निवेश को आकर्षित करने में मदद मिलती हो।” 

इन तीन कानूनों के प्रति अमेरिकी समर्थन को लेकर शायद ही कोई आश्चर्य की बात हो। पिछले कई वर्षों से देश कृषि क्षेत्र में बाजार-आधारित सुधारों पर जोर देने में लगा हुआ है। अक्टूबर 2020 में आयोजित विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की कृषि संबंधी समिति (सीओए) की हालिया बैठक में अमेरिका, यूरोपीय संघ (ईयू) और कनाडा ने भारत की खेती-बाड़ी को लेकर जारी प्रथाओं पर सवाल खड़े किये थे। उनकी शिकायत थी कि भारत की व्यापार व्यवस्था पर्याप्त तौर पर पारदर्शी नहीं है और कृषि वस्तुओं के व्यापार को लेकर उनकी ओर से और अधिक आंकड़े पेश किये जाने की मांग की गई थी।

डब्ल्यूटीओ में भारत की लंबे समय से चली आ रही चिंता इस बात को लेकर बनी हुई थी कि भारत द्वारा अपने किसानों को बाजार मूल्य समर्थन के तौर पर मुहैय्या किये जाने वाले - न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) और उर्वरकों, बीजों एवं अन्य इनपुट कृषि सब्सिडी पर अमेरिका द्वारा हमले किये जा रहे थे। मई 2018 में अमेरिका ने भारत की खेती पर समझौते (एओए) के साथ कृषि संबंधी सब्सिडी ढाँचे की सामंजस्यता को लेकर सवाल खड़े किये थे। 

1995 में डब्ल्यूटीओ द्वारा एओए को “कृषि सम्बंधी व्यापार एवं घरेलू नीतियों के दीर्घकालीन सुधार के फ्रेमवर्क” के तौर पर अमल में लाया गया था।” इसका उद्येश्य “पहले से कहीं अधिक निष्पक्ष व्यापार प्रणाली के लिए एक रुपरेखा को बनाने को था, जिसके तहत बाजार तक पहुँच को बढ़ाने के साथ-साथ दुनिया भर के किसानों की आजीविका में बेहतरी लाना था।” जेएनयू में सेंटर फॉर इकॉनोमिक स्टडीज एंड प्लानिंग, स्कूल ऑफ़ सोशल साइंसेज के प्रोफेसर बिश्वजीत धर का इस बारे में मानना है कि एओए को मुख्य रूप से इसलिए तैयार किया गया था ताकि अमेरिका और यूरोपीय संघ के देशों के हितों की सेवा की जा सके, जबकि भारत जैसे विकासशील देशों की भूमिका इसमें मात्र दर्शकों के रूप में ही सीमित करके रख दी गई थी।

मई 2018 में डब्ल्यूटीओ में अमेरिका की प्रमुख चिंता इस बात को लेकर थी कि भारत द्वारा चावल के लिए बाजार मूल्य समर्थन की पेशकश 2010-11 के बाद से ही कृषि उत्पादन मूल्य से 70% अधिक रही है और इसी अवधि के दौरान गेंहूँ के लिए 60% से अधिक की बनी हुई है। यह एक समस्या है क्योंकि एओए ने डे मिनमिस प्रावधान के जरिये विकासशील देशों पर ‘व्यापार-विकृतियों’ के रूप में  वर्गीकृत सब्सिडी पर अधिकतम 10% की सीमा का प्रावधान (विकसित देशों के सन्दर्भ में यह सीमा पांच प्रतिशत है) तय कर रखी है। एओए सब्सिडी शासन के तहत सब्सिडी को ‘व्यापार विकृति’ एवं ‘गैर-व्यापार विकृति’ के तौर पर वर्गीकृत किया गया है।

अमेरिका द्वारा लगाये गए आरोपों को विख्यात अर्थशास्त्रियों द्वारा दो आधारों पर चुनौती दी गई है। सबसे पहले इस बारे में यह तर्क दिया गया है कि डब्ल्यूटीओ में अमेरिका द्वारा प्रस्तुत अनुमान सच्चाई को गलत तरीके से प्रस्तुत करते हैं। दूसरा, सब्सिडी को ‘व्यापार-विकृति’ एवं ‘गैर-व्यापार विकृति’ के तौर पर वर्गीकरण के पीछे अर्थशास्त्रियों का तर्क है कि इस वर्गीकरण का एकमात्र मकसद विकसित देशों को लाभ पहुँचाने से है। इस बारे में गहराई में जाने से पहले आइये एक बार भारत में 2010-11 के बाद से चावल और गेंहूँ के कृषि उत्पादन मूल्य पर 70% और 60% से अधिक की सब्सिडी दिए जाने के अमेरिकी दावे की सत्यता पर एक नजर डालते हैं।

एओए फ्रेमवर्क के तहत डब्ल्यूटीओ के सदस्यों द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी की गणना अंतर्राष्ट्रीय कीमतों के सन्दर्भ में की जाती है, जिन्हें प्रतिस्पर्धी मूल्य माना जाता है। किसी देश द्वारा किसी खास फसल पर प्रदान किये जाने वाले बाजार मूल्य समर्थन को एक विशेष फसल पर मौजूदा एमएसपी और इसके 1986-88 वर्ष से बाहरी संदर्भित मूल्य (ईआरपी) के अंतर को माना जाता है। ईआरपी 1986-88 के दौरान एक विशेष वस्तु की अंतर्राष्ट्रीय कीमत को संदर्भित करता है। आर्थिक तर्क की अवहेलना करते हुए पिछले 30 वर्षों से अधिक समय से ईआरपी को कीमतों में समायोजन किये बिना ही लागू किया जा रहा है। भारत और अन्य विकासशील देशों का इस बारे में लगातार विरोध रहा है कि या तो ईआरपी का निर्धारण करने वाले आधार वर्ष को नीचे लाया जाये या फिर ईआरपी को मुद्रास्फीति के अनुसार समायोजित किया जाए। लेकिन इन दोनों ही तर्कों को अमेरिका द्वारा लगातार ख़ारिज किया जाता रहा है।

अमेरिकी अनुमानों को दो और आधारों पर चुनौती दी गई है। दी जा रही एमपीएस की गणना करते वक्त तो अमेरिका द्वारा कुल मात्रा की खरीद की गणना करने के बजाय कुल वार्षिक उत्पादन को ध्यान में रखा जाता है। दूसरा, इसके द्वारा भारत के बाजार मूल्य समर्थन की गणना भारतीय रूपये में की जाती है, जबकि रिपोर्टिंग के वक्त इसे अमेरिकी डॉलर में दिखाया जाता है। परिणामस्वरूप भारत द्वारा जो आंकड़े पेश किये जाते हैं वे इसकी मुद्रा के लगातार अवमूल्यन के चलते बेहद कम होते हैं।

इस बात को भी ध्यान में रखे जाने की आवश्यकता है कि भारत में काफी विशाल क्षेत्र में चावल और गेंहूँ की खेती की जाती है। यही वे दो फसलें भी हैं जिनकी सबसे अधिक मात्रा में खरीद की जाती है और सार्वजनिक खरीद प्रणाली के तहत इनपर अधिकतम बाजार मूल्य या एमएसपी हासिल किया जा सकता है।

अब एओए के तहत सब्सिडी के वर्गीकरण पर आते हैं। विकासशील देशों द्वारा अपने कृषक समुदाय को दी जाने वाले इनपुट सब्सिडी जैसे कि एमएसपी जैसे बाजार मूल्य समर्थन को ‘व्यापार-विकृति’ के तौर पर मिलने वाली सब्सिडी के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। वहीँ दूसरी ओर विकसित देशों द्वारा अपने किसानों के लिए प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डीबीटी), नकद हस्तांतरण और प्रत्यक्ष आय समर्थन की व्यवस्था को ‘गैर-व्यापार विकृति’ या ‘न्यूनतम-व्यापार विकृति’ के तौर पर वर्गीकृत किया गया है। यहाँ पर यह ध्यान देना बेहद आवश्यक है कि जबकि एओए द्वारा बाद वाले के लिए किसी प्रकार की सीमा निर्धारित नहीं की गई है, वहीँ पूर्व वाली सब्सिडी के लिए कृषि उत्पादन मूल्य को 10% तक के लिए सीमित रखा गया है।

विकसित औद्योगिक देशों के लिए अपनी खेती पर सब्सिडी को नकद हस्तांतरण में स्थानांतरित करना बेहद आसान है, क्योंकि इसके कार्यबल का पांच प्रतिशत से भी कम हिस्सा खेती-बाड़ी से सम्बद्ध है, जिसका योगदान जीडीपी में चार प्रतिशत से भी कम है। अमेरिका के मामले में ये अनुपात तो और भी कम है। जबकि भारत जैसे विकासशील देशों में जहाँ आज भी खेतीबाड़ी प्रमुखता में चलन में है, वहां पर अपने किसानों के लिए नकदी हस्तांतरण को सार्थक रूप से लागू करा पाना संभव नहीं है।

यह तर्क रखते हुए कि एओए के प्रावधानों को जानबूझकर विकसित देशों के इकमात्र लाभ को देखते हुए तैयार किया गया है, प्रसिद्ध अर्थशास्त्री उत्सा पटनायक लिखते हैं: “दुनिया भर में विकसित देशों ने अपने यहाँ सबसे ज्यादा सब्सिडी प्रदान करने वाली कृषि व्यवस्था के संचालन के काम को जारी रखा हुआ है। औद्योगिक उत्तर के देशों ने किसानों को प्रत्यक्ष नकदी हस्तांतरण के जरिये विभिन्न मदों में ‘गैर व्यापर-विकृति’ और बाहरी कटौती की प्रतिबद्धताओं के तहत अपने देश की फसलों को भारी मात्रा में सब्सिडी मुहैय्या कराने को सुनिश्चित किया हुआ है, ताकि वे इस प्रकार के हस्तांतरण को अपनी मर्जी से बढ़ा सकें। वहीँ दूसरी तरफ बाजार मूल्य समर्थन जैसी न्यूनतम समर्थन मूल्य वाली व्यवस्था जो भारत एवं अन्य विकासशील देशों में प्रचलन में है, और इसके जरिये जो नाममात्र की सब्सिडी मुहैय्या कराई जाती है, को उनके द्वारा ‘व्यापार विकृति’ के तौर पर परिभाषित किया जाता है और उसमें कटौती लाने के लिए दबाव बनाया जाता है।” 

सन 1995 से लेकर 2015 के बीच में अमेरिका द्वारा अपने किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी को 61 बिलियन डॉलर से बढ़ाकर 139 बिलियन डॉलर तक कर दिया गया था, जो कि तकरीबन 128% की बढ़ोत्तरी थी। इसमें से करीब 88% सब्सिडी को ‘गैर-व्यापारिक विकृति’ के तौर पर वर्गीकृत किया गया है।

जहाँ एक ओर इसके द्वारा अपनी कॉर्पोरेट खेती पर सब्सिडी को जारी रखकर वैश्विक बाजारों पर कब्ज़ा करने की छूट हासिल है वहीँ अमेरिका एवं अन्य विकसित देशों द्वारा उन सब्सिडी को अपने निशाने पर जारी रखा जाता है, जो भारत द्वारा अपने देश के छोटे और मझौले किसानों मुहैय्या कराई जाती है। यहाँ तक कि मौजूदा एमएसपी शासन में जो दरें प्रचलन में है, वे बहुसंख्यक की संख्या में छोटे और सीमांत किसानों को आर्थिक संकट और ऋणग्रस्तता के चंगुल से बचा पाने में असमर्थ हैं। यही वजह है कि दिल्ली के बाहरी इलाकों में आन्दोलनरत किसान अपनी फसलों पर एमएसपी को सुनिश्चित करने के लिए क़ानूनी गारंटी की मांग पर अडिग बना हुआ है। 

सार्वजनिक खरीद प्रणाली और एमएसपी को लेकर जारी लडखडाहट के दो प्रभाव देखने को मिल सकते हैं। एक, खेती के कामकाज में बने रहने के लिए किसानों को हासिल होने वाले प्रोत्साहन में कमी देखने को मिल सकती है; दूसरा, खाद्य सुरक्षा कार्यक्रमों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। इसके परिणामस्वरूप भारतीय बाजार अमेरिका और यूरोप के विशालकाय कृषि-व्यावसायिक समूहों के लिए पूरी तरह से खुल जाने वाला है।

धर इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं “यदि भारत जैसे देश वैश्विक मांग में अभिवृद्धि करते हैं और मांग यदि आपूर्ति से अधिक बढ़ जाती है तो कीमतें आसमान छूने लगेंगी। इससे अमेरिका और यूरोपीय संघ को दो मामलों में फायदा होने वाला है। ऐसे में उन्हें अपने यहाँ सब्सिडी नहीं देनी होगी, क्योंकि उच्च कीमतें खुद ही उत्पादन की बढ़ती लागत को वहन करने के लिए पर्याप्त रहने वाली हैं। इसके साथ ही साथ बाजार भी विकसित देशों को भारत में बड़ा बाजार मुहैय्या कराने के जरिये कृषि क्षेत्र में मदद पहुंचाने में कारगर साबित हो सकता है। स्पष्ट तौर पर कोई भी इस बात को देख सकता है कि क्यों अमेरिका इन कानूनों (2020 में भारत द्वारा पारित तीन कृषि कानून) के प्रति इतनी दिलचस्पी ले रहा है। वे इन सुधारों को होते देखना चाहते हैं; वे चाहते हैं कि भारत सरकार इनको लेकर एक सुगम नीति को को अपनाए।”

हालाँकि तयशुदा कीमतों और इनपुट सब्सिडी से पीछे हटने का अर्थ होगा छोटे एवं सीमांत किसानों के प्रभुत्व वाले भारतीय कृषि समुदाय का पूर्णरूपेण आर्थिक पतन हो जाना। इसके अलावा सार्वजनिक खरीद प्रणाली से पीछे हटने का सीधा प्रभाव भारत में खाद्य सुरक्षा पर पड़ने जा रहा है। 

हाल के वर्षों में डब्ल्यूटीओ और विकसित पूंजीवादी देशों की ओर से विकासशील देशों के उपर लगातार इस बात का दबाव डाला जा रहा है कि वे अपने सार्वजनिक-स्टॉक होल्डिंग व्यवस्था और कृषि एवं खाद्य वस्तुओं पर सब्सिडी को वापस ले लें। यह विकसित पूंजीवादी देशों द्वारा नए बाजारों पर अपनी पहुँच को बना पाने की मुहिम के एक हिस्से के तौर पर है, जिसकी शुरुआत सोवियत संघ के पतन के साथ अपने निर्यात बाजारों के खात्मे के बाद और अपनी स्वयं की आबादी के 1990-1996 के बीच में खपत के स्तर में गिरावट के चलते हुई है।  

इस बारे में पहली बार चर्चा बहुपक्षीय व्यापार (1986-1993) के दौरान उरुग्वे दौर की वार्ता के दौरान हुई थी, जिसके बाद जाकर जनवरी 1995 में एओए अपने अस्तित्व में आया था। विकासशील देशों द्वारा नए बाजारों के मुहैया कराये जाने से अमेरिका और ईयू देशों में मौजूद बहुराष्ट्रीय कृषि-व्यवसाय निगमों को अपने मनमाफिक कीमतों पर अपने अधिशेष अनाज से छुटकारा पाने में मदद मिलने जा रही है। एक बार यदि विकासशील देशों में मौजूद सार्वजनिक खरीद और स्टॉक-होल्डिंग प्रणाली से समझौता कर लिया जाता है तो इन देशों के पास खाद्यान्न के आयात के सिवाय कोई चारा नहीं बचा रहने वाला है। इसी के साथ ही अंतर्राष्ट्रीय नीतियों का जोर उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में खेती योग्य भूमि पर खाद्यान्नों के उत्पादन के बजाय उन वाणिज्यिक एवं नकदी फसलों को लेकर बना हुआ है, जिन्हें उन्नत पूंजीवादी देशों में उगा पाना संभव नहीं है।

लेखिका ट्राईकॉन्टिनेंटल: इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल रिसर्च के साथ एक लेखिका और शोधार्थी के तौर पर सम्बद्ध हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं। 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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