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महापरिनिर्वाण दिवस: स्त्री सरोकारों के प्रति बाबासाहेब आंबेडकर का समर्पण किसी जुनून से कम नहीं था!

बाबासाहेब ने अपने प्रयासों से सामाजिक रूढ़ियों को तोड़कर महिलाओं की ज़िंदगी आसान बनाने और उन्हें उनके अधिकारों तक पहुंचाने में अहम योगदान दिया है।
Ambedkar
Photo Courtesy : Sabrang

‘मैं किसी समाज की तरक़्क़ी इस बात से देखता हूं कि वहां महिलाओं ने कितनी तरक़्क़ी की है।’

ये कथन बाबासाहेब डॉक्टर भीमराव आंबेडकर का है। उन्हें दलित और पिछड़ों का मसीहा माना जाता है, लेकिन महिला अधिकारों के लिए उनका संघर्ष किसी आंदोलन से कम नहीं था। आज, 6 दिसंबर को जब देश उन्हें उनकी पुण्यतिथि यानी महापरिनिर्वाण दिवस पर श्रद्धांजलि दे रहा है, तो पेश है महिला सशक्तिकरण को लेकर उनकी सबसे बड़ी पहल 'हिंदू कोड बिल' के संबंध में कुछ जरूरी बातें और डॉक्टर आंबेडकर की राय...

बाबासाहेब मनुस्मृति के विरोधी थे क्योंकि इसमें दलितों और महिलाओं को एक सामान्य ज़िंदगी जीने का अधिकार नहीं था। उन्होंने मनुस्मृति के विरोध को अपनी किताब 'कौन थे शूद्र' और 'जाति का अंत' में भी दर्ज किया है। इतना ही नहीं उन्होंने 25 जुलाई, 1927 को महाराष्ट्र के कोलाबा ज़िले (वर्तमान में रायगढ़ ज़िला) के महाद में सार्वजनिक रूप से मनुस्मृति को जलाया भी था। क्योंकि बाबासाहेब सामाजिक न्याय के पक्षधर थे, इसलिए उन्होंने महिलाओं को वे सभी अधिकार देने की वकालत की, जो मनुस्मृति ने नकारे थे।

बाबासाहेब ने राजनीति और संविधान के जरिए भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष के बीच असमानता की गहरी खाई पाटने की भरपूर कोशिश की। और इसका सबसे बड़ा उदाहरण हिंदू कोड बिल था, जिसे संसद में पारित करवाने को लेकर वे खुद काफी चिंतित थे। उनका कहना था कि, ‘मुझे भारतीय संविधान के निर्माण से अधिक दिलचस्पी और खुशी हिंदू कोड बिल पास कराने में है।’ संसद के अंदर और बाहर विरोध के चलते ये बिल उस समय तो पारित नहीं हो सका, लेकिन आंबेडकर ने इससे दुखी होकर कानून मंत्री के पद से इस्तीफ़ा जरूर दे दिया।

आख़िर क्या खास था 'हिंदू कोड बिल' में?

आज़ादी के बाद भारत का संविधान बनाने में जुटी संविधान सभा के सामने 11 अप्रैल 1947 को डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल पेश किया था। इस बिल में ऐसी तमाम कुरीतियों को चुनौती दी गई थी, जिन्हें धर्म और परंपरा के नाम पर कुछ कट्टरपंथी जिंदा रखकर लैंगिक भेदभाव का आधार बनाना चाहते थे। इस बिल में महिलाओं को पिता की संपत्ति में बराबरी का ह़क़, पुरुषों के समान अधिकार, आधुनिक और प्रगतिशील विचारधारा पर बात की गई थी। कुल मिलाकर इस बिल के जरिए संवैधानिक स्तर से महिला हितों की रक्षा का प्रयास किया गया था।

एक ओर मनुस्मृति जहां महिलाओं को वश में रखने की बात करती थी, उन्हें कभी भी स्वतंत्र नहीं होने देने की पैरवी करती थी, वहीं बाबासाहेब आंबेडकर का मानना था कि सही मायने में प्रजातंत्र तब आएगा, जब महिलाएं अपने लिए फैसले लेने के लिए स्वतंत्र होगीं, वो शिक्षा हासिल कर सकेंगी। उन्हें पिता की संपत्ति में बराबरी का हिस्सा मिलेगा। उन्हें पुरुषों के समान अधिकार मिलेंगे। महिलाओं की उन्नति तभी होगी, जब उन्हें परिवार-समाज में बराबरी का दर्जा मिलेगा।

संपत्ति का बंटवारा और विवाह संबंधी प्रावधानों में बदलाव

हिंदू कोड बिल के मुख्य अंग में संपत्ति का बंटवारा और विवाह संबंधी प्रावधानों में बदलाव शामिल था। ये बिल महिलाओं का संपत्ति में अधिकार सुनिश्चित करता था। यह विधेयक मृतक की विधवा, पुत्री और पुत्र को उसकी संपत्ति में बराबर का अधिकार देता था। इसके अतिरिक्त, बेटियों को उनके पिता की संपत्ति में अपने भाईयों से आधा हिस्सा प्राप्त होता। इस बिल में महिलाओं को गोद लेने का अधिकार देने की बात भी कही गई थी।

इस बिल में विवाह संबंधी प्रावधानों में बदलाव किया गया था। इसमें हिंदू पुरूषों द्वारा एक से अधिक महिलाओं से शादी करने पर प्रतिबंध और अलगाव संबंधी प्रावधान भी थे। ये बिल पुरुषों के समान महिलाओं को भी तलाक देने का अधिकार देता था, क्योंकि तब हिंदू समाज में केवल पुरुष ही तलाक दे सकते थे। ये बिल आधुनिक और प्रगतिशील विचारधारा के अनुरूप हिंदू समाज को एकीकृत करके उसे मजबूत करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था।

इस बिल को 9 अप्रैल 1948 को सेलेक्ट कमेटी के पास भेज दिया गया। बाद में 1951 को आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल को संसद में पेश किया। इसे लेकर संसद के अंदर और बाहर विद्रोह के स्वर उठने लगे। सनातनी धर्मावलम्बी से लेकर आर्य समाजी तक सब आंबेडकर के विरोधी हो गए। उस समय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू जरूर इस बिल के समर्थक थे, लेकिन तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने इसका विरोध किया था।

बिल का विरोध और बाबासाहेब का मंत्रीपद से इस्तीफ़ा

संसद में जहां जनसंघ समेत कांग्रेस का हिंदूवादी धड़ा इसका विरोध कर रहा था तो वहीं संसद के बाहर हरिहरानंद सरस्वती उर्फ करपात्री महाराज के नेतृत्व में बड़ा प्रदर्शन चल रहा था। इस बिल के खिलाफ हिंदूवादी संगठनों ने देश भर में प्रदर्शन किए। आरएसएस ने अकेले दिल्ली में दर्जनों विरोध-रैलियां आयोजित कीं। और फिर आखिरकार तमाम विरोध और पहले आम चुनाव नजदीक होने के चलते 26 सितम्बर 1951 को नेहरू ने घोषणा की कि ये बिल इस सदन से वापस लिया जाता है। इसी के ठीक अगले दिन 27 सितंबर 1951 को बाबासाहेब ने मंत्रीपद से इस्तीफ़ा दे दिया।

हालांकि बाबासाहेब के इस्तीफ़े के बाद देश भर में हिंदू कोड बिल के पक्ष में बड़ी प्रतिक्रिया हुई। महिला संगठनों ने इस बिल के पक्ष में अपनी आवाज़ बुलंद करते हुए कड़ा संघर्ष किया। इस बीच देश के पहले लोकसभा चुनाव हुए और सत्ता में आते ही नेहरू ने हिंदू कोड बिल को कई हिस्सों में तोड़ दिया और 1955-56 में इसके अधिकांश प्राविधानों को संसद ने पारित भी कर दिया।

हिंदू कोड बिल से ही हिंदू विवाह अधिनियम बना, जिसके तहत तलाक को कानूनी दर्जा, अलग-अलग जातियों के स्त्री-पुरूष को एक-दूसरे से विवाह का अधिकार और एक बार में एक से ज्यादा शादी को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया। इसके अलावा 1956 में ही हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, हिंदू दत्तक ग्रहण और पोषण अधिनियम और हिंदू अवयस्कता और संरक्षकता अधिनियम भी लागू हुए। ये सभी कानून महिलाओं को समाज में बराबरी का दर्जा देने के लिए लाए गये थे। इसके तहत पहली बार महिलाओं को संपत्ति में अधिकार और लड़कियों को गोद लेने पर जोर दिया गया।

इसमें कोई दो राय नहीं कि बाबासाहेब ने अपने प्रयासों से सामाजिक रूढ़ियों को तोड़कर महिलाओं की जिंदगी आसान बनाने और उन्हें उनके अधिकारों तक पहुंचाने में अहम योगदान दिया है। उन्होंने सावित्रीबाई फुले और फातिमा शेख की परंपरा को आगे बढ़ाया और महिलाओं को पढ़ने लिखने की आज़ादी के लिए खूब प्रयास किए। जिस जमाने में महिलाओं को चारदीवारी में कैद रखा जाता था, उस समय उन्होंने कामकाजी महिलाओं के लिए मैटरनिटी लीव की पैरवी की। उनकी अगुवाई में संविधान के आर्टिकल 14 से 16 में महिलाओं को समाज में समान अधिकार देना सुनिश्चित किया गया। आज बाबासाहेब के श्रद्धांजलि देते हुए ये कहना गलता नहीं होगा कि स्त्री सरोकारों के प्रति डॉ भीमराव आंबेडकर का समर्पण किसी जुनून से कम नहीं था।

 

 

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