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भाजपा और मोदी धर्मनिरपेक्षता के लबादे में सांप्रदायिक राजनीति को क्यों धारण करते हैं?

भाजपा के 41 वें स्थापना दिवस के मौके पर मोदी ने एक बार फिर से आडवाणी की पुरानी धर्मनिरपेक्ष-सांप्रदायिक बहस को विडंबनापूर्ण रूप से पुनर्जीवित करने का काम किया है। पिछले सात वर्षों से सत्ता पर काबिज भाजपा को देखते हुए उसे धनी कहा जा सकता है।
भाजपा और मोदी धर्मनिरपेक्षता के लबादे में सांप्रदायिक राजनीति को क्यों धारण करते हैं?

जब 1989 के बाद से राम जन्मभूमि अभियान रफ़्तार पकड़ने लगा था, तब उस दौरान भारतीय जनता पार्टी के दिग्गज एलके अडवाणी ने धर्मनिरपेक्षता शब्द पर एक शाब्दिक युद्ध छेड़ना शुरू कर दिया था। उनका कहना था कि भारत में धर्मनिरपेक्षता का मतलब है गैर-भाजपा दलों के द्वारा धार्मिक अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों का तुष्टीकरण। इसके विपरीत, जो हिन्दुओं के दुःख-दर्द की बात करते हैं और उसके समाधान की तलाश करते हैं, उन्हें सांप्रदायिक करार दिया जाता है। अपने इस तर्क को आगे बढ़ाते हुए, अडवाणी ने कहा कि भारत में धर्मनिरपेक्षता असल में “छद्म-धर्मनिरपेक्षता” से अधिक कुछ नहीं है, एक ऐसा शब्द जो जल्द ही पत्रकारों के लेखन में घर करने लगा था। इसके बाद तो धर्मनिरपेक्ष और धर्मनिरपेक्षता जैसे शब्द उलटे उद्धरण चिन्हों के भीतर नजर आने शुरू हो गए। इस प्रकार यह सुझाया जाने लगा, कि वास्तव में इस प्रकार की अवधारणायें अपने वजूद में ही नहीं है।

1989 के दौर में भाजपा सत्ता के कहीं आस पास तक नहीं थी। इसके बावजूद पार्टी के अयोध्या में बाबरी मस्जिद स्थल पर राम के होने का दावा करने के फैसले ने एक आक्रोश को पैदा कर दिया, कि यह धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को कमजोर करने का काम कर रही है। क्योंकि धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को अन्य बातों के अलावा, राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान परिभाषित किया गया था, जिससे कि धार्मिक अल्पसंख्यकों को सुरक्षा एवं उनके अधिकारों को गारंटी करने को सुनिश्चित किया जा सके। यह एक नैतिक बाधा थी, जिससे सत्ता में अपनी दावेदारी हासिल करने के लिए भाजपा को पार पाना था। आडवाणी ने धर्मनिरपेक्षता को छद्म-धर्मनिरपेक्षता के रूप में परिभाषित करना शुरू कर दिया। इस प्रकार भारत की छद्म-धर्मनिरपेक्षता की कथित राजनीतिक संस्कृति मुस्लिमों को कलंकित करने और यहाँ तक कि उनके साथ दुर्व्यवहार करने तक के लिए तर्कसंगत बना दी गई। इस रणनीति ने पिछले तीन दशकों में भाजपा को भारत की सबसे प्रभुत्वशाली राजनीतिक पार्टी बनाने में अपनी अहम भूमिका निभाई है।

इसलिए यह काफी आश्चर्यजनक रहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी क्यों भाजपा के 41वें स्थापना दिवस के मौके पर अपने भाषण में धर्मनिरपेक्षता पर पुरानी बहस को वापस ला रहे हैं। अडवाणी के लगभग भुला से दिए गए भाषण का सहारा लेते हुए मोदी ने पार्टियों को धर्मनिरपेक्ष और सांप्रदायिक करार देने के आधार पर ही सवाल खड़े कर दिए। मोदी ने कहा कि भारत में धर्मनिरपेक्षता का अभिप्राय, कुछ लोगों के लिए नीतियों को तय करने या अपने वोटबैंक को मजबूत करने में है। विपक्ष पर मुस्लिम-समर्थक होने का आरोप लगाने का यह उनका अपना तरीका था। मोदी यहीं पर नहीं रुके, जैसा कि वे करते हैं: “वे लोग जो सभी के लिए नीतियों को तय करते हैं, जो सभी के अधिकारों के लिए आवाज उठाते हैं, जो सबके लिए काम करते हैं, उन्हें यहाँ पर सांप्रदायिक करार दिया जाता है।” उन्होंने दावा किया कि लेकिन उनके नारे ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’ ने “इन परिभाषाओं को बदलना” शुरू कर दिया है, यानी धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता को। 

इससे कि पहले कि पाठक खुश होकर कहें कि “क्या, सच में!” उन्हें इस बात पर गौर करना चाहिए कि कैसे मोदी ने आडवाणी द्वारा निर्धारित बहस के खाँचे को बदलने का प्रयास किया। 1990 के दशक में भाजपा इस कोशिश में थी कि कैसे हिन्दुओं को एक ऐसे समुदाय के रूप में पेश किया जाए, जिसे धर्मनिरपेक्ष दलों का ठप्पा लगाये हुए दलों द्वारा लगातार नजरअंदाज किया जाता रहा था। इस दृष्टिकोण से देखें तो हिन्दू धर्मनिरपेक्षता के शिकार रहे। मोदी के अनुसार 2021 में, विपक्ष अभी भी धार्मिक अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण पर लगा हुआ है। लेकिन ये वो हैं जिन्होंने अपने शासन के मॉडल के साथ सभी को समावेशी बनाया है, और धर्मनिरपेक्षता का सही रास्ता दिखलाया है।

यह किसी के लिए संभव नहीं है जो पूछे कि क्या मोदी की धर्मनिरपेक्षता की वैचारिकी में मुसलमानों की लिंचिंग, ईसाई धर्मगुरुओं और ननों को धर्मान्तरण को अंजाम देने के संदेह के आधार पर मारना-पीटना, नागरिकता पर भेदभावपूर्ण कानूनों को पारित करना और अंतर-धार्मिक विवाह को बेहद कठिन बना देना भी शामिल है। काम के बजाय नारेबाजी उनकी सरकार की मंशा को प्रदर्शित करते हैं; यहाँ या वहां पर हो रही मौतों पर सिर्फ पर्दादारी ही पर्याप्त है।

सात वर्षों तक केंद्र में सत्ता में रहने के बाद, भाजपा के लिए यह तर्क देना अब बेहद कठिन हो गया है कि हिन्दू आज भी धर्मनिरपेक्ष राजनीति का शिकार बने हुए हैं। आख़िरकार वे उन राज्यों में खुद को शिकार नहीं बता सकते, जिनमें हिंदी ह्रदयक्षेत्र शामिल हैं, और जहाँ पर उसकी खुद की या भाजपा समर्थित गठबंधन सरकारें हैं। इसके उलट विपक्ष शासित राज्यों, जैसे कि केरल और पश्चिम बंगाल में हिन्दुओं को पीड़ित के तौर पर प्रोजेक्ट किया जा सकता है। ये वे राज्य हैं जहाँ भाजपा के मुताबिक वोटबैंक की राजनीति शासन को परिभाषित करती है- और धार्मिक अल्पसंख्यकों को सर पर चढाया जाता है। इसके अनुसार धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता की परिभाषाओं को इन विभिन्न राज्यों में तभी उलटा जा सकता है, जब सत्ताधारी दलों को चुनावों में बाहर का रास्ता दिखाया जाये। अब इन राज्यों से भाजपा द्वारा विपक्ष को उखाड़ फेंकने की क्षीण संभावना क्षीण नजर आती है तो प्रधानमंत्री के विचार में ये धर्मनिरपेक्ष ब्रिगेड, मोदी सरकार को कमजोर करने के लिए षड्यंत्र वाले नैरेटिव को बुनने में लगी हैं।

इस पर पीएम मोदी का कहना है कि विपक्ष नागरिकता संशोधन अधिनियम को लेकर अफवाह फैला रहा है कि इसके जरिये मुसलमानों की नागरिकता के अधिकारों को छीन लिया जायेगा, और यह कि तीन नए कृषि कानून और श्रम संहिता किसानों और श्रमिकों के लिए हानिकारक हैं। अपनी पार्टी के 41वें स्थापना दिवस पर उनका कहना था कि “काल्पनिक भय को खड़ा किया जा रहा है।”

वास्तव में मोदी ने यह सुनिश्चित करने के लिए पुरातन सांप्रदायिक-धर्मनिरपेक्ष की बहस को वापस लाने का काम किया है ताकि धर्मनिपेक्षता को नष्ट करने के लये नैतिक बाधा निचले स्तर पर बनी रहे, भले ही सिकुड़ती अर्थव्यवस्था से सामाजिक असंतोष ही क्यों न उफान पर आ जाये। हिंदुत्व विपक्षी दलों को सत्ता से बेदखल रखने और उसकी जड़ खोदने के लिये एक मारक हथियार है। हालाँकि हिंदुत्व, शासन चलाने के लिए उपयुक्त औजार नहीं है। यही वजह है कि हिंदुत्व को अपने मतदाताओं द्वारा कल्पनाओं में की जा रही साजिशों से उत्पन्न होने वाले उत्पीड़न और असुरक्षाओं की भावना के जकड़ कर रखा जाए। 

इसमें शायद ही कोई आश्चर्य की बात हो कि भाजपा के स्थापना दिवस पर भाषण देने के बाद मोदी पश्चिम बंगाल के लिए उड़ान भर लेते हैं, जहाँ उन्होंने विक्टिम-विक्टिम का खेल खेला। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की मुस्लिमों को चेतावनी कि, वे अपने वोटों को विभाजित न होने दें, का उल्लेख करते हुए मोदी ने कहा “मुझे नहीं पता कि दीदी [बनर्जी] को चुनाव आयोग से नोटिस मिला या नहीं। लेकिन यदि मैं कहता कि हिन्दुओं को एकजुट होकर भाजपा को वोट देना चाहिए, तो अब तक चुनाव आयोग मुझे आठ से 10 नोटिस भेज चुका होता।” मोदी यहाँ पर स्पष्ट रूप से बनर्जी को सांप्रदायिक राजनीति का सहारा लेने का आरोप लगा रहे थे, और ठीक उसी समय खुद को साबित कर रहे थे कि चुनाव आयोग सहित सारी दुनिया उनके खिलाफ साजिश रच रही है। इसके साथ ही वे बड़ी चतुराई से हिन्दुओं को भाजपा के पीछे एकजुट होने के लिए भी कह रहे थे। इससे बड़ा मजाक और क्या हो सकता है।

मई 2019 में, लोकसभा चुनावों के लिए चल रहे उग्र अभियान के दौरान मोदी ने महाराष्ट्र के वर्धा में एक रैली में बोलते हुए कांग्रेस के नेता राहुल गाँधी के केरल के वायनाड से चुनाव लड़ने पर जमकर आलोचना की थी। उन्होंने कहा कि कांग्रेस “उन क्षेत्रों में शरण ले रही है जहाँ पर अल्पसंख्यक बहुसंख्य संख्या” में हैं, और वे “बहुसंख्यक बहुल वाले इलाकों से भाग रहे हैं।” महाराष्ट्र में ही लातूर की जनसभा में मोदी ने कहा “मैं अपने पहली बार के मतदाताओं से पूछना चाहता हूँ, कि क्या आपका पहला वोट उन सैनिकों को समर्पित होगा, जिन्होंने बालाकोट हवाई हमलों को संचालित किया था? क्या आपका पहला वोट उन शहीदों के नाम पर जायेगा, जिन्होंने पुलवामा में अपनी जानें गंवाई?” महाराष्ट्र के नागपुर में तब गृहमंत्री अमित शाह ने कहा था “और ये राहुल बाबा, अपने गठबंधन की खातिर केरल में एक ऐसी सीट पर चुनाव लड़ रहे हैं, जहाँ पर जब सड़कों पर जुलूस [भारतीय संघ के मुसलमानों द्वारा] निकाला जाता है, तो आप यह तय नहीं कर सकते कि यह जुलूस भारत में निकाला जा रहा है या पाकिस्तान में।”

इन तीन भाषणों की वजह से मोदी और शाह के खिलाफ चुनाव आयोग में आचार संहिता के उल्लंघन  की शिकायतें दर्ज की गईं थीं। आयोग ने उनके पक्ष में फैसला सुनाया था, लेकिन यह फैसला एकमत से नहीं हुआ था। एक चुनाव आयुक्त ने इस पर अपना विरोध दर्ज किया था। बाद में उन्हें चुनाव आयोग से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था। अब जरा हेमंत बिस्वा सरमा के बारे में सोचिये, जिन्हें बोडो नेता को धमकी देने के लिए दण्डित किया गया था, उसे

सिर्फ इसलिए कम कर दिया गया क्योंकि उन्होंने माफ़ी मांग ली थी।

भले ही भाजपा खुद को धर्मनिरपेक्ष राजनीति का शिकार बताने का दावा करती हो, लेकिन यह मुसलमानों को खुलेआम कलंकित करने से बाज नहीं आती। शाह और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के भाषणों को भूल जाइए। कोई भी बयानबाजी तृणमूल कांग्रेस से भगौड़े सुवेंदु अधिकारी का मुकाबला नहीं कर सकती, जो बनर्जी के खिलाफ नंदीग्राम से चुनाव लड़ रहे हैं। 29 मार्च को अपने एक भाषण में अधिकारी ने कहा “अगर बेगम [बनर्जी] वापस सत्ता में आ जाती हैं, तो यह राज्य एक मिनी पाकिस्तान में तब्दील हो जायेगा।” उनकी तीखी बयानबाजी के विवरण को यहाँ पर पढ़ा जा सकता है।

ऐसा प्रतीत होता है कि मोदी और भाजपा धर्मनिरपेक्षता की आड़ में सांप्रदायिकता का अभियान चलाने के लिए नैतिक तौर पर मजबूर हैं। उन्हें अपनी सांप्रदायिक राजनीति को न्यायोचित ठहराने के लये दूसरों पर “छद्म-धर्मनिरपेक्षता” का आरोप मढ़ना ही होगा। सच्चाई तो यह है कि, वे इसके नाम पर खेल भी खेल सकते हैं।

लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिग हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।

Why do BJP and Modi Dress Communal Politics in Secular Attire?

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