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स्पेशल रिपोर्ट: पहाड़ी बोंडा; ज़िंदगी और पहचान का द्वंद्व

पहाड़ी बोंडाओं की संस्कृति, भाषा और पहचान को बचाने की चिंता में डूबे लोगों को इतिहास और अनुभव से सीखने की ज़रूरत है। भाषा वही बचती है जिसे बोलने वाले लोग बचते हैं। यह बेहद ज़रूरी है कि अगर पहाड़ी बोंडा संस्कृति और भाषा बोली को बचाना है तो सबसे पहले यह समझा जाए कि इस समुदाय के लोगों को कैसे बचाया जाए।
bonda tribe

ओडिशा के मलकानगिरी ज़िले में एक बार फिर पहाड़ी बोंडा (Upper Bonda) आदिवासियों से मुलाक़ात हुई। इन आदिवासियों से यह मेरी दूसरी मुलाक़ात थी। पहली मुलाक़ात 2017 यानि क़रीब 5 साल पहले हुई थी। ज़ाहिर है इस बार जब हम बोंडा घाटी के लिए निकले तो वहाँ के माहौल का हमें कुछ अंदाज़ा था। मसलन हम जानते थे कि अगर हम पहाड़ी बोंडा औरतों की फ़ोटो उतारेंगे तो आपसे पैसे की माँग की जाएगी। इसके अलावा जब आप बोंडा गाँव में जाते हैं और वहाँ औरतों से बात करते हैं, तो भी आपसे पैसे की माँग हो सकती है। ख़ैरपुट के हाट और बोंडा गाँवों में जैसे ही आप परंपरागत वेशभूषा में नज़र आने वाली औरतों की तस्वीर लेते हैं या फिर उनसे बातचीत करते हैं तो आस-पास के मर्द तुरंत उन्हें पैसा माँगने के लिए उकसाते हैं। बाज़ार में कई बार स्थानीय लोगों में से कई अचानक आपको घेर लेते हैं और धमकाने के अंदाज़ में सवाल जवाब करते हैं।

इस तरह के लोग सबसे पहले आक्रमक अंदाज़ में आपको बताते हैं कि इन आदिवासियों की तस्वीर उतारने पर पाबंदी है। वो आपका कैमरा चेक कराने को कहते हैं। जब आप उन्हें बताते हैं कि ऐसी कोई क़ानूनी पाबंदी नहीं है। भारतीय पत्रकारों या नागरिकों के लिए तो बिलकुल भी नहीं है। हाँ स्थानीय प्रशासन ने विदेशी नागरिकों पर बोंडा घाटी में बिना अनुमति के जाने पर पाबंदी ज़रूर लगाई है। जब आप उनके क़ाबू में नहीं आते हैं तो फिर वो बोंडा औरतों को पैसा वसूलने के लिए उकसाते हैं। वो बोंडा औरतों को कहते हैं कि हमारे जैसे पत्रकार उनकी फ़ोटो बेचकर लाखों रूपया कमाते हैं।

दरअसल ये पूरी थ्योरी स्थानीय प्रशासन ने इस इलाके के लोगों में बढ़ाई है। इसकी वजह बिलकुल साफ़ है कि ओडिशा की इस आदिम जनजाति के मसले के राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय मीडिया में आने से उनके चैन में ख़लल पड़ता है। इन आदिवासियों से जुड़ी ख़बरें छपती हैं तो प्रशासन को कई तरह के मुश्किल सवालों के जवाब तलाशने पड़ते हैं। 

खैरपुट का बाज़ार और आइसोलेशन थ्योरी

बोंडा घाटी जाने के लिए मलकानगिरी के ख़ैरपुट से होते हुए जाना पड़ता है। हम लोग सुबह सुबह ही बोंडा घाटी के लिए निकल पड़े थे। मलकानगिरी से अपने दोस्त परजा माझी को हमने साथ ले लिया था। परजा माझी यहां के आदिवासी समुदायों को समझते भी हैं और उनकी भाषा भी बोल लेते हैं। हम जिस दिन पहाड़ी बोंडाओ से मिलने निकले इत्तेफ़ाक से वो ख़ैरपुट में साप्ताहिक हाट का दिन था। शनिवार को ख़ैरपुट क़स्बे के पास ही गोविंदपल्ली नाम के गाँव में एक बड़ा हाट लगता है।

बोंडा रिहाइश वाले पहाड़ों की तलहटी (foothills) में बसे इस गाँव के साप्ताहिक बाज़ार में पहाड़ी बोंडा भी पहुँचते हैं। इनमें वो बोंडा औरतें भी शामिल होती हैं जो अभी भी परंपरागत वेशभूषा में होती हैं। सुबह दस बजे बाज़ार अपने पूरे शबाब पर था। बाज़ार पर नज़र घुमाई तो कई बोंडा औरतें नज़र आईं। इनमें से एक औरत कुलथी दाल (horse gram) लेकर बैठी थीं। यही कोई दो किलो दाल रही होगी, मैं बात करने की मंशा से उसके पास पहुंच गया। वो मुझसे सहजता से बात कर रही थीं, मेरा कैमरामैन साथी थोड़ी दूर से इस बातचीत को शूट कर रहा था। तभी बराबर से गुज़र रहे एक आदमी ने उसे उकसाते हुए बता दिया कि मेरा साथी उसका फोटो ले रहा है। उसकी पूरी बात मेरी समझ में नहीं आई लेकिन उसने अपनी बात में ‘डाबो’ शब्द का इस्तेमाल किया तो मैं समझ गया कि वो औरत को कह रहा है कि वो मुझसे पैसे मांगे। लेकिन परजा माझी ने मामले को संभाल लिया।

उसके बाद इस बोंडा औरत से काफ़ी देर तक बात होती रही। उन्होंने बताया कि बोंडा औरतें हर सप्ताह इस बाज़ार में आती हैं। इनमें से ज़्यादातर औरतें कच्ची शराब, ताड़ी और झाड़ू बेचने यहाँ पहुँचती हैं। कभी कभी ये औरतें कुलथी दाल, सुवा, रागी जैसी चीज़ें भी बेचती हैं। लेकिन इन चीजों की मात्रा बहुत कम होती है। आमतौर पर यह मात्रा 5-10 किलो के बीच ही रहती है। ये चीज़ें बेच कर पहाड़ी बोंडा औरतें घर-परिवार की ज़रूरत की चीजें ख़रीदती हैं। सुनकु दंगड़ामाझी नाम की इस औरत से बातचीत करने के बाद हम लोग बाज़ार के बाहर की तरफ़ बढ़े। पहाड़ की तरफ़ से उतरने वाले रास्ते के पास (मुख्य बाज़ार से थोड़ी दूर) बोंडा औरतें बड़े बड़े पतीलों में कच्ची शराब और ताड़ी बेच रही थीं। बोंडा महिलाओं के काम में शराब बनाना एक ज़रूरी ज़िम्मेदारी है।

कच्ची शराब आमतौर पर महुआ से ही बनाई जाती है। लेकिन महुआ की कमी हो जाती है तो रागी या फिर आम से भी शराब बनाई जाती है। बोंडा औरतें इस बाज़ार से जो भी 100-200 रूपया कमाती हैं उसमें से लगभग पूरा पैसा इसी बाज़ार में ख़र्च करके लौटती हैं। आमतौर पर ये औरतें हल्दी, मिर्च या नमक जैसी चीज़ें ख़रीदती हैं, इसके अलावा बर्तन या फिर बच्चों के कपड़े पर इनका पैसा ख़र्च होता है।

इस बाज़ार में पहुँचे बोंडा मर्दों में से ज़्यादातर यहाँ घूमने के मक़सद से ही पहुँचते हैं। इनमें से कुछ मर्द देसी मुर्ग़ा बग़ल में दबाए सौदेबाज़ी करते ज़रूर दिखाई देते हैं। इस बाज़ार में पहाड़ी बोंडाओं की मौजूदगी संख्या के हिसाब से बेशक काफ़ी कम है। इसके अलावा इस बाज़ार में इस आदिम जनजाति के लोगों की मौजूदगी को थोड़ा बारीकी से देखेंगे तो कुछ और बातें समझ में आती हैं। मसलन वो बाकी लोगों की तुलना में आपको बहुत कम बोलते या बातचीत करते दिखाई देते हैं। बाज़ार में मौजूद बाक़ी लोग भी इन आदिवासियों से बहुत घुलते मिलते या बातचीत करते नज़र नहीं आते हैं। शायद यही कारण भी है कि इन आदिवासियों के बारे में उनके इतने नज़दीक रहने वाले भी उतना ही कम जानते हैं जितना उनसे कहीं दूर बसे लोग जानते होंगे।

इस दुराव या मेलजोल में खिंचाव के बावजूद मुझे लगता है कि बोंडा आदिवासियों की इस बाज़ार में मौजूदगी एक बड़ी बात है। बल्कि यह एक बेहद महत्वपूर्ण तथ्य है जिसे नोटिस किया जाना बेहद ज़रूरी है। क्योंकि यह मौजूदगी पहाड़ी बोंडाओं के बारे में कई आम धारणाओं (popular perception) को तोड़ती है। पहली धारणा ये टूटती है कि दुर्गम पहाड़ियों में रहने वाले पहाड़ी बोंडा बाहरी दुनिया से कोई संपर्क नहीं रखना चाहते हैं। इन आदिवासियों से जुड़ी ख़बरों और शोधपत्रों में बार-बार यह कहा जाता है कि ये आदिवासी आधुनिक दुनिया से कटे हुए हैं। अक्सर यह भी समझाया जाता है कि यह इन आदिवासियों का अपना फ़ैसला है और इसका सम्मान किया जाना चाहिए।

लेकिन वक़्त के साथ हालात काफ़ी बदल चुके हैं जिसे समझना और मान लेना बेहद ज़रूरी है। मेरी नज़र में यह तथ्य एंथ्रोपोलॉजिकल या सामाजिक शास्त्र के नज़रिए से एक महत्वपूर्ण तथ्य है। लेकिन उससे भी ज़रूरी है कि इन आदिवासियों के से जुड़ी नीतियां बनाने वाले इस बात को समझें कि अब पहाड़ी बोंडा भी पूरी तरह से ना तो अलग थलग हैं और ना ही शायद रहना भी चाहते हैं।

भाषा, संस्कृति और पहचान और जीने का सवाल

ख़ैरपुट हाट से हम लोग मुदलीपड़ा के लिए निकल गए, मुदलीपड़ा ख़ैरपुट से क़रीब 14 किलोमीटर दूर एक पहाड़ी चोटी पर बसा है, यह बोंडा घाटी का सबसे बड़ा पंचायत क्षेत्र भी है। इस पंचायत क्षेत्र में कुल 21 गाँव पड़ते हैं। मुदलीपड़ा एक तरह से बोंडा घाटी का प्रशासनिक हेडक्वार्टर भी है। पहाड़ में घुमावदार सड़क से होते हुए हम क़रीब शाम 4 बजे मुदलीपड़ा पहुँच गए। हम लोगों ने अपनी गाड़ी बोंडा डेवलपमेंट एजेंसी के ऑफिस के सामने ही रोक दी। गाड़ी से उतर कर हम इस दफ़्तर में चले गए, यह जानते हुए कि यहाँ चपरासी के अलावा ही शायद कोई अधिकारी मिले। वही हुआ भी, चपरासी ने हमें बताया कि साहब यानी प्रॉजेक्ट आफ़िसर फ़ील्ड में गए हैं। अफ़सर का इंतज़ार फ़िज़ूल समझ कर हम लोग पास के ही बोंडगुड़ा नाम के एक गाँव की तरफ़ चल पड़े।

मुदलीपड़ा में पिछले 5 साल में रत्तीभर भी फ़र्क़ आया हो ऐसा लगा नहीं। बहरहाल हम टहलते हुए बोंडगुड़ा गाँव में पहुँच गए। हमें इस गाँव में देख कर लोगों में कोई बहुत हैरानी या उत्साह का भाव नहीं था। गाँव में टहलते हुए गणेश दंगडामाझी नाम के एक लड़के से मुलाक़ात हो गई। गणेश भुवनेश्वर के एक हॉस्टल में रह कर पढ़ रहा है। वह ओडिया और हिन्दी में भी बात करता है, गणेश लोगों से बातचीत करने में हमारी मदद करने के लिए तैयार हो गया।

गणेश से हमने बातों ही बातों में पूछा कि अब आपके गाँव में सब लड़के क़मीज़ पेंट या टी शर्ट पहनते हैं, उन्होंने हाँ में जवाब दिया। उन्होंने बताया कि अभी भी कुछ बुजुर्ग आपको सिर्फ़ एक लंगोट में मिल जाएँगे। लेकिन नई पीढ़ी के लोग अब आपकी तरह ही कपड़े पहनते हैं। हाल ही में बोंडा आदिवासियों पर ओडिशा सरकार की तरफ़ से पहाड़ी बोंडाओं पर एक रिव्यू रिपोर्ट पढ़ी थी। उस रिपोर्ट को तैयार करने वाले ने लिखा था कि अफ़सोस कि अब बोंडा महिलाओं ने रिंगा बुनना बंद कर दिया है। वो यह भी लिखते हैं कि बोंडा महिलाओं को उनके पारंपरिक पोशाक में देखने की उनकी तमन्ना अधूरी ही रह गई।

एक वक़्त में बोड़ा महिलाओं के शरीर पर रिंगा ही एक मात्र कपड़ा होता था जो वो कमर से बांधती थीं।

गणेश से बात करते हुए यह बात मुझे ध्यान आ गई। मैंने उनसे यह बात पूछ भी दी। उन्होंने कहा ऐसा तो नहीं है, कि पूरी तरह से ख़त्म हो गया है। लेकिन अब बोंडा औरतें साड़ी ब्लाउज़ या फिर नाइटी पहनती हैं। गणेश इस बात को साबित करने पर तुल गए थे। वो हमें एक परिवार से मिलाने ले गए। हम जब उस घर पहुँचे तो उन्होंने घर की औरतों से कुछ बात की। शायद वो उनसे कह रहे थे कि वो हमें अपना परंपरागत पोशाक पहन कर दिखा दें। ये महिलाएँ घर के अंदर चलीं गई और थोड़ी देर बाद रिंगा और गले से लेकर घुटने तक आने वाली मालाएँ पहन कर हमारे सामने थीं।

हमने गणेश के सहारे इन औरतों से पूछा कि क्या हम उनके कुछ फ़ोटो ले सकते हैं। इसके जवाब में इन औरतों ने बेझिझक कहा कि बेशक लेकिन पैसा देना होगा। इन औरतों से यूँ ही बातचीत शुरू हई तो लंबी चल गई। उन्होंने बताया कि वो सुबह घर का काम निपटा कर जंगल या खेत जाती हैं। लेकिन अब जंगल और खेत से परिवार पालना मुश्किल है। इसलिए वो मज़दूरी के लिए भी खैरपुट या फिर आंध्र प्रदेश के कुछ इलाक़ों में जाती हैं।

उनके पहनावे में आए बदलाव पर वो कहती हैं कि अभी भी जब उनके यहाँ कोई पर्व या शादी ब्याह होता है तो वो अपनी परंपरागत पोशाक पहनती हैं। लेकिन मज़दूरी पर जाने के लिए या फिर हाट बाज़ार में अब उनके परंपरागत पोशाक ठीक नहीं लगते हैं। उनमें काम करने में असुविधा भी होती है। इस बातचीत में पता चला कि अब बोंडा गाँवों के मर्द मज़दूरी के लिए विशाखापट्टनम तक जाते हैं. 

इस गाँव में लोग आपस में बात करने के लिए अभी भी बोंडो (रेमो) भाषा के इस्तेमाल करते हैं। लेकिन अब ये आदिवासी ओडिया और तेलगु भी समझते और कुछ कुछ बोलते भी हैं। बोंडा घाटी में कुछ और गाँवों में हम गए और लोगों से मिले और उनसे लंबी बातचीत हुई। इस अनुभव से हम कह सकते हैं कि बोंडा संस्कृति और भाषा पर बोंडा घाटी के बाहरी की संस्कृति और भाषा का प्रभाव आया है। अब यह प्रभाव अच्छा है या बुरा इसको देखने का नज़रिया अलग हो सकता है। लेकिन अब पहाड़ी बोंडा की दुनिया सिर्फ़ और सिर्फ़ बोंडा घाटी तक सीमित नहीं है।

पलायन: अच्छा या बुरा

पहाड़ी बोंडा आदिवासियों के बारे में कई तरह की चिंताएँ बताई जाती हैं। इनमें पहली चिंता है उनकी जनसंख्या में वृद्धि दर का धीमा होना। बोंडा डेवलपमेंट एजेंसी के अनुसार 2015 में कराए गए सर्वे के मुताबिक़ पहाड़ी बोंडा जनजाति की कुल तादाद क़रीब 8000 पाई गई है। प्रशासनिक रिकॉर्ड के हिसाब से पहाड़ी बोंडा की जनसंख्या वृद्धि दर क़रीब 7.65 प्रतिशत है। इसके अलावा इन आदिवासियों की भाषा और पहचान के लुप्त हो जाने के ख़तरे के मसले को बार बार उठाया जाता है। बोंडा घाटी के पहाड़ों के जंगल लगातार कम हुए हैं और इस वजह से बोंडाओं के लिए अब जंगल के ही भरोसे जीना असंभव है।

इन सभी ख़तरों को भाँपते हुए 1977 में बोंडा डेवलपमेंट एजेंसी की स्थापना हुई थी। लेकिन 45 साल का अनुभव बताता है कि यह प्रयास बहुत कामयाब नहीं हुआ है। बल्कि इस दौर में पहाड़ी बोंडाओं के हाल और ख़राब हो गए हैं। उनकी जीविका ख़तरे में पड़ी है। इसके अलावा उनके समाज में भी कई नए द्वंद्व पैदा हुए हैं। पहाड़ी बोंडाओं में साक्षरता दर के कई तरह के दावे हैं जो 16 प्रतिशत से लेकर 34 प्रतिशत तक पहुँचते हैं। किसी भी सूरत में ये आँकड़े बेहद ख़राब ही तो कहे जाएँगे।

पहाड़ी बोंडाओं की संस्कृति, भाषा और पहचान को बचाने की चिंता में डूबे लोगों को इतिहास और अनुभव से सीखने की ज़रूरत है। इतिहास और अनुभव से पता चलता है कि भाषा वही बचती है जिसे बोलने वाले लोग बचते हैं। इस सिलसिले में ग्रेट अंडमानी जनजाति का उदाहरण लिया जा सकता है। इस जनजाति की भाषा को बोलने वाला अब दुनिया में एक भी व्यक्ति नहीं है, इसलिए यह बेहद ज़रूरी है कि अगर पहाड़ी बोंडा संस्कृति और भाषा बोली को बचाना है तो सबसे पहले यह समझा जाए कि इस समुदाय के लोगों को कैसे बचाया जाए।

इसकी सबसे पहली शर्त है इस समुदाय को जीने के साधन उपलब्ध कराना। फ़ॉरेस्ट राइट्स एक्ट और मनरेगा ने इस दिशा में कुछ कुछ योगदान किया है। लेकिन अभी भी पहाड़ी बोंडाओं की आर्थिक स्थिति बेहद ख़राब है। जब तक उन्हें जीविका के ठोस साधन उपलब्ध नहीं होंगे उनकी आर्थिक सुदृढ़ता नहीं बनेगी। बोंडा घाटी में रोज़गार के साधन पैदा नहीं हो सके हैं। इसलिए पहाड़ी बोंडाओं को रोज़गार की तलाश में बाहर निकलना ही है।

पहाड़ी बोंडाओं से मिलने जाने से पहले रिसर्च के दौरान हमने कई न्यूज़ रिपोर्ट्स और रिसर्च पेपर पढ़े। इनमें पहाड़ी बोंडाओं के पलायन पर बड़ी चिंता प्रकट की गई थी। इन चिंताओं में बड़े शहरों में इन आदिवासियों के शोषण से ले कर उनकी पहचान मिट जाने तक की चिंता नज़र आती है। कुछ लोग इन आदिवासियों के पलायन से पर्यावरण की चिंता को भी जोड़ देते हैं। इनमें से कई लोग हैं जो मानते हैं कि इन आदिवासियों को अपने परंपरागत बीजों और फ़सलों की तरफ़ मुड़ना चाहिए।

लेकिन उन्हें यह समझना होगा कि फ़सल का उत्पादन बढ़ाने की तकनीक और साधन देने की बजाए परंपरागत बीज बचाने के लिए उत्साहित करके पहाड़ी बोंडाओं को नहीं बचाया जा सकेगा। पलायन मजबूरी में हो या फिर ख़ुशी से, बोंडाओं को रोज़गार के लिए नए रास्ते तलाशने ही होंगे।  हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि मानव सभ्यता का इतिहास तो पलायन का ही इतिहास रहा है। बोंडाओं के बारे में भी तो यही बताया जाता है कि क़रीब 60 हज़ार साल पहले वो अफ़्रीका से पलायन करके यहाँ पहुँचे थे।

(लेखक श्याम सुंदर पिछले क़रीब 22 साल से पत्रकारिता में हैं। फ़िलहाल आप "मैं भी भारत" के एडिटर हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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