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नागरिकता विवादः अमेरिका के ऑपरेशन जानूस जैसा भारत का पक्षपाती एनआरसी

भारतीय भी ऑपरेशन जानूस जैसे बाहर करने के नस्लीय, जातीय और धार्मिक जाल में फंस सकते हैं।
NRC

एनआरसी (नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिज़न्स) के विवाद के साथ-साथ नागरिकता के बारे में भी सवाल फिर से उठने लगे हैं। सच्चाई यह है कि तानाशाह और लोकतांत्रिक दोनों ही तरह के देशों ने नागरिकता को लंबे समय से हथियार बनाया हुआ है, खासकर नस्लीय, जातीय और धार्मिक अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़।

जनवरी 2018 में संयुक्त राज्य अमेरिका के न्याय विभाग ने देशीयकृत भारतीय अमरीकन (नेचुरलाइज्ड इंडियन अमेरिकन- अमेरिका की नागरिकता लेने वाले भारतीय अमेरिकी) बलजिंदर सिंह की नागरिकता को रद्द कर दिया था। सिंह पहली बार 1991 में संयुक्त राज्य अमेरिका आए थे और उन पर अपनी पहचान को गलत तरीक़े से पेश करने और शरण के लिए दिए आवेदन पर उनको मिले निर्वासन आदेश का वे खुलासा करने में विफल रहे थे इसलिए उन पर अपनी पहचान छिपाने का आरोप लगा।

संयुक्त राज्य अमेरिका के नागरिक बनने के चार तरीक़े हैं: सबसे स्पष्ट तरीका संविधान के 14 वें संशोधन के तहत प्रदान की गई गारंटी है जो जन्मजात नागरिकता (अगर आप संयुक्त राज्य में पैदा हुए हैं तो आप जन्मजात नागरिक हैं) की अनुमति देता है। अन्य तीन वे तरीके हैं जो स्पष्ट और संवैधानिक रूप से संरक्षित भी नहीं हैं– पहले तरीक़े में संरक्षक के माध्यम से नागरिकता (वह भी अमेरिकी नागरिक के बच्चे होने के नाते), श्रोत के माध्यम से नागरिकता (एक बार देशीयकृत होने के बाद, माता-पिता या पति या पत्नी, गैर-संयुक्त राज्य अमेरिका में परिवार को उत्तरदायी कर सकते हैं) और देशीयकृत की प्रक्रिया के तहत नागरिकता (आप जरूरी शर्तों को पूरा करने के बाद नागरिक होने के लिए स्वयं के लिए आवेदन कर सकते हैं) शामिल है।

हालांकि ट्रम्प अक्सर राष्ट्रपति के कार्यकारी आदेश के माध्यम से जन्मसिद्ध नागरिकता को रद्द करने की धमकी देते रहते है, यह देशीयकृत होने की प्रक्रिया है जिससे काफी लोग अनजान हैं। इस पर बड़े हमले होते रहे हैं।

सिंह की नागरिकता को रद्द करने का पहला मामला था जो होमलैंड सिक्योरिटी विभाग के नए लेकिन अल्पज्ञात ऑपरेशन जानूस कार्यक्रम के तहत पूरा हुआ था। यह राष्ट्रपति ओबामा के प्रशासन के दौरान शुरू हुआ था लेकिन इसमें तेज़ी डोनाल्ड ट्रम्प के पद संभालने के बाद से आई है। संयुक्त राज्य आव्रजन और सीमा शुल्क प्रवर्तन द्वारा 2019 वित्तीय वर्ष के लिए एक बजट के लिए दिए गए अनुरोध से पता चला है कि विभाग 700,000 देशीयकृत मामलों की जांच और समीक्षा करने के लिए 207.6 मिलियन डॉलर ख़र्च करना चाहता है।

इस ऑपरेशन का मुख्य उद्देश्य उन व्यक्तियों की पहचान करना है जिन्होंने देशीयकृत (यानि अमरीका की नागरिकता लेने के लिए) होने के लिए धोखाधड़ी की हो सकती है। यह धोखा उस वक़्त हुआ होगा जब नागरिकता अधिग्रहण की गई होगी भले ही देशीयकृत आवश्यकताओं की पूर्ति की गई हो या न की गई हो, जैसे कि निवास की आवश्यकता, मौजूदगी, वैध प्रवेश, बेहतर नैतिक चरित्र और संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान का पालन करना आदि शामिल है। यह अलग बात है कि कोई अच्छे और नैतिक चरित्र का है या संविधान का पालन करता है या नहीं, उसमें सरकार आसानी से हेरफेर कर सकती है।

इसके अलावा, ऑपरेशन जानूस विशेष रूप से "विशेष रुचि" वाले देशों के नागरिकों को लक्षित करता है, केवल उन देशों के रूप में इसे परिभाषित किया गया है जो "संयुक्त राज्य की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए चिंता का विषय हैं।"

संयुक्त राज्य के इतिहास को उस विवादास्पद इतिहास से अलग नहीं किया जा सकता है कि इसका कौन उचित तरीके से नागरिक हो सकता है। यह दिलचस्प है, लेकिन आश्चर्यजनक नहीं है, क़ानून हमेशा मूल अमेरिकी, चीनी, जापानी, भारतीय और अन्य नस्लीय और जातीय अल्पसंख्यक को नियमित रूप से और जान बूझकर निशाना बनाता रहा है। लेकिन नागरिकता को पूरी तरह से रद्द करने का काम तब तक शुरू नहीं हुआ जब तक कि 1906 में देशीयकरण अधिनियम (नेचुरलाइजेशन एक्ट) नहीं लाया गया था, यह संयुक्त राज्य अमेरिका के इतिहास में पहला क़ानून था जिसने नागरिकता रद्द करने का हथियार प्रदान किया था। इस अधिनियम के तहत देशीयकरण को रद्द करने के लिए जो कारण दिए गए उनमें धोखाधड़ी, नस्लीय अयोग्यता और अच्छे नैतिक चरित्र की कमी शामिल थी।

नागरिकता की बहस के बीच में, समाजशास्त्री नतालिया मोलिना लिखती हैं कि नस्लीय अयोग्यता का मामला गंदा रहा है, जिसके मुताबिक़ केवल एक श्वेत व्यक्ति ही नागरिक बनने के योग्य हो सकता है और अन्य सभी को इससे बाहर रखा जा सकता है। 1920 के दशक में जब सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था तो उसमें ओजवा बनाम संयुक्त राज्य अमेरिका (1922) और संयुक्त राज्य अमेरिका बनाम भगत सिंह थिंद (1923) के केस में न तो जापानी और न ही भारतीय श्वेत थे।

ओजवा और थिंड पर दिए गए फैसलों के बाद, कांग्रेस ने 1924 के आव्रजन अधिनियम को पारित किया, जिसे "एशियाई बहिष्करण अधिनियम" भी कहा जाता है, जो क़ानूनी रूप से उन्हे प्रतिबंधित करता है जो व्यक्तियों नागरिक बनाने के योग्य तो है लेकिन श्वेत या गोरे नहीं है। नागरिकता केवल गोरों तक ही सीमित थी और बड़ी ही अनिच्छा से अफ्रीकी मूल के लोगों को दी जाती थी, इस बीच उन लोगों को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता था जो नागरिकता के सबसे ज़्यादा हक़दार होते थे। हालांकि सटीक संख्या या उनकी नस्लीय संघटन नहीं मालूम लेकिन अनुमान लगाया जा सकता है कि 1907 और 1973 के बीच संयुक्त राज्य सरकार ने 22,026 देशीयकृत मामले रद्द किए थे।

1965 के आव्रजन और राष्ट्रीयता के अधिनियम ने मौलिक रूप से आव्रजन की राजनीति को बादल कर रख दिया। इस अधिनियम ने नस्ल आधारित कोटा प्रणाली को समाप्त कर दिया और इसे एक ऐसी प्रणाली के साथ बदल दिया जो शरणार्थियों को प्राथमिकता देती थी, ऐसे विशेष कौशल वाले लोग जो संयुक्त राज्य अमेरिका में रहने वाले परिवार के सदस्य थे। पहली बार ग़ैर-यूरोपीय जिनमें भारतीय भी शामिल थे उनको संयुक्त राज्य अमेरिका में क़ानूनी रूप से अप्रवासित करने के लिए राष्ट्रीयता अधिनियम के तहत अनुमति दी गई। 1967 में मात्र 150 मामलों को ही अदेशीयकृत किया गया यानि गैर अमरीकी लोगों की नागरिकता रद्द की गई जो अपने आप में काफी कम था बजाय पहले के और इससे आव्रजन के समावेशी युग का आरंभ हुआ।

लेकिन डोनाल्ड ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बाद ऑपरेशन जानूस फिर से मज़बूत हो गया और अब नागरिकता रद्द करने की संख्या नाटकीय रूप से बढ़ने की संभावना है। पिछले दो वर्षों में हर तरह के देशीयकरण को रद्द करने के मामले दोगुने हो गए हैं। जैसा कि सिंह के मामले से पता चलता है कि "विशेष हित वाले देश" की सरहदबंदी के साथ ये निशाना एक बार फिर नस्लीय, जातीय और धार्मिक अल्पसंख्यक को लेकर होगा, शायद ये वाक्यांश बड़ी संख्या में आप्रवासियों को आने वाले देशों के लिए है जो भारत, चीन, मैक्सिको और फिलीपींस जैसे ग़ैर-स्वेत और धार्मिक विविधता वाले देश हैं।

एनआरसी और ऑपरेशन जानूस के बीच समानताएं चौकाने वाली हैं। दोनों ही प्रयास अल्पसंख्यकों को बाहर निकालने और भय के माहौल में रखने के लिए तैयार किए गए हैं ताकि उनमें स्थायित्व की कोई धारणा न बन सके। भारत में एनआरसी के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला बहाना दस्तावेज़ या नागरिकता के प्रमाण का अभाव है जो कि प्रथम दृष्टया एक ऐसे देश में काफी संदिग्ध मानदंड है जहां आधिकारिक दस्तावेज प्राप्त करना ही काफी मुश्किल बात है और जहां उच्च निरक्षरता दर है। इसके पीछे का मकसद सभी मुसलमानों को यह महसूस कराना है कि वे सभी विदेशी हैं भले ही उन्हें कभी निर्वासित नहीं किया गया हो।

संयुक्त राज्य अमेरिका में, देशीकरण को रद्द करने की प्रक्रिया में दस्तावेज़ीकरण को लेकर एक अनुचित हेरफेर रहा है, उदाहरण के लिए, सिंह पर उनके आगमन के समय गलत नाम देने का आरोप लगाया गया था, हालांकि यह बात सबको अच्छी तरह से पता है कि कई शरणार्थी अंग्रेजी के बिना या अंग्रेजी की मामूली जानकारी वाले आते हैं। उनके नाम के हिज्जे में अक्सर अधिकारियों द्वारा ग़लती की जाती हैं। देशीयकरण कानून का मौजूदा वर्णन अशुभ है। इसमें कहा गया है, "कोई भी व्यक्ति देशीयकरण के लिए आवश्यक किसी भी ज़रूरत का पालन नहीं कर पाता है और व्यक्ति नागरिक बनने के समय अवैध रूप से देशीयकरण के कागज पेश करता है तो उसे गैर कानूनी माना जाएगा। यह तब भी लागू होता है, जब व्यक्ति किसी भी धोखे या गलत बयानी के मामले में निर्दोष हो। ”सरकार, इस प्रकार, कानूनी तौर पर यह आकलन कर सकती है कि कोई व्यक्ति अब नागरिक है या नहीं है, भले ही वह किसी भी धूर्त उद्देश्य में खुद लिप्त ना हो।

बर्मा में रोहिंग्या का मामला, चीन में उइगर, मिस्र में कॉप्टिक ईसाई और तुर्की में कुर्द सभी हमें देश से बाहर करने की कहानियां बताते हैं। सउदी और अमीरात ने अपने देशों में भारतीयों, पाकिस्तानियों और फिलिपिनियों की वंशजों को नागरिकता के लिए कोई रास्ता मुहैया नहीं कराया है। अगर इतिहास एक सबक है, तो बाहर करने के मसले के ख़िलाफ़ मुकाबला करने का एकमात्र तरीका नस्लीय, जातीय और धार्मिक राष्ट्रवाद की बदसूरत राजनीति को जड़ से उखाड़ फेंकना है।

शकुंतला राव, संचार अध्ययन विभाग, न्यूयॉर्क के स्टेट विश्वविद्यालय, प्लेट्सबर्ग में पढ़ाती हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी है।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आपने नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Citizen Cannon: Why India’s Ugly NRC is Not Unique

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