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इलेक्ट्रॉनिक कचरा तत्काल प्रदूषण की एक बड़ी चिंता

उत्पादित ई-कचरे की मात्रा लगभग 4,500 एफिल टावरों के बराबर है और यह मात्रा न्यूयॉर्क से बैंकॉक और बैंकाक से न्यूयॉर्क तक 28,000 किमी से अधिक दूरी का एक रास्ता बनाने के लिए पर्याप्त है।
E waste

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) ने 2019 में कहा था कि दुनिया में प्रति वर्ष लगभग 50 मिलियन टन इलेक्ट्रॉनिक कचरा (ई-कचरा) पैदा होता है, जिसका वजन अब तक निर्मित सभी वाणिज्यिक विमानों से अधिक है। संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय (यूएनयू) की एक हालिया रिपोर्ट में बताया गया है कि उत्पादित ई-कचरे की मात्रा लगभग 4,500 एफिल टावरों के बराबर है और यह मात्रा न्यूयॉर्क से बैंकॉक और फिर बैंकॉक से न्यूयॉर्क तक की 28,000 किमी से अधिक दूरी का एक रास्ता बनाने के लिए पर्याप्त है !

विशेष रूप से पिछले दो दशकों के दौरान अपनी अभूतपूर्व वृद्धि के बावजूद, ई-कचरा प्रदूषण सम्बन्धी चिंता का एक विषय बना हुआ है, जिसके बारे में पर्याप्त रूप से अबतक बात नहीं की की गयी है और इस प्रकार, अब भी वैश्विक आबादी के एक बड़ा हिस्से के लिए यह एक अपरिचित विषय है। सरल शब्दों में कहा जाय,तो ई-कचरा मुख्य रूप से छोड़ दिये गये या प्रयोग में नहीं आ रहे उन उपकरणों को दर्शाता है,जिसके संचालन के लिए बिजली का उपयोग किया जाता है।

उपभोक्ता इलेक्ट्रॉनिक्स बाज़ार और सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) क्रांति के विकास के साथ ई-कचरा एक नुकसान पहुंचाने वाले एक ऐसे गौण उत्पाद के रूप में सामने आया है, जो धीरे-धीरे लगातार बढ़ता ही जा रहा है। ई-कचरे का सतत प्रबंधन एक बड़ी चुनौती है, जिस पर वैज्ञानिक समुदायों, नीति निर्माताओं और नागरिक समाज को तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। यह अनदेखी नहीं की जाने वाली एक वास्तविकता है कि ई-कचरा एक ज़हरीला और अबतक का एक जटिल कोटि का कचरा है।

इसमें भारी धातु (जैसे पारा, सीसा, क्रोमियम, कैडमियम, आदि) और लगातार बने रहने वाला कार्बनिक प्रदूषक होते हैं, जो मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए बेहद नुकसान पहुंचाने वाले हैं। ई-कचरा केवल ख़तरनाक रसायन ही नहीं, बल्कि सोना, चांदी, पैलेडियम, तांबा, आदि जैसे बहुमूल्य और मूल्यवान धातुओं का एक समृद्ध स्रोत भी है। ज़हरीले और मूल्यवान दोनों धातुओं की मौजूदगी ई-कचरे को जटिल अपशिष्टों का एक ऐसा स्रोत बना देती है, जिसके लिए एक सजग प्रबंधन प्रणाली की आवश्यकता है।

प्रबंधन की जटिलतायें

हालांकि ई-कचरे का प्रति व्यक्ति उत्पादन तो विकसित देशों में बहुत अधिक होता है, लेकिन इसकी कुल उत्पादित मात्रा विकासशील देशों और उभरती अर्थव्यवस्थाओं में काफी अधिक है। उदाहरण के लिए, संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय (यूएनयू) के एक हालिया अध्ययन में इस बात का उल्लेख किया गया है कि भारत प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति 2 किलो से कम ई-कचरा पैदा करता है, जबकि स्विट्जरलैंड में प्रति व्यक्ति 25 किलोग्राम से अधिक ई-कचरा पैदा होता है। हालांकि, भारत में उत्पादित ई-कचरे की कुल मात्रा स्विट्जरलैंड की कुल मात्रा से लगभग आठ गुनी है,जो इसे दुनिया में ई-कचरे के सबसे बड़े उत्पादक में से एक बना देती है। ऐसा इस कारण से है कि ग्लोबल साउथ (निम्न और मध्यम आय वाले देशों के लिए प्रयोग होने वाला शब्द) मुख्य रूप से बड़े बाज़ार की क्षमता वाला एक विशाल आबादी वाला क्षेत्र है।

इसके अलावा, कई विकासशील देश नॉर्थ ग्लोबल( उच्च आय वाले देशों के लिए प्रयोग होने वाला शब्द) से आयातित ई-कचरे के प्रमुख स्थलों के रूप में काम करते हैं। हालांकि, 1989 में हस्ताक्षरित 'ख़तरनाक कचरे और उनके निपटान की सीमा पार आवाजाही के नियंत्रण पर बासेल कन्वेंशन' और 1992 से प्रभावी, औद्योगिक देशों से औद्योगिकरण से गुज़र रहे देशों की तरफ़ ई-कचरे के इस हस्तांतरण को प्रतिबंधित करता है, जो इस सम्मेलन की खामियों को प्रभावी रूप से सामने लाता है। उदाहरण के लिए, भारत, नाइजीरिया, घाना आदि देशों में कई इलेक्ट्रॉनिक उपकरण 'दान' या 'काम कर रहे उपकरण' के नाम हस्तांतरित किये जाते हैं।

 मगर,वास्तविकता तो यही है कि ये उपयोग से बाहर हो चुके ऐसे इलेक्ट्रॉनिक्स या ई-कचरे हैं, जो इन देशों के प्रमुख शहरों में कुकुरमुत्ते की तरह फैल रहे अनौपचारिक रिसाइकलिंग स्थलों पर सीधे-सीधे डंप किये जा रहे हैं। इस प्रकार, साउथ ग्लोबल को अपने घरेलू स्तर पर उत्पन्न और आयातित ई-कचरे दोनों का ध्यान रखना चाहिए।

अनौपचारिक ई-कचरे की रीसाइक्लिंग वाले इन स्थलों को गहन रूप से प्रदूषित पानी, मिट्टी, वायु के लिए जाना जाता है,जहां बड़ी संख्या में महिला श्रमिक और बच्चे होते हैं, जो बिना किसी स्वास्थ्य और सुरक्षा उपायों के काम कर रहे होते हैं। इस समय, औपचारिक ई-कचरा रीसाइक्लिंग सेक्टर में पुनर्नवीनीकृत ई-कचरे का केवल 20% हिस्सा है। बड़े पैमाने पर घरेलू उत्पादन, अवैध आयात, अनौपचारिक रीसाइक्लिंग सेक्टर का प्रभुत्व और अपर्याप्त औपचारिक रीसाइक्लिंग उपक्रम मिलकर ई-कचरे के स्थायी प्रबंधन को विशेष रूप से विकासशील देशों और उभरती अर्थव्यवस्थाओं के लिए एक जटिल कार्य बना देते हैं।

कुछ संभावित हल

इस वास्तविकता को देखते हुए कि ई-कचरे में मूल्यवान धातु सांद्रता प्राकृतिक अयस्कों की तुलना में बहुत अधिक होती है, ऐसे में इस ई-कचरे को ‘शहरी खानों’ के रूप में देखे जाने और इससे अधिकतम लाभ उठाने की दिशा में ढांचागत प्रावधान सुनिश्चित करना एक संभावित तरीक़े में से एक हो सकता है। इस समय, ग्लोबल साउथ में बड़े पैमाने पर इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के उत्पादन के लिए आवश्यक धातुओं का खनन किया जा रहा है, जिसके पर्यावरण और सामाजिक नतीजे विनाशकारी साबित हो रहे हैं। यदि ई-कचरे में पहले से मौजूद धातुओं का नये उपकरणों के निर्माण के लिए फिर से उपयोग किया जाता है, तो इससे पर्यावरणीय दबाव में काफी कमी आयेगी और एक वृत्तीय अर्थव्यवस्था की दिशा में भी योगदान होगा। इसके अलावा, वैश्विक और स्थानीय,दोनों ही स्तरों पर ई-कचरे की समस्या से निपटने के लिए कठोर नीतियों को तैयार करना और उन्हें लागू करना आवश्यक है।

‘ई-कचरा’ की परिभाषा को मानक बनाना भी आवश्यक है। हालांकि यूरोपीय संघ की परिभाषा में मोबाइल फ़ोन, टीवी, वॉशिंग मशीन, इस्त्री मशीनों से लेकर चिकित्सा उपकरणों, स्वचालित मशीनों और ऐसे इलेक्ट्रॉनिक खिलौने तक शामिल हैं, जिनमें विद्युत और इलेक्ट्रॉनिक उपकरण होते हैं, मगर,भारत जैसे देशों में इस परिभाषा का दायरा बहुत तंग है। एक समान परिभाषा नहीं होने के कारण ई-कचरे के प्रबंधन को लेकर जटिलतायें बढ़ती ही जाती हैं।

मौजूदा रुझान से स्पष्ट है कि ई-कचरा निकट भविष्य में विशेष रूप से ग्लोबल साउथ में अपनी इस महत्वपूर्ण वृद्धि को जारी रखेगा। इस वृद्धि को देखते हुए एक बड़ी चुनौती पर्याप्त ढांचागत प्रावधानों और नीतिगत दृष्टिकोणों को सुनिश्चित करने की है,जिसकी कमी इस समय औद्योगिकीकरण से गुज़र रहे अधिकांश देशों में देखी जा रही है।

(लेखक बेल्जियम स्थित लेउवेन में काथोलिक यूनिवर्सिटी में मैरी स्कोलोडोव्स्की क्यूरी पोस्टडॉक्टोरल फेलो हैं। ये उनके व्यक्तिगत विचार हैं।)

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Why Electronic Waste Is an Urgent Pollution Concern

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