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लखनऊ में अमित शाह:  फिर किया पुराने जुमलों का रुख

एक अहम स्वीकारोक्ति में शाह ने 2022 के विधानसभा चुनावों में भाजपा की संभावनाओं को 2024 में मोदी के प्रधानमंत्री बनने के साथ जोड़ दिया है।
Amit Shah
फ़ोटो:साभार: जनसत्ता

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के एक बहुचर्चित दौरे में गृह मंत्री और भाजपा के मुख्य चुनाव रणनीतिकार, अमित शाह ने राज्य में आगामी साल के फ़रवरी-मार्च में होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए पार्टी के नज़रिये, रणनीति और आकलन को सामने रख दिया है।  

उन्होंने सदस्यता अभियान शुरू किया और कार्यकर्ताओं और नेताओं की कई सभाओं को सम्बोधित किया। इनमें से कुछ सभाओं को तो उस अवध से सम्बन्धित बताया जाता है, जो इसलिए अजीब लगता है, क्योंकि अवध कोई प्रशासनिक इकाई नहीं, बल्कि एक क्षेत्र है। लेकिन, इसके पीछे एक कहानी है और कहानी यह है कि आरएसएस यूपी में छह क्षेत्रों में संगठित है और ये क्षेत्र हैं-गोरखपुर, ब्रज, अवध, कानपुर, काशी और मेरठ। 2017 के विधानसभा चुनावों के लिए भाजपा ने भी 2016 में संभवतः आरएसएस के संगठनात्मक ढांचे का बेहतर इस्तेमाल करने को लेकर राज्य को इन्हीं छह क्षेत्रों में विभाजित किया था। यही वजह है कि शाह इस अवध क्षेत्र के लिए बैठकें कर रहे थे।

लखनऊ में सभा को संबोधित करते हुए शाह ने एक उल्लेखनीय सूत्र दिया और यह सूत्र था कि अगर उत्तरप्रदेश में मतदाता मोदी को 2024 में प्रधान मंत्री बनते देखना चाहते हैं, तो उन्हें 2022 के चुनावों में योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाने के लिए वोट देना होगा।

उन्होंने एक ही झटके में उत्तर प्रदेश में भाजपा की कमज़ोरी और इससे उबरने के अपने नुस्खे दोनों का ख़ुलासा कर दिया। इससे ज़ाहिर हो गया कि जिन उपलब्धियों का दावा योगी करते रहते हैं, सिर्फ़ वे ही दावे उन्हें ज़रूरी वोट नहीं दिला सकते। पिछले तक़रीबन पांच सालों में कई समस्यायें मुख्यमंत्री का पीछा करती रही हैं। लखीमपुर हत्याकांड के बाद किसानों में मायूसी है और वे काफी ग़ुस्से में हैं। बेरोज़गारी हमेशा से एक समस्या रही है, ख़ासकर जबसे योगी ने पिछली बार जीतने के बाद दावा किया था कि उनकी सरकार राज्य में 40 लाख नौकरियां पैदा करेगी। राज्य में जिस तरह से कोविड-19 महामारी के हालात से निपट गया था, उससे लोगों में ज़बरदस्त नाराज़गी है और लोग सदमे में हैं। उस दरम्यान पतीत पावन गंगा में तैरती लाशों की तस्वीरें या गंगा के किनारे लाशों के दफ़्न होने की तस्वीरों ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींची थी। क़ानून-व्यवस्था को ठीक करने के नाम पर पुलिस को मुठभेड़ों, हिरासत में होने वाली मौतों और दूसरी दमनकारी कार्रवाइयों की खुली छूट की ख़बरें लगातार आती रही हैं। स्कूली बच्चों के लिए मिड डे मिल की बदहाली जैसी सचाई को उजागर करने वाले पत्रकारों को भी सरकार की नाराज़गी का सामना करना पड़ा है। महिलाओं पर होते जघन्य हमलों की कई घटनायें हुई हैं।

हाथरस, उन्नाव जैसी घटनायें इसके उदाहरण हैं, जहां प्रशासन की कमज़ोर इच्छाशक्ति या मिलीभगत की ख़बरें आती रही थीं। दलित समुदायों ने बार-बार महसूस किया है कि वे अगड़ी जातियों के निशाने पर हैं और उनके खिलाफ अत्याचार बढ़े हैं। इसके अलावे,अल्पसंख्यकों को डराने-धमकाने, कई राजनीतिक नेताओं की ओर से बार-बार सांप्रदायिक रूप से भड़काये और उकसाये जाने की ख़बरों के साथ सरकार के ज़रिये सांप्रदायिक ज़हर को बड़े पैमाने पर फैलाये जाने की ख़बरें भी आती रही हैं। अगर संक्षेप में कहा जाये,तो ऐसा लगता है कि मानों विनाशकारी आर्थिक नीतियों, सामाजिक उत्पीड़न की अनदेखी और सामाजिक भेदभाव को हवा देना ही योगी के शासन की ख़ासियत बन गयी हो।

इसी सिलसिले में शाह बीजेपी/आरएसएस के कार्यकर्ताओं और समर्थकों से कह रहे थे कि यह चुनाव प्रधानमंत्री मोदी को सामने रखकर लड़ा जाना चाहिए। अगर बीजेपी हारती है, तो मोदी की वापसी पर संकट के बादल मंडरा सकते हैं। ऐसे में शाह का मतलब तो यही है कि योगी के कुशासन को भूल जाइये, बस मोदी को वोट दे दीजिए।

ज़ाहिर है, यह महज जुमला नहीं है। जैसा कि आने वाले महीनों में देखने को मिलेगा कि इसे पूरी रणनीति के रूप में अमली जामा पहनाया जायेगा। प्रधानमंत्री मोदी पहले ही राज्य और ख़ासकर ज़्यादातर पूर्वी उत्तरप्रदेश का दौरा कर चुके हैं और छह बार सार्वजनिक कार्यक्रमों को सम्बोधित कर चुके हैं। उन्होंने हज़ारों करोड़ रुपये की परियोजनाओं और कार्यक्रमों का ऐलान किया है, जो कि पिछले सात सालों में सभी राज्य चुनावों में उनकी एक मानक शुरुआत बन गया है।

लेकिन, यह बात एकदम साफ़ है कि भाजपा के व्यवहार में आम उत्साह और आत्मविश्वास की भारी कमी दिखायी देती है। बेशक, अभी शुरुआती दिन हैं,लेकिन यह भाजपा के जनाधार के खिसने का यह एक संकेत है। ग़ौरतलब है कि पिछले कुछ सालों में मोदी केंद्र के स्तर पर भाजपा को सत्ता दिलाने कामयाब तो रहे हैं, लेकिन राज्यों की कहानी अलग है। 2017 में गुजरात में बीजेपी का वोट शेयर कम हो गया था, 2018 में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान का चुनाव हार गयी थी, 2019 में महाराष्ट्र की सत्ता बेजीपी के हाथ से निकल गयी थी, क्योंकि अपने अहंकार में यह अपने प्रबल सहयोगी, शिवसेना को ख़ुद के साथ नहीं जोड़े रख सकी। किसी तरह बीजेपी 2020 में बिहार में फिर से सत्ता पाने में कामयाब ज़रूर हुई, लेकिन हमेशा की तरह पश्चिम बंगाल, केरल और तमिलनाडु में सत्ता हथियाने में वह नाकाम रही।

शाह ने मुस्लमानों के डराने-धमकाने के चलते मेरठ से भाग रहे हिंदुओं के घिसे-पिटे और बदनाम हो चुके जुमले को फिर से आज़माने की कोशिश की है। इसके अलावे भाजपा ने अपने अभियान में एक और मुद्दा जोड़ दिया है और यह है- मुसलमानों की ओर से हिंसक हमले का अंजाम दिया जाना। उन्होंने जम्मू-कश्मीर की बात की है, अयोध्या में 'गगनचुंबी' राम मंदिर का वादा किया है। इन सबके बीच योगी की अगवाई का मामला जब शीर्ष पर हो, तो फिर उन्हें कुछ और बताने की ज़रूरत ही नहीं है। 2019 की शुरुआत में जिस तरह दिल्ली में देखने को मिला था, उसी तरह के ज़हरीले, नफ़रत से भरे अभियान आने वाले महीनों में उत्तरप्रदेश में भी देखने को मिल सकते हैं।

किसानों के ख़िलाफ़ लड़ाई

शाह के लखनऊ दौरे की एक और उल्लेखनीय विशेषता यह थी कि उस जनसभा में जिस गृह मंत्रालय की अगुवाई ख़ुद शाह कर रहे हैं, उसी मंत्रालय में कनिष्ठ मंत्री अजय मिश्रा टेनी भी मंच पर मौजूद थे। हाल ही में राज्य के लखीमपुर खीरी ज़िले में टेनी के बेटे के कथित एसयूवी के काफ़िले ने चार किसानों और एक पत्रकार को बुरी तरह कुचल दिया था और इसके बाद टेनी सवालों के घेरे में आ गया था। घटना से कुछ दिन पहले उसके उस भाषण का ज़िक़्र बार-बार किया जाता रहा है, जिसमें उसने आंदोलनकारी किसानों को कथित तौर पर धमकी दी थी कि अगर इजाज़त दी गयी, तो वह उन्हें कुछ ही समय में ठीक कर देंगे। किसान आंदोलन और तक़रीबन सभी विपक्षी राजनीतिक दलों ने टेनी के इस्तीफ़े की मांग की थी।

इस तरह, चुनाव से जुड़े अपने पहले ही सार्वजनिक समारोह में टेनी को अपने बगल में खड़ा करके शाह ने एक तरह से ऐलान कर दिया है कि टेनी को उनका संरक्षण हासिल है। यह किसान आंदोलन के मुंह पर एक क़रारा तमाचा था, और एक और स्वीकारोक्ति भी है कि यूपी चुनाव सत्तारूढ़ भाजपा के लिए आसान नहीं है। टेनी एक ब्राह्मण हैं और भाजपा उस जातिगत गठबंधन को साधे रखने के लिए लड़ रही है, जो उसने अतीत में बनाया था। किसानों की हत्याओं के मुक़ाबले उत्तरप्रदेश में 11-12% ब्राह्मणों को साधे रखने का यह कारक भाजपा के चुनावी गणित के लिए कहीं ज़्यादा अहमियत रखता है।

तीन कृषि क़ानूनों को ख़त्म करने की मांग को लेकर 11 महीने से ज़्यादा समय से चल रहे किसानों के विरोध प्रदर्शन से भाजपा डरी हुई है, अब तक बीजेपी की तरफ़ से पूर्वी और मध्य उत्तरप्रदेश पर जोर देना इस बात को और भी साफ़ कर देता है। ऐसा लगता है कि वे इस बात को स्वीकार रहे हैं कि पश्चिम यूपी में किसानों के विरोध के चलते भाजपा बुरी तरह से बाहर हो जायेगी। 

जातिगत गठबंधनों को तोड़ना

पिछली बार भी भाजपा को उस व्यापक जाति गठबंधन से काफ़ी फ़ायदा हुआ था, जिसे उसने कई जातियों को एक साथ जोड़कर बनाया था।इस उस गठजोड़ में अपना दल (सोने लाल) (कुर्मी समुदाय का प्रतिनिधित्व), सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (SBSP) (राजभर का प्रतिनिधित्व) और निषाद (A) (केवटों और मल्लाहों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी, नाव खेने वाले लोग) शामिल थे। दावा किया गया था कि इससे तमाम अलग-अलग पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व हो जाता है। इस बार इनमें से एसबीएसपी ने आख़िरकार बीजेपी के साथ वाले गठबंधन को छोड़ दिया है और विपक्षी समाजवादी पार्टी के गठबंधन का दामन थाम लिया है। निषाद पार्टी पर आरोप है कि वह कथित तौर पर मौक़े को ताड़ रही है, लेकिन माना जा रहा है कि आख़िकार वह भाजपा के साथ जा सकती है। अपना दल (SL) अब भी भाजपा के साथ है, लेकिन उसका प्रतिद्वंद्वी गुट अब सपा के साथ है।

पश्चिम उत्तरप्रदेश में एक और बड़ा बदलाव जाटों का भाजपा से मोहभंग रहा है। लेकिन, यह किसी जातिगत समीकरणों का परिणाम नहीं,बल्कि ख़ास तौर पर किसान आंदोलन का नतीजा है। हक़ीक़त तो यही है कि गूजरों की तरह इस क्षेत्र की खेती बाड़ी से जुड़ी दूसरी जातियां भी भाजपा के किसान विरोधी रुख़ से नाराज़ हैं।

असल में हुआ यह है कि विभिन्न जातियों के नेता, जिन्हें भाजपा ने सहारा दिया था, शीर्ष नेतृत्व के निजी फ़ायदे उठाने के अलावा अपने समर्थकों के लिए कुछ खास नहीं कर सके। इस बीच उन पर नीचे से दबाव पड़ रहा है,जिस चलते वे भाजपा से दूर जाने के लिए मजबूर हैं। इस जाल में फ़ंसकर वे किसी तनी हुई रस्सी पर चलने जैसी स्थिति में लिप्त हैं। हालांकि, अपने साथी जाति के लोगों पर उनकी कथित पकड़ तेज़ी से कमज़ोर पड़ती जा रही है।

ऐसी ही स्थिति बहुजन समाज पार्टी (BSP) के साथ भी हो सकती है, जो 2019 के आम चुनाव के बाद से ही हाशिए पर है। बीएसपी सुप्रीमो मायावती दलितों के बीच अपना आधार बरक़रार रखने की कोशिश ज़रूर कर रही हैं, लेकिन वह निश्चित रूप से कहीं ज़्यादा आक्रामक दलित संगठनों से हारेंगी। बसपा का दूसरा मज़बूत समर्थक मतदाता,यानी मुसलमान का सपा के साथ जाने की पूरी संभावना है।

जहां एक तरफ़ ये सभी चुनावी साज़िशें पूरे राज्य में चल रही हैं, वहीं एक बात तो साफ़ है कि अगर विपक्ष एक साथ मिलकर काम करता है, तो भाजपा को लखनऊ पर अपनी पकड़ बनाये रखने को लेकर एक बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ेगा।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Amit Shah in Lucknow: Back to Basics

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