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भारत
राजनीति
क्या सरकार डिजिटल न्यूज़ मीडिया पर लगाम लगा रही है?
डिजिटल न्यूज़ मीडिया संस्थानों के लिए FDI की सीमा निश्चित करने वाले सरकारी स्पष्टीकरण की कोशिश न केवल इन संस्थानों को दूसरे मीडिया संस्थानों के बराबर रखने की है, बल्कि स्पष्टीकरण डिजिटल न्यूज़ मीडिया संस्थानों को समाचार समूहकों (न्यूज़ एग्रीगेटर्स) और अंतरराष्ट्रीय मीडिया संगठनों से जुड़ी स्थानीय संस्थानों की बराबरी पर रखने की कोशिश करता है। क्या यह उस सरकारी रणनीति का हिस्सा है, जिसके ज़रिए सरकार की आलोचना करने वाली ऑनलाइन न्यूज़ एजेंसियों पर लगाम लगाई जा सकेगी।
परंजॉय गुहा ठाकुरता
19 Oct 2020
क्या सरकार डिजिटल न्यूज़ मीडिया पर लगाम लगा रही है?

16 अक्टूबर को वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के 'उद्योग संवर्धन और आंतरिक व्यापार विभाग' (DPIIT) ने डिजिटल न्यूज़ मीडिया संस्थानों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) से संबंधित अपने एक पुराने आदेश पर स्पष्टीकरण जारी किया। विभाग ने 18 सितंबर, 2019 को जारी किए गए आदेश पर स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि समाचार और समसामयिक मामलों की अपलोडिंग/स्ट्रीमिंग में लगे डिजिटल न्यूज़ मीडिया संस्थानों को सरकारी अनुमति के बाद 26 फ़ीसदी FDI लेने की छूट मिली है।

DPIIT निदेशक निखिल कुमार कनोडिया द्वारा जारी किए गए स्पष्टीकरण के मुताबिक़, भारत में स्थित या पंजीकृत यह संस्थान FDI सीमा के अंतर्गत आते हैं-

डिजिटल मीडिया संस्थान, जो समाचार या समसामयिक मामलों को अपनी वेबसाइट, ऐप्स या दूसरे प्लेटफॉर्म पर दिखा रहे हैं।

न्यूज़ एजेंसी, जो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर डिजिटल मीडिया संस्थानों और दूसरे समाचार इकट्ठा करने वाले समूहकों (न्यूज एग्रीगेटर्स) के लिए खबरें इकट्ठा करती है या खबरें लिखती या उनका वितरण करती है।

समाचार इकट्ठा करने वाले समूह (न्यूज़ एग्रीगेटर), ऐसे संस्थान हैं, जो अलग-अलग स्रोतों, जैसे न्यूज़ वेबसाइट, ब्लॉग्स, पॉडकॉस्ट, वीडियो ब्लॉग्स, यूजर द्वारा दी गई लिंक आदि से समाचार सामग्री एक जगह पर इकट्ठा करते हैं।

ऊपर उल्लेखित सभी संस्थान 16 अक्टूबर, 2021 तक, एक साल के भीतर केंद्र सरकार की अनुमति से 26 फ़ीसदी FDI तक निवेश करवा सकते हैं।

डिजिटल न्यूज़ मीडिया संस्थानों में FDI सीमा तय करने के फ़ैसले का पहला उल्लेख वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने जुलाई, 2019 में बजट पेश करते हुए किया था। इस फ़ैसले पर कैबिनेट ने अगस्त में मुहर लगाई थी, जिसकी घोषणा उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के ज़रिए की थी।

2019 के दिसंबर में 'फॉरेन एक्सचेंज मैनेजमेंट एक्ट' के तहत नई FDI नीति से समन्वय के लिए नोटिस जारी किया गया। इसमें कई सारी शर्तें बताई गईं, जैसे- निदेशक मंडल के ज्यादातर सदस्यों और मुख्य कार्यपालन अधिकारी (CEO) का भारतीय होना जरूरी है और 60 दिन से ज़्यादा वक़्त के लिए किसी विदेशी नागरिक की नियुक्ति पर एक साल के भीतर सिक्योरिटी क्लीयरेंस लेना होगा।

किन हितग्राहियों का दांव लगा हुआ है?

शुक्रवार को आए स्पष्टीकरण में कहा गया कि सरकार ने मामले से जुड़े अलग-अलग हितग्राहियों से बात की है। ताकि यह तय किया जा सके कि किस तरह के संस्थान नई FDI नीति में आ सकते हैं। आखिर इस मामले में यह हितग्राही कौन हैं, जिनका बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है?

फिलहाल प्रिंट मीडिया मे सरकारी अनुमति से 26 फ़ीसदी FDI का प्रावधान है। वहीं ब्रॉडकास्ट मीडिया के लिए यह सीमा 49 फ़ीसदी है। पिछली बार सरकार ने नवंबर, 2015 में FDI नीतियों में ढील दी थी। तब टेलीविज़न न्यूज चैनल और प्राइवेट एफएम रेडियो स्टेशन के लिए FDI की सीमा 26 फ़ीसदी से बढ़ाकर 49 फ़ीसदी कर दी गई थी, वहीं एंटरटेनमेंट टेलीविज़न चैनलों के लिए 100 फ़ीसदी FDI की अनुमति दी गई थी।

सितंबर, 2018 में डिजिटल न्यूज़ पब्लिशर्स एसोसिएशन (DNPA) बनाया गया, इसमें देश के बड़े पारंपरिक मीडिया समूह हिस्सेदार थे। इनमें से कई, जैसे जागरण न्यूज़ मीडिया, मलयालम मनोरमा, द टाइम्स ऑफ इंडिया, एचटी डि़जिटल स्ट्रीम, NDTV, इंडिया टुडे, इंडियन एक्सप्रेस, दैनिक भास्कर, अमर उजाला जैसे प्रिंट व पारंपरिक मीडिया के संस्थान थे।

DNPA के सदस्यों ने डिजिटल न्यूज़ मीडिया कंपनियों में लगने वाली FDI पर सीमा के सरकारी फ़ैसले का स्वागत किया। एक साल बाद, सितंबर, 2019 में DNPA ने दावा किया कि "इस कदम से नीतिगत व्यवस्था को निश्चित्ता मिलती है, साथ में उसमें आकलन की स्थिति बनती है। यह नीति तय करती है कि चाहे उत्पादक या एग्रीगेटर न्यूज़ कंपनियां हों, सभी से समान व्यवहार किया जा सके।"

उस वक़्त टाइम्स ऑफ इंडिया ने लिखा था, "भारत में काम करने वाले न्यूज़ एग्रीगेटर, जैसे डेलीहंट, इनशॉर्ट, हेलो, यूसी न्यूज़ और न्यूज़डॉग के पास भारतीय समाचार प्रकाशकों से ज़्यादा पहुंच है। इनमें कानूनी अस्पष्टता के चलते बड़ा विदेशी निवेश है। यह निवेश खासतौर पर चीन से है। न्यूज़ एग्रीगेटर अलग-अलग स्रोतों से यूजर्स के लिए एक ही फीड में समाचार लेख इकट्ठे करते हैं, कई बार वे हजारों सामग्री उत्पादकों का इस्तेमाल कर रहे होते हैं। इस दौरान वे उपभोक्ता के सामने पेश किए जाने वाले लेख का चयन भी करते हैं। कई मामलों में एग्रीगेटर संपादकों पर निर्भर नहीं करते, वे उपभोक्ता के लिए लेख के चयन के लिए एल्गोरिद्म का इस्तेमाल करते हैं। इससे गलत जानकारी या अपुष्ट ख़बर के प्रसार का ख़तरा होता है।"

आगे कहा गया: "न्यूज़ एग्रीगेटर टेक्स्ट, तस्वीर और वीडियो फॉर्मेट में अलग-अलग तरह की सामग्री लेते हैं, इनमें व्यापक विषयों पर सामग्री होते हैं। यह विषय राजनीति, राष्ट्रीय सुरक्षा, व्यापारिक अर्थव्यवस्था से लेकर जीवनपद्धति और मनोरंजन जैसे सरल विषय भी हो सकते हैं। यह एग्रीगेटर स्थानीय सामग्री पर ज़्यादा ध्यान दे रहे हैं, ताकि भारत के छोटे शहरों के लिए समाचार सामग्री स्थानीय भाषा में उत्पादित की जा सके। इस तरह एग्रीगेटर्स स्थानीय और राष्ट्रीय प्रकाशकों के साथ सीधे प्रतिस्पर्धा में होते हैं। इससे FDI सीमा में बराबरी की जरूरत महसूस होती है।"

TOI की स्टोरी, सरकार द्वारा लद्दाख में भारत-चीन के बीच तनाव बढ़ने के चलते 29 जुलाई, 2020 को 59 चाइनीज़ ऐप्स को प्रतिबंधित किए जाने के पहले प्रकाशित हुई थी। उस स्टोरी में "डिजिटल मीडिया और डिजिटल न्यूज़ में बढ़ते चीनी निवेश और कंपनियों की तरफ ध्यान दिलाया गया था।" स्टोरी में लिखा गया कि डेलीहंट में बाइटडांस सबसे बड़ा रणनीतिक निवेशक है, जबकि बाइटडांस अपना खुद का न्यूज़ प्लेटफॉर्म हेलो और तेजी से आगे बढ़ता वीडियो प्लेटफॉर्म टिकटॉक भी चलाता है। यूसी न्यूज़ की मालिक अलीबाबा, ओपेरा न्यूज़ का स्वामित्व बीजिंग कुंलुंन टेक के पास है। जबकि न्यूज़डॉग का मुख्य निवेशक टेंसेंट है।

रिपोर्ट में कहा गया, "विडंबना यह है कि चीन की सरकार के मीडिया पर कड़े नियंत्रण के चलते, इन चीनी कंपनियों को अपने देश में बहुत नियंत्रण का सामना करना पड़ता है। इन सभी ऐप्स को मिला दिया जाए, तो यह हर महीने 20 करोड़ भारतीयों तक पहुंच रखती थीं। यह आंकड़ा सभी भारतीय समाचार प्रकाशकों से ज़्यादा है। यह ऐप्स भारत के टियर-2 और टियर-3 शहरों (छोटे भारतीय शहरों) तक पहुंच बनाने पर अपना ध्यान केंद्रित कर रही हैं। इस दौरान उन्होंने बड़े स्तर पर बाज़ार का विस्तार भी कर लिया था।"

डिजिटल न्यूज़ पब्लिशर्स एसोसिएशन (DNPA) क्यों बनाया गया?

मी़डियानामा वेबसाइट पोर्टल चलाने वाले निखिल पहवा जैसे लोगों ने DNPA को बनाए जाने पर ही सवाल उठाया। उन्होंने तर्क दिया कि "सिर्फ डिजिटल क्षेत्र" में काम करने वाला एक भी समाचार प्रकाशक संस्थापकों के मूल समूह का हिस्सा नहीं था। पहवा ने कहा कि "यह सूचना एवम् प्रसारण मंत्रालय की उस योजना का हिस्सा था, जिसके ज़रिए ऑनलाइन सामग्री (जिसमें समाचार प्रकाशक और न्यूज़ एग्रीगेटर्स दोनों शामिल थे) को नियंत्रित करने की मंशा थी। अब इस योजना को खत्म कर दिया गया है।"

पहवा ने आगे कहा, "अब MEITY (इलेक्ट्रॉनिक्स एंड इंफॉर्मेशन मिनिस्ट्री) के पास सुझाव प्रक्रिया को भेज दिया गया है। DNPA में शामिल प्रकाशकों का कहना है कि उनका पहला और मुख्य काम फेक न्यूज़ के मुद्दे को सुलझाना है।" पहवा ने लिखा, "कई प्रकाशकों के बीच तथ्य जांच को लेकर पहले से ही बात चल रही है। यह लोग इस तरीके की तथ्य जांचों को पहले ही मीडिया और सोशल मीडिया पर साझा कर रहे हैं। इस काम को करने के लिए संगठन बनाने की जरूरत नहीं है। किसी भी मामले में तथ्य जांच के लिए समन्वय करना मददगार साबित होता है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं होता। हमें अपने कानूनी प्रावधानों को मजबूत करना होगा, खासकर छोटे शहरों में ऐसा किया जाने की जरूरत है। हमें अपनी न्यायपालिका, कार्यपालिका और कानून को लागू करने वाले प्रशासन की क्षमता को बढ़ाना होगा। हमें जरूरत है कि जब गलत जानकारी फैलती है, तो पुलिस ज़्यादा सक्रिय हो, जो गलत जानकारी को काटने के लिए सही जानकारी का इस्तेमाल करे।"

उन्होंने आगे कहा: "शायद यह औपचारिक तौर पर ऑनलाइन ख़बरों के नियंत्रण के लिए था। ऑनलाइन एंटरटेनमेंट की समानांतर दुनिया में पारंपरिक मीडिया नियमों को ऑनलाइन शर्तों में बदला जा रहा है, ताकि आत्मनियंत्रण का एक तंत्र बनाया जा सके और सामग्री उत्पादक-प्रकाशक, कंटेंट एग्रीगेटर्स से खुद को अलग दिखा सकें। शायद पारंपरिक डिजिटल प्रकाशक, ख़बरों के मामले में भी ऐसा ही करें और आत्मनियंत्रण वाला एक तंत्र तैयार करें। ताकि वे खुद को ब्लॉग्स और न्यूज़ एग्रीगेटर्स से अलग दिखा सकें।"

मीडियानामा के संस्थापक ने लिखा, "इंटरनेट पर कौन सी चीजें समाचार होंगी, क्या इसमें ब्लॉग्स और एग्रीगेटर्स शामिल होंगे, क्या वीडियो को टेक्स्ट से अलग कर नियंत्रित किया जाएगा क्योंकि वीडियो में आवाज, वीडियो और टेक्स्ट के मिश्रण का इस्तेमाल किया जा सकता है, इन सब मुद्दों पर फिलहाल कई तरह के भ्रम हैं।" पहवा ने "एकरूपता और समान संहिता (यूनिफॉर्मिटी एंड कॉमन कोड)" के खिलाफ तर्क दिए। उन्होंने कहा कि इस तरह के कदमों से संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) पर सरकारी नियंत्रण मजबूत होगा। 19(1)(a) भारतीय संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकार है। पहवा के मुताबिक़ इससे 19(2) की प्रवृत्ति में विस्तार होगा, जो 19(1)(a) पर "युक्तियुक्त प्रतिबंध" लगाता है।

अक्टूबर, 2018 में लिखे लेख में पहवा ने आखिर में कहा: "इंटरनेट पत्रकार-गैर पत्रकार-प्रकाशकों और ब्लॉग्स में भेद नहीं करता। हम सभी यूजर्स हैं। सभी उपभोक्ता और उत्पादक हैं। किसी भी पारंपरिक उद्योग द्वारा अपनी शर्तों और प्रतिबंधों को इंटरनेट पर हम सभी के ऊपर थोपने की कोशिशों का विरोध किया जाना चाहिए। इस तरह के कदमों से यूजर्स की स्वतंत्रता बाधित होगी, यह कदम संभावित तौर पर प्रतिगामी साबित होंगे।"

30 सितंबर, 2019 को DNPA के प्रतिनिधियों ने सूचना एवम् प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर से मिलकर "फेक न्यूज़ द्वारा पेश की जा रही चुनौतियों" पर विमर्श किया। बैठक में बोलते हुए DNPA के अध्यक्ष और दैनिक भास्कर समूह के प्रतिनिधि पवन अग्रवाल ने कहा, "पारंपरिक मीडिया संस्थानों के डिजिटल हिस्से ने सभी भाषाओं में, विश्वसनीय खबरों को, तेजी से बढ़ती हुई डिजिटल पाठकों की संख्या तक पहुंचाने में उच्च स्तर के संपादकीय पैमाने को बरकरार रखा है। अब हम सरकार के साथ मिलकर "डिजिटल न्यूज़ इंडस्ट्री की लोगों तक ज्ञान पहुंचाने की भविष्य की संभावित क्षमताओं को अधिकतम करना चाहते हैं।"

"विरासतवादी" प्रिंट मीडिया संगठनों के प्रतिनिधियों से उलट, सरकार द्वारा FDI को 26 फ़ीसदी तक सीमित करने के फ़ैसले का कॉरपोरेट संस्थानों ने स्वागत नहीं किया। उन्होंने इस कदम को बाधित करने वाला बताया। क्योंकि इनमें से कई संस्थान विदेशों से निवेश पर निर्भर हैं। कुछ लोगों ने इन प्रतिबंधों को उन भारतीय संस्थानों के खिलाफ़ की गई कार्रवाई के तौर पर देखा जो BBC, अल जजीरा और हफिंग्टन पोस्ट के साथ मिलकर काम करते हैं। फिर कुछ लोगों ने FDI पर सीमा तय करने के कदम को नेटफ्लिक्स और अमेजॉन प्राइम जैसे स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म पर नियंत्रण करने वाले कदम के तौर पर देखा। इन लोगों की चिंताएं गलत नहीं हैं।

जून, 2018 में रिलीज़ हुई "सेक्रेड गेम्स" सीरीज़ में भारतीय स्क्रीन पर जमकर हिंसा, सेक्स और गाली-गलौज का इस्तेमाल हुआ। इससे कुछ रूढ़ीवादी और दक्षिणपंथी लोग व समूह नाराज़ हुए। इनमें से बहुत सारे लोग सत्ताधारी BJP के साथ जुड़े थे। इन लोगों ने इस तरह के कंटेंट पर 'सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन (CBFC)' से सेंसरशिप की मांग की। कोरोना महामारी के दौर में ज़्यादातर सिनेमाहाल बंद हो चुके हैं और बड़ी संख्या में फिल्में ऑनलाइन रिलीज़ हो रही हैं। इस दौरान पारंपरिक वितरण व्यवस्था को बॉयकॉट किया जा रहा है। इसके बावजूद भी OTT प्लेटफॉर्म के कंटेंट पर सेंसरशिप लागू करने की मांग जारी है। इन प्लेटफॉर्म में नेटफ्लिक्स भी शामिल है।

अब सवाल उठ सकता है कि क्या OTT प्लेटफॉर्म्स को नई FDI नीति में लाया जाए या नहीं, क्योंकि यह प्लेटफॉर्म फिक्शन और नॉन-फिक्शन (जिसे मोटे तौर पर न्यूज़ और समसामयिक मामलों की सामग्री माना जाएगा) दोनों तरह की सामग्री का प्रसारण करते हैं। नेटफ्लिक्स पर प्रसारित होने वाली मौजूदा सीरीज़ "बैड ब्वॉय बिलियनर" नॉन फिक्शन में आ सकती है। इस सीरीज़ में विजय माल्या, नीरव मोदी और सुब्रत रॉय जैसे उद्योगपति, जिन्हें कानूनी दांवपेंचों का सामना करना पड़ा, उनपर आधारित फीचर डॉक्यूमेंट्री दिखाई जा रही हैं।

FDI पर आए स्पष्टीकरण का प्रभाव

शुक्रवार को आए स्पष्टीकरण के बावजूद भी कुछ चीजों में अस्पष्टता बरकरार रहेगी। पहवा ने ट्वीट्स की श्रृंखला में इन्हें बताया है। उन्होंने कहा कि सरकार ने जैसा बताया कि नई FDI नीति से "फायदा" होगा, दरअसल वह "गलत" है। शुरुआत में डिजिटल न्यूज़ मीडिया संस्थानों में FDI पर कोई सीमा नहीं थी। यह रूपर्ट मर्डोक के न्यूज़कॉर्प समूह द्वारा 1995 में VC सर्किल को खरीदने से भी स्पष्ट हो गया था, बाद में नुकसान के चलते इसे HT मीडिया कंपनी के मिंट को बेच दिया गया। पहवा को महसूस होता है कि "इस कदम से पारंपरिक मीडिया लॉबी को डिजिटल कंपनियों के खिलाफ़ मजबूती मिली होगी।"

पहवा का यह भी सोचना है कि नई नीति से "अंतरराष्ट्रीय प्रकाशन संस्थानों के स्थानीय ब्यूरो पर भी प्रभाव पड़ेगा। क्योंकि उनमें से बहुत सारे वेबसाइट में सीधा योगदान देते हैं ना कि यह "टेलीविज़न या रेडियो" से जुड़े हैं। सरकार के स्पष्टीकरण का यह हिस्सा इन लोगों के लिए समस्याएं खड़ा कर सकता है। पहवा ने आगे हैरानी जताई "फ़ेसबुक और यूट्यूब के बारे में क्या, वहां भी लोग खबरों से जुड़ी सामग्री डालते हैं? यह लोग परिभाषा के हिसाब से न्यूज़ एग्रीगेटर्स होंगे। इस बात पर गौर फरमाइए कैसे सरकार ने स्पष्टीकरण में "यूजर्स द्वारा जमा की गई लिंक (यूजर्स सब्मिटेड लिंक्स)" का विशेष तौर पर उल्लेख किया है। उनके पास भारतीय संस्थान हैं।"

"न्यूज़ मीडिया का उदारीकरण करने, प्रिंट से प्रतिबंध हटाने के बजाय, सरकार ने विदेशी पैसे तक पहुंच पर नियंत्रण कर, डिजिटल पर उसी तरीके का नियंत्रण हासिल कर लिया है, जैसा प्रिंट पर हासिल है।" पहवा का मानना है कि डिजिटल न्यूज़ कंपनियां अब अपने ढांचे को सिंगापुर में लगा सकती हैं, ताकि उस क्षेत्राधिकार से पैसा इकट्ठा किया जा सके।

मीडियानामा के संस्थापक ने ध्यान दिलाया कि "नीतिगत बदलाव बिना सार्वजनिक जनसुझावों के संपन्न कर दिए गए।" जिस तरह का प्रतिनिधित्व वहां पहुंचा, उसकी जानकारी सार्वजनिक नहीं है। अब डिजिटल मीडिया कंपनियों को एक और नई नीति "रजिस्ट्रेशन ऑफ पीरियॉडिकल्स एंड पब्लिकेशन्स बिल, 2019" के लिए तैयारी कर लेनी चाहिए।

पहवा ने अंदाजा लगाया है कि सरकार संभावित तौर पर "द वॉयर" पोर्टल को निशाना बना रही है। यह पोर्टल मौजूदा सत्ता का आलोचक है। पहवा ने कहा कि FDI नीति में यह चीज जोड़ी गई है कि डिजिटल न्यूज़ संस्थान के CEO का भारतीय नागरिक होना जरूरी है। उन्होंने ट्वीट में लिखा, "कंपनियों में काम करने वाले विदेशी नागरिकों के लिए सरकारी सुरक्षा सहमति लेनी होगी, अगर उन्हें यह नहीं मिलेगी, तो उन्हें इस्तीफा देना होगा।"

संयोग है कि द वॉयर के एक संस्थापक संपादक सिद्धार्थ वरदराजन भारतीय नागरिक नहीं हैं। हालांकि तथ्य-जांच वेबसाइट के प्रतीक सिन्हा इस मुद्दे पर पहवा से सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि चूंकि द वॉयर एक गैर लाभकारी संगठन द्वारा चलाया जाता है, इसलिए उस पर FDI कानून लागू नहीं होंगे।

जब न्यूज़क्लिक ने वरदराजन से बात की, तो उन्होंने कहा, "FDI नीति द वॉयर के स्वामित्व वाले गैर-लाभकारी संगठन पर लागू नहीं होगी, क्योंकि हमारे पास किसी तरह का विदेशी निवेश नहीं है। खैर यह नीति मुझे ad hoc लगती है।"

वरदराजन के मुताबिक़ यह सरकार की प्रलोभन और दंड की दोहरी नीति है। शुक्रवार को सूचना एवम् प्रसारण मंत्रालय ने एक अलग प्रेस रिलीज़ जारी की, जिसमें कहा गया कि जो डिजिटल मीडिया कंपनियां FDI अनुमति के लिए आवेदन लगाएंगी और उन्हें अनुमति अनुमोदित होगी, उन कंपनियों को कुछ दूसरे फायदे भी दिए जाएंगे, जिनमें उसके पत्रकारों को PIB से मान्यता, मंत्रालय द्वारा डिजिटल विज्ञापन की योग्यता जैसी चीजें शामिल होंगी।

प्रेस रिलीज़ में आगे कहा गया,"प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में आत्मनियत्रित संस्थाओं के तरह, डिजिटल मीडिया संस्थान अपने हितों और सरकार से बातचीत को आगे बढ़ाने के लिए आत्मनियंत्रित संस्थान बना सकते हैं।"

वॉयर में प्रकाशित एक रिपोर्ट कहती है, "अब तक सरकार डिजिटल मीडिया कंपनियों के पत्रकारों को PIB मान्यता नहीं दे रही है, जबकि इनका पूरा स्वामित्व भारतीय नागरिकों द्वारा है, इनके पास किसी तरह की FDI नहीं है।" रिपोर्ट में आगे कहा गया, "जहां तक आत्मनियंत्रित संस्थाओं को बनाने की बात है, तो भारत में सरकार के पास कंपनियों के किसी समूह को आपस में संगठन बनाने से रोकने की ताकत नहीं है। इसलिए यह साफ़ नहीं हो पाया है कि सूचना एवम् प्रसारण मंत्रालय किस तरह के फायदे उपलब्ध करवा रहा है।"

डिजिटल न्यूज़ मीडिया पर नियंत्रण

न्यूज़लांड्री के सहसंस्थापक अभिनंदन शेखरी ने न्यूज़क्लिक को बताया, "यह बेहद हास्यास्पद है कि नोटिफिकेशन में "उदारीकरण" शब्द का इस्तेमाल किया गया है। एक प्रतिगामी और प्रतिबंधात्मक नीतिगत फ़ैसले को उदारीकरण बुलाना ऐसा है, जैसे सरकार किसी समस्या के समाधान के लिए 'नाम बदलने का मंत्र' अपनाती है और ऐसे व्यवहार करती है, जैसे वह समस्या खत्म हो गई हो। सरकार न्यूज़ मीडिया को रोकने की कोशिशों को छुपाती नहीं है, ना ही इनके नुकसानदेह प्रभावों को बदलती है। इससे कोई भी भारत में डिजिटल न्यूज मीडिया को पंजीकृत कराने से हतोत्साहित होता है।"

शेखरी ने आगे कहा कि FDI की नई नीति "डिजिटल न्यूज़ इकोसिस्टम" को बड़ा झटका है। इसे नरेंद्र मोदी सरकार के बहुप्रचारित डिजिटल इंडिया मिशन को देखते हुए विडंबना ही कही जा सकती है। शेखरी का कहना है कि डिजिटल इंडिया का नारा खोखला है, क्योंकि नीतियां तो बिलकुल उल्टी हैं। उन्होंने पूछा, "भारत की कंपनियां विदेशी न्यूज़ पब्लिकेशन्स के साथ प्रतिस्पर्धा की एक ज़मीन पर कैसे रहेंगी। क्योंकि विदेशी कंपनियों के पास भारतीय बाज़ार तक पहुंच है (निवेश भी)। नई नीति से ऐसा होगा, बशर्ते चीन की तरह सरकार की आगे जाकर विदेशी कंपनियों के पूर्णत: प्रतिबंध की योजना ना हो?"

ब्रॉडकास्ट कंपनियों की तरह डिजिटल न्यूज़ मीडिया कंपनियों के लिए प्रवेश की कोई बाधा नहीं है। शेखरी का कहना है कि इस तरह प्रधानमंत्री का भारतीय न्यूज़ कंपनियों के वैश्विक होने का सपना कतई पूरा नहीं होगा। वह कहते हैं, "मैं इसे बेहद विचित्र मानता हूं कि इस दुर्भाग्यपूर्ण स्पष्टीकरण का न्यूज़ मीडिया संस्थानों ने विरोध नहीं किया, जो डिजिटल मीडिया का प्रतिनिधित्व करने का दावा करती हैं।"

न्यूज़क्लिक के संपादक प्रबीर पुरकायस्थ का कहना है कि नई FDI नीति ज़ाहिर तौर पर डिजिटल मीडिया को निशाना बनाने वाली है, यह ऐसा मीडिया है जिसका एक हिस्सा ऐसी ख़बरें प्रकाशित करता है, जो सरकार को पसंद नहीं होतीं। वह कहते हैं, "FDI को नियंत्रित करने के लिए 26 फ़ीसदी वाले प्रावधान का उपयोग हुआ है, ऐसा करना बेहद अजीब दिखाई पड़ता है, क्योंकि मौजूदा नीति टेलीविज़न कंपनियों में विदेशी निवेश के 49 फ़ीसदी तक होने की अनुमति देती है। अगर प्रिंट, टीवी और डिजिटल न्यूज़ वाले समाचार संस्थानों का स्वामित्व भारतीयों के हाथ में ही रखने का उद्देश्य था, तो टीवी और डिजिटल के लिए अलग नियम क्यों हैं? और किसी 26 फ़ीसदी वाले विदेशी निवेश को सरकारी अनुमति पर आश्रित रखना, किसी डिजिटल मीडिया कंपनी के खिलाफ़ सरकार को एक व्यावसायिक उपकरण उपलब्ध करवाता है।"

पुरकायस्थ ने आगे कहा, "जैसा दूसरों ने बताया, इन कदमों से भारतीय न्यूज़ कंपनियों के विदेशों में पंजीकरण को बढ़ावा मिलेगा, ताकि सरकार जिस तरह का नियंत्रण करना चाह रही है, उससे बचाव हो सके।"

एक चीज साफ़ है कि नए FDI नियम डिजिटल मीडिया के हिस्सों की कार्यप्रणाली में व्यवधान पहुंचाने के लिए बनाए गए दिखाई देते हैं, जबकि सरकार अर्थव्यवस्था के हर हिस्से में विदेशी निवेश शर्तों का उदारीकरण कर चुकी है। इन क्षेत्रों में रक्षा उपकरणों और स्पेसक्रॉफ्ट का निर्माण भी शामिल है। ऐसा करने की वजह भी स्पष्ट है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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    उत्तर प्रदेश में एक और सनसनीखेज मामला सामने आया हैI एक लड़की के रुदाली का वीडियो. मुद्दा यह है कि उसके पिता की हत्या कर दी गई और वह भी उस शख्स द्वारा जिसने आज से करीब ढाई साल पहले उसकी बेटी के साथ…
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