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कभी कृषि, रोज़गार और जलवायु परिवर्तन को आपस में मिलाकर सोचा है?

जब जलवायु परिवर्तन, कृषि और रोजगार तीनों को मिलाकर सोचा जाता है तो जिस तरह की दुनिया बनाने की परिकल्पना उभरती है, वैसी परिकल्पना मौजूदा समय की नीतियों से नहीं उभरती है। यह दिशा रवि जैसे लोगों की पीढ़ियों के साथ मौजूदा समय की पीढ़ी के जरिए की जा रही नाइंसाफी है।
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बिना कृषि के भोजन नहीं मिल सकता। भोजन के बिना शरीर का कोई अस्तित्व नहीं। अगर लंबी उम्र वाली एक जिंदगी है तो उसे चलाने के लिए रोजगार भी चाहिए। यह सब उसी जगह पर संभव हो पाएगा जहां की जलवायु इंसानी रहन-सहन के अनुकूल होगी। इस तरह से कृषि, रोजगार और जलवायु परिवर्तन इन तीनों को जोड़कर देखा जाए तो अब तक के दुनिया के विकास के मॉडल पर बहुत गहरे सवाल खड़े होते हैं।

लेकिन बहस का मुद्दा नहीं बन पाते  क्योंकि हम समग्रता में सोचने  के आदि नहीं है। जलवायु परिवर्तन से जुड़ी खबरों से बहुत सी आबादी अक्सर बेखबर रहती है। इसकी वजह यह है कि जलवायु में हो रहा परिवर्तन होता रोज है लेकिन इसका ठोस परिणाम बहुत लंबे समय बाद दिखता है। जैसे उत्तराखंड में आई कुछ दिन पहले की आपदा बहुत लंबे समय से गर्म हो रही जलवायु का परिणाम थी। अपने बुजुर्गों से पूछा जाए तो वह बताएंगे कि पहले मौसम इतना गर्म नहीं हुआ करता था। मौसम में अचानक ऐसा बदलाव नहीं आता था। इस तरह से जलवायु में होने वाले परिवर्तनों को एक पूरी पीढ़ी अगर केवल अपने समय से सीखने की आदि हो, तो नहीं भांप पाती है। जलवायु परिवर्तन का सवाल बहुत बड़े मानवीय समूह से अछूता रह जाता है।

ठीक यही हाल कृषि का है। आज के जमाने में कोई भी कृषि कर के अपना गुजारा नहीं करना चाहता। क्योंकि सब इस मजबूरी को देखते हैं कि एक किसान को कितना अधिक घाटा सहना पड़ता है। एक गरिमा पूर्ण जीवन की गुंजाइश खेती किसानी से नहीं दिखती। इसलिए बाप अपने बेटे को किसानी से दूर रहने का सलाह देता है। कृषि क्षेत्र रोजगार का क्षेत्र नहीं है। यह बात बहुत बड़ी आबादी ने स्वीकार कर ली है।

ऐसा माना जाता है कि रोजगार का केंद्र शहर हैं। वर्ल्ड बैंक की नीतियां जिन्हें भारत सरकार पिछलग्गू की तरह अपनाती है। शहरीकरण और पूंजीवादी नीतियों के सहारे विकास की रूपरेखा तय करती है। इसका परिणाम यह हुआ है कि केवल आर्थिक विकास के आंकड़ें बढ़े हैं। आर्थिक असमानता बढ़ी है। गरिमा पूर्ण जीवन जीने की उम्मीद से वंचित गरीबों की संख्या में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है। अंततः रोजगार से वंचित बेरोजगारों की फौज खड़ी है। जिन्हें रोजगार मिला है उनमें से बहुत बड़ी आबादी ओने-पौने दाम पर काम करने के लिए मजबूर है।

साल 2018 में 90 हजार भर्तियां निकली। जिसके लिए तकरीबन ढाई करोड़ नौजवानों ने अर्जियां दाखिल की। यानी ऑस्ट्रेलिया की आबादी से 2 गुना अधिक। साल 2015 में उत्तर प्रदेश सचिवालय में क्लर्क की 368 भर्तियां निकली। जिसमें तकरीबन 22 लाख इंजीनियर ग्रेजुएट और 255 पीएचडी होल्डर की अर्जियां आईं। साल 2017-18 में भारत की आर्थिक विकास की दर तकरीबन 7 फ़ीसदी के पार पहुंच चुकी थी। लेकिन तभी नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन के आंकड़े लीक हो गए। पता चला कि भारत में बेरोजगारी पिछले 45 सालों में सबसे अधिक है। इन सारे डरावने पहलुओं को जानने वाली सरकार को अपनी कार्यप्रणाली की तरफ पलट कर देखना चाहिए था। देखना चाहिए था कि आखिरकार क्या हो रहा है कि बहुत बड़ी आबादी रोजगार से दूर हो जा रही है। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। जैसा चलते आ रहा था वैसे ही चलता रहा है। सरकार की तरफ से हिंदुत्व सांप्रदायिकता का पासा फेंक कर जनता को उलझा कर रखा जाता है और चुपचाप दबे पांव साल 1991 के बाद अपनाई गई नीतियों को खुलकर लागू किया जाता है। जिसके बारे में प्रचुर साक्ष्य हैं कि इससे आम जनजीवन जर्जर होते जा रहा है।

वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा यह बताती है कि वातावरण कितना गरम है? इसी आधार पर जलवायु परिवर्तन से जुड़े वैज्ञानिक शोध पर आधारित तमाम तरह की रिपोर्टें प्रकाशित होती हैं। जैसा कि वैज्ञानिकों का शोध है कि पृथ्वी अपने शुरुआत में बहुत अधिक गर्म थी। यानी उस समय जीवन नहीं था और कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा इतनी अधिक थी, जिसमें जीवन संभव नहीं था। कार्बन डाइऑक्साइड की यह मात्रा धीरे-धीरे घटी और जीवन का विकास हुआ। तकरीबन लाखों सालों से लेकर 19वीं शताब्दी के मध्य तक, जब तक औद्योगिक क्रांति की शुरुआत नहीं हुई थी, वातावरण में हर 10 लाख पर्टकिल्स के बीच 200 से लेकर 280 पार्टिकल कार्बन डाइऑक्साइड के हुआ करते थे। लेकिन वैज्ञानिकों का शोध बताता है कि साल 1850 के बाद वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा हर 10 लाख पार्टिकल के बीच तकरीबन 470 पार्टिकल हो गई है। वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड का जो आज स्तर है यह आज से 30 लाख साल पहले हुआ करता था।

अगर तापमान की बात करें तो साल 1850 से लेकर साल 1975 तक दुनिया ने तापमान को जिस तरह से महसूस किया, वैज्ञानिकों को उससे गंभीर अनुमान नहीं लगे। लेकिन 1975 से लेकर साल 2015 का समय तो वैश्विक तापमान के लिए गजब का था। वैश्विक तापमान में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई। साल 2015 में दुनिया का औसत तापमान साल 1915 के मुकाबले 1% बढ़ चुका था। और अगर यह इसी तरह से बढ़ता रहा रुका नहीं तो इस सदी के अंत तक दुनिया के वैश्विक तापमान में औद्योगिक क्रांति के समय से 4 फ़ीसदी का इजाफा होगा। और यहां बहुत ही खतरनाक स्थिति होगी।

इन सारे आंकड़ों से यह बात साफ है कि औद्योगिक क्रांति के बाद जिस तरह से दुनिया की जलवायु बदली है, उस तरह से औद्योगिक क्रांति के पहले कभी नहीं बदली। इसके बाद 1970 के दशक के बाद जलवायु परिवर्तन में और अधिक इजाफा हुआ है। बड़े ध्यान से देखा जाए तो मौजूदा समय में भारत सहित पूरी दुनिया उन्हीं वैश्विक संस्थाओं की देखरेख में चल रही है जिन्हें 70 के दशक के बाद बनाया गया। दुनिया को लेकर जिनके विचार 70 के दशक के दौरान बने। इस दौरान विकास के नाम पर लाखों हेक्टेयर पेड़ कटे हैं। कोयले की खदानें खाली हुई हैं। शहरीकरण को अपनाकर गांव को अनदेखा किया गया है। सब कुछ इस मकसद से बनाया गया है कि दुनिया को अधिक से अधिक विलासी बनाने के लिए जो कुछ किया जा सकता है सो करना चाहिए। इसलिए जलवायु पर खतरा मंडराने लगा है। जलवायु परिवर्तन का मतलब है हवाओं की नियत व्याख्यान का बदलना, तापमान का बदलना, मिट्टी की संरचना का बदलना, मौसम का बदलना। और अगर यह सब बदल रहे हैं तो निश्चित तौर पर कृषि के सभी कारक बदल रहे हैं।

ऐसे में तय है कि किसानों को पहले के मुकाबले ज्यादा घाटा सहन करना पड़ता होगा। सूखा, बाढ़, बहुत अधिक बारिश जैसी स्थितियां पिछले कुछ सालों में खूब देखी गई हैं। मानसून भी अब अपने नियत समय पर नहीं आता। मौसम अनिश्चित हो चुका है। यह सारी बातें मिलकर किसानों की कमर तोड़ रही हैं। अगर जलवायु परिवर्तन के लिहाज से देखा जाए और यह सुझाव दिया जाए कि किसानों को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल ढलते हुए कृषि करनी चाहिए तो यह सुझाव तभी बेहतर सुझाव कहा जाएगा जब सरकार की तरफ से यह गारंटी दी जाए कि किसानों को अपनी उपज का वाजिब दाम मिलेगा। यानी अगर इस समय किसानों को जायज कीमत नहीं मिली तो यह किसानों की जिंदगी के लिए तो घातक होगा ही, साथ ही साथ पूरे जलवायु के लिए व पूरे मानव जाति के लिए भी घातक होगा।

बहुतों का तर्क होता है कि कृषि क्षेत्र से मिथेन और नाइट्रस ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। वातावरण के लिए यह कार्बन डाइऑक्साइड से भी ज्यादा खतरनाक गैसें है। इनकी वजह से ग्लोबल वार्मिंग बढ़ी है। उनका यह तर्क जायज है लेकिन ऐसे तर्क रखने वाले लोग यह नहीं बताते कि कृषि क्षेत्र बहुत बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित भी कर लेता है। पेड़ पौधे कार्बन डाइऑक्साइड लेकर ही प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया के जरिए अपना भोजन बनाते हैं। इसीलिए औद्योगिक क्रांति के पहले जब केवल कृषि क्षेत्र से ही वातावरण को गर्म करने वाले गैसों का उत्सर्जन होता था तो भी वातावरण बहुत अधिक गर्म नहीं हो पाता था। क्योंकि पेड़ पौधों की मात्रा अधिक होती थी। इनके जरिए असंतुलन और संतुलन का चक्र चलता रहता था। लेकिन अब विकास के नाम पर हजारों हेक्टेयर जमीन के पेड़ पौधे हटा दिए जा रहे हैं। पिछले 30 सालों में विकास के नाम पर उत्तराखंड की जमीन से तकरीबन 50 हजार हेक्टेयर की वन भूमि खत्म की जा चुकी है। पेड़ों के कटने का इतना भयावह पर्यावरणीय प्रभाव है कि सुप्रीम कोर्ट की एक कमेटी ने 100 साल से मौजूद एक पेड़ की कीमत तकरीबन ₹75000 लगाई है।

अगर तीनों नए कृषि कानूनों को ध्यान से पढ़ा जाए तो उसका एक निष्कर्ष यह भी निकलता है कि खेती किसानी करने की जिम्मेदारी बड़े कॉरपोरेट को दे दी जाए। कृषि क्षेत्र से किसानों को बाहर निकाल दिया जाए। किसान कृषि न करें। किसानों के जरिए कृषि करने की वजह से कृषि में बहुत अधिक घाटा होता है। इसलिए किसानों को कृषि क्षेत्र से बाहर गैर कृषि क्षेत्र में लगा दिया जाए। यह वर्ल्ड बैंक का डेवलपमेंट मॉडल है। जिसके तहत शहरीकरण और गैर कृषि क्षेत्र से लोगों को रोजगार देकर विकास की बात की जाती है। अब तक के साक्ष्य तो बताते हैं कि इस विकास मॉडल से अमीरों के अलावा जलवायु, कृषि क्षेत्र और आम लोग सबकी जिंदगीयां तबाह हुई हैं। साल 2011 के बाद कई लोग खेती-बाड़ी छोड़ कर जा चुके हैं. सबको पता है कि शहरों में जाने वाली आबादी दिहाड़ी मजदूरी करके कैसे जिंदगी काटती है. कोरोना के दौरान नंगे पांव अपने घर जाते हुए लोगों की तस्वीरों ने भारत की विकास की गाथा को उधेड़ कर रख दिया था.

प्रोफेसर देवेंद्र शर्मा ,द ट्रिब्यून के अपने आर्टिकल में लिखते हैं कि साल 2011 में खेती किसानी से भारत की सबसे बड़ी आबादी की हिस्सेदारी तकरीबन 52 फ़ीसदी लोगों का गुजारा होता था। यहीं से बहुत बड़ी बेरोजगारों की फौज खड़ी हुई है। अगर कृषि आर्थिक तौर पर व्यावहारिक और पारिस्थितिक तौर पर कारगर हो जाए तो बेरोजगारों की बहुत बड़ी फौज यहां खप सकती है। यह सब तभी होगा जब भारत अपने आर्थिक चिंतन में मूलभूत तरीके से बदलाव करेगा। एक बार जब कृषि आर्थिक तौर पर व्यावहारिक हो जाएगी और तकरीबन 60 करोड़ लोगों को ठीक-ठाक आमदनी मिलने लगेगी तो अपने आप ग्रामीण क्षेत्र समृद्ध होने लगेगा। पलायन रुक जाएगा।

कहने का मतलब यह है कि जब जलवायु परिवर्तन, कृषि और रोजगार तीनों को मिलाकर सोचा जाता है तो जिस तरह की दुनिया बनाने की परिकल्पना उभरती है, वैसी परिकल्पना मौजूदा समय की नीतियों से नहीं उभरती है। यह दिशा रवि जैसे लोगों की पीढ़ियों के साथ मौजूदा समय की पीढ़ी के जरिए की जा रही नाइंसाफी है।

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