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बुलडोज़र कार्रवाई: दंगे पर रोक के बहाने, राजनीतिक दुर्भावना का खेल

इमारतों को गिराए जाने वाली इस तरह की विवादास्पद कार्रवाई प्रशासनिक दुर्भावना, अतार्किकता, विवेकहीनता और मनमानेपन की शरारत का नतीजा है, और संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 के उल्लंघन के चलते इस तरह की कार्रवाई ग़ैर-क़ानूनी घोषित किये जाने के क़ाबिल हैं।
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इमारतों को गिराए जाने वाली इस तरह की विवादास्पद कार्रवाई प्रशासनिक दुर्भावना, अतार्किकता, विवेकहीनता और मनमानेपन की शरारत का नतीजा है, और संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 के उल्लंघन के चलते इस तरह की कार्रवाई ग़ैर-क़ानूनी घोषित किये जाने के क़ाबिल हैं।

तत्काल इंसाफ दिलाये जाने की कोशिश में, भारत में बुलडोजर का इस्तेमाल किया जा रहा है, दंगों के कथित अपराधियों को रोके जाने वाले बतौर नये सरकारी उपायों को सुर्खियां मिल रही हैं। हालांकि, उत्तर प्रदेश सरकार ने नागरिकता संशोधन अधिनियम के बाद, 2019 में हुए दंगों के बाद, इस तौर-तरीक़े को फिर से अमल में लाया था और बिना किसी हिचक के पहले की तरह ही यह जारी रखा, इस साल की शुरुआत में रामनवमी और हनुमान जयंती के दौरान दंगे भड़कने के बाद मध्य प्रदेश और गुजरात जैसे सूबों और राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में भी इसका अनुसरण किया गया। सुप्रीम कोर्ट में डाली गईं दो अलग-अलग जनहित याचिकाओं (PIL) में इन विध्वंसों पर रोक लगाने की मांग की गयी थी और फिर यथास्थिति बनाये रखने का आदेश दे दिया गया था।

जहां एक तरफ़ इन सूबों के लोगों की किस्मत का फ़ैसला सुप्रीम कोर्ट से किया जाना अभी बाक़ी है, वहीं राज्य सरकार की ओर से घरों को "अवैध निर्माण" क़रार देते हुए, जब कथित प्रदर्शनकारियों के घरों को ध्वस्त कर दिया गया, तो उत्तर प्रदेश ने इस महीने के पहले हफ्ते में, प्रयागराज इलाक़े में हुए विरोध प्रदर्शनों के बाद इस तरह के विध्वंस का एक नया दौर देखा। प्रयागराज के उस विध्वंस के खिलाफ भी सुप्रीम कोर्ट में एक अलग जनहित याचिका दायर की गयी है।

यहां हम वैधानिक प्रावधानों और प्रशासनिक क़ानून के सिद्धांतों की रौशनी में इन विध्वंसों के औचित्य का विश्लेषण करते हैं, और यह दलील देते हैं कि प्रशासनिक शक्ति का एक ख़ास तरह के मक़सद से इस्तेमाल किये जाने के चलते इमारतों को इस तरह से ध्वस्त किये जाने के ये अभियान, प्रशासनिक दुर्भावना से ग्रस्त हैं।

चाहे वह स्थायी या अस्थायी निर्माण का विध्वंस ही क्यों न हो, इससे व्यक्ति और उनके आश्रित अपनी-अपनी उन आजीविका और आश्रय से वंचित कर दिये जाते हैं, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने ओल्गा टेलिस बनाम बॉम्बे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन के मामले के ऐतिहासिक फ़ैसले(985) में संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार की अनिवार्य विशेषता बतायी है।

अनुच्छेद 21 में कहा गया है कि क़ानून की स्थापित प्रक्रिया को छोड़कर किसी भी व्यक्ति को जीवन और निजी स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जायेगा। मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फ़ैसले के बाद से यह अच्छी तरह सुनिश्चित हो गया है कि ऐसी प्रक्रिया को न्यायसंगत, निष्पक्ष और उचित होना चाहिए।

पंजाब राज्य बनाम सलिल सबलोक (2013) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि सभी संवैधानिक या वैधानिक शक्तियों के इस्तेमाल में निहित एक ऐसी आवश्यकता है कि हर एक शक्ति/निर्देश का इस्तेमाल को निष्पक्ष, उचित और न्यायपूर्ण होना चाहिए, और इसे जनहित से निर्देशित होना चहिए। निष्पक्षता अच्छे प्रशासन का मूल सिद्धांत है और सभी प्रशासनिक कार्यों में निष्पक्ष रूप से कार्य करना एक कर्तव्य है, जिसका मतलब है न्यायपूर्ण और निष्पक्ष रूप से कार्य करना, न कि मनमाने ढंग से या मनमर्ज़ी से काम करना।

कोई नोटिस नहीं

इमारतों को ध्वस्त किये जाने से जुड़ा यह प्रमुख मुद्दा सम्बन्धित राज्य क़ानूनों के तहत आवश्यक और सुप्रीम कोर्ट के दिये गये फ़ैसलों (मसलन जम्मू-कश्मीर राज्य बनाम हाजी वली मोहम्मद (1972), मुंबई के कस्टम कलेक्टर बनाम वर्गो स्टील्स, बॉम्बे एवं अन्य (2002), केनरा बैंक बनाम देबासिस दास (2003), और नगर निगम, लुधियाना बनाम इंद्रजीत सिंह एवं अन्य (2008) मामले में दिये गये फैसले) के तहत निर्माण के ध्वस्त किये जाने से पहले उसमें रहने वालों/निवासियों को नोटिस जारी किये जाने के सम्बन्ध में है, यही प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों की मान्यता की एक अनिवार्य आवश्यकता भी है।

जहांगीरपुरी विध्वंस के मामले में सुप्रीम कोर्ट के सामने याचिकाकर्ताओं ने उचित नोटिस नहीं दिये जाने की बात कही थी, जबकि नगर निगम की दलील ठीक इसके उलट थी। प्रयागराज में ताजा विध्वंस के मामले में इमारत को गिराए जाने से 24 घंटे पहले नोटिस भी जारी नहीं किये गये थे। इस बात का यहां ज़िक़्र करना ज़रूरी है कि नोटिस जारी करना ही काफ़ी नहीं होता, बल्कि यह भी ज़रूरी है कि उस नोटिस के अनुपालन के लिए पर्याप्त समय दिया जाये। हाजी वली मोहम्मद मामले में जब कथित रूप से जीर्ण-शीर्ण स्थिति वाली किसी इमारत को ध्वस्त किये जाने से पहले महज़ 24 घंटे का नोटिस दिया गया था, तो सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए इसे रद्द कर दिया था कि वह नोटिस माकूल नहीं था।

निशाने पर चुनिंदा मामले

दलील के हिसाब से देखा जाए, जैसा कि राज्य सरकारों की ओर से उठाए गए क़दमों से भी दिखता है कि इमारत में रहने वाले लोगों को भले ही क़ानूनी तौर पर ज़रूरी नोटिस थमा दिये गये हों, लेकिन इन सूबों में सत्ताधारी दलों के मंत्रियों (मुख्यमंत्रियों सहित) और राजनेताओं के बयानों से यह साफ हो जाता है कि इमारतों को गिराए जाने वाले इस अभियान का असली मक़सद कथित रूप से दंगों में शामिल लोगों को दंडित करना था। इसके अलावा, इन घटनाओं का क्रम, यानी सभी चार राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में दंगों/सांप्रदायिक टकरावों और उन चुनिंदा स्थलों पर इमारतों को गिराए जाने के बीच नजदीकी सम्बन्ध दिखता है, जहां कथित दंगाइयों की रिहाइश है,और यह नजदीकी सम्बन्ध यह है कि इन तमाम सूबों में एक ही राजनीतिक दल की हुक़ूमत है, इससे यह स्पष्ट रूप से साफ हो जाता है कि इस अभियान का असली मक़सद कथित दंगाइयों पर कार्रवाई करना था, न कि अवैध बनी इमारतों को हटाना था।

इसके अलावे, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट के सामने याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश होने वाले वरिष्ठ वकीलों की दलील थी कि दिल्ली में तकरीबन 1,700 अनधिकृत कॉलोनियां हैं। इनमें से सिर्फ़ उन्हीं जगहों पर इमारतें गिरायी गयीं, जहां दंगे हुए थे। इन हालात में उन इमारतों को गिराए जाने की इस कवायद को एक ख़ास मक़सद से प्रशासनिक ताकत के इस्तेमाल के तौर पर वर्णित किया जा सकता है। प्रोफेसर आई.पी. मैसी ने अपनी किताब, 'एडमिनिस्ट्रेटिव लॉ' (नौवां संस्करण, पृष्ठ 389-390) में इसे इस तरह बताया है:

"उस मक़सद के लिए प्रशासनिक शक्ति का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता, जो कि उसके दायरे के भीतर ही नहीं हो। इसलिए, किसी भी अनधिकृत उद्देश्य को हासिल करना न्यायिक समीक्षा के अधीन इस शक्ति का एक ख़ास मक़सद से किया गया इस्तेमाल क़रार दिया जायेगा... कोई भी सार्वजनिक प्राधिकरण बदनीयत या ग़लत इरादे से कार्य नहीं कर सकता। अगर किसी प्रशासनिक प्राधिकरण ने दुर्भावनापूर्ण तरीके से किसी कार्य को अंजाम दिया है, तो यह न्यायालय की समीक्षा क्षेत्राधिकार के अधीन होगा। इस तरह के मिले-जुले विचारों के मामले में अदालतें उस ख़ास मक़सद का पता लगाने की कोशिश करती हैं, जिसने इस तरह की प्रशासनिक कार्रवाई को प्रेरित किया हो। शक्ति का दुर्भावना के साथ इस्तेमाल तब किया जाता है, जब कोई कार्य इससे प्रभावित व्यक्ति के प्रति व्यक्तिगत शत्रुता से प्रेरित होता है। इसे सत्ता का चालबाज़ी के साथ किया गया इस्तेमाल माना जाता है।"

अनधिकृत मक़सद के लिहाज़ से किसी आदेश को जारी करना क़ानून की नज़र में दुर्भावना से प्रेरित कार्रवाई है (पंजाब राज्य बिजली बोर्ड लिमिटेड बनाम जोरा सिंह (2005) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक)। इमारत गिराए जाने का यह मामला कंगना रनौत बनाम ग्रेटर मुंबई नगर निगम एवं अन्य (2020) के उस हालिया मामले के क़रीब दिखता है, जिसमें ग्रेटर मुंबई नगर निगम ने याचिकाकर्ता और राज्य के सत्ताधारी दल के एक प्रमुख राजनीतिक नेता के बीच एक ट्विटर विवाद के चलते जल्दबाजी में नोटिस देकर याचिकाकर्ता के कार्यालय की इमारत को गिरा दिया था।

बॉम्बे हाईकोर्ट ने प्रतिवादियों की ओर से इमारत को गिराए जाने को लेकर जारी किये गये नोटिस को दुर्भावना और गलत इरादे से प्रेरित क़ानून के इस्तेमाल के चलते उसे खारिज कर दिया था, जिससे कि याचिकाकर्ता को काफ़ी नुकसान हुआ था और ग़ैर-क़ानूनी रूप से इमारत को गिराए जाने के खिलाफ याचिकाकर्ता को हुए अनुमानित उस नुकसान का मुआवजा देने के मकसद से नगर निगम की ओर से एक मूल्यांकन करने वाले को नियुक्त किया गया था।

ऐसा करते हुए कोर्ट ने कहा था: “किसी नागरिक की ओर से निजी हैसियत में दिये गये ग़ैर-ज़िम्मेदाराना बयान चाहे कितने भी अप्रिय या ग़लत हों,उनकी अनदेखी की जा सकती है। लेकिन,किसी नागरिक के मुकाबले सरकार या उसकी एजेंसियों की ओर से गैरकानूनी और ख़ास मक़सद से की गयी कार्रवाई का मामला बहुत गंभीर है और समाज के लिए नुक़सानदेह है, जिसे नजरअंदाज बिल्कुल भी नहीं किया जा सकता। किसी व्यक्ति की जो भी मूर्खता हो,चाहे उसकी वह मूर्खता अनधिकृत निर्माण के मामले से जुड़ी हो, या फिर व्यक्तियों या आम जनता की भावनाओं को ठेस पहुंचाने के वाले ग़ैर-ज़िम्मेदाराना बयानों से जुड़ी हो, ऐसे व्यक्ति के ख़िलाफ़ किसी की तरफ़ से कोई भी कार्रवाई नहीं की जा सकती, सरकार की ओर से तो बिल्कुल भी नहीं की जा सकती,उसके खिलाफ कार्रवाई सिर्फ़ और सिर्फ़ क़ानून के दायरे के भीतर की जा सकती है। किसी भी तरह से किसी भी नागरिक समाज में शक्ति के मनचाहा इस्तेमाल या धमकियों का सहारा, बाहुबल का इस्तेमाल और/या ऐसे व्यक्ति या उसकी संपत्ति को ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से नुकसान पहुंचाने की इजाज़त नहीं दी जा सकती। इस तरह की हरकतें क़ानून के शासन के बिल्कुल उलट हैं।”

मनमानी कार्रवाई

प्रशासनिक कानून का यह एक सुस्थापित सिद्धांत भी है कि अगर किसी प्रशासनिक कार्रवाई में सभी प्रासंगिक कारकों पर विचार नहीं किया गया हो, या अप्रासंगिक विचारों के साथ इस तरह की इजाज़त दी जाती हो, तो इस तरह का फ़ैसला मनमाने विवेक से विकृत होता है। इस सिद्धांत को सुप्रीम कोर्ट के जेआर रघुपति बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1988) मामले में निम्नलिखित शब्दों में समझाया गया था:

“उस प्राधिकरण को अपने सामने आये इस तरह के मामले को ख़ुद ही सम्बोधित करना चाहिए: उसे अन्य निकाय के निर्देश के तहत कार्य नहीं करना चाहिए या प्रत्येक मामले में विवेक का इस्तेमाल करने से ख़ुद को अलग नहीं करना चाहिए। अपने विवेक के कथित इस्तेमाल में उसे वह सब नहीं करना चाहिए, जिन्हें करने की उसे मनाही है, और न ही उसे वह सब करना चाहिए, जिन्हें करने के लिए उसे अधिकृत नहीं किया गया हो। इसे नेकनियती से कार्य करना चाहिए, सभी प्रासंगिक विचारों का सम्मान करना चाहिए और अप्रासंगिक विचारों से प्रभावित नहीं होना चाहिए, उसे उन लिखित विधि या कानून की भावना से अलग मकसद को बढ़ावा देने की तलाश नहीं करनी चाहिए, जो इसे कार्य करने की शक्ति देते हैं, और उसे मनमाने या मनमौज़ी ढंग से कार्य नहीं करना चाहिए।" (इस पर लेखकों ने ज़ोर दिया है)

इस तरह, इन फ़ैसलों में प्रतिपादित सिद्धांतों और उन घटनाओं के क्रम पर विचार करने के बाद, जिनमें इमारतों को गिराया गया था, यह निष्कर्ष निकाल लेना मुनासिब नहीं होगा कि जिन अभियानों को लेकर दावा किया गया हो कि वे अतिक्रमण विरोधी अभियान थे,उन्हें अंजाम देते समय राज्य सरकारें ग़लत इरादों और बाहरी विचारों से ही प्रभावित रही थीं।

इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि उत्तर प्रदेश सरकार सार्वजनिक और निजी संपत्ति को हुए नुक़सान की उस वसूली अधिनियम, 2020 से लैस है, जो दंगों के दौरान सार्वजनिक और निजी संपत्तियों को हुए नुकसान की भरपाई दंगाइयों से क्रमशः जुर्माने और मुआवजे के रूप में वसूलता है। यहां तक कि इस क़ानून के तहत भी अभियुक्तों की संपत्तियों के अविलंब विध्वंस का कोई प्रावधान नहीं है, और यहां तक कि वसूली की कार्यवाही भी अदालत की ओर से दंगाइयों का अपराध तय करने के बाद ही हो सकती है। इस तरह के क़ानून होने के बावजूद, राज्य सरकार ने संवैधानिक लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों की पूरी तरह अवहेलना करते हुए अवैध विध्वंस को अंजाम देने की ख़ातिर ख़ुद के ऊपर न्यायाधीश, न्यायपीठ और जल्लाद की ज़िम्मेदारी भी डाल ली है।

अवैध ढांचों को हटाने के साये में राज्य के एक छिपे हुए एजेंडे को बढ़ावा देने के लिहाज से इस तरह के विवादास्पद विध्वंस की कार्रवाई की गयी है। इमारतों को गिराए जाने वाली इस तरह की विवादास्पद कार्रवाई प्रशासनिक दुर्भावना, अतार्किकता, विवेकहीनता और मनमानेपन की शरारत के नतीजे हैं, और संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 के उल्लंघन के चलते इस तरह की कार्रवाई ग़ैर-क़ानूनी घोषित किये जाने के क़ाबिल हैं।

साभार: द लीफलेट

अंग्रेजी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें: 

Recent Demolition Drives Across India Smack of Administrative Mala Fides

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