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अयोध्या विवाद : विद्वेष और वैमनस्य के विमर्श की महागाथा

‘निर्देशक’ यह भी तय नहीं कर पा रहे हैं कि उन्हें कैसी फ़िल्म बनानी है- ऐतिहासिक, धार्मिक या फिर कानूनी दांव पेंच से सजी कोई मिस्ट्री फ़िल्म।
सांकेतिक तस्वीर
Image Courtesy: Aaj Tak

राम मंदिर प्रकरण धीरे-धीरे एक ऐसी फिल्म का रूप लेता जा रहा है जिसके निर्देशक इसे रोचक बनाने के चक्कर में इसमें नए नए सब प्लॉट, कैरेक्टर और ड्रामेटिक सीक्वेंसेस ठूंस ठूंस कर भर देते हैं और नतीजतन फ़िल्म लंबी और उबाऊ बन जाती है। फ़िल्म को बॉक्स ऑफिस पर सफलता दिलाने वाले फॉर्मूलों - एक्शनइमोशन, सस्पेंस और ड्रामा-  का भोंडा प्रयोग दर्शकों को इतना परेशान कर देता है कि क्लाइमेक्स के पहले ही थिएटर खाली होने लगता है। निर्देशक यह भी तय नहीं कर पा रहे हैं कि उन्हें कैसी फ़िल्म बनानी है- ऐतिहासिक, धार्मिक या फिर कानूनी दांव पेंच से सजी कोई मिस्ट्री फ़िल्म।

केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दायर कर अयोध्या में 1993 में अधिग्रहीत 67.703 एकड़ जमीन में से विवादित भूमि  0.313 एकड़ को छोड़कर अतिरिक्त जमीन उसके मूल मालिकों को लौटाने की मांग की है। संतों की धर्म संसद आहूत कर शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने कहा है कि अयोध्या में 21 फरवरी को राम मंदिर की नींव रखी जाएगी। उन्होंने कहा कि वे गोली खाने के लिए भी तैयार हैं। ऐसा लगता है कि कुंभ का पवित्र अवसर इस सियासी फ़िल्म के सेट में बदल दिया गया है जहां कोई प्रायोजित क्लाइमेक्स फिल्माया जाएगा।

यह देखना आश्चर्यजनक है कि देश के बुद्धिजीवी इस प्रकरण की निरर्थकता को उजागर करने के स्थान पर अपने शोध और अन्वेषणों द्वारा विशुद्ध राजनीतिक लाभ के लिए रचे गए इस हास्यास्पद और लज्जाजनक नाटक को गंभीरता तथा महत्व प्रदान कर रहे हैं। धर्म और इतिहास के संवेदनशील प्रश्नों को कुरेदा जा रहा है और इससे भी खतरनाक बात यह है कि ऐसा सही जवाब पाने के लिए नहीं बल्कि मनमाफिक जवाब तैयार करने के लिए हो रहा है। यह एक ऐसी जद्दोजहद है जिसका सच की तलाश से कोई वास्ता नहीं। जो लोग इस विवाद को जिंदा रखकर राजनीतिक रोटियां सेंकना चाहते हैं उन्हें सत्य और समाधान से भय लगता है। किंतु बड़ी और महत्वपूर्ण बात यह है कि देश की जनता को भी सत्यान्वेषण के इस दिखावे से कोई खास मतलब नहीं है। वह इतिहास को पीछे छोड़ आई है और उसे ऐसा कोई भी खुलासा नामंजूर है जो उसकी शांत ज़िंदगी में खलल डाले। लेकिन उसे अतीतजीवी और धर्मांध बनाने में हर संबंधित पक्ष के कट्टरपंथी कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। जनता समझ चुकी है कि राम मंदिर का मुद्दा न तो आस्था का प्रश्न है न अस्मिता का, न ही इसमें तर्क और न्याय के द्वारा प्राप्त समाधान का कोई महत्व है। यह खालिस राजनीतिक उद्देश्यों के लिए गढ़ा गया मुद्दा है। लेकिन बीजेपी यह समझने को तैयार नहीं है कि भले ही एक बार उसका मंदिर फॉर्मूला हिट हो गया था किंतु जनता ने अपने पिछले अनुभवों से सबक भी सीखे हैं।

जनता अपने जीवन में धर्म का स्थान निश्चित कर लेती है। वह जानती है कि उसे कितना कर्मकांड और सत्संग करना है और पूजा पाठ या इबादत में कितना समय देना है। वह यह भी अच्छी तरह जानती है कि कब उसे सामाजिक जीवन को वरीयता देनी है, कब अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं को जीना है और कब अपनी आर्थिक सुरक्षा के लिए प्रयत्नशील होना है। जीवन के विविध पक्षों में संतुलन बैठाने की कला में वह निपुण है। राज्य और राजनीति जब जनता के इस सहज बोध के साथ खिलवाड़ करने लगते हैं और लोक व्यवहार को नियंत्रित या परिवर्तित करने के लिए बलात हस्तक्षेप करते हैं तो इसके गंभीर परिणाम निकलते हैं। इसका एक उदाहरण उत्तर प्रदेश का गोरक्षा प्रकरण है। गोवंश के संबंध में तमाम धार्मिक मान्यताओं को स्वीकारते हुए भी इनके प्रति ग्रामीणों का दैनंदिन व्यवहार वैसा ही रहा है जैसा एक पशुपालक समाज में सामान्य तौर पर होता है। पशुधन की उपयोगिता, स्वयं की आर्थिक स्थिति और समाज की खाद्य आदतों के द्वारा नियंत्रित यह व्यवहार कभी भी विवाद का विषय नहीं रहा किन्तु उत्तर प्रदेश सरकार की अव्यावहारिक और अविचारित गोरक्षा नीति ने आवारा पशुओं की संख्या में असाधारण वृद्धि की है। ये आवारा पशु किसानों की फसलों को चौपट कर रहे हैं। मनुष्य विरुद्ध पशु के इस संघर्ष में सरकार तो यह स्पष्ट कर चुकी है कि मनुष्य उसकी दूसरी प्राथमिकता है किंतु विचित्रता यह है कि वह अपनी पहली प्राथमिकता पशुओं के साथ भी न्याय नहीं कर पा रही है।

सरकार जिन संतों का उपयोग जनता की दिनचर्या को धर्म द्वारा संचालित करने हेतु करना चाह रही है उन्हें भी यह समझना होगा कि जनता को केवल धार्मिक क्षेत्र में उनका मार्गदर्शन स्वीकार है। जब वे अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर जनता के राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक-शैक्षिक-सांस्कृतिक जीवन को नियंत्रित करने की कोशिश करेंगे तो इससे उनके आदर और स्वीकार्यता का ह्रास ही होगा। वैसे भी इस मिथक का परीक्षण किया जाना चाहिए कि क्या धर्म गुरु चुनावी राजनीति में अपना सुनिश्चित और निर्णायक वोट बैंक रखते हैं और क्या जनता उनके फतवों और आदेशों के अनुसार मतदान करती है? यदि ऐसा होता तो देश का सेकुलर चेहरा शायद सुरक्षित न रह पाता। सेलेब्रिटी बाबाओं के प्रवचनों और स्टार प्रचारक संतों की चुनावी सभाओं में उमड़ने वाली भीड़ उनकी ओछी राजनीति से प्रेरित कम होती है आहत अधिक।

वैसे भी अयोध्या मसले पर सक्रिय संत समुदाय राजनीतिक प्रतिबद्धताओं से संचालित है। संतों के विभिन्न गुटों के मध्य मतभेद एवं विवाद कटुता की सीमा तक उपस्थित हैं। सरकार से नजदीकी रखने वाले हिन्दूवादी संगठनों के चहेते संत सरकार को अधिकतम लाभ दिलाने के लिए अपने प्रभाव का उपयोग करने हेतु तत्पर हैं। संतों का दूसरा समूह सरकार विरोधी रवैया अपनाए हुए है। इस आपसी खींचतान और निकृष्ट वाद विवाद को जनता देख रही है और समझ भी रही है। इस विवाद का एक रोचक पक्ष यह भी है कि इसने मुस्लिम कट्टरपंथियों को नई ऊर्जा और उत्साह प्रदान किया है और वे भी नफ़रत के इस विमर्श में बढ़चढ़ कर हिस्सेदारी कर रहे हैं।

सरकार मंदिर निर्माण के मार्ग में कांग्रेस को बाधा बता रही है जबकि विपक्षी दलों का कहना है कि सरकार की मंदिर निर्माण की नीयत ही नहीं है। हमेशा की तरह सरकार कानून और संविधान का सम्मान करने की बात कह रही है और हमेशा की ही तरह सरकार समर्थक हिंदूवादी संगठन खुले आम न्यायपालिका की आलोचना कर रहे हैं और शीघ्रातिशीघ्र ऐसा फैसला देने के लिए दबाव बना रहे हैं जो उनके कथनानुसार बहुमत को स्वीकार्य हो। विरोधी दल सरकार पर इस संबंध में ढुलमुल नीति अपनाने का आरोप लगा रहे हैं और कह रहे हैं कि बहुमत होते हुए भी अध्यादेश न लाना सरकार की नीयत पर प्रश्नचिह्न लगाता है। संभवतः उनका ध्येय सरकार को कोई ऐसा गलत कदम उठाने को बाध्य करना है जिसका राजनीतिक नुकसान उसे झेलना पड़े। इधर सरकार भी चाहती है कि कोई ऐसी स्थिति बने जिसकी सहायता से वह विपक्षी दलों को हिन्दू विरोधी सिद्ध कर सके। 

इस प्रकरण में डायलागबाजी इतनी अधिक हो चुकी है कि हर पक्ष पर यह दबाव बन रहा है कि कुछ एक्शन भी दिखाया जाए। यह स्थिति अनायास बन रही है अथवा सुनियोजित रूप से बनाई जा रही है यह कहना कठिन है। किंतु इतना तय है कि कोई अप्रिय, भड़काऊ और हिंसक घटना हो सकती है। आधुनिक भारतीय राजनीति का यह आत्मघाती मास्टर स्ट्रोक देश और समाज को अशांत कर सकता है।

इस पूरे घटनाक्रम को देखकर एक अन्य बिम्ब मस्तिष्क में आता है। चाहे वह स्पेन की सांडों की लड़ाई हो या चीन एवं हांगकांग में होने वाली कुत्तों की मुठभेड़ या अफ्रीकी और एशियाई देशों में होने वाली मुर्गे की लड़ाई- इनका उद्देश्य हिंसक मनोरंजन ही होता है। इसके लिए लड़ने के अनिच्छुक शांतिप्रिय पशु पक्षियों को भूखा रखकर, ड्रग्स देकर, स्टेरॉइड के इंजेक्शन लगाकर, उनके नाजुक हिस्सों पर प्रहार कर हिंसक बनाया जाता है और आपस में लड़ने को मजबूर किया जाता है। हमारे देश में राजनेता दो अमनपसंद समुदायों को भूख, गरीबी, बेकारी, बीमारी आदि की स्थिति में रखकर उन्हें आक्रोशित करते हैं फिर अंत में उन्हें धर्म और सम्प्रदायवाद के नशे का इंजेक्शन देकर आपस में लड़ने को मजबूर करते हैं। आम जनता के लिए यह कठिन परीक्षा का समय है। वह आपसी युद्ध को त्यागकर अपने आक्रोश की प्रजातांत्रिक अभिव्यक्ति आने वाले चुनावों में कर सकती है और साम्प्रदायिक शक्तियों को करारा सबक सिखा सकती है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)

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