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चीन ने अफ़गान से जुड़ी सभी आशंकाओं को किया साफ

बीजिंग सैन्य हस्तक्षेप नहीं करेगा और न ही वह गलती दोहराएगा जिसे पूर्व सोवियत संघ और अमेरिका ने आधुनिक इतिहास में काबुल की स्थिरता के हितधारक होने के बावजूद की थी।
चीन ने अफ़गान से जुड़ी सभी आशंकाओं को किया साफ
14 जुलाई 2021 को तालिबान का झंडा (सफेद रंग में) पाकिस्तान से जुड़ी अफ़गान की मुख्य सीमा चमन से फहराया गया।

शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की मंत्रिस्तरीय बैठक और 13-14 जुलाई को दुशांबे में एससीओ-अफगानिस्तान कार्यकारी समूह की बैठक में अफगानिस्तान में उभरते हालात पर चीन ने अपने दृष्टिकोण ख़ाका पेश कर दिया है। 

चीन के स्टेट काउंसलर और विदेश मंत्री वांग यी का चीन के इरादों और प्रेरणाओं पर स्पष्टीकरण समय पर आया है और काफी प्रासंगिक है क्योंकि बीजिंग ने हाल ही में अफगान शांति प्रक्रिया को लेकर अपनी अधिक सक्रिय भूमिका निभाना तय किया है।

अफ़गान स्थिति के बारे में बुधवार को दुशांबे में आयोजित एक संवाददाता सम्मेलन में वांग की टिप्पणी पश्चिमी (और भारतीय) मीडिया में उस उन्माद के बीच एक अमूल्य संदर्भ बिंदु पेश  करती है जिसमें कहा जा रहा था कि चीन अफ़गानिस्तान पर कब्जा करने वाला है। ज़ाहिर है, बीजिंग इस मामले में काफी सतर्क है और जोकि तर्कसंगत भी है कि वह अफगान भँवर में नहीं फंसना चाहता है। यह तो हुई पहली बात।

सीधे शब्दों में कहें तो चीन अफ़गानिस्तान में सैन्य हस्तक्षेप नहीं करेगा और उस गलती को नहीं दोहराएगा जिस गलती को पूर्व सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका ने आधुनिक इतिहास में अंजाम दिया था। हालांकि, सबसे बुनियादी बात ये है कि चीन अफ़गानिस्तान की सुरक्षा और स्थिरता में एक बड़ा हितधारक है।

वांग ने मौजूदा हालत के मद्देनजर चीन की सुरक्षा चिंताओं को लेकर 3 मुख्य बातों को प्राथमिकता दी है - अर्थात्, वर्तमान संघर्ष को पूर्ण गृहयुद्ध में बदलने से रोकना; शांति वार्ता फिर से और जल्दी से शुरू करना; और, अफ़गानिस्तान को अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी समूहों का अड्डा बनने के जोख़िम को खत्म करना है।

चीन को भरोसा है कि अफ़गान सुरक्षा के हालत से पनपी स्थिति पर काबू पाया जा सकता है। वह अशरफ गनी सरकार और तालिबान दोनों को रचनात्मक रूप से बातचीत में शामिल कर रहा है। बीजिंग के गनी सरकार के साथ बेहतरीन संबंध हैं, जिसका चीन ने गुजरे सभी वर्षों में चुपचाप समर्थन किया था क्योंकि चीन गनी सरकार के कामकाज के रिकॉर्ड को कठिन परिस्थितियों में भी अपेक्षाकृत रूप से विश्वसनीय मानता है।

समान रूप से, बीजिंग इस बात की भी सराहना करता है कि गनी सरकार ने भी चीन के साथ संबंधों को मजबूत करने को सर्वोच्च महत्व दिया है जो सभी क्षेत्रीय देशों के बीच गैर-पक्षपातपूर्ण है और भू-राजनीति से परहेज करता है, और चीन अफ़गान की स्थिरता के प्रति काफी प्रतिबद्ध भी है। दरअसल, तालिबान के साथ बातचीत का रास्ता खुला रखने के साथ-साथ गनी सरकार के साथ इस तरह के मजबूत संबंध बनाए रखने के लिए बीजिंग को श्रेय दिया जाना चाहिए।

चीन-तालिबान संबंधों की गहराई और उसमें लचीलापन हमेशा से अटकलों का विषय रहा है, जो कहने के लिए, काफी हद तक चीन-पाकिस्तान-तालिबान गठजोड़ की सहज धारणा पर आधारित है। लेकिन वास्तविकता इससे कई अधिक जटिल है।

तालिबान चीन के साथ दोस्ती का दावा करता है लेकिन दुशांबे सम्मेलन ने इस रिश्ते की खामियों को दूर करने में मदद की है। इस प्रकार, एक से अधिक बार, वांग ने खुले तौर पर चीन की बेचैनी को व्यक्त किया कि अभी तालिबान को सभी आतंकवादी ताकतों के साथ एक स्पष्ट विराम देना है और "देश और लोगों के प्रति एक जिम्मेदार रवैये के साथ" अफगान राजनीति की मुख्यधारा में लौटना चाहिए। इस आश्चर्यजनक टिप्पणी को इसके सभी आयामों के मद्देनज़र ध्यान से समझना चाहिए।

यह कहना काफी होगा कि चीन, एक पड़ोसी देश होने के नाते, अफगान राष्ट्र के इस्लामी झुकाव के बारे में उन पर कोई निर्देश नहीं थोपेगा और उस देश के आंतरिक मामलों में गैर-हस्तक्षेप के अपने मूल सिद्धांत को ईमानदारी से निभाएगा, लेकिन वह इस बात को लेकर भी पूरी तरह से जागरूक है कि एक बहुत ही पतली रेखा इस्लामी उग्रवाद और आतंकवाद को अलग करती है।

यह अन्यथा नहीं हो सकता है, क्योंकि चीन की मुस्लिम आबादी 20-25 मिलियन के आस-पास है, जो शिनजियांग, गांसु, निंग्ज़िया आदि के मध्य और पश्चिमी क्षेत्रों में रहते हैं, जिनकी मध्य एशिया से काफी भौगोलिक निकटता है।

यहां विरोधाभास यह है कि जहां चीन को अमेरिका के छिपे हुए एजेंडे के बारे में संदेह था, फिर भी उसकी बड़ी चिंता यह है कि अमेरिकी वापसी के बहाव में, आतंकवाद की चुनौती और अधिक कठिन हो सकती है, जैसे कि पूर्वी तुर्कमेनिस्तान इस्लामिक मूवमेंट जैसे आतंकवादी समूह हैं और  जो झिंजियांग के लिए खतरा है, उसे अफगानी धरती से संचालन करने के लिए अधिक बड़ा स्थान मिल सकता है।

निश्चित रूप से चीन, अफगानिस्तान जैसे बड़े देश में तालिबान का लाभ उठाने के मामले में पाकिस्तान पर भरोसा नहीं कर सकता है। बेशक, तालिबान के प्रवक्ताओं ने चीन को "अफगानिस्तान का दोस्त" बताया है। लेकिन चीन इस बात से परेशान है कि क्या तालिबान चीनी उम्मीदों को पूरा करने की स्थिति में है। इसका सबसे बड़ा इम्तिहान तालिबान की इच्छा में निहित है कि वह सभी आतंकवादी ताकतों से अपने को अलग कर ले।

स्पष्ट रूप से, चीन नहीं चाहेगा कि अफगान राज्य का ढांचा ढह जाए या फिर अफगानिस्तान में सुरक्षा को लेकर खतरा पैदा हो जाए। इसलिए, चीन के अफगान सरकार को आतंकवाद विरोधी अभियानों को मजबूत करने के लिए दिए जा रहे खुफिया सहयोग, सामग्री समर्थन, मानवीय सहायता और हथियारों की आपूर्ति को समाप्त करने या वापस लेने की संभावना नहीं है।

निस्संदेह, अफगान राज्य का पतन बीजिंग के लिए बहुत कठिन घड़ी होगी। इस संबंध में, चीन और ईरान का दृष्टिकोण लगभग समान है। यह रूस के विपरीत है क्योंकि गनी के साथ उसका रिश्ता खराब रहा है, चीन और ईरान इस बात से काफी संतुष्ट हैं कि काबुल सरकार में उनकी बात सुनने वाला कोई है।

लेकिन तालिबान की ओर से बढ़ती चुनौती का सामना करने के लिए गनी सरकार के टिकाऊपन के बारे में एक किस्म का संदेह भी है। वांग ने पेशकश की है कि चीन "किसी भी समय" अफगानी ताकतों के बीच आपसी वार्ता की मेजबानी करने के लिए तैयार है और अफगान मुद्दे के राजनीतिक समाधान में योगदान देने की इच्छा रखता है। चीन बड़े पैमाने पर स्वतंत्र क्यारी बना रहा है, पाकिस्तान के साथ अपने विशेष संबंधों और काबुल के साथ मैत्रीपूर्ण समीकरणों के संदर्भ में अपने अनुभव का इस्तेमाल कर  रहा है, वह भी भौतिक सहायता प्रदाता होने की अपनी बड़ी क्षमता के कारण, एक उदार पड़ोसी के रूप में उसकी साख और सबसे ऊपर, अपने रचनात्मक दृष्टिकोण के कारण योगदान दे रहा है।

चीन की सुरक्षा से जुड़ी चिंताएँ बहुत खास हैं और इस बात पर वह रूस के साथ है क्योंकि दोनों देशों को डर है कि अफगानिस्तान में बिगड़ती स्थिति जल्दी से मध्य एशिया में फैल सकती है। 2005 में तैयार प्रारूप के बाद पहली बार एससीओ-अफगानिस्तान संपर्क समूह का विदेश मंत्री स्तर पर उन्नयन और बातचीत उनकी तात्कालिकता की भावना को दर्शाता है।

वांग ने अफगानिस्तान में अंतरिम सरकार की मांग करने से परहेज किया है। लेकिन फिर, चीन को दोहा समझौते की विरासत को क्यों मानना चाहिए? ग्लोबल टाइम्स में एक टिप्पणी ने इस बात को रेखांकित किया है कि "अफगानिस्तान पर चीन की स्थिति अपरिवर्तनीय है और चीन अभी भी तालिबान द्वारा चीन को दोस्ती कहने के बावजूद देश को स्थिर करने के प्रयास करने के लिए अफगान सरकार की प्रशंसा करता है।"

यह आंखें खोलने वाली बात होगी कि अमेरिका के जाने के बाद भी अफगानिस्तान में अपनी  बेकार शक्ति दिखाने के बजाय, चीन एक गंभीर विचार रखता है। चीन का अनुमान है कि निकट भविष्य में इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि अफगान सरकार कौन बनाता है, आतंकवादी गतिविधियों के खिलाफ विरोध जारी रखना अफगानिस्तान की अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारी होगी और इसलिए, वही भविष्य के चीन-अफगानिस्तान संबंधों की नींव बनेगी।

एससीओ-अफगानिस्तान संपर्क समूह की बैठक में, वांग ने सभी अफगान गुटों से सुलह के लिए रोड मैप और समय सीमा बनाने का स्पष्ट आग्रह किया है, ताकि अफगानिस्तान में "एक व्यापक, समावेशी राजनीतिक संरचना" की ठोस नींव रखी जा सके।

विशेष रूप से, अफगान विदेश मंत्री की उपस्थिति में, वांग ने तालिबान से अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी संगठनों के साथ नाता तोड़ने की उसकी प्रतिबद्धता का सम्मान करने के अपने आह्वान को दोहराया है। एक आदर्श स्थिति में, चीन और अमेरिका इसके भागीदार हो सकते थे। लेकिन उनके रिश्ते में पारदर्शिता नहीं है। उनकी बातचीत टूट गई है और आपसी खटास बढ़ी है। वांग ने अमेरिका से "अपनी प्रतिबद्धता का सम्मान करने और अपने इनपुट को बढ़ाने" का आह्वान किया है, लेकिन उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि क्षेत्रीय देशों को अफगानिस्तान में अराजकता का फायदा उठाने वाले किसी भी बाहरी व्यक्ति द्वारा क्षेत्रीय सुरक्षा और स्थिरता को कमजोर करने के किसी भी प्रयास के बारे में सतर्क रहना चाहिए।

सीधे शब्दों में कहें तो चीन अफगानिस्तान में अमेरिकी इरादों को बड़े संदेह की नज़र से देखता है। उसे इस बात की कतई उम्मीद नहीं है कि अमेरिका अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण के काम या राष्ट्र निर्माण के प्रति कोई बड़ा उत्साह दिखाएगा। बहरहाल, चीन अफगानिस्तान में न केवल अमेरिकी भागीदारी जारी रहने की आशंका करता है, बल्कि भू-राजनीतिक कारणों से, आतंकवाद विरोधी गतिविधि के बहाने इस क्षेत्र में अमेरिकी सैन्य उपस्थिति का विस्तार करने के प्रयास को भी बड़ी आशंका से देखता है।
 
इस लेख को अंग्रेजी में आप इस लिंक की मदद से पढ़ सकते हैं

China Explains its Afghan Motivations

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