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127 लोगों को गुजरात अदालत ने 20 साल बाद सिमी के साथ तार जुड़े होने के आरोपों से किया बरी

जबसे उनपर आरोप लगे हैं, तबसे उनमें से सात लोगों की मौत हो चुकी है, उनमें से अधिकांश ने अपनी नौकरियां खो दीं, वहीं कुछ लोग अपने टूट चुके घरों और पुलिस उत्पीड़न की वजह से उत्पन्न मानसिक विकारों से जूझ रहे हैं। यह सामाजिक धब्बा भी अब कभी नहीं मिटने वाला है।
बरी होने के बाद सभी की एक ग्रुप फोटो
बरी होने के बाद सभी की एक ग्रुप फोटो

2001 में आसिफ शेख़ एक नवोदित पत्रकार थे, जब उन्होंने सूरत, गुजरात में आल इंडिया माइनॉरिटी एजुकेशन बोर्ड द्वारा आयोजित एक सेमिनार में हिस्सा लिया था। “शैक्षिक अधिकारों और संवैधानिक मार्गदर्शन” विषय पर तीन दिवसीय सेमिनार में चर्चा करने के लिए इस सभा का आयोजन किया गया था। हालाँकि हालात ने कुछ इस तरह से करवट बदली कि इसने शेख़ की जिंदगी को हमेशा-हमेशा के लिए बदल कर रख दिया।

27 दिसंबर, 2001 को जब सभी प्रतिभागी सोने की तैयारी कर रहे थे, तब रात के करीब 11 बजे सूरत पुलिस ने राजेश्री हाल परिसर में छापेमारी शुरू कर दी थी, जो एक सिनेमाघर था, जहाँ पर सेमिनार का आयोजन किया गया था, और जहाँ से 125 मुस्लिम पुरुषों को गिरफ्तार कर लिया गया था।

अहमदाबाद निवासी, आसिफ शेख

उन सभी पर गैरकानूनी गतिविधि (नियंत्रण) अधिनियम (यूएपीए) की धारा 3,10,13 और 15 के तहत आरोप लगाये गए थे और उन पर स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ़ इंडिया (सिमी) जैसे “प्रतिबंधित संगठन को बढ़ावा” देने के आरोप लगाये गए थे।

अहमदाबाद निवासी, 52 वर्षीय आसिफ शेख़ ने न्यूज़क्लिक के साथ अपनी बातचीत में कहा “मैंने गुजरात विश्वविद्यालय से उसी दौरान अपनी शिक्षा पूरी की थी और जब मुझे गिरफ्तार किया गया था तब मैं एक पत्रकार बनना चाहता था। हमें चौदह-दिनों की रिमांड पर लिया गया था, जबकि हमारे घरों पर छापा मारा गया था और तलाशी ली गई थी। पुलिस रिमांड में हममें से अधिकांश को नंगा करके तलाशी ली गई थी और एक ऐसे अपराध के लिए हमें मारा-पीटा गया था, जिसे हमने कभी किया ही नहीं था। इसके बाद हमें 14 महीनों तक जेल में ही रहना पड़ा था। 2002 में जाकर हमें जमानत मिल पी थी, लेकिन फिर कभी हमारी जिन्दगी सामान्य नहीं रही।”

जमानत पर रिहा होने के बाद की घटनाओं को याद करते हुए शेख़ ने कहा “मैं अपनी क्लास में टापर हुआ करता था, लेकिन एक पत्रकार के तौर पर मुझे किसी भी संगठन में नौकरी हासिल न हो सकी। जहाँ एक ओर मेरे सहपाठी राष्ट्रीय न्यूज़ चैनलों में सफल पत्रकारों में शुमार हो चुके थे, मुझे अपने कैरियर की दिशा को बदलने के लिए मजबूर होना पड़ा, क्योंकि कोई भी मुझे काम पर रखने को इच्छुक नहीं था। मैंने एक काल सेंटर में काम किया और अनुबंध पर सरकारी नौकरियों में भी अपने हाथ आजमाए। लेकिन जैसे ही लोगों को पता चलता था कि मुझे एक केस में आरोपी बनाया गया है, मुझे तत्काल नौकरी छोड़ने के लिए कह दिया जाता था। अंततः मजबूरन मुझे मसाले बेचने के कारोबार में कदम रखना पड़ा।”

शेख़ के अनुसार “पिछले बीस वर्षों के दौरान सिर्फ मेरे कैरियर को ही नुकसान नहीं पहुंचा है। जमानत पर बाहर होने के बावजूद पुलिस ने मुझे परेशान करना जारी रखा। मुझे हर साल अहमदाबाद में रथ यात्रा के दौरान या किसी वीआईपी की यात्रा के दौरान हिरासत में ले लिया जाता है। मुझ पर नजर बनाये रखने के नाम पर पुलिस किसी भी समय मेरे घर पर आ धमकती थी। दोस्त्तों और अड़ोस-पड़ोस के लोगों ने मुझ पर एक प्रतिबंधित संगठन से जुड़े होने का टैग लगे होने के कारण, मुझसे और मेरे परिवार से दूरी बना ली थी। इसके साथ ही साथ मेरे घर पर अक्सर पुलिस के दौरों ने मामले को बद से बदतर बना दिया था। लोगों ने मेरे फोन उठाने बंद कर दिए थे, और शहर में यदि कहीं भी हम रास्ते में एक दूसरे के आमने-सामने दिख जाते थे, तो लोग दूसरी ओर मुहँ फेर लिया करते थे। शादी करने में भी मुझे काफी दिक्कतें पेश आईं। 2008 में मेरी शादी होने से पहले मुझे 100 से अधिक बार ख़ारिज कर दिया गया था।”  

7 मार्च के दिन सूरत में एक मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत ने सभी 127 व्यक्तियों को, 2001 में यूएपीए के तहत सिमी को बढ़ावा देने के लिए कथित तौर पर आयोजित एक बैठक में हिस्सा लेने के आरोपों से मुक्त कर दिया और कहा कि आरोपियों के खिलाफ दिए गए सुबूत “विश्वसनीय या पर्याप्त तौर पर संतोषजनक नहीं पाए गए।”

मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट अमित कुमार दवे के अनुसार जांचकर्ता यह साबित कर पाने में विफल रहे कि आरोपी “प्रतिबंधित संगठन के सदस्य थे या वे इसके आन्दोलन को बढ़ावा देने के लिए वहां पर इकट्ठा हुए थे। अदालत ने पाया है कि आरोपी एक शैक्षिक कार्यक्रम में हिस्सा लेने के सिलसिले में इकट्ठा हुए थे, और उनके पास से कोई हथियार बरामद नहीं हुआ था। अभियोजन पक्ष यह भी साबित नहीं कर सका है कि आरोपी सिमी से संबंधित किसी भी गतिविधि के लिए जमा हुए थे, और ना ही जब्त किये गए दस्तावेजों में ही सिमी की कोई प्रासंगिकता साबित होती है। यहाँ तक कि छापे के दौरान तक में, एक भी व्यक्ति ने गिरफ्तारी से बचकर निकल भागने का प्रयास नहीं किया था।”

अधिवक्ता खालिद शेख, जिन्होंने इस केस में शामिल लोगों का प्रतिनिधित्व किया, ने न्यूज़क्लिक को बताया “सूरत में अथ्वालाइन्स पुलिस थाने के तत्कालीन इंस्पेक्टर एम.जे. पंचोली ने एक प्राथमिकी दर्ज की थी, जिसमें कहा गया था कि पुलिस को ख़ुफ़िया जानकारी मिली थी कि सिमी के मेम्बरान सूरत में इकट्ठा होने जा रहे थे। इसके आधार पर उन्होंने राजेश्री हाल पर छापेमारी की थी और 124 व्यक्तियों को गिरफ्तार किया था। उनमें से पुलिस ने दो लोगों – उत्तर प्रदेश के सहारनपुर निवासी, 70 वर्षीय मौलाना अता-उर रहमान और लखनऊ निवासी मोहम्मद जमील सिद्दीकी के कब्जे से सिमी के सदस्यता फॉर्म पाए जाने का आरोप लगाया था। सेमिनार के एक अन्य प्रतिभागी अब्दुल हाई, जो कि जोधपुर विश्वविद्यालय के लब्धप्रतिष्ठ प्रोफेसर थे, के कब्जे से ओसामा बिन लादेन द्वारा लिखी गई शायरी (उर्दू कविता) पाए जाने का आरोप लगाया गया था।”

उन्होंने आगे बताया “बाकी के बचे 120 प्रतिभागियों में से जो देश के विभिन्न हिस्सों से यहाँ पर पहुंचे हुए थे, के पास भी उर्दू साहित्य मिला था, जिसे पुलिस ने जब्त कर लिया और दावा किया कि यी सभी सिमी से संबंधित दस्तावेज थे। बाद में 2003 में जाकर पुलिस ने तीन और व्यक्तियों को गिरफ्तार किया था, जिसमें से आसिफ शेख़, सूरत नगर निगम में एक प्राथमिक स्वास्थ्य कर्मी थे। आसिफ शेख पर राजेश्री हॉल में कार्यक्रम से पहले अपने घर पर साजिश रचने के लिए बैठक आयोजित करने का आरोप लगाया गया था। इसके साथ ही अनिक मुल्तानी, जो कि उन दिनों एक ट्रैफिक पुलिस कर्मी थे, पर समूचे कार्यक्रम के संचालन तंत्र को संभालने का आरोप लगाया गया था। पुलिस ने दावा किया गिरफ्तारी के दिन ये दोनों व्यक्ति घटनास्थल पर मौजूद थे, लेकिन वहां से निकल भागने में सफल रहे।”

वकील का कहना था “इस मामले में पुलिस द्वारा ढेर सारी अनियमितताएं बरती गईं। आमतौर पर जिस पुलिसकर्मी द्वारा प्राथमिकी दर्ज की जाती है, उसे उस मामले की जांच की जिम्मेदारी नहीं सौंपी जाती है। लेकिन तत्कालीन पीआई, एम.जे. पंचोली जो कि प्रथिमिकी में शिकायतकर्ता थे, ने मामले की जांच का काम भी खुद किया था। हालाँकि एक अहमदाबाद निवासी, 27 वर्षीय सुहेल पटेल को, जिनका कंप्यूटर हार्डवेयर का अपना व्यवसाय था, को अलग से चिन्हित किया गया था। इस मामले की जांच एन.के. अमीन द्वारा की गई थी, जो सोहराबुद्दीन के कथित फर्जी मुठभेड़ मामले में दोषी पुलिस अधिकारी थे। हालाँकि अमीन द्वारा ई-मेल और जब्त किये गए कम्प्यूटरों के सभी सबूतों को अदलात ने अवैध करार दिया, क्योंकि वे इस मामले में जांच अधिकारी नहीं थे। इसके अलावा पंचोली या किसी भी उच्च अधिकारी द्वारा उन्हें जांच की जिम्मेदारी नहीं सौंपी गई थी। इतना ही नहीं बल्कि घटनास्थल से एकत्र किये गए अन्य सुबूतों को अदालत तक पहुँचने तक  सील नहीं किया गया था। पुलिस ने दिल्ली के ओखला स्थित, आल इंडिया माइनॉरिटी एजुकेशन बोर्ड के कार्यालय का पता लगाने का भी कोई ईमानदार प्रयास नहीं किया। एक पुलिसकर्मी जो दिल्ली में किसी अन्य केस के सिलसिले में गया हुआ था, ने वापस आकर दावा किया कि उक्त पते पर उसे कोई कार्यालय नहीं मिला। ये सभी 127 लोग सिमी के सदस्य थे, इसे साबित करने की जिम्मेदारी पुलिस पर थी, लेकिन इस मामले में इस बोझ को आरोपियों पर डाल दिया गया कि वे साबित करें कि वे किसी भी प्रतिबंधित संगठन के सदस्य नहीं हैं।”

उनका आगे कहना था “नवंबर 2002 में 122 लोगों को जमानत दी गई और बाद में जाकर फरवरी 2003 में सर्वोच्च न्यायालय से चार लोगों को जमानत मिल गई थी। जिन लोगों को गिरफ्तार किया गया था उनमें से डॉक्टर, बॉम्बे हाई कोर्ट में प्रैक्टिस कर रहे वकील, शिक्षक, प्रोफेसर, एक पत्रकार, पुलिसकर्मी और स्वास्थ्य कर्मी जैसे सरकारी कर्मचारी और छात्र शामिल थे। जमानत हासिल करने के बाद उनमें से अधिकांश लोगों को अपने रोजगार से हाथ धोना पड़ा था, और जो लोग सरकारी नौकरियों में थे उन्हें निलंबित कर दिया गया था। इन लोगों में ऐसे डॉक्टर थे, जो सामाजिक कलंक के कारण अपनी प्रैक्टिस को जारी नहीं रख पाए। न्याय की आस में इनमें से सात लोगों की मौत हो चुकी थी।”

प्रोफेसर अब्दुल हई

जिन लोगों को निलंबित किया गया उनमें जोधपुर विश्वविद्यालय के सुप्रसिद्ध प्रोफेसर अब्दुल हई भी शामिल थे।जोधपुर निवासी प्रोफेसर अब्दुल हई, जो 2015 में सेवानिवृत्त हो चुके थे, ने न्यूज़क्लिक को बताया “फरवरी 2003 में निलंबित होने के दौरान मैं जोधपुर विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर के बतौर बिजनेस, फाइनेंस और अर्थशास्त्र विषयों का अध्यापन करा रहा था। मेरी विश्वसनीयता को देखते हुए विश्वविद्यालय ने बाद में मुझे फिर से नियुक्त कर लिया था। हालाँकि मुझे किसी भी पदोन्नति या सेवानिवृत्ति का लाभ नहीं मिला।”

जोधपुर के निवासी हई आगे कहते हैं “स्थानीय पुलिस द्वारा नियमित तौर पर बुलाये जाने के उत्पीड़न के अलावा उन दिनों चलाया गया मीडिया ट्रायल मेरे लिए बेहद नुकसानदेह रहा; इसने मुझे भीतर से प्रभावित किया है।”एक अन्य सरकारी कर्मचारी आसिफ शेख़ थे, जिन्हें निलंबित किया गया था और बाद में इस केस में आरोपी बनाये जाने के बाद बर्खास्त कर दिया गया था। सूरत निवासी शेख़ को जब 2003 में गिरफ्तार किया गया था, तो वे उस समय वे सूरत नगर निगम (एसएमसी) में स्वास्थ्य कर्मी के तौर पर कार्यरत थे।
 
53 वर्षीय शेख़ का कहना था “मैं एक मध्य-वर्गीय इंसान था जो शांतिपूर्ण ढंग से अपनी जिंदगी गुजार रहा था, जब इस केस ने मेरी जिन्दगी को तहस-नहस करके रख दिया था। पुलिस रात के 2 या 3 बजे के समय पर भी मेरे घर पर आ धमकती थी, और मुझे अक्सर हिरासत में ले लेती थी। मेरी बड़ी बेटी ने हमारे घर पर पुलिस की इस नियमित आवाजाही को देखा था, और उसने पूछना शुरू कर दिया था कि क्या मैंने कुछ गलत काम किया है। मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था। आख़िरकार मेरी पत्नी को हमारे बच्चों के साथ अपने माता-पिता के घर वापस जाना पड़ा।”

शेख़ जो अब ऑटोरिक्शा चलाते हैं, का कहना था “एसएमसी ने मेरे खिलाफ एक चार्जशीट दायर की थी और जमानत मिलने के बाद जब में काम पर वापस लौटा तो मुझे निलंबित कर दिया गया। मैंने कई आवेदन पत्र दाखिल किये, जबतक कि उन्होंने मुझे नौकरी से बर्खास्त नहीं कर दिया था। मैंने खुद को जिंदा रखने के लिए इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की मरम्मत करने जैसे छोटे-मोटे काम करने शुरू कर दिए थे, लेकिन एक टूट चुके घर के साथ अचानक से पुलिस के आ धमकने की चिंता से जूझना बेहद मुश्किल था। इन सभी वर्षों के दौरान मैंने लगातार भय के साए में जिन्दगी गुजारी है।”

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।

Doctors, Lawyers, Teachers and a Journalist Amongst 127 Acquitted of SIMI Links by Gujarat Court After 20 Years

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