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पत्रकार रूपेश की गिरफ़्तारी का 1 साल: “हमने जेल व्यवस्था और न्याय में विलंब की सच्चाई जानी”

“इस पूरे एक साल में हमने बहुत कुछ खोया है पर जो अनुभव पाया है उसने पुलिस प्रशासन, सत्ता और हमारी न्यायिक प्रक्रिया की जटिलता को भी समझने में हमारी बहुत मदद की है।”
Journalist Rupesh's Arrest
फ़ोटो साभार: ट्विटर

11 जुलाई 2022 का दिन था जब रुपेश गिरिडीह जिले में रिपोर्टिंग के लिए गए थे, उस वक्त उन्हें ज़रा भी ख़बर नहीं थी कि उनकी ज़िंदगी एक नई करवट लेने वाली थी।

गिरिडीह की रिपोर्टिंग के बाद रुपेश काफी भावुक थे क्योंकि प्रदूषण का मंज़र वहां बहुत खराब था, पूरे इलाके के लोग औद्योगिक प्रदूषण से परेशान थे, लोग बीमार पड़ रहे थे, लोगों के घरों और खेतों के बगल में कचरे का डंप था, नदी में गंदगी फैली हुई थी। वहां छोटे-बड़े लगभग 100 उद्योग स्थापित हैं, इसके अलावा बिना किसी प्रदूषण निवारण प्रणाली के वहां कंपनियां चल रहीं थीं। इस बारे में विस्तृत जानकारी के लिए उनके 15 जुलाई के लेख को पढ़ा जा सकता है।

सबसे ज़्यादा स्तब्ध करने वाली स्थिति उस बच्ची की थी, जो कि चेहरे के भयंकर ट्यूमर से ग्रसित थी। इस कारण उसका चेहरा विकृत और बड़ा हो गया था। कचरा डंपिंग यार्ड के पास से गुज़रने के कुछ दिनों बाद उस बच्ची की ऐसी हालत हुई थी। रुपेश ने ट्विटर के ज़रिए बच्ची की मदद की अपील भी की थी जिसपर बहुत सारे सकारात्मक जवाब भी आए थे। 16 जुलाई की रात उन्हीं विषयों पर चर्चा की गई थी। रूपेश जी जब किसी गंभीर मामले पर काम करते हैं, तब वे अपने आराम की ज़रा भी फिक्र नहीं करते, इस कारण लगातार चार पांच दिनों से वे काफी थके हुए थे। अगले दिन 17 जुलाई रविवार का दिन था, सो वे आराम कर सकते थे, मगर 17 जुलाई 2022 की सुबह कुछ और ही संदेश लेकर आई थी।

17 जुलाई 2022 का दिन

सुबह 5:30 बजे घर पर पुलिस सर्च वारंट लेकर आई, उस वक्त तक हमें ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि पुलिस रूपेश को ले जाने के लिए आई है। हमें यही लगा था कि कोई मामला होगा जिस पर सर्च करने पुलिस आई है और कुछ देर चली जाएगी।

वैसे भी रूपेश पर सत्ता, पुलिस-प्रशासन की नज़र होना कोई नई बात नहीं थी। इससे पहले साल 2019 में किडनैपिंग द्वारा गिरफ़्तारी को भूला नहीं जा सकता था। 2021 में पेगासस स्पाइवेयर द्वारा जासूसी से भी रुपेश के प्रति सत्ता के रूख को समझा जा सकता था। इसी बीच गिरीडिह में एक कार्यक्रम की रिपोर्टिंग के दौरान भी कुछ पुलिस अधिकारियों का आना, दखल देना, रूपेश के बारे में विशेष पूछताछ करना, इस शक को और पुख्ता करता था कि उनकी हर ज़मीनी रिपोर्टिंग पर सत्ता-प्रशासन की निगरानी बरकरार है। बावजूद इसके रुपेश अपनी मुखरता से कभी मुकरे नहीं, उन्होंने 2019 में जेल से आने के बाद न ही सिर्फ लिखना शुरू किया बल्कि जनपक्षीय मुद्दों के लिए अपना यू-ट्यूब चैनल भी शुरु किया।

उनकी लेखनी अक्सर झारखंडी जनता के मूलभूत मुद्दों पर केंद्रित रही है, इसलिए उन्हें अक्सर अपने लेखन के लिए ज़्यादा परेशानियों से जूझना पड़ा है। वैसे भी झारखंड की मूलवासी-आदिवासी जनता की आवाज़ इस कदर दबाई जाती है कि पूरी हिम्मत के साथ न खड़ा रहा जाए, तो उसे उठाया नहीं जा सकता क्योंकि यह बेहद शर्म की बात है, पर सच है कि झारखंड की आदिवासी जनता का दमन लगभग हर सत्ता द्वारा होता ही है, सत्ता और आदिवासी समुदाय के बीच अक्सर टकराव देखने को मिला है।

चूंकि जल-जंगल-ज़मीन को उजाड़े बगैर उद्योग जगत का विकास हो ही नहीं पाता और झारखंड की जनता अपने जल-जंगल-ज़मीन को उजाड़ने नहीं देना चाहती, इसलिए यह टकराव बरकरार है। इस संघर्ष में सत्ता के इशारे पर पुलिस-प्रशासन के दमन का शिकार हो रही जनता की आवाज़ को जो अपने लेखन में जगह देंगे, इससे सत्ता और पुलिस प्रशासन को स्वाभिक रूप से तकलीफ होगी। रुपेश जी की गिरफ़्तारी व सारे कानूनी दाव-पेंच इसी का परिणाम ही तो है।

उस दिन पुलिस के घर पर आ जाने के बाद भी हमें ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि वो सर्च के लिए आई हुई है बल्कि पुलिस का मकसद रूपेश को ले जाना था। जब हमने उनसे चाय के लिए पूछा तब इनकार करते हुए उन्होंने बताया कि वे क़रीब 70-80 लोग हैं, ये सुनकर हम स्तब्ध रह गए। एक सर्च के लिए इतने सारे लोग क्यों आएंगे, दिमाग सन्न हो गया और हालात की गंभीरता को हम भांपने लगे।

दोपहर क़रीब 1:30 बजते-बजते सब स्पष्ट हो गया, यह हमारे लिए एक ऐसा दिन था जिसे बयां नहीं किया जा सकता। शुक्र था कि अग्रिम (रुपेश का बेटा) उस वक्त सो गया था और उसने अपनी आंखों से अपने पापा को ले जाते हुए नहीं देखा।

जन्मदिन और पापा का इंतज़ार

एक बाल मन दुनिया के षड्यंत्रो को क्या समझ सकता है, रूपेश की जुझारू पत्रकारिता की कीमत अग्रिम को अपने बचपन के मीठे और मज़ेदार पलों को खोकर चुकानी पड़ रही है। वह इन सारी राजनीति से अनजान है, वह बस इतना जानता है कि वह सबसे ज़्यादा अपने पापा से प्यार करता है और अब वह इस बात से भी वाकिफ है कि पुलिस उन्हें ले गई है। बच्चे अपनी प्यारी-सी दुनिया में जीते हैं लेकिन अग्रिम की दुनिया में कई रंग बिखरे पड़े हैं, वह सवालों की दुनिया में जी रहा है। एक तरफ वह अपने पापा से दूर होकर परेशान है तो दूसरी तरफ इस बात का डर भी उसके अंदर बैठा है कि कहीं वह मां से भी दूर न हो जाए। हाउस सर्च के लिए दूसरी बार जब पुलिस आई, वह एकदम सहम गया, वह मां को लेकर अक्सर चिंता में रहता है।

हालांकि अग्रिम अपनी भावनाओं को जल्दी व्यक्त नहीं करता। वह कभी यह नहीं पूछता कि पापा कब आएंगे, पिछले साल उससे कह दिया गया था कि पापा तुम्हारे जन्मदिन पर आएंगे। तब से हंसता, खेलता अग्रिम बस एक बात अक्सर पूछता रहता है 'मेरा जन्मदिन कब आएगा’..'अब मेरे जन्मदिन में कितने दिन बाकी हैं।'...31 जुलाई उसका जन्मदिन है और अब उसका जन्मदिन नज़दीक आ रहा है यह जानकर वह काफी खुश नज़र आता है। वह भावनाओं से भरा हैं पर सहनशील भी है।

रिमांड और जेल का समय

17 जुलाई की गिरफ़्तारी के बाद दिन तेज़ी से बदला, हर वक्त शक और आशंका परेशान करती रही, खास तौर पर तब जब रिमांड की बात आई। रिमांड शब्द सुनकर जो तस्वीर हमारे सामने आती है, हम अच्छी उससे वाकिफ हैं। बस एक ही ख्याल बार-बार आता था, कि चार-पांच दिनों से थके हुए रुपेश की रिमांड के दौरान स्थिति क्या होगी?

18 जुलाई से 22 जुलाई और फिर इसके बाद 28 जुलाई से 31 जुलाई की रिमांड का वक़्त हम सबके लिए बेहद परेशान करने वाला समय था।

31 जुलाई से उन्हें सरायकेला जेल में भेज दिया गया, जहां उन्हें अलग और जर्जर सेल में रखा गया था, एक तरह का नया टॉर्चर! हमने सुना और पढ़ा तो बहुत था पर पहली बार महसूस कर रहे थे संवेदनहीन व्यवस्था को, जहां अधिकार नाम की कोई चीज़ नहीं होती, होती है तो बस पनिशमेंट।

जेल प्रशासन का अपना एक कानून होता है, जो सरायकेला मंडलकारा में भी था। मुलाकात के लिए जालियां नहीं थी, फाइबर ग्लास था, मगर वह ऐसा था कि चेहरा मुश्किल से ही दिख पाता था, बात के लिए फोन लगा हुआ था जिसकी रिकॉर्डिंग की जाती थी। जब हम रूपेश से मिलने गए थे, तो हमने उन्हें काॅपी-कलम भिजवाई थी लेकिन उसे वापस कर दिया गया। यहां जेल में काॅपी-कलम की अनुमति नहीं थी। वास्तव में हमने जो पाया है, शायद बहुत सी जेलों में काॅपी-कलम की अनुमति नहीं दी जाती। आखिर क्यों? पढ़ाई से जुड़ी इन वस्तुओं के प्रति ऐसा रूख है क्यों है, समझ में नहीं आता। लेकिन इससे इतना तो मालूम चल ही जाता है कि जेलों में पढ़ाई की स्थिति क्या रहती होगी?

जेलों में संघर्ष

वैसे जेलों में हर चीज़ के लिए संघर्ष की ज़रूरत होती है। जेल और बाहर के संघर्ष में यही अंतर होता है कि जेल में आपको उन छोटी-छोटी चीज़ों के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है जो रोज़मर्रा की ज़रूरत होती है जैसे खाने योग्य भोजन के लिए, कापी-कलम के लिए, रहने लायक जगह के लिए, पानी के लिए इत्यादि।

सरायकेला मंडलकारा में रूपेश को अपनी ज़रूरतों के लिए दो बार भूख हड़ताल के लिए मजबूर होना पड़ा था। एक बार 15 अगस्त के दिन जब सुपरिटेंडेंट द्वारा बदलाव के आश्वासन के बाद भूख हड़ताल तोड़ी गई, पर आगे कोई खास बदलाव नहीं आया, दूसरी बार उन्ही मांगों पर 12 सितंबर के दिन भूख-हड़ताल के दौरान ही उनका जेल ट्रांसफर किया गया था। रांची बिरसा मुंडा केंद्रीयकारा में जब वे लाए गए थे तब किसी को ख़बर नहीं थी कि वे रांची आ चुके हैं। 9 सितंबर के बाद फोन पर बात न होने के कारण हम सब बहुत चिंतित थे, दस दिनों बाद उनसे हमारी मुलाकात हो पाई।

जब उन्हें रांची लाया गया था तो वहां उन्हें एक पनिशमेंट सेल, जो कि एक 6×8 का बंद कमरा था, में एक सप्ताह तक रखा गया ‌था। मुझे नहीं लगता कोई कानूनी प्रक्रिया ऐसे पनिशमेंट की इजाजत देती है वह भी तब जब आप पहली बार जेल गए हों। यहां रहकर ही उन्होंने कविताएं लिखीं, उसके बाद उन्हें सर्कुलर सेल में भेजा गया जहां उनके साथ चार-पांच बंदी थे।

ज़मानत की उम्मीद और नये-नये केस

17 जुलाई की गिरफ़्तारी के बाद हमें उम्मीद थी कि रुपेश जल्द बाहर आ जाएंगे, क्योंकि एफआईआर में उनका नाम भी नहीं था पर जब 10 अगस्त को जागेश्वर बिहार का एक नया केस लगाया गया, तो यह उम्मीद धूमिल होती गई और हमें समझ में आने लगा की संघर्ष लंबा है।

एक साल में रुपेश की चार बार रिमांड हुई है। दो बार सरायकेला केस में, 18 जुलाई से 22 जुलाई फिर 28 जुलाई से 31 जुलाई तक। एक बार 18 अगस्त से 22 अगस्त जागेश्वर बिहार वाले केस में और एक बार एनआईए पटना रोहतास वाले केस में 9 मई से 5 दिनों के लिए मगर इस बार उन्हें कुछ समय पहले ही छोड़ दिया गया।

रूपेश पर अभी कुल चार केस दर्ज हैं, एक एफआईआर में नाम है, बाकि अनेम्ड। 10 अगस्त को दर्ज हुए केस में बेल मिल गई है, इसके बाद एक अन्य केस चाईबासा के टोक्लो थाना क्षेत्र का है, यह केस 2018 का है, जिसमें भी बेल मिल गई।

सरायकेला वाले मामले में बेल के लिए हाईकोर्ट में सुनवाई हो रही है, कभी प्रतिपक्ष द्वारा समय मांगने के कारण, कभी छुट्टी होने के कारण, तो कभी किसी और टेक्निकल परेशानी के कारण अब तक बेल पर फैसला नहीं हो पाया है। 17 अप्रैल के पहले सिर्फ इस केस में बेल मिलना बाकी था, जिसकी हम जल्द उम्मीद रखते थे, मगर 17 अप्रैल को पटना एनआईए द्वारा एक केस दर्ज किया गया जिसके तहत ही वे आदर्श केंद्रीयकारा बेउर पटना में अभी हैं। केस पुराना है, लेकिन कस्टडी के शुरू हुए तीन महीने हुए हैं।

चूंकि तीन महीने पहले ही कस्टडी शुरू हुई है तो रिहाई की उम्मीद अभी करना कानूनी दांव-पेंच के परंपरागत ढर्रे के खिलाफ होगा। यूएपीए लगने पर बिना दोष के भी लोग छह महीने से पहले छूट ही नहीं सकते, ज़्यादा की तो कोई सीमा नहीं, फिर अभी तो यहां सिर्फ तीन महीने ही गुज़रे हैं। बेल की प्रकिया में भी जेल में बीते दिनों को देखा जाता है। इसलिए यह याद रखना होगा, अभी भले ही रुपेश की गिरफ़्तारी के एक साल हो गए, पर इस केस में उन्होंने तीन महीने ही गुज़ारे हैं। इसके साथ ही 2 मई का दिन भी नहीं भूला जा सकता, जिस दिन हमारे घर में एनआईए रांची द्वारा हाउस सर्च किया गया। फिलहाल इसमें उन्हें कहीं नहीं जोड़ा गया है, पर आशंका है, जोड़ा जा सकता है।

एक और नया केस कब दर्ज होगा यह हमें नहीं पता लेकिन अगर कुछ महीने या साल के बाद और केस लगाए जाएं, तो हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। यदि मकसद कैद रखना हो तो, हमें समझना होगा कि किसी मामले में किसी निर्दोष को वर्षों तक कैद रख सकता है या नहीं, मगर कुछ-कुछ दिनों में नये-नये केस दर्ज होना यह काम ज़रूर कर सकता है क्योंकि हर केस के अंतर्गत कैदी के कारावास की गिनती कम होगी। चूंकि केस दर्ज करने के लिए कोई कानूनी रुकावट नहीं है तो इस काम में किसी जवाबदेही का डर भी नहीं है।

रिहाई का इंतज़ार और आगे की राह

आदर्श केंद्रीयकारा बेउर पटना में गर्मी बहुत ज़्यादा थी, जिसके कारण रूपेश को पहले हाई फ़ीवर, फिर चिकनपॉक्स भी हो गया था जिसके कारण शारीरिक रूप से वे कमज़ोर भी हो गये थे लेकिन अभी ठीक हैं। इस पूरे एक साल में हमने बहुत कुछ खोया है पर जो अनुभव पाया है उसने पुलिस प्रशासन, सत्ता और हमारी न्यायिक प्रक्रिया की जटिलता को भी समझने में हमारी बहुत मदद की है।

हमने जेल की व्यवस्था को नज़दीक से जाना, हमने किसी मुकदमे में न्याय में विलंब की सच्चाई को जाना, मुकदमों में होने वाली कठिनाईयों को जाना और साथ ही देश-विदेश में अन्याय व्यवस्था के खिलाफ उठने वाली आवाज़ों को भी जाना। ज़ाहिर है आगे की राह भी नये अनुभव लेकर आएंगे। रूपेश और उनके जैसे जेल में बंद पत्रकारों की रिहाई के लिए जितनी आवाज़े जिस भी प्लेटफार्म से उठ रही हैं, यह इस विषम परिस्थितियों में भी हमें सच के लिए खड़ा होने की ताकत देता है।

भले ही रूपेश के ख़िलाफ़ नए मामलों का सिलसिला बढ़ता जा रहा है मगर रिहाई के लिए आवाजें बता रही हैं कि सच और न्याय की लड़ाई जारी है। हमें रूपेश के साथ-साथ उन तमाम न्याय पसंद लोगों की रिहाई का भी इंतज़ार है, जो जेलों में बंद हैं। हमें विश्वास है कि हमारी न्याय की लड़ाई जल्द ही उन्हें जेल से बाहर लाएगी।

(इलिका स्वतंत्र लेखिका हैं और पत्रकार रुपेश के परिवार की सदस्य भी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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