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मज़दूरों के संकट, अप्रवासियों का दमन और सफ़दर की याद

इस समय आपको जो गुस्सा या आक्रोश दिखाई पड़ रहा है, उस आक्रोश का राजनीतिक चरित्र भले ही विभिन्न प्रकार की सम्मतियों और आशाओं में प्रकट हो रहा हो, लेकिन इनकी अंतर्निहित निराशाएँ समान हैं। ये पूंजीवाद के दशकों से चल रहे संकट और गरीबी के परिणामों से उपजा आक्रोश है।
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नए साल में प्रवेश के साथ-साथ दुनिया-भर में विरोध गतिविधियाँ लगातार जारी हैं और बढ़ता हुआ असंतोष प्रगतिशील और प्रतिक्रियात्मक दोनों दिशाओं में प्रकट हो रहा है। इस आक्रोश का राजनीतिक चरित्र भले ही विभिन्न प्रकार की सम्मतियों और आशाओं में प्रकट हो रहा हो, लेकिन इनकी अंतर्निहित निराशाएँ समान हैं। ये पूंजीवाद के दशकों से चल रहे संकट और मुफ़लीसी के परिणामों से उपजा आक्रोश है। इस आक्रोश का कुछ हिस्सा बराबरी पर आधारित आपदा-रहित नई दुनिया बनाने के सृजनात्मक कार्य में लगा है और दूसरा हिस्सा अन्य लोगों के प्रति जहरीली नफरत में बदल रहा है।

अप्रवासियों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ ये नफ़रत दमनकारी व्यवस्था से निजात पाने की झूठी उम्मीद देती है। वास्तविक उम्मीद एक ऐसी व्यवस्था प्रस्तावित करती है जहाँ भूख और निर्वासन को मिटाने के लिए सार्वजनिक संसाधनों का बेहतर प्रबंधन हो और पूंजीवाद व जलवायु परिवर्तन से निर्मित आपदाएँ नियंत्रित की जाएँ।

इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि, युवा नई दुनिया की वकालत करते बैनर पकड़ कर सकड़ों पर हैं, क्योंकि ये युवा ही हैं जो समझ रहे हैं कि उनका जीवन दांव पर लगा है, और कि संपत्ति और विशेषाधिकार की वर्ग वास्तविकता उनकी आकांक्षाओं को मटियामेट कर रही हैं (चिली पर संयुक्त राष्ट्र की नई रिपोर्ट के अनुसार, सामाजिक-आर्थिक असमानता प्रदर्शनकारियों की मुख्य शिकायत है)। युवाओं का ये विद्रोह बिना वर्ग-चरित्र का विद्रोह नहीं है; ये युवा बख़ूबी जानते हैं कि वे आवास और रोज़गार, आनंद और पूर्ति आसानी से हासिल नहीं सकते।

आंद्रे फौगरन, अटलांटिक सभ्यता, 1953

वास्तविक उम्मीद का तार्किक आधार घृणास्पद सामाजिक असमानतओं को चिन्हित करता है। प्रत्येक वर्ष, ब्लूमबर्ग की वित्तीय समाचार सेवा एक बिलियनेयर (अरबपति) इंडेक्स तैयार करती है। इस वर्ष का सूचकांक, जो 2019 के अंतिम दिनों में प्रकाशित हुआ था, यह दर्शाता है कि दुनिया के शीर्ष 500 अरबपतियों ने अपनी संपत्ति में $1.2 ट्रिलियन की वृद्धि की; 25% वृद्धि के साथ अब उनकी कुल सम्पत्ति $ 5.9 ट्रिलियन है। इन 500 अरबपतियों में से सबसे ज़्यादा-172- संयुक्त राज्य अमेरिका में रहते हैं। अमरीका के अरबपतियों ने अपनी पूँजी में $ 500 बिलियन का इज़ाफ़ा किया; इसमें फेसबुक के मार्क जुकरबर्ग ने $ 27.3 बिलियन और माइक्रोसॉफ्ट के बिल गेट्स ने $ 22.7 बिलियन की वृद्धि पायी। दुनिया के दस सबसे अमीर लोगों में से आठ (जेफ बेजोस से जूलिया कोच तक) अमेरिकी नागरिक हैं।

ऐसी खबरें कुछ भी स्पष्ट नहीं करतीं; वे केवल हमें अमीरिस्तान देश का झरोखा प्रदान करती हैं। लेकिन गहराई से देखने पर ये आँकड़े सामाजिक असमानता के सार को उजागर करते हैं। वैश्विक खुदरा बाज़ार के महकाय प्रतिनिधि “वॉलमार्ट” का मालिक वाल्टन परिवार, ब्लूमबर्ग की अरबपतियों की सूची में ख़ास जगह रखता है। यह परिवार प्रति मिनट $ 70,000 विनियोजित करता है, जो कि कुल मिला कर $ 100 मिलियन प्रति दिन है। यह वॉलमार्ट की कमाई का बड़ा हिस्सा है। वॉलमार्ट की कुल कमाई में से वॉल्टन परिवार द्वारा हड़प लिए गए बड़े हिस्से की तुलना में वॉलमार्ट श्रमिकों के लिए छोड़ा जाने वाला तुच्छ हिस्सा अपने आप में अनुदेशात्मक है।

ख़ुद वॉलमार्ट की अपनी आर्थिक, सामाजिक और अभिशासन रिपोर्ट स्वीकार करती है कि संयुक्त राज्य अमेरिका में वॉलमार्ट श्रमिकों के लिए औसत मजदूरी $ 14.26 प्रति घंटे है। वैश्विक स्तर पर कुल 22 लाख वॉल्मार्ट कर्मचारियों में से एक कर्मचारी 52 हफ़्तों तक 40 घंटे प्रति सप्ताह काम करने के बाद सालाना $ 29,660 कमाता है - जो कि वाल्टन परिवार सिर्फ़ पच्चीस सेकंड में बनाता है। और वॉलमार्ट वैश्विक मूल्य श्रृंखला के लिए माल का उत्पादन करने वाला एक चीनी कर्मचारी औसतन  $ 300 प्रति माह, या $ 3,600 सालाना कमाता है— उतना जितना कि वाल्टन परिवार सिर्फ़ तीन सेकंड में कमा लेता है। वाल्टन परिवार का धन उन लाखों श्रमिकों के सामाजिक श्रम का प्रत्यक्ष परिणाम है, जो उन उत्पादों को बनाते हैं जिन्हें वॉलमार्ट बेचता है और उन लाखों श्रमिकों के श्रम का भी जो इन उत्पादों को बेचते हैं। लेकिन ये श्रमिक वॉलमार्ट द्वारा केवल 2019 में अर्जित $ 510 बिलियन के विशाल लाभ का नगण्य अंश मात्र ही कमाते हैं।

पिछले साल, जनवरी में, हजारों बांग्लादेशी कपड़ा मज़दूरों - जिनमें अधिकांश महिलाएं हैं - ने उन कारखानों के खिलाफ औद्योगिक कार्रवाई शुरू की जो वे कपड़े बनाते हैं जिन्हें वॉल्मार्ट व H&M जैसे खुदरा विक्रेता बेचते हैं। इन हमलों के  प्रतिकार में, 7500 श्रमिकों को मालिकों ने बर्खास्त कर दिया गया, व हजारों श्रमिकों को ह्यूमन राइट्स वॉच कथानुसार 'व्यापक और अस्पष्ट’ आरोपों के लिए आपराधिक मामलों का सामना करना पड़ा।

इनमें से अधिकांश श्रमिक प्रति महीना 3000 टका ($30) - एक चीनी मजदूर की मजदूरी का दसवां हिस्सा—से ज़्यादा नहीं कमाते। जब ये श्रमिक - जिन्हें बहुत कम मजदूरी दरों पर वेतन मिलता है - मामूली वेतन वृद्धि के लिए आग्रह करते हैं, तो उन्हें वॉलमार्ट जैसे खुदरा विक्रेताओं के लिए उत्पादन करने वाले छोटे कारखानों के मालिकों के पूर्ण क्रोध के साथ-साथ बांग्लादेशी राज्य के दमन का सामना भी करना पड़ता है। 8 जनवरी 2019 को, अनलिमा टेक्सटाइल्स में नौकरी करने वाले दो कपड़ा मज़दूर - सुमन मिया (उम्र 22) और नाहिद अपने लंच ब्रेक के दौरान विरोध प्रदर्शन में शामिल हुए। नाहिद ने बाद में कहा कि , ‘पुलिस ने गोलियाँ चलानी शुरू कर दी और सभी मज़दूर भागने लगे। इसलिए सुमन और मैं दौड़ने लगे और अचानक सुमन के सीने में गोली लग गई और वह नीचे गिर गया। मैं भाग गया। बाद में मुझे सुमन का शव सड़क पर पड़ा मिला।'

ब्लूमबर्ग की सूची में एक और टिप्पणी शामिल की जानी चाहिए- धन के दूसरे पहलू पर- जिसमें ये व्याख्यायित हो कि बांग्लादेश में कपड़ा मज़दूरों के सामाजिक श्रम को हड़प कर ही वाल्टन परिवार के धन का उत्पादन होता है। इसे किसी भी तरह से सुमन मिया की याद में एक जगह मिलनी चाहिए।

एंड्रयू बिराज, बांग्लादेशी कपड़ा मज़दूर- रहले अख़्तर पुलिस का सामना करते हुए , ढाका, जून 2010

बिराज, शाहिदुल आलम के छात्र हैं, जिनकी नई किताब, द टाइड विल टर्न,  स्टिडल बुक्स ने प्रकाशित की है।

2019 में विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार 80 लाख बांग्लादेशी अब गरीबी रेखा के नीचे नहीं रह रहे हैं। इस रिपोर्ट का मुख्य बिंदु - गरीबी में कमी - इसके वास्तविक निष्कर्षों को छुपाता है। चार में से एक बांग्लादेशी गरीबी रेखा से नीचे रहता है, और 13% आबादी अत्यंत गरीबी रेखा के नीचे रह रही है (बांग्लादेश इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज के गरीबी और श्रमिक वर्ग की स्थिति पर किए गए विश्लेषण के अनुसार)। संजय रेड्डी और उनके सहयोगी गरीबी के आंकड़ों को अविश्वसनीय बताते हैं, क्योंकि जिन सरकारी आंकड़ों के आधार पर ये आँकड़े बने हैं वे न तो विश्वसनीय हैं और न ही तर्कसंगत हैं।

विश्व बैंक की रिपोर्ट बताती है कि ग़रीबी में 90% कमी ग्रामीण क्षेत्रों में आई है, जिसे शहरी श्रमिकों के भेजे गए धन ने मुख्य रूप से बढ़ावा दिया है। शहरों में काम कर रहे कपड़ा-मज़दूर अपनी मजदूरी का एक बड़ा हिस्सा ग्रामीण इलाक़ों में रह रहे अपने परिवारों को भेजते हैं, जबकि वे खुद गरीबी में रहते हैं; शहरी क्षेत्रों में अत्यंत गरीबी में रहने वाले लोगों की संख्या - विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार - 'लगभग अपरिवर्तित' रही है। ग़रीबी से बाहर आ चुके 80 लाख लोगों में से 54% लोग ‘अति कमजोर' हालत के चलते फिर ग़रीब हो सकते हैं। यह विदेशों में या शहरों में काम कर रहे लोगों -जैसे कपड़ा मज़दूर- के द्वारा किए जा रहे प्रेषण पर निर्भर करता है।

बांग्लादेश में वेतन बढ़ाने के लिए कपड़ा-मज़दूरों का संघर्ष, दुनिया भर में बढ़ती मुफ़लीसी के विरोध में हो रहे प्रदर्शनों की लहर का हिस्सा हैं। ये प्रदर्शन न केवल सरकारी खर्च में कटौतियों और बुनियादी वस्तुओं (सार्वजनिक परिवहन) की बढ़ती कीमतों की निंदा करते हैं, बल्कि श्रमिकों के अधिकारों की मांग भी कर रहे हैं। चिली और इक्वाडोर, ईरान और भारत, हैती और लेबनान, जिम्बाब्वे और मलावी को संदीपत कर रहे ये प्रदर्शन केवल घूसख़ोरी के खिलाफ या ईंधन की बढ़ती कीमतों के खिलाफ नहीं हैं; ये मुफ़लीसी और शोषण के पूरे तंत्र के खिलाफ हैं जो मानव जाति के बड़े हिस्से को संसाधनो से वंचित रखता है।

क्रांतिकारी बांगला कवि नज़्रुल इस्लाम (1899-1976) ने इस डकैत तंत्र के आक्रोश में लिखा कि:

मजदूरी दी है? चुप रह ओ मक्कारी गिरोह!

कूलियों को पाई देकर तूने कितने करोड़ हड़पे बोल!

उनकी कविता एक मालिक द्वारा श्रमिक की पिटाई से शुरू होती है। नज़रुल इस्लाम, जिन्होंने इस तरह के अत्याचारों से ख़ुद को सुन्न नहीं होने दिया, भावात्मक होकर लिखते हैं कि:  ‘मेरी आँखें आँसुओं से भरी हैं; क्या दुनिया में कमजोरों को इसी तरह  पीटा जाएगा?’ उन्हें उम्मीद थी कि यह स्थिति शाश्वत नहीं रहेगी और, मानवता का शोषण यथार्थ नहीं बनेगा। ये कविता रूप में एक सदी पहले लिखी जा चुकीं उम्मीदें आज भी युवाओं के नई दुनिया बनाने के ईमानदार संघर्ष में जीवंत हैं।

लेकिन वो दुनिया कैसी होगी? केवल शोषण के खिलाफ और उत्पीड़न के खिलाफ होना नई दुनिया की स्थापना के लिए पर्याप्त नहीं है। एक समाजवादी भविष्य के लिए एक मज़बूत और सक्रीय परियोजना ज़रूरी है। त्रिमहाद्वापीय: सामाजिक शोध संस्थान में हम ऐसी ही एक परियोजना विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं।

सफ़दर हाश्मी

तीस साल पहले, कम्युनिस्ट निर्देशक, अभिनेता, और लेखक सफ़दर हाश्मी की दिल्ली के पास जन नाट्य मंच का एक नाटक करते हुए बेरहमी से हत्या कर दी गई थी। उनका नाटक - हल्ला बोल - गाजियाबाद नगरपालिका चुनाव के लिए कम्युनिस्ट उम्मीदवार रामानंद झा के समर्थन में किया जा रहा था। सफ़दर को कांग्रेस पार्टी के गुंडों ने पीट-पीटकर मार डाला (दिल्ली के लेफ्टवर्ड बुक्स ने सफ़दर के जीवन और हम सभी के लिए इसकी प्रासंगिकता पर सुधन्वा देशपांडे द्वारा लिखी एक अद्भुत किताब प्रकाशित की है)।

सफ़दर प्रतिभा और स्नेह से भरपूर व अपनी पार्टी- मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी- और संघर्षों के लिए प्रतिबद्ध, दीप्तिमान व्यक्तित्व थे। उनकी एक कविता इस समाचार-पत्र का सारांश करती है:

आज अगर ये देश सलामत

है तो मेरे बल से

आज अगर मैं मर जाऊँ तो

गृह-युद्ध होगा कल से

आओ ओ भारत देश के वीरो

आओ मुझको आज़ाद करो

मुझे इस दमनकारी वर्तमान से आज़ाद कर 

एक विमुक्त भविष्य की ओर ले चलो। 

उनकी ये कविता सैंटियागो (चिली) या पोर्ट औ प्रिंस (हैती) या लिलोंग्वे (मलावी) की दीवारों पर लिखी जा सकती है; इसे अरबी में या स्वाहिली में, थाई में या फ़ारसी में गाया जा सकता है - इसका अर्थ पुनःपरिभाषित होता रहेगा। आओ मुझे आज़ाद करो।

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