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दिल्ली में उमड़ा देश का जुझारू जीवन

राजधानी सबसे खूबसूरत तब लगती है जब सरकार के जनविरोधी रवैये के खिलाफ भारत के हर कोने से जनता सड़कों पर उतरती है और सरकार को उसकी बदसूरती याद दिलाती है।

दिल्ली भारत की राजधानी है। इसकी खूबसूरती और बदसूरती मायने रखती है। राजधानी सबसे खूबसूरत तब लगती है जब सरकार के जनविरोधी रवैये के खिलाफ भारत के हर कोने से जनता सड़कों पर उतरती है और सरकार को उसकी बदसूरती याद दिलाती है। पिछले 2 दिनों से दिल्ली में बारिश हो रही थी और बारिश की बौछारें किसानों,मजदूरों और इनके हकों के लिए लड़ने वाले लोगों के हुजूम के हौसलों को बुलंद कर रही थी। जिन्होंने इस बुलंदगी को पूरे भारत तक पहुँचाने की कोशिश की,उन्होंने लोकतंत्र में मीडिया होने के कर्तव्य को आबाद किया और जिन्होंने इस मौजूदगी को पूरे भारत तक पहुँचाने में रत्ती भर भी सहयोग नहीं किया उन्होंने मीडिया में लोकतंत्र होने के कर्तव्य को बर्बाद किया। लोकतंत्र में सृजन के इस खूबसूरत मौके पर उन लोगों की कहानियों को कलमबद्ध करने का अवसर मिला जिनकी जुझारू जिंदगी भारत की जमीनी हकीकत बताती है। 

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सबसे पहली मुलाकत भीड़ में अपनी प्रतिबद्धता को जाहिर कर रही बिहार की दो महिला साथी कौशल्य देवी और बिमला देवी से हुई। यह दोनों महिला साथी बिहार के मधुबनी जिले से आयी थी। बिमला देवी कहती हैं '' हम बच्चा सब के स्कूल में खाना बनाती हूँ। सुबह 10 बजे से लेकर दोपहर के 12 बजे तक काम करना पड़ता है। दिन भर हड़िया बर्तन में गुजर जाता है। पूरा दिन साड़ी ऊपर उठाये और कमर नीचे झुकाये गुजरता है। पिछले 5 साल से हम सब यही जिंदगी गुजार रही हैं। इस जिंदगी के लिए महीनें में केवल 1200 रुपय्या मिलता है।" अब बिमला देवी को रोककर कौशल्य देवी कहती हैं कि "यह 1200 रुपय्या भी हर महीने नहीं मिलता। कई महीने के इन्तजार के बाद सरकार पैसे खाते में डालती है। साल भर में केवल दस महीनें का मेहनताना मिलता है, दो महीने का पैसा कहाँ चला जाता है,यह पता नहीं। जब हम पैसा बढ़ाने के लिए कहती हैं तो मास्टर सब कहता है कि बड़का अफसर से शिकायत कर तुम सब को बाहर निकाल देंगे। अब आप ही बताइये बाबू, यह कहाँ का इन्साफ है कि दिनभर कुर्सी पर बैठकर कलम चलाने का मोटा तनख्वाह मिले, साथ में मास्टर सब बच्चों के लिए मिला अनाज भी लुटे और दिनभर कमर झुकाकर बर्तन हड़िया करने के लिए हम जैसों को केवल 1200 रूपये का तनख्वाह मिले। इतने में कैसे गुज़ारा होगा। हम सब सुबह से भीग रही हैं, कल शाम से खाना नहीं खाया है, गाँव के पंच से लेकर नेता तक हमारी बात नहीं सुनता है, इसलिए हम दिल्ली आयी हैं।''

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बिहार की जुझारू महिला साथियों के बाद हिमाचल की महिला साथियों से मुलाकत हुई। यह महिला साथी जिला सिरमौर के रेणुका जी शहर से आयीं थी सवाल और जवाब का सिलसिला जब इनके साथ शुरू हुआ तो बात स्थानीय से प्रादेशिक बनती चली गयी। हिमाचल के रेणुका जी से अाई यह महिलाएँ बताती हैं रेणुका जी का इलाका नशे का गढ़ बन चुका है। शराब के ठेके खोलने के लिए पहले यह नियम था कि पंचायतें और महिला समूह से noc हासिल करनी होती थी। अब इस प्रक्रिया को बन्द कर दिया गया है,जिसकी वजह से धड़ल्ले से ठेके खुल रहे हैं। पूरी नौजवान नस्ल नशे में बरबाद में हो रही है। अब बादाम के नाम पर रेणुका जी में बादाम नहीं मिलता बल्कि नशे की गोलियां मिलती हैं। पहले स्कूलों से 500 मीटर दूर शराब के ठेके खोलने का नियम था, अब यह 50 मीटर हो चुका है। जिसकी वजह से कई जगहों पर तो स्कूल और ठेके साथ साथ चलते हैं। जिस उम्र को किताबों और खेलकूद से तालमेल बिठाना चाहिए वह नशे और गुस्से से तालमेल बिठा रही है। रेणुका जी में घरेलू हिंसा की वारदातें आए दिन होती रहती हैं। इन वारदातों को कम करने के लिए नागरिकों के बीच में कुछेक के पास लीगल एडवाइजर का पद भी है। लेकिन इन सलाहकारों की बात कोई भी नहीं सुनता। पुलिस तो इन्हें तवज्जो तक नहीं देती । शेल्टर होम्स के नाम पर कुछ भी नहीं है। एकीकृत बाल विकास योजना के तहत केवल 1 कर्मचारी के नियुक्ति से यहां के शेल्टर होम्स चलाए जा रहे हैं। जिनकी स्थिति भयावह है। इस इलाके के दवा कारखाने में श्रम कानूनों का बेशर्मी से उल्लंघन किया जाता है। अचानक से किसी किसी फैक्ट्री में काम कर रहे कामगार को यह नोटिस मिलती है कि वह कुछ पैसे ले ले और नौकरी छोड़ दे। उसकी 10 साल की नौकरी अचानक से उससे छीन ली जाती है और विरोध करने पर उसे पैसे भी नहीं मिलते और बाहर निकाल दिया जाता है। बाकी आप नेताओं, पुलिस अधिकारियों, नौकरशाहों का गठजोड़ समझते ही हैं, जो इस जाल में फँसने की औकात रखता है, उसकी जिंदगी में चांदी है, जिसके पास इतनी औकात नहीं है उसकी जिंदगी माटी है। कोई भी आए और पेट पर लात मारकर चला जाए।अंतड़ियों की की राह केवल गरीब ही समझ सकते हैं, दूसरे नहीं। जैसे ही यह नारा सुनाई देता है कि जीना है तो मरना होगा तब सारी महिलाएं उस नारें में अपने  जुझारू जीवन का जुनून  झोंक देती है। 

इसके बाद दिल्ली से हजारों मील दूर दार्जिलिंग से आये साथी केबी वत्ता से मुलाकात हुई। केबी वत्ता बताते हैं कि दार्जिलिंग बड़ा इलायची के उत्पादन के लिए पूरे भारत में प्रसिद्ध में हैं। एक किलो बड़ी इलायची की लागत तकरीबन 700 रूपये होती है लेकिन बाजार में इसे बेचने पर केवल 300 से 400 रुपए मिलते हैं। दार्जिलिंग में गोल्डेन दार्जिलिंग ऑरेंज नाम के एक पौधे की प्रजाति उगती थी। जिसके छिलके से दार्जिलिंग में सेंट का उत्पादन होता था। अब संतरे का यह का यह पौधा गलत किस्म के कीटनाशक की वजह से बरबाद हो गया है। अब भी  इसके पौधे लगाए जाते हैं लेकिन उस तरह से नहीं उगते जैसे पहले उगते थे । इस एक पौधे के मरने की वजह से  दार्जिलिंग का एग्रीकल्चर पैटर्न पूरी तरह से बदल गया है। जिन खेतों में सब्जियां उगती थी अब उन खेतों में घास उग रहे हैं। दार्जिलिंग में दुग्ध उत्पादन भी अच्छा खासा हो जाता है लेकिन दुग्ध प्रसंस्करण से संबंधित उद्योगों की कमी है इसलिए दार्जिलिंग के  दुग्ध उत्पादन का अधिकांश फायदा  पड़ोसी राज्य सिक्किम को चला जाता है। दार्जिलिंग चाय के बागान का नजारा आप आए दिन टीवी विज्ञापन में देखते होंगे लेकिन इसमें काम करने वाले मजदूरों के साथ हो रहे  शोषण से आपसभी अपरिचित रह जाते हैं। वत्ता साहेब बताते हैं कि दिनभर काम करने पर चाय बगान के मजदूरों को 4 साल  पहले तकरीबन 67 रुपए मिलता था, बाद  में 95 रुपए मिलने लगा,  बहुत सारे नागरिक संगठनों के दबाव की वजह से अब दिनभर के काम का 169 रुपए मिलता है। एक अनुमान के मुताबिक तकरीबन 40 हजार खर्च पर एक बागान मालिक को रुपए 1 लाख का फायदा हो जाता है। इसलिए वे मजदूरों के  शोषण बारे में बहुत अधिक नहीं सोचते। मजदूरों के विरोध पर चाय बगान में ही ताला लगा देते हैं। 

दार्जलिंग के साथियों को पार करते हुए पंजाब और हरियाणा के किसान साथियों से मुलाकात हुई। इन दोनों की परेशानी थी कि इनकी वर्तमान पीढ़ी नशें में बर्बाद है। रोजगार के तलाश में दोनों जगह के लोग दूसरे देश और राज्यों में पलायन कर रहे हैं। पंजाब का बच्चा बचपन से ही  ऑस्ट्रेलिया और कानाडा जाने के ख्वाब देखने लगता है। यहां आए किसान साथी उधम सिंह का डर है कि पंजाब बूढ़ों लोगों के देश में बदलता जा रहा है और आगे भी बदलता जाएगा। उधम सिंह आगे बताते है कि पंजाब में भूजल का स्तर बहुत नीचे चला गया है। जहां जमीन से पानी निकालने के लिए पहले 20 बैक हॉर्स पावर मोटर की जरूरत होती थी बाद में यह जरूरत 36 बैक हॉर्स पावर हुई अब यह चालीस हॉर्स पावर हो गई है , जिसका परिणाम यह हुआ है कि सिंचाई की लागत भी बढ़ गई है और अधिक नीचे से पानी निकलने की वजह से पानी में नमक की मात्रा भी बढ़ गई है। अंततः जमीन बंजर हो रही  हैं और उत्पादन क्षमता कम हो रही है। बिल्कुल ऐसा ही हाल हरियाणा के किसानों का है। सुशील नांगल कहते है कि हरियाणा में सिंचाई के लिए नहरें हैं लेकिन पानी नहीं है। नहरों में आने वाले पानी को बीच में ही रोककर बेचा भी जाता है।

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