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COP26: नीतियों या उपभोक्ता व्यवहारों से मेल नहीं खाता जलवायु संकल्प 

ग्लासगो जलवायु समझौते ने जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई को पटरी से उतार दिया है।
climate change
बकवास बकवास बकवास: 3 नवंबर, 2021 को ब्रिटेन में स्कॉटलैंड के ग्लासगो में आयोजित COP26 जलवायु शिखर सम्मेलन के बाहर प्रदर्शनकारी जलवायु कार्यकर्ताओं की रैली।(फोटो क्रेडिट: फ्रांसिस मैकी/फ़्लिकर).

स्कॉटलैंड के ग्लासगो में संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन COP26 के दौरान दो सप्ताह से अधिक समय तक चली बातचीत के बाद, लगभग 200 देशों के राजनयिक अंततः दो प्रमुख बिंदुओं : जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई को तेज करने और जोखिम वाले देशों को इससे निबटने में मदद करने पर सहमत हुए। 

विशेष रूप से, दुनिया के देशों की सरकारें 2022 में फिर से मिलने, 2030 तक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन को 45 फीसदी तक कम करने, और अधिक मजबूत योजनाओं के साथ, मीथेन गैस (जिसमें CO2 से भी अधिक ग्लोबल वार्मिंग करने की क्षमता है।) के उत्सर्जन को काफी हद तक कम करने और जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कम करने में गरीब देशों को लगभग दोगुनी सहायता देने पर सहमत हो गईं। इसमें खास बात रही दुनिया के देशों का कोयले से चलने वाली बिजली के उत्पादन स्तर में कटौती शुरू करने और अन्य जीवाश्म ईंधन पर दी जाने वाली सरकारी सब्सिडी को कम करने के लिए रजामंद होना। पहली बार एक COP के पाठ में कोयले और जीवाश्म ईंधन का उल्लेख किया गया। 

COP26 के मुख्य आयोजक आलोक शर्मा ने ग्लासगो क्लाइमेट पैक्ट को "एक नाज़ुक जीत" कहा। 

हालांकि उनके विपरीत, अमेरिकी जलवायु दूत जॉन केरी ने समझौते को अपूर्ण बताया और इसके बावजूद इसे उन्होंने अपना समर्थन दिया। केरी का कहना था, "आप सर्वोत्तम को अच्छे का दुश्मन नहीं बनने दे सकते, और यह अच्छा है। यह एक शक्तिशाली वक्तव्य है।” उन्होंने कहा, "हम संयुक्त राज्य अमेरिका में वास्तव में इस तथ्य से उत्साहित हैं कि यह सहमति वैश्विक स्तर पर महत्त्वाकांक्षा को बढ़ाती है।"

और जबकि इस समझौते को एक कदम आगे के समय का प्रतिनिधित्व करने वाला बताया जा रहा है, वहीं वैज्ञानिकों, जलवायु कार्यकर्ताओं और छोटे- गरीब देशों के प्रतिनिधियों ने इसकी चौतरफा आलोचनाएं की हैं। उनका कहना है कि ये लोग बड़े एवं अमीर लोगों की तुलना में बहुत जल्द ही जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को भुगतने वाले हैं।

सम्मेलन में मालदीव की पर्यावरण मंत्री शौना अमीनाथ ने COP26 की अंतिम परिणति की निंदा करते हुए कहा कि यह "तात्कालिकता और आवश्यकता के तकाजे के मुताबिक नहीं है।" मालदीव ने सहस्राब्दियों से जीवन और मानव सभ्यता का समर्थन किया है, लेकिन हिंद महासागर में निचले द्वीपों के 80 फीसद द्वीपसमूह ग्लोबल वार्मिंग के कारण समुद्र के बढ़ते जलस्तर के कारण 2050 तक निर्जन होने की ओर अग्रसर हैं। अमीनाथ ने कहा, "अन्य देशों एवं पक्षों को जो संतुलित और व्यावहारिक लगता है, वह मालदीव को समय के अनुकूल होने में मदद नहीं करेगा। मालदीव के लिए तब बहुत देर हो जाएगी।”

नीदरलैंड में वैगनिंगन विश्वविद्यालय के जलवायु नीति विशेषज्ञ निकलास होहने ने भी कहा कि "COP26 ने अंतर को कम कर दिया है, लेकिन इसने समस्या का समाधान नहीं किया है।" 

इस वार्षिक जलवायु बैठक के होने के बहुत पहले, यह वातावरण बन गया था कि हमने अपनी भावी पीढ़ियों के लिए रहने योग्य वातावरण को सुरक्षित करने के हमारे "अंतिम और सबसे अच्छे अवसर" को व्यर्थ गंवा दिया है। पर यह कैसे नहीं हो सकता? विश्व के 150 से अधिक देशों के नेता मानव जाति के समक्ष ग्लोबल वार्मिंग उत्सर्जन से उत्पन्न खतरे को कम करने के लिए एक चौथाई सदी से भी अधिक समय पहले शुरू हुए संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) के अंतर्गत बातचीत कर उसे दूर करने की कोशिश कर रहे हैं। इस चिंता को लेकर पहला शिखर सम्मेलन 1995 में आयोजित किया गया था, लेकिन तब से वैश्विक उत्सर्जन कम होने की बजाए आसमान छू गया है। 

शिखर सम्मेलन के मेजबान देश ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन-जो "1.5 डिग्री (ग्लोबल वार्मिंग का वांछित स्तर) को बनाए रखने" के मंत्र को लागू रखने वाले कार्यकर्ताओं में शामिल थे-वे अपने मेहमानों के विचारों से प्रभावित नहीं हुए। बोरिस ने G20 शिखर सम्मेलन (जो COP26 के दौरान ही रोम में आयोजित हुआ था) के दौरान कहा था कि क्रियान्वयन के बिना पूरी दुनिया के नेताओं की जलवायु बदलावों को थामने की प्रतिज्ञाएं "खोखली लगने लगीं हैं" और उनकी कमजोर प्रतिबद्धताएं "तेजी से गर्म हो रहे महासागरों में महज कुछ बूंदों" की मानिंद हैं। 

विज्ञान ने हमारे लिए एक समय सीमा निर्धारित कर दी है। ग्लोबल वार्मिंग को पूर्व-औद्योगिक दुनिया के स्तर 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने का जो लक्ष्य पेरिस समझौते द्वारा तय किया गया है, उस "शुद्ध-शून्य" उत्सर्जन (यानी, हम वातावरण में जितनी मात्रा में तापमान उत्सर्जित करते हैं, उसे भी हमें दूर कर देना चाहिए।) के लक्ष्य को हम मानव जाति को 2050 तक अवश्य प्राप्त कर लेना चाहिए।

लेकिन यह लक्ष्य हासिल करना बहुत ही असंभव लगता है। संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन और रूस जैसे बड़े प्रदूषणकारी देश न केवल जीवाश्म ईंधन को खतरनाक दर से जला रहे हैं बल्कि अधिक तेल के लिए ड्रिल भी जारी रखे हुए हैं। चीन जो दुनिया का सबसे बड़ा वार्मिंग उत्सर्जक है, वह विश्व की सकल मानवता द्वारा किए जाने वाले कुल तापमान उत्सर्जन के एक चौथाई से अधिक उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है। रूस ने तो शुद्ध-शून्य लक्ष्य पाने के अपने स्वयं के संकल्प की अवधि 2060 तक कर रखी है। भारत भी इसकी सीमा-अवधि को 2070 तक धकेल दिया है। यह भविष्य के नेताओं द्वारा जलवायु परिवर्तन के दबावों के निपटने के काम को प्रभावित कर सकता है। (ब्रिटेन की प्रख्यात पत्रिका दि इकोनॉमिस्ट द्वारा बनाए गए ग्राफिक पर सरसरी निगाह डालें जो उत्सर्जन में तेज और सीधी गिरावट दिखाता है,कि चीन द्वारा उत्सर्जित किए जा रहे ग्रीन हाउस गैस के परिमाण को देखते हुए उसे इसमें कटौती के लक्ष्य को अवश्य ही प्राप्त करना होगा। ग्राफिक यह भी दर्शाता है कि बिना यह किए जलवायु संकट के खिलाफ युद्ध जीतने की बात नादानी होगी।) 

अमेरिका में, एक विभाजित राष्ट्र ने एक गतिरोधी विधायिका को कठोर बना दिया है, जिसने खेल का रुख बदल देने वाले कई जलवायु कानूनों को पारित ही नहीं किया है। पर्यावरण संरक्षण के बहुत सारे काम कार्यपालिका द्वारा कराए जाते हैं, जैसे कि संघीय एजेंसियों द्वारा लगाए गए नियम, जिन्हें कोई अगला प्रशासन आसानी से पलट दे सकता है।

जब डेमोक्रेट व्हाइट हाउस में बैठा होता है, तो उसकी प्राथमिकता सूची में पर्यावरण संरक्षण अव्वल नंबर पर होता है, वहीं जब एक रिपब्लिकन व्हाइट हाउस में होता है, तो वह प्रदूषकों की रक्षा करने की अधिक सोचता है। अमेरिका में लोगों और पर्यावरण को जहरीले, ग्लोबल-वार्मिंग के प्रदूषण से बचाने, फ़ेंसलाइन समुदायों (जो अक्सर रंग और स्वदेशी समुदायों के लिहाज से गरीब समुदाय हैं।) की रक्षा करने वाले और प्रदूषकों को जवाबदेह ठहराने वाले आवश्यक रूप से मजबूत एक संघीय और राज्य जलवायु कानून का अभाव है।

शिखर सम्मेलन की सबसे चमकदार उपलब्धि में से एक 100  से अधिक देशों के बीच  $19 बिलियन का एक ऐतिहासिक समझौता रहा-जो दुनिया के लगभग 85% जंगलों के लिए उत्तरदायी हैं-वे सब 2030 तक वनों की कटाई को रोकने का प्रयास करने पर सहमत हुए हैं। जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने की लड़ाई में एक हरा-भरा वन का रहना महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि वे ही पूरी दुनिया में जीवाश्म ईंधन के दहन से होने वाले लगभग एक तिहाई कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को रोकने का काम करते हैं। 

लेकिन प्रेस को दिए एक बयान में, वाइल्डलाइफ़ कंज़र्वेशन सोसाइटी में वन और जलवायु परिवर्तन के कार्यकारी निदेशक डैन ज़रीन ने कहा कि ग्लासगो क्लाइमेट पैक्ट का "यह मतलब नहीं है कि दुनिया ने जलवायु संकट का हल कर लिया है।" उन्होंने बताया कि भले ही सभी भागीदार देशों द्वारा तापमान उत्सर्जन को कम करने की प्रतिज्ञा (जो "राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान" या "एनडीसी" के रूप में जानी जाती है) पूरी हो जाती है तो भी इससे दुनिया से 2030 तक उत्सर्जन में 45 फीसदी कमी लाने की जरूरत पूरी नहीं हो सकेगी, जो कि तापमान में वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए आवश्यक है। ग्लासगो जलवायु समझौते में, सभी देश अपने एनडीसी को वर्ष 2022 के अंत तक मजबूत करने के कोशिश पर सहमत हुए हैं।

शिखर सम्मेलन में भाग लेने वाले संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने वन समझौते की सराहना की, जिसका उद्देश्य 2030 तक जंगलों सहित लगभग 500 मिलियन एकड़ में फैले पारिस्थितिकी तंत्र को बहाल करना है। बाइडेन ने कहा, “हम यह सुनिश्चित करने के लिए काम करने जा रहे हैं कि बाजार प्राकृतिक कार्बन सिंक (एक प्राकृतिक या कृत्रिम भंडार है, जो अनिश्चित अवधि के लिए कुछ मात्रा में कार्बन-युक्त रासायनिक अवयवों का भंडारण करता है। कार्बन सिंक द्वारा कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) को निष्कासित करने की प्रक्रिया, कार्बन प्रच्छादन (carbon sequestration) के रूप में जानी जाती है, जिसके माध्यम से ग्रीनहाउस गैसों के संचय की गति को धीमी करने के लिए CO2 का वायुमंडल को उद्गहण कर दीर्घकालिक उसका भण्डारण किया जाता है। जैसे वनारोपण, कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज (CSS) के जरिए)  के वास्तविक आर्थिक मूल्य को पहचानें और सरकारों, जमींदारों और हितधारकों को पर्यावरण संरक्षण को प्राथमिकता देने के लिए प्रेरित करें।" उन्होंने आगे कहा कि यह योजना "प्राकृतिक वन की हानि करने से दुनिया को रोकने के हमारे साझा लक्ष्य को पूरा करने में मदद करेगी।" 

लेकिन कार्यकर्ता इसको लेकर कम उत्साहित थे। ग्लोबल फॉरेस्ट कोएलिशन के सुपर्ण लाहिरी ने कहा, "वन समझौता हमें यह विश्वास दिलाने के लिए बार-बार किए गए प्रयासों में से एक है कि वनों की कटाई को रोका जा सकता है और वनों को संरक्षित किया जा सकता है, जो कि स्वदेशी लोगों की भूमि और क्षेत्रों में अरबों डॉलर का निवेश कर संरक्षित किया जा सकता है।" लाहिरी का संगठन गैर सरकारी संगठनों एवं स्वदेशी लोगों के संगठनों का एक अंतरराष्ट्रीय गठबंधन है, जो वनवासी लोगों के वनों पर अधिकार की रक्षा करने का काम करता है। 

ग्लासगो पाठ में "स्वदेशी लोगों के अधिकारों के संदर्भ अपेक्षाकृत बहुत कमजोर हैं", जेनिफर टौली कॉर्पुज ने कहा, जो फिलीपींस में इगोरोट लोगों की एक वकील और निया टेरो में मुख्य नीति-निर्माण की अगुवा हैं, जो स्वदेशी लोगों का पैरोकारी करने वाला एक अ-लाभकारी समूह है। जनेफिर ने कहा, विशेष रूप से, "हमें COP26 की नई कार्बन योजना के कार्यान्वयन को करीब से देखना होगा।" उन्होंने उन नियमों के अंतिम रूप दिए जाने का उल्लेख किया जो अंतर्राष्ट्रीय कार्बन बाजार के निर्माण का प्रबंधन करेगा, और जो 2015 पेरिस जलवायु समझौते का एक हिस्सा था।

ग्लासगो क्लाइमेट पैक्ट के अंतिम पाठ में देशज लोगों के समुचित प्रतिनिधित्व में कमी के अलावा, गरीब द्वीप देशों पर लगे COVID-19 प्रतिबंधों के कारण वहां के निवासियों को भी बातचीत में कम प्रतिनिधित्व दिया गया जबकि ये लोग समुद्र के जलस्तर में वृद्धि के दुष्प्रभावों के लिहाज से अतिसंवेदनशील हैं। जलवायु परिवर्तन के लिहाज से संवेदनशील प्रशांत द्वीपीय के कुल 14 देशों में से सिर्फ तीन ही देश अपने प्रतिनिधि COP26 में भेज पाए थे, जबकि जीवाश्म ईंधन उद्योग चलाने वालों ने अपने 500 से अधिक प्रतिनिधि भेजे थे। 

अंततः, राष्ट्रों द्वारा की गई जलवायु संबंधी प्रतिज्ञाएं उन राष्ट्रों की जलवायु नीतियों से मेल नहीं खातीं और चूंकि ये प्रतिज्ञाएं गैर-बाध्यकारी हैं, इसलिए यह सुनिश्चित करने के लिए कोई कानूनी प्रोत्साहन-प्रावधान नहीं हैं कि उनकी वास्तविक नीतियां भी उनकी प्रतिज्ञाओं के अनुरूप हों। कोलोराडो-बोल्डर विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण कानून के विशेषज्ञ लक्ष्मण गुरुस्वामी ने कहा, "एनडीसी स्वैच्छिक उपाय हैं। गैर-बाध्यकारी समझौते को लागू करने, लागू करने या लागू करने का कोई तरीका नहीं है।" 

कोई दंड का प्रावधान नहीं, कोई कानूनी बाध्यताएं नहीं, कोई जलवायु न्यायालय नहीं, कोई जलवायु पुलिस नहीं। सभी लोगों का अपना नागरिक समाज है। अब यह हम पर निर्भर है कि हम "नियमित लोग" पर्यावरण के पक्ष में खड़े हों, बोलें और लोगों को लामबंद करें; खास कर युवा लोगों को जलवायु और पर्यावरण की देखभाल के लिए प्रेरित करें; और भविष्य के लिए हमारे पास मौजूद अंतिम लक्ष्यों के अनुरूप होने के लिए अपने स्वयं के व्यक्तिगत व्यवहारों पर पुनर्विचार करें और उनका पुनर्मूल्यांकन करें। 

जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए लड़ने वालों एवं निर्वाचित अधिकारियों दोनों की राजनीतिक इच्छाशक्ति दोनों के बिना कोई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन नहीं हो सकता है। अमेरिका में कई व्यस्त नागरिकों को यह एहसास नहीं है कि राष्ट्रपति चुनाव में हर चार साल में केवल एक बार मतदान में भाग लेना ही पर्याप्त नहीं है। वास्तविक परिवर्तन तब होता है, जब लोग अपने स्थानीय समुदायों में सक्रिय भूमिका निभाते हैं। यह बदलाव अपने घर से शुरू होता है, हमारे परिवारों, हमारे दोस्तों और हमारे पड़ोसियों के साथ। 

यह समझने में कोई गलती न करें कि: उपभोक्ताओं के रूप में हमारे व्यक्तिगत निर्णय वैश्विक जलवायु की स्थिति में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। कोलंबिया क्लाइमेट स्कूल के एक स्टाफ राइटर रेनी चो लिखते हैं, "जबकि एक्सॉनमोबिल, शेल, बीपी और शेवरॉन जैसी बड़ी तेल कंपनियां की सबसे बड़ी ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जक हैं, इसमें हम उपभोक्ताओं की भी मिलीभगत हैं।" उन्होंने आगे लिखा, “हम उनके द्वारा जीवाश्म ईंधन से बनाए गए उत्पादों और ऊर्जा की मांग करते हैं। एक वैज्ञानिक ने अपने शोध में पाया कि जीवाश्म ईंधन कंपनियों का 90 फीसद तापमान उत्सर्जन जीवाश्म ईंधन से बने उत्पादों का परिणाम है।" 

दुर्भाग्य से, हाल के एक सर्वेक्षण के अनुसार, भले ही अधिकांश लोगों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन एक गंभीर मुद्दा है, उनमें से थोड़े ही लोग पर्यावरण को बचाने में मदद करने के लिए वास्तव में अपनी जीवन शैली को बदलने के इच्छुक हैं। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी सहित 10 देशों में हुए इस सर्वेक्षण के अनुसार, "नागरिक निस्संदेह पृथ्वी ग्रह की इस स्थिति से चिंतित हैं, लेकिन सर्वेक्षण के मिले निष्कर्ष धरती को संरक्षित करने के प्रति उनकी प्रतिबद्धता के स्तर के बारे में एक संदेह पैदा करते हैं।" 

"नागरिकों को अपनी आदतों में बदलाव लाने की इच्छा करने की बजाय, उनकी ज्यादा चिंता, विशेष रूप से सरकारों के प्रयासों के नकारात्मक मूल्यांकन पर रहती है।...इस अध्ययन ने जलवायु संकट की गंभीरता को लेकर व्यापक जन जागरूकता के महत्त्व को दर्शाया है पर उसे इस दिशा में कार्य करने की आनुपातिक इच्छा के साथ जोड़ा जाना बाकी है।" 

यहां तक कि अगर उपभोक्ता अपने व्यवहार को अधिक जलवायु-अनुकूल बनाने के लिए अपने में बदलाव लाने के लिए तैयार हो जाते हैं, तो भी वे इस बात को जरूर नहीं जानते हैं कि उन परिवर्तनों को कैसे किया जाए। 

जॉन थॉगर्सन, आर्फस विश्वविद्यालय के एक आर्थिक मनोवैज्ञानिक, जर्नल बिहेवियरल साइंसेज में लिखते हैं "व्यक्तिगत उपभोक्ता व्यवहार परिवर्तनों की पहचान करने में सक्षम नहीं हैं, जो वास्तव में बेहतर जलवायु बनाए रखने में मदद के योग्य हैं।” 

कांतार पब्लिक में अंतरराष्ट्रीय मतदान के निदेशक इमैनुएल रिविएर, जिसने सीओपी26 के साथ मेल खाने के लिए 10 देशों का सर्वेक्षण चलाया, ने कहा कि इस सर्वेक्षण के परिणामों में दुनिया के "सरकारों के लिए एक दोहरा सबक" निहित है। 

सबसे पहले, उन्हें "लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरना चाहिए...लेकिन उन्हें लोगों को जलवायु संकट की वास्तविकता के बारे में ही नहीं समझाना होगा-यह काम हो चुका है-बल्कि उन्हें यह बताना होगा कि इस संकट के समाधान क्या हैं, और हम उनके लिए अपनी जिम्मेदारी कैसे साझा कर सकते हैं।”

रेनार्ड लोकी इंडिपेंडेंट मीडिया इंस्टीट्यूट में राइटिंग फेलो हैं, जहां वे पृथ्वी. भोजन. जीवन के संपादक और मुख्य संवाददाता के रूप में काम करते हैं। 

यह लेख Earth। Food। Life द्वारा प्रकाशित किया गया था, जो एक स्वतंत्र मीडिया संस्थान की एक परियोजना है। 

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें। 

COP26: Climate Pledges Don’t Match up With Policies or Consumer Behaviour

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