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न्यायपालिका को बेख़ौफ़ सत्ता पर नज़र रखनी होगी

न्यायपालिका हुकूमत की ज़्यादतियों पर रोक लगाने का काम कर रही है और साथ ही पूरी की पूरी कार्यकारी के हथियारों पर अंकुश लगाने के लिए क़दम बढ़ा रही है। यह सतर्क आशावाद का नतीजा है।
न्यायपालिका को बेख़ौफ़ सत्ता

2014 में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के सत्ता में आने के बाद से दिल्ली पुलिस कोई गौरवपूर्ण कार्य तो नहीं कर पाई है। हां, लेकिन 2019 के बाद से इसका रिकॉर्ड चिंतनीय बन गया है, खासकर जब से केंद्रीय गृह मंत्रालय (एमएचए) अमित शाह को सौंपा गया है, चूंकि पुलिस बल  भारतीय राष्ट्र की एक एजेंसी होने के बजाय एक शर्मनाक निजी मिलिशिया जैसी बन गई हैं।

हम थोड़ी देर में इस बेखौफ़ पुलिस बल के कई अत्याचारों को आगे दर्ज करेंगे, लेकिन इससे पहले हम पिछले हफ्ते दिल्ली की एक अदालत के न्यायाधीश द्वारा फरवरी 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुए दंगों की "जांच" के संबंध में की गई आलोचना से शुरू करते हैं। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश विनोद यादव ने हाल ही में दो मौकों पर इस बात के लिए अफसोस जताया कि दिल्ली पुलिस दंगों की जांच किस तरह कर रही है।

पिछले हफ्ते की शुरुआत में, न्यायाधीश ने दिल्ली पुलिस को फटकार लगाते हुए कहा कि दंगे से संबंधित एक विशेष मामले में इसकी जांच "कठोर", "अक्षम" और "अनुत्पादक" थी। वे रोहित नाम के एक शख्स के खिलाफ तोड़फोड़, लूटपाट और आगजनी के मामले में आरोप तय कर रहे थे। आखिरकार, अदालत ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की कम से कम पांच धाराओं के तहत जिसमें गैरकानूनी रूप से भीड़ लगाना, दंगा करना, अत्याचार और घर में तोड़फोड़ करना, चोरी, आगजनी और शरारत तथा सरकारी आदेश की अवज्ञा से संबंधित आरोप तय किए। आरोपों की प्रभावशाली श्रृंखला इस बात की तसदीक करती है कि पुलिस जांच में ढीली चाल चल रही थी। 

बचाव पक्ष के वकील ने तर्क दिया कि केवल उनके मुवक्किल पर ही आरोप क्यों लगाए गए हैं जबकि दंगों में तो कथित रूप से 400-500  लोगों की भीड़ शामिल थी। यह सबमिशन हमें क्या बताता है? कि रोहित को छोड़ दिया जाना चाहिए क्योंकि कुछ सौ अन्य पर आरोप नहीं लगाया गया था? या कि बड़े स्तर पर दिल्ली पुलिस ने अपने ड्यूटि नहीं निभाई थी और अपने कर्तव्यों की अवहेलना की थी? निश्चित तौर पर बाद वाला तथ्य सही है।

इन टिप्पणियों के बाद, उस सप्ताह के अंत में एक अन्य मामले की सुनवाई करते हुए, यादव ने दिल्ली पुलिस के खिलाफ और भी अधिक भद्दी टिप्पणी की। दो आरोपियों, अशरफ अली और परवेज़ अली के खिलाफ आरोप तय करते हुए, न्यायाधीश ने कहा कि यह देखना "वास्तव में दर्दनाक" है कि पुलिस की जांच का मानक "बहुत खराब" था। उन्होंने यह भी कहा कि "आधी-अधूरी" चार्जशीट दाखिल करने के बाद, "न तो जांच अधिकारी और न ही एसएचओ [स्टेशन हाउस ऑफिसर] और सुपरवाइजिंग अधिकारियों ने यह देखने की जहमत उठाई कि क्या उपयुक्त प्राधिकारी से सामग्री एकत्र करने की जरूरत है और इसके लिए क्या कदम उठाने की आवश्यकता है, जिस सामग्री से जांच को उसके तार्किक अंत तक ले जाने के लिए लिया जाना चाहिए था।" न्यायाधीश ने कहा कि इसके परिणामस्वरूप कई मामलों में दर्ज कई आरोपी व्यक्तियों को जेल में बंद रहना पड़ा। यह निष्कर्ष निकालना कोई कठिन बात नहीं है कि जांच का यह तरीका सिर्फ आलस्य नहीं बल्कि उद्देश्यपूर्ण है।

न्यायाधीश ने कहा कि उनकी अदालत के सामने पड़े बड़ी संख्या में लंबित केस में जांच अधिकारी व्यक्तिगत रूप से या वीडियोकांफ्रेंसिंग के माध्यम से उपस्थित नहीं हो रहे हैं।  उन्होंने कहा कि उन्हें "समझ आ रहा है" कि पुलिस ने सरकारी वकीलों को भी कोई जानकारी नहीं दी है। दूसरे शब्दों में, दिल्ली पुलिस के कुछ अधिकारी लोगों को पीट रहे थे, कुछ प्रारंभिक जांच कर रहे थे, अधूरी चार्जशीट दाखिल कर रहे थे और आरोपियों को जेल में सड़ने दे रहे थे। इसका घालमेल का एक ही उपाय, ज़ाहिर है कि व्यापक पैमाने पर सबको जमानत देना। 

हालाँकि, मुद्दा यह नहीं है। असली मसला यह है कि दिल्ली पुलिस अपनी प्रतिष्ठा को इस हद तक बर्बाद करने में लगी हुई है कि उसे सुधारा नहीं जा सकता है। वास्तव में, एक हद के बाद भी, इसे एक वास्तविक "पुलिस बल" के रूप में पहचाना जाता है जिसे लोगों के एक निकाय के रूप में परिभाषित किया जाता है जो कानून को बनाए रखने और इसका उल्लंघन करने वालों की सजा देने की शपथ लेती है।

आइए दिल्ली दंगों पर वापस आते हैं। इस बात के विश्वसनीय प्रथम दृष्टया सबूत हैं कि भाजपा नेता कपिल मिश्रा, जो 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में हार गए थे, ने दिल्ली में दंगों की आग भड़काई थी, और में दंगों को भड़काया था, उन्होने शुरुआत में पुलिस को सीधी कार्रवाई की धमकी देते हुए कहा था कि अगर पुलिस ने नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 के खिलाफ शांतिपूर्वक विरोध कर रहे लोगों को नहीं हटाया तो अंजाम खतरनाक होंगे। फिर भी, दिल्ली पुलिस ने उसे पूछताछ के लिए भी नहीं बुलाया। 

इसके बजाय, पुलिस ने बड़ी संख्या में युवा मुसलमानों को गिरफ्तार किया गया। बेशक, इस बात में कोई संदेह नहीं है कि दंगों को भाजपा के सदस्यों और संघ परिवार के अन्य संगठनों द्वारा उकसाया गया था। दंगों में पीड़ित लोगों में भारी संख्या में मुसलमान थे। दंगों के दौरान उनके घरों, व्यवसायों और इबादत घरों सहित उनकी संपत्तियों को भारी नुकसान पहुंचाया गया और कई जानें भी गई। 

इस प्रकार, दंगों की जांच और उनके संबंध में की गई दंडात्मक कार्रवाइयों में अल्पसंख्यक समुदाय का व्यवस्थित ढंग से हुकूमत-प्रायोजित उत्पीड़न किया गया। एल्गर परिषद-भीमा कोरेगांव मामले में भी पुणे पुलिस और राष्ट्रीय जांच एजेंसी, कार्यकर्ताओं के संबंध में व्यावहारिक रूप से इसी बात के दोषी हैं।

ऐसा पहली बार नहीं है जब दिल्ली पुलिस को अदालत में फटकार लगाई गई है। इस साल फरवरी में, एक अन्य अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने बेंगलुरू की एक जलवायु कार्यकर्ता दिशा रवि को जमानत देते हुए पुलिस की तीखी आलोचना की थी। उसे दिल्ली पुलिस ने ऐसे "गिरफ्तार" किया था – जिसे विनम्र शब्दों में अपहरण कहा जा सकता है - अभी तक एक और ऐसा बढ़ा चढ़ा कर लगाया गया आरोप था जिसे उसने शायद अपने भाजपा के आकाओं को खुश करने के लिए किया था।

दिसंबर 2019 और जनवरी 2020 में जामिया मिलिया इस्लामिया और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पुलिस बल की कार्रवाई को कई भारतीय भाषाओं में प्रचलित कहावतों जैसे  कि "फसल खाने वाली बाड़" के कई अधिक उदाहरण मिलते हैं। जामिया परिसर पर दिल्ली पुलिस का हमला, जिसमें अन्य हरकतों के अलावा, छात्रों को पीट-पीट कर पुस्तकालय से खदेड़ना और उसमें तोड़फोड़ करना शामिल था, जोकि काफी गंभीर हमला था।

मौजूदा निज़ाम का कानून-प्रवर्तन एजेंसियों का बेज़ा इस्तेमाल महामारी के अनुपात तक पहुंच गया है। केंद्र सरकार ने दिल्ली पुलिस और केंद्रीय एजेंसियों को बीजेपी की मशीनरी के एक्सटेंशन में तब्दील कर दिया है. पार्टी द्वारा संचालित राज्य सरकारों ने भी इसका अनुसरण किया है। उत्तर प्रदेश सरकार राज्य को पुलिस स्टेट बनाने में ख़ास मेहनत कर रही है, ऐसी कोशिश चल रही है कि पुलिस सरकार की एक शाखा होने के सभी रूपों को खो दे, और केवल मुख्यमंत्री आदित्यनाथ द्वारा संचालित एक निजी मिलिशिया बन कर रह जाए। 

किसी की भी मनमाने ढंग से गिरफ्तारी करना और हिरासत में रखना पुलिस के भीतर किसी भी किस्म के भय न होने को दर्शाता है, यह संस्कृति खासकर उत्तर प्रदेश में सर चढ़ कर बोल रही है जहां कानून को लागू करने के लिए एनकाउंटर के जरिए हत्याएं की जा रही हैं, सार्वजनिक जीवन को कमजोर किया जा रहा है और जीवन और नागरिकों की स्वतंत्रता के प्रति संविधान और अन्य कानूनों द्वारा दी गई गारंटी को नष्ट किया जा रहा है। भारत तानाशाही और अधिनायकवाद की राह पर इतना नीचे गिर गया है कि उसे लोकतंत्र कहना थोड़ा अजीब सा लगता है या केवल कुछ चुनिन्दा योग्यता के साथ इसे लोकतंत्र माना जा सकता है।

न्यायपालिका - शीर्ष अदालत से लेकर अधीनस्थ अदालतों तक - शासन की ज्यादतियों पर अंकुश लगाने के लिए कदम उठा रही है, और पूरे के पूरे प्रशासन पर नकेल कसने की कोशिश कर रही है, जो अपने आप में एक सतर्क आशावाद का कारण है। क्योंकि, भाजपा और उसकी सरकारें खुद पर किसी प्रकार की रोक-टोक को स्वीकार नहीं करती हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि पारदर्शिता और जवाबदेही की दिशा में आंदोलन व्यापक और तेज होगा।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार और शोधकर्ता हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

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