मुद्दा: बच्चे काम पर जा रहे हैं…
आपने जो शीर्षक पढ़ा यह एक कविता की पंक्ति है, जिसके मायने आगे खुलने वाले हैं। सितंबर का महीना बीत गया है और मैं पिछले तीन महीने से ओडिशा के एक कोने कोरापुट में एक शोध में लगा हुआ हूं।
कोरापुट से जब आप मलकानगिरी की ओर बढ़ेंगे तो आपकी आंखों में एक डरावना रोमांच उभर आएगा। आप महसूस करेंगे कि पहाड़ों के छाती को नाले की तरह चीरकर उस पर अलकतरा का एक गाढ़ा लेप सा लगा दिया गया है। दोनों ओर से पहाड़ी जंगल से घिरी सड़क पर झुंड के झुंड बंदर और कुछ कम पर झुंड में ही, हिजड़े खड़े रहते है, दोनों के चेहरों पर कुछ पाने की कुलबुलाहट साफ दिखाई देती है।
50 किलोमीटर चलने के बाद आप एक ब्लॉक में पहुंचेंगे जिसका नाम है - बैपरीगुड़ा। यहां एक चौराहा है, एक रास्ता मलकानगिरी की ओर जाता है दूसरा रास्ता बस्तर/सुकमा की ओर, बाकी दो रास्ते वहीं चितान पड़े रहते हैं। चौराहा चारों तरफ से पहाड़ों से घिरा है, चौराहे के पास में ही एक बूढ़ा आदमी (जिसकी चेहरे पर अनगिनत चोट के निशान हैं और नाक के पास एक मस्सा भी) चाय बनाता है। बस्तर के करीब होने के कारण अर्द्धसैनिक बलों के जवान यहां आते हैं और चाय सुड़कते हुए अपनी बंदूक का संतुलन साधते हैं। अमूमन जवान वर्दी के बजाय सादे कपड़ों में होते हैं।
कुछ दिन हुए मुझे चाय वाले बूढ़े के पोते (जो 7वीं में पढ़ता है) ने बताया कि बाबा पहले जंगल में रहते थे। खोजबीन करने पर मालूम हुआ कि चायवाला एक समय नक्सली था बाद में उसने सरेंडर कर दिया। उसके बाद से जब भी किसी फौजी को चायवाले के यहां चाय पीते देखता हूं तो विडंबनाओं से भरा संगीत सुनाई देने लगता है। और बार- बार कवि देवी प्रसाद मिश्र की कविता याद आती है – जो बेदखल की तमतमाई अक्ल है उसे आप कहते हो की नक्सल है।
मैं पिछले एक महीने से यहां के दो गांव में रह रहा हूं। हमारा काम है स्कूल छोड़ चुके बच्चों को दोबारा स्कूल में दाखिला दिलवाना, और उन कारणों की तहकीकात करना जिसकी वजह से बच्चे स्कूल छोड़ रहे हैं। तकनीकी शब्दों में कहा जाए तो हम ड्रॉपआउट बच्चों के ऊपर काम कर रहे हैं।
लोहिया ने कहा था कि जो दिखता है वह देश है। पर यहां जो देश दिख रहा है वह अजीब त्रासदी में जी रहा है, इस देश का चेहरा वीभत्स हो चुका है।
मैं एक गांव में जा रहा हूं जिसका नाम सिलीमाल है। मुझे बताया गया है कि इस गांव के कई बच्चों ने स्कूल जाना बंद कर दिया है। पहाड़ों के बीच बनी सड़क पर मेरी गाढ़ी लाल रंग की स्कूटी भागी जा रही है तभी सामने से एक खुला ट्रक गुजरता है जिसमें करीब 40 से 50 लोग खड़े या बैठे होते हैं। इस ट्रक में कई बच्चे भी उकडू बैठे होते हैं। मुझे कुछ समझ नहीं आता लेकिन इतना समझ जरूर आता है कि ये लोग मजदूरी करने जा रहे हैं।
सिलिमाल आदिवासी गांव है, मुझे पहली दफा देख के लगा की कितना संपन्न गांव तो है, होंगे कुछ बच्चे जो स्कूल नहीं जाते होंगे। पर कहानी कुछ और थी, उस गांव के सरपंच ने मुझे एक आदिवासी बस्ती में ले जाने की बात की, बिना मन के खुद को घसीटते हुए मैं उन आदिवासियों के बस्ती में गया।
दूर से सड़ी हुई शराब की गंध आ रही है, एक महिला जिसकी उम्र 25 साल ही रही होगी, अपने नाक में लगभग 3 या उससे ज्यादा नथ पहने हुए, वह बिना ब्लाउज के बैठ के कुछ पीस रही है। बगल में उसका 3 साल का लड़का खेल रहा है, लड़का जब-जब रोता है महिला पास के कटोरी में रखे पनियल पदार्थ का कुछ हिस्सा बच्चे को पिला देती है।
पास में खड़ा सरपंच अपनी टूटी फूटी हिन्दी में मुझसे फुसफुसा के कहता है- यह अपने बच्चे को शराब पिला रही है। महिला उठती है और उठने से पहले कटोरी बचे शराब को खुद पी जाती है। मैं महसूस करता हूं कि मेरा कनपटी धीरे-धीरे लाल हो चुकी है।
मैं महिला से बात करने की कोशिश करता हूं, आपके दो बच्चे हैं स्कूल क्यों नहीं जाते। वह उड़िया में कुछ जवाब देती है, उसकी भंगिमाएं देख के मैं समझ जाता हूं कि वह कह रही है – हमें शिक्षा की नहीं रोटी की जरूरत है।
सरपंच उड़िया का हिंदी तर्जुमा करने की कोशिश करते हुए कहता है - एक 15 साल की बेटी है जो खेतों में काम करती है और बच्चे संभालती है। 14 साल के बेटे को इस बार ठेकेदार 1800 रुपया / महीना पर बाहर ले गया है ।
मैं पूछता हूं कहां गया है इनका लड़का कमाने। सरपंच महिला से पूछता है – महिला को यह जानकारी नहीं है कि उसका नाबालिग बेटा कहां कमाने गया है।
सरपंच मेरी चापलूसी करते हुए कहता है– सच कहूं तो यहां के लड़के आंध्र प्रदेश और केरल जाते हैं। वहां नारियल की खूब खेती होती है , छोटे बच्चे कम वजन होने के कारण नारियल के पेड़ पर आसानी से चढ़ जाते हैं और नारियल की लोडिंग और बोर्डिंग भी खूब आसानी से कर देते हैं। इसके अलावा विशाखापत्तनम और हैदराबाद की कई कंपनियां इन बच्चों के अपने कंपनी के लिए काम करवाती है, जैसे की बिस्कुट पैकिंग, पानी या शराब के खाली बोतल बिनवाना, तथा काजू की फैक्ट्री में काम करना।
ओडिशा के कालाहांडी से जुलाई 1985 में एक दिलचस्प तस्करी की खबर आई थी। वहां की एक महिला ने अपने 14 साल के बच्चे को महज 40 रुपए में दिया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कालाहांडी का दौरा किया। लेकिन उसी समय ओडिशा के तत्कालीन मुख्यमंत्री जेबी पटनायक ने एमजे अकबर के साथ इंटरव्यू में एक हैरान करने वाला बयान दिया। पटनायक ने कहा कि पश्चिमी ओडिशा के कुछ आदिवासी इलाकों में बच्चों को बेचने की पुरानी परंपरा है।
सवाल यह है कि क्या यह परंपरा खत्म हो गई है? या इसका चरित्र बदल गया है। इसका जवाब मेरे पास नहीं था बस नाक के नथुनों में फंस गई थी शराब की गंध।
मैं गांव के और घरों में जाता हूं शराब की गंध हर जगह मौजूद होती है, कोई भी पुरुष या लड़का गांव में नहीं दिखाता है। एक अजीब मुर्दा सन्नाटा सा छाया हुआ है पूरे गांव में। पानी भात और हाथ से पकाई हुई शराब ही यहां का मुख्य भोजन है।
बाद में एक शिक्षक बताते हैं कि इस गांव का कोई आदमी आज तक स्कूल नहीं गया है, और ओडिशा के आदिवासी इलाकों में कई ऐसे गांव हैं जहां के लोग कभी स्कूल जा ही नहीं पाते। फिर मुस्कुराते हुए कहते हैं उनकी भूख सरकारी अन्न शांत नहीं कर पाता।
मैं स्कूटी से उस आदिवासी कस्बे से बाहर निकलकर सड़क पर आता हूं, सड़क उसी रोजमर्रा की गति से जी रही है। गाड़ियां उसी जीवटता से भागी जा रही हैं। पर पास के कस्बे से पूरी दुनिया बेखबर है। मेरी स्कूटी की स्पीड तेज हो चुकी है, सामने स्कूल के दीवार पर लिखे स्लोगन पर आंख टिक जाती है, जिसपर लिखा होता है – सब पढ़ेंगे, सब बढ़ेंगे। पर देश में कई गांव हैं जहां कोई नहीं पढ़ रहा।
राजेश जोशी की जिस कविता की पंक्ति से मैंने बात शुरू की उसी से पूरा कर रहा हूं—
कुहरे से ढंकी सड़क पर बच्चे काम पर जा रहे हैं
सुबह-सुबह
बच्चे काम पर जा रहे हैं
हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह
भयानक है इसे विवरण की तरह लिखा जाना
लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह
काम पर क्यों जा रहे हैं बच्चे?
(चंपारण में जन्में और बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी से पढ़े यह लेखक अभी ओडिशा में एक फेलो के रूप में काम कर रहे हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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