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अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष : गलत नीतियों की स्वीकार्यता

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा हाल ही जारी अपनी रिपोर्ट में स्वीकार किया गया कि ‘‘छन कर आने वाला‘‘ (ट्रिकल डाउन) का सिद्धांत कारगर साबित नहीं हुआ है। साथ ही मुद्रा कोष की पूंजीवादी एवं मितव्ययता को प्रोत्सहित करने वाली नीतियों से असमानता में उछाल आया है। पेश है जॉन क्वेली की सप्रेस से साभार रिपोर्ट;

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई एफ एम) ने अपने अस्तित्व को स्थापित करने में काफी मेहनत की है और उसने विश्वभर की सरकारों को निर्देशित किया था कि वे अपनी अर्थव्यवस्थाओं को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के अनुकूल बनाने हेतु मजदूरी में कमी करें, पेंशन को सीमित करें, उद्योगों को अत्यधिक स्वतंत्रता दें और मजदूरों हेतु अधिक लाभ प्रदान की सार्वजनिक मांगों की अवहेलना करें। यह सब कुछ बाजार पूंजीवाद एवं अंतहीन आर्थिक विकास के नाम पर किया जा रहा था। इसके ठीक विपरीत जून 2015 में जारी अपनी एक रिपोर्ट में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने व्यंग्यात्मक चेतावनी देते हुए यह सबकुछ रोकने को कहा है।

                                                                                                                    
हालांकि इस रिपोर्ट में भी उसने अपने इस विचार को पुनः प्राथमिकता दी  है कि आर्थिक विकास के समक्ष सभी श्रद्धावनत हों। आई एम एफ के अर्थशास्त्रियों द्वारा संचालित इस शोध का शीर्षक है ‘‘असमानताः कारण एवं परिणाम‘‘। रिपोर्ट में बताया गया है कि आई एम एफ द्वारा प्रोत्साहित अनेक नीतियों ने वास्तव में आर्थिक असमानता फैलाकर अधिकांश देशों को नुकसान पहुंचाया है। हम सभी देख रहे हैं कि विश्व में अमीरों और गरीबों की बीच बढ़ती खाई ने वैश्विक असमानता के पिछले सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं। रिपोर्ट ने इसे 'अपने समय को परिभाषित करने वाली चुनौती’ बताया है।

रिपोर्ट में घोषणा की गई है कि अर्थव्यवस्थाओं को सुदृढ़ करने के संदर्भ में राष्ट्रों को यह स्वीकार करना होगा कि संपत्ति और संपन्नता के संदर्भ में ‘‘छनकर आने वाला‘‘ सिद्धांत कारगर नही हुआ है। इसके बदले अध्ययन ने सुझाया है कि निम्नतम जीवनस्तर जीने वाले 20 प्रतिशत लोगों की मजदूरी एवं जीवनशैली में सुधार लाया जाए, अधिक प्रगतिशील संरचनाएं स्थापित की जाएं, कर्मचारियों की सुरक्षा बेहतर बनाई जाए और   मध्यवर्ग को सहारा देने हेतु विशिष्ट नीतियां तैयार की जाएं। रिपोर्ट पर प्रतिक्रिया देते हुए आक्सफेम इंटरनेशनल के निकोलस मोंब्रिल का कहना है, ‘‘असमानता से लड़ना महज न्याय संगत (न्यायोचित) मुद्दा नहीं है बल्कि यह आर्थिक अनिवार्यता है। गौरतलब है आज यह बात आक्सफेम नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष बोल रहा है।‘‘

यह पहली बार नहीं है कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अपने सबसे बड़े आलोचको के तर्को को सहारा दिया है। इंटरनेशन बिजनेस टाइम्स द्वारा असमानता पर किए गए विश्लेषण के अनुसार ‘‘यह आई एम एफ के पिछले शोधों की प्रति-ध्वनि है जो दर्शाते हैं कि पुर्नवितरण नीतियों के देशों के आर्थिक उत्पादन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं। लेकिन गार्डियन के आर्थिक संपादक लैरी इलियट का कहना है कि, ‘‘नए दस्तावेज ने नैसर्गिक रूप से अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के आर्थिक विश्लेषकों एवं अधिक कठोर नीतिगत सलाहकारों के मध्य तनाव पैदा कर दिया है और ऐसे देश जिन्हें विदेशी मदद की या विकास कोषों की आवश्यकता है आइ एस एफ अभी भी उनकी लगातार मदद कर रहा है। ग्रीस (यूनान) इसका सबसे ताजा व प्रत्यक्ष उदाहरण है। रिपोर्ट की विस्तृत व्याख्या करते हुए इलियट लिखते हैं, ‘‘एथेंस के साथ समझौतों के दौरान आइ एम एफ ने कामगारों के अधिकार को कमजोर  करने पर जोर दिया। परंतु शोध पत्र दर्शाता है कि श्रम बाजार नियमनों में ढील देने से असमानता बढ़ती है और समृद्धतम 10 प्रतिशत लोगों की आय में वृद्धि होती है।‘‘ अध्ययन में कहा गया है, ‘‘आई एम एफ के कार्यों के परिप्रेक्ष्य में देखें तो यूनियनों को कमजोर बनाने का उपक्रम समृद्धतम 10 प्रतिशत लोगों से जुड़ा है। यह विकसित देशों के अमीरों के ही हित में है।‘‘

‘‘वास्तव में आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओ ई सी डी) देश जिसमें विश्व के सर्वाधिक समृद्ध 34 देश शामिल हैं, के व्यापक अनुभवसिद्ध आंकड़े आइ एम एफ के भविष्य के कार्यों को अच्छे से समझा रहे हैं। इसके अनुसार नियमनों को ढीला या समाप्त करना, मध्यम मजदूरी की तुलना में निम्नतम मजदूरी देना और ट्रेड यूनियनों को कमजोर कर श्रमिकों की मोल तोल की क्षमता को नष्ट करना भी वस्तुतः उच्च बाजार असमानता से ही जुड़ा है। वैसे अध्ययन में यह भी कहा गया है कि इस बात के प्रमाण प्रत्यक्ष रूप से सामने आ रहे हैं कि अमीरों का बढ़ता रुतबा और गरीबों एव माध्यम वर्ग की स्थिर होती आय की वजह से वित्तीय संकट खड़ा हो गया है जिससे कि लघु एवं दीर्घ दोनो अवधि के विकास को चोट पहुँच रही है।‘‘ वैसे किसी को भी इस भ्रम में नही रहना चाहिए कि इस नए शोध का लक्ष्य आई एम एफ की केंद्रीय प्रतिबद्धता यानि वैश्विक कुलीनतंत्र के वित्तीय हितों की रक्षा करने से इतर कुछ और भी है। 

दूसरी ओर यह भी एक तथ्य है कि दस्तावेज मे दिए गए तर्कों से वैश्विक आर्थिक असमानता की विशालता के स्तर का भान होता है और लगता है कि संस्थान पूंजीवाद की सर्वत्र प्रभुता के प्रति अपने बचाव में कमी ला रहा है। इस संदभ में दस्तावेज में कहा गया है, ‘‘अत्यधिक असमानता वृद्धि केंद्रित आर्थिक स्वतंत्रता के प्रतिकूल जा सकती है तथा बाजार केंद्रित सुधार एवं वैश्वीकरण के खिलाफ संरक्षणवादी लहर पैदा कर सकती है। आक्सफेम इंटरनेशनल द्वारा हाल ही में जारी रिपोर्ट के अनुसार विश्व की आधी संपदा केवल एक प्रतिशत लोगों के पास है और विश्व जनसंख्या के नीचे के आधे लोगों के पास कुल मिलाकर विश्व के महज 85 समृद्धतम व्यक्तियों के बराबर की संपत्ती है। आक्सफेम के मोंब्रिल जो कि अंतर्राष्ट्रीय गरीबी विरोधी कार्यालय के प्रमुख हैं ने, आई एम एफ की रिपोर्ट को एक स्वागत योग्य कदम बताते हुए आशा व्यक्त की है कि यह सरकारों और आई एम एफ, विश्व बैंक एवं अन्य शक्तिशाली वित्तीय संस्थानों के ताबूत में कील का काम करेगी। यह सभी अपनी मितव्ययता संबंधी नीतियों को चुनी हुई सरकारों पर थोपते हैं।‘‘

उनका कहना है, ‘‘आई एम एफ ने यह सिद्ध किया है कि अमीरों को और अमीर बनाना वृद्धि में काम नहीं आता जबकि गरीबों और मध्यवर्ग पर एकाग्र होना इसमें काम आता है यह आक्सफेम के उस आह्वान को मजबूती प्रदान करता है जिसमें मांग की गई है कि जिनके पास है और जिनके पास नहीं हैं हमें उनकी आमदनी के मध्य की खाई को कम करने की आवश्यकता है और यह भी जांचना जरुरी है कि समृद्धतम 10 प्रतिशत और शीर्षतम 1 प्रतिशत के पास इतनी  अधिक संपदा क्यों है। इस रिपोर्ट को जारी कर अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष ने जतला दिया है कि ‘‘छन कर नीचे आने वाला‘‘ सिद्धांत अब मृत हो गया है और अत्यधिक समृद्धों को सिर पर बिठा कर उनके लाभों हेतु हम बाकी के लोगों पर निर्भर नहीं रह सकतें।‘‘ अपने निष्कर्ष में उन्होंने कहा है कि, ‘‘आक्सफेम एवं अन्य अन्तर्राष्ट्रीय अभियान दशकों से यही बात कह रहे हैं। आई एम एफ ने खतरे की घंटी बजा कर सरकारों को जगाते हुए कहा है कि सिर्फ अमीरों और गरीबों के बीच व्याप्त असमानता की खाई को ही नहीं बल्कि मध्यवर्ग की खाई को भी भरना होगा। संदेश एकदम स्पष्ट है कि यदि विकास चाहते हैं तो आपके लिए बेहतर होगा कि आप गरीब में निवेश करें, अनिवार्य सेवाओं में निवेश करें एवं पुर्नवितरण संबंधी कर नीतियों को प्रोत्सहित करें।

जॉन क्वेली कामन ड्रीम्स में लेखक हैं।

सौजन्य: संघर्ष संवाद

 

डिस्क्लेमर:- उपर्युक्त लेख में वक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं, और आवश्यक तौर पर न्यूज़क्लिक के विचारों को नहीं दर्शाते ।

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