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गुजरात चुनाव : क्या सालों से पीड़ित सौराष्ट्र के किसान करेंगे बीजेपी को सत्ता से बाहर?

अगर बीजेपी को राज्य की सत्ता को बरक़रार रहना है, तो उसे दक्षिण गुजरात और सौराष्ट्र इलाक़ों में 89 सीटों को जीतना होगा, जहां आदिवासियों, पाटीदारों और अन्य कृषक समुदायों का वर्चस्व है।
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सुरेंद्रनगर, राजकोट, भावनगर, अमरेली (गुजरात): सौराष्ट्र क्षेत्र के कपास के खेत बंजर और गर्मी से झुलसी भूमि की एक बेजान तस्वीर पेश करते हैं। अब गर्म और धधकते सूरज ने सुहावने मौसम की जगह ले ली है, जो मौसम आम तौर पर नवंबर के महीने में रहता है। अधिकांश किसानों ने कपास की फसल काट ली है। भूमि के छिटपुट टुकड़ों पर बची हुई कपास की गांठों को अभी भी निकाला जाना बाकी है। इस चुनावी मौसम में किसानों को परेशान करने वाला एक बड़ा सवाल यह है कि क्या वे अगले साल इस नकदी फसल को उगा पाएंगे या नहीं।

सौराष्ट्र, गुजरात का एक महत्वपूर्ण कृषि का इलाका है और इसमें सुरेंद्रनगर, राजकोट, पोरबंदर, जामनगर, जूनागढ़, अमरेली और भावनगर जैसे कई जिले शामिल हैं। राज्य की लगभग दो-तिहाई आबादी कृषि के काम में लगी हुई है।

केसरपार गांव के रहने वाले और कई अन्य तालुकों के लोगों का कहना है कि, "हमें साल भर सिंचाई के लिए बिना रुकावट के पानी की आपूर्ति का आश्वासन दिया जाता है, लेकिन यह पिछले 27 वर्षों से एक चुनावी नौटंकी बन गया है।" जिले (जिला अनुमंडलों) में पीने का पानी तक नहीं है; सिंचाई के लिए पानी की तो बात ही छोड़िए।

इन तालुकों – जिन्हे सूचीबद्ध किया गया है - में सायला, चुडा, चोटिला, थानगढ़ और मूली शामिल हैं। घरेलू इस्तेमाल और मवेशियों के लिए पानी की आपूर्ति राज्य सरकार द्वारा नलों के माध्यम से की जाती है। जब नल का पानी सूख जाता है, तो निवासियों को पानी लाने के लिए कई किलोमीटर दूर जाना पड़ता है।

पानी की कमी वाले सौराष्ट्र में बांधों और जलाशयों में नर्मदा का 4,000 मिलियन क्यूबिक फीट पानी कहां जाता है?

इस सवाल का जवाब सायला के शापर गांव के रहने वाले नवीनभाई ठकोर देते हैं।

उन्होंने न्यूज़क्लिक से बात करते हुए कहा कि, “केवल सुरेंद्रनगर में निंभनी, सबुरी, फल्कू और वडोद बांधों के पास के गांवों (जैसे वाधवान, लिंबडी, ध्रांगधरा, आदि) को कृषि के काम के लिए पानी मिलता है, हालांकि आपूर्ति बहुत कम है। ये बांध जिले में नहरों, झीलों और तालाबों में पानी तभी छोड़ते हैं जब बारिश होती है और जलाशय ओवरफ्लो होने लगते हैं।" 

उन्होंने कहा, अधिकतर गांव नहरों के ऊपर की तरफ स्थित हैं और लिफ्ट सिंचाई की जरूरत है - जो महंगी प्रक्रिया है और इससे पहले से बढ़ी हुई उत्पादन लागत में और बढ़ोतरी होगी। 

उन्होंने कहा, "इसलिए, किसानों के पास कृषि के काम के लिए बारिश पर निर्भर रहने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है।"

वर्षों से, इस क्षेत्र के किसानों ने, सौराष्ट्र नर्मदा इरिगेशन सिंचाई (SAUNI) योजना के तहत पानी हासिल करने के लिए, पानी की भूख वाले गांवों में तालाबों को पास की नहरों और छोटी नदियों से जोड़ने से लेकर कई योजनाओं के बारे में सुना है। लेकिन उन्हें इनमें से किसी का भी फायदा नहीं हुआ है।

इस योजना का उद्देश्य नर्मदा के अतिरिक्त जल को सौराष्ट्र के 11 जिलों के 115 जलाशयों में 1,126 किलोमीटर लंबी चार-लिंक पाइपलाइनों के माध्यम से मोड़ना है, जिससे कुल 10,22,589 एकड़ भूमि लाभान्वित होगी। लेकिन सौराष्ट्र के किसानों ने कहा कि यह योजना अब तक विफल साबित हुई है। इसलिए, प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है। नर्मदा का पानी कहां जाता है?

“घरेलू इस्तेमाल और सिंचाई के लिए अतिरिक्त पानी को दक्षिण गुजरात से सौराष्ट्र की ओर मोड़ दिया जाता है। लेकिन इसे कच्छ, अमरेली और क्षेत्र के कुछ अन्य तटीय जिलों के उद्योगों में भेजा जाता है। सायला के जसापर गांव के निवासी कटोसना घुघाभाई जगमाहभाई ने गुस्से में आरोप लगाया कि, सौराष्ट्र क्षेत्र के 11 जिलों के 115 जलाशयों में नर्मदा के पानी को मोड़ने से यहां कोई प्रभाव नहीं पड़ा है।”  

सौराष्ट्र में सिंचाई के लिए पानी की कमी तीव्र कृषि संकट का एक प्रमुख कारण है। किसान एक वर्ष में एक से अधिक फसल नहीं उगा पाते हैं। और वो भी बारिश पर निर्भर है। कपास या मूंगफली - दोनों खरीफ फसलें - मानसून शुरू होने से पहले मई-जून में लगाई जाती हैं और सितंबर या अक्टूबर में काटी जाती हैं। देर से बुआई करने वाले नवंबर तक फसल काटते  हैं।

अगर भारी बारिश होती है, तो बांध भर जाता है और भूजल को रिचार्ज होता है। इसके परिणामस्वरूप गेहूँ, बाजरा (बाजरा), चना, जीरा, सोयाबीन (खाद्य फलियाँ) और अरंडी भी उगाई जाती है। मिट्टी की उर्वरता बनाए रखने के उद्देश्य से किसान अपनी फसलों को कपास और मूंगफली के बीच घुमाते रहते हैं।

किसानों ने कहा, "यहां तक कि अगर 100 मिमी बारिश होती है, तो इससे हमें लाभ होता है क्योंकि तालाब, झीलें और नदियां बांधों से मिल जाती हैं।"

जब वर्षा कम होती है, तो फसल नष्ट हो जाती है या उपज कम होती है, जिसके परिणामस्वरूप कर्ज का अंबार लग जाता है। पानी की लगातार कमी ने किसानों को मजदूरी कमाने वालों तक सीमित कर दिया है और इसलिए धरती से अधिक पानी निकालना मजबूरी बन जाता है।

चूंकि दिसंबर में 182 सदस्यीय गुजरात विधानसभा के 89 निर्वाचन क्षेत्रों में चुनाव होने हैं, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी), कांग्रेस और आम आदमी पार्टी (आप) से जुड़े राजनेता करोड़ों खर्च कर जिलों, तालुकों और गांवों में जा रहे हैं। वे रैलियों पर करोड़ो रुपये खर्च कर रहे हैं और बड़े-बड़े दावे कर रहे हैं। लेकिन किसान अपनी समस्याओं के समाधान का इंतजार कर रहे हैं – जिनका अभी तक कोई फायदा नहीं हुआ है।

सुरेंद्रनगर के वांता वछ गांव के किसान जावेरभाई ने सवाल उठाया कि, "कोई भी हमारी समस्याओं का जवाब नहीं देता है। वाडा प्रधान (प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी) ने एक जनसभा को संबोधित करते हुए (21 नवंबर को राजकोट के धोराजी शहर में) सरदार सरोवर बांध परियोजना को 30 साल तक रोकने के लिए कांग्रेस की आलोचना की। उन्होंने यह नहीं बताया कि सौराष्ट्र के एक बड़े हिस्से को पानी क्यों नहीं मिलता है, जबकि बांध को चालू है। भाजपा पिछले 27 वर्षों से राज्य पर शासन कर रही है, और वह पिछले आठ वर्षों से केंद्र में है।”

कुछ दिनों पहले महाराष्ट्र में 'भारत जोड़ो यात्रा' में राहुल गांधी के साथ शामिल हुईं 'नर्मदा बचाओ आंदोलन' की कार्यकर्ता मेधा पाटकर का जिक्र करते हुए मोदी ने कहा था, 'आपने अखबारों में एक महिला के साथ एक कांग्रेसी नेता की तस्वीर देखी होगी। तीन दशकों तक इन्होने नर्मदा बांध परियोजना को ठप कर दिया था। पदयात्रा के दौरान नेता का हाथ महिला के कंधे पर था। इसलिए कांग्रेस नेता से पूछिए कि वह नर्मदा विरोधी कार्यकर्ता के साथ क्यों चल रहे थे।'

प्रधानमंत्री लोगों की चिंताओं के बारे में बात करने के बजाय कांग्रेस पर हमला करते दिख रहे हैं। उन्होंने विपक्ष को "राजसी परिवार" की पार्टी के रूप में वर्णित करते हुए सौराष्ट्र से लेकर भरूच तक राज्य का वर्णन किया और खुद को एक "साधारण परिवार" से बताया।

भावनगर के हरिभाई भारवाड़ ने आरोप लगाया कि, "नेताओं द्वारा किए गए बड़े-बड़े दावे कभी भी परिणाम में तब्दील नहीं होते हैं।"

“हमें पिछले तीन वर्षों से सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी नहीं मिला है, जबकि यह उद्योगों के लिए उपलब्ध था। मानसून के दो-तीन महीने बाद हमें सिंचाई के लिए पानी मिल ही जाता है। इसलिए कपास और मूंगफली उगाकर हमें अपने खेतों को खाली छोड़ना पड़ता है। 

उन्होंने कहा कि उपज अधिक होने पर भी किसानों को बाजार से मुनाफे के दाम नहीं मिलते हैं।

अमरेली जिले के लाठी गांव के निवासी 65 वर्षीय वेलजीभाई पटेल कहते हैं कि कृषि उपज बाजार समितियों (एपीएमसी) में कपास की कीमत 8,850 रुपये से 9,500 रुपये प्रति क्विंटल के बीच है।

“इस वर्ष इसमें सुधार हुआ है क्योंकि 2021-22 के पिछले विपणन वर्ष की तुलना में उत्पादन कम है। सरकार ने विपणन वर्ष 2022-23 के लिए खरीफ फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि की है। पिछले साल यह 1,000-1,100 रुपये के बीच था।

जिनके पास बड़ी जोतें हैं और जिनके पास घर में भंडारण की सुविधा है, उन्हें थोड़ी बेहतर कीमत मिलती है क्योंकि वे खरीद के अंत में बेचने का इंतजार कर सकते हैं।

उन्होंने समझाया कि, “लेकिन छोटे किसान यह सान बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं। फसल काटने के तुरंत बाद उन्हें पैसे की जरूरत होती है। उन्हें अगले सीजन के लिए और अन्य खर्चों के लिए नया कर्ज लेने के लिए अपना पिछला कर्ज चुकाना होता है। इसके अलावा उनके पास भंडारण की पर्याप्त जगह नहीं है। एक बार जब वे ट्रैक्टर ट्रॉलियों में कपास को मंडी ले जाते हैं, तो उनके पास इसे व्यापारियों के मांगे दाम पर बेचने के अलावा और कोई चारा नहीं होता है क्योंकि परिवहन में भी अच्छी मात्रा में पैसा खर्च होता है। 

हैरानी की बात यह है कि कपास का एमएसपी यानि मध्यम स्टेपल के लिए बढ़कर 6080 रुपये प्रति क्विंटल हो गया है और लंबे स्टेपल कपास के लिए 6380 रुपये प्रति क्विंटल है।

सुरेंद्रनगर के चोटिला में एपीएमसी के एक व्यापारी महेशभाई का कहना है कि अगर कोई अपने परिवार के बाहर के मजदूरों को इस्तेमाल नहीं करता है तो वह इस कीमत पर अपना कपास बेचकर 10-20 प्रतिशत लाभ कमा सकता है।

उनके अनुसार, खाद्य बीन की खरीद 5,250-5,500 रुपये प्रति 100 किलोग्राम के बीच की कीमत पर की जा रही है, जबकि इतनी ही मात्रा के लिए सरकारी दर 4,405 रुपये है। "यह थोड़ा लाभदायक है क्योंकि इसमें उत्पादन लागत कम होती है।" 

चने का भाव 4250 से 4500 रुपये प्रति क्विंटल के बीच है, जबकि मूंगफली 5500 से 6500 रुपये प्रति क्विंटल पर खरीदी जा रही है।

एक अन्य व्यापारी, जयराजभाई छोटिला ने कहा कि, “किसानों को इतना कम मिलता है जिससे वे किसी तरह गुज़ारा कर सकते हैं। सरल शब्दों में कहा जाए तो वे अपने खर्चे ही चला पाते हैं। लाभ मार्जिन इतना कम है कि उन्हे जेपी धन मिलता है उससे कुछ अलग नहीं कर सकते हैं।” 

स्थायी कर्ज़ का जाल

सौराष्ट्र क्षेत्र में एक प्रसिद्ध कहावत है: "एक किसान हमेशा कर्ज़ में रहता है। वह कर्ज में पैदा होता है और कर्ज में मर जाता है। अनोखी बात यह है वह अपने जीवन में इस कर्ज का प्रबंधन कैसे करता है।

वे निजी साहूकारों का कर्ज़ चुकाने और इस चक्र को उलटने के लिए बैंकों से उधार लेते हैं। गुजरात में सहकारी बैंक एक वर्ष के लिए किसानों को कर्ज़ पर 7 प्रतिशत का ब्याज लेते हैं। राज्य और केंद्र सरकारें सहता के तौर पर क्रमशः 2 प्रतिशत और 8 प्रतिशत का ब्याज लेती हैं। 

बड़ी उपज किसानों को समय पर कर्ज चुकाने में मदद करती है। जबकि फसल से कम आय बैंकों से ली गई राशि को वापस करने के लिए निजी साहूकारों से कर्ज़ लेना पड़ता है। निजी साहूकार उनसे उधार ली गई राशि पर प्रति माह 8 प्रतिशत का ब्याज लेते हैं।

वे अपने क्रेडिट स्कोर को दुरुस्त रखने के लिए बैंकों को तय समय में कर्ज़ चुकाने की कोशिश करते हैं ताकि उन्हें अगले सीजन के लिए बिना किसी रुकावट के दूसरा कर्ज मिल सके।  पहले भुगतान के दस दिन बाद, वे एक बार फिर साहूकारों को चुकाने के लिए उधार लेते हैं। और यह सिलसिला चलता रहता है।

इस साल अगस्त में संसद में सरकार द्वारा पेश किए गए आंकड़ों के अनुसार, किसानों पर कर्ज का बोझ नाटकीय रूप से 2019-20 में 73,228.67 करोड़ रुपये से बढ़कर 2021-22 में 96,963.07 करोड़ रुपये हो गया है - बढ़ती इनपुट लागत के कारण (चाहे बीज, उर्वरक, कीटनाशक, डीजल की कोई भी दर हो)।

केंद्रीय कृषि मंत्रालय द्वारा पेश किए गए आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि पिछले दो वर्षों में कृषि के लिए उधार के आकार में भी 45 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। तिमाही के दौरान प्रति खाता कृषि ऋण 1.71 लाख रुपये से बढ़कर 2.48 लाख रुपये हो गया है।

ताकतों का समीकरण

राज्य चुनाव का पहला चरण भाजपा के लिए अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह सौराष्ट्र और दक्षिण गुजरात के कांग्रेस के गढ़ों में होगा। दूसरा चरण 5 दिसंबर को होना है।

अगर बीजेपी को राज्य में सत्ता बरकरार रखनी है, तो उसे दक्षिण गुजरात और सौराष्ट्र क्षेत्रों में 89 सीटों पर जीत हासिल करनी होगी, जहां आदिवासियों, पाटीदारों और अन्य कृषक समुदायों का वर्चस्व है।

सौराष्ट्र क्षेत्र के 48 निर्वाचन क्षेत्रों में एक लड़ाई कांटे की हो सकती है, जहां कांग्रेस ने 2017 के चुनाव में 28 सीटें जीतीं थी, यह सब किसानों और व्यापारियों के बीच असंतोष की लहर और पाटीदारों द्वारा कोटा आंदोलन से हुआ था। 

आम आदमी पार्टी उम्मीद कर रही है कि बेहतर गवर्नेंस डिलीवरी के उसके वादे से उसे समर्थन हासिल करने में मदद मिलेगी, खासकर अर्ध-शहरी और ग्रामीण सीटों पर। अगर अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली पार्टी ग्रामीण क्षेत्रों में अच्छा प्रदर्शन करती है, तो इससे कांग्रेस की संभावनाओं पर भारी असर पड़ने की संभावना है। और अगर यह शहरी वोट आधार में सेंध लगाती है, तो भाजपा को इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा।

गुजरात चुनाव के नतीजे 8 दिसंबर को हिमाचल प्रदेश के नतीजों के साथ घोषित किए जाएंगे।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित रिपोर्ट को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

Gujarat Polls: Hit by Water Crisis, High Inflation, and Low Income, Will Saurashtra Farmers Oust BJP?

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