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छत्तीसगढ़ में पेसा कानून के लिए नियम लागू: टूटे वादों के अनटूटे इतिहास का अंतहीन सफर

इन नियमों में मुंहजुबानी के लिए बहुत कुछ लिखा गया है लेकिन उन दो तीन प्रावधानों की बात करना यहाँ ज़रूरी है जिनकी वजह से इस महत्वपूर्ण कानून को महत्वहीन बना दिया गया है।
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'प्रतीकात्मक फ़ोटो' साभार: The Hindu

9 अगस्त 2022, विश्व आदिवासी दिवस के रोज़ छत्तीसगढ़ राज्य ने इस महत्वपूर्ण कानून के लिए नियमों को राजपत्र में अधिसूचित किया है। छत्तीसगढ़,पेसा कानून के नियम अधिसूचित करने के मामले में देश में छठवां राज्य हो गया है। इससे पहले राजस्थान, गुजरात, हिमाचल, महाराष्ट्र और संयुक्त आंध्र प्रदेश नियम लागू कर चुके हैं। हालांकि छत्तीसगढ़ से पहले जिन राज्यों में पेसा कानून के नियम लागू भी हो चुके हैं वहाँ भी इस सांवैधानिक दिशा में सत्ता के विकेन्द्रीकरण को लेकर कोई ठोस परिणाम हासिल नहीं किया जा सके हैं।

छत्तीसगढ़ में पेसा कानून के नियमों को लेकर समाज में एक उत्साह था। इसकी वजह ये थी कि इन नियमों को लेकर तत्कालीन पंचायत और ग्रामीण विकास के मंत्री श्री टी. एस. सिंह देव ने सभी हितग्राहियों को लेकर एक सुव्यवस्थित परामर्श की करीब दो साल लंबी प्रक्रिया चलाई। परामर्शों की इस शृंखला में जमीनी स्तर से लेकर, गाँव और टोलों के लोगों विशेषकर आदिवासी समुदायों को शामिल किया गया। मंत्री खुद इनके साथ गाँव-गाँव में चौपाल लगाकर बैठे, उन्हें सुना, उनकी चुनौतियों को समझा और कई स्तरों पर विषय विशेषज्ञों के साथ राय शुमारी की और अंतत: नियमों का मसौदा तैयार किया।

हालांकि छत्तीसगढ़ सरकार में एक आंतरिक प्रतिद्वंदिता की वजह से राज्य के मुख्यमंत्री ने राज्य योजना आयोग के द्वारा इसी मामले में एक कार्य-बल का भी गठन कर दिया। रवि रेब्बा प्रगड़ा की अध्यक्षतता में इस कार्य-बल ने भी दो महीने के भीतर पेसा नियमों पर अपनी सिफ़ारिशें सरकार को सौंपीं। बाद में इन सिफ़ारिशों को राज्य के पंचायत और ग्रामीण विकास मंत्रालय को भेज दिया गया। इन सिफ़ारिशों का अवलोकन करके मंत्रालय ने अपना मसौदा राज्य की कैबिनेट को दिया।

कैबिनेट ने इन नियमों को अंतिम रूप दिया। अब ये नियम राज्य के राजपत्र में अधिसूचित हो चुके हैं। पेसा कानून, अपने आप में इस मौजूदा आर्थिक व्यवस्था और पूंजी के निर्बाध खेल के खिलाफ एक सशक्त सांवैधानिक पहल के रूप में देखा जाता है। पेसा कानून देश के संविधान की पाँचवीं अनुसूची क्षेत्रों में लागू होता है जो संविधान के 73वें संशोधन के बाद प्रभाव में आया। 24 दिसंबर 1996 को पेसा कानून देश की संसद से पारित हुआ जिसे अब 25 साल हो चुके हैं। इन पच्चीस सालों में ऐसे दस राज्यों में जहां पाँचवीं अनुसूची क्षेत्र हैं, महज़ छह राज्यों ने ही अब तक इस कानून के क्रियान्वयन के लिए नियम बनाने की पहल की है।

जिन कारणों से इन राज्यों की सरकारें पेसा कानून को उसकी मूल मंशा और उसमें दिये क्रांतिकारी प्रावधानों को लागू करने से डरती या बचतीं आयीं हैं उस डर से छत्तीसगढ़ में लागू हुए नियम भी अछूते नहीं हैं जबकि तमाम परामर्शों में यह बात और मांग उठती आयी थी कि अगर वाकई पेसा कानून को इस प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध और आदिवासी समुदायों की व्याप्ति के मद्देनजर प्रभावशाली बनाना है तो इसे नव-उदारवादी  अर्थव्यवस्था के पूरक के तौर पर ही तैयार करना होगा। अफसोस कि छत्तीसगढ़ सरकार इसमें न केवल चूकती नज़र आयी है बल्कि इसने पेसा नियमों को इस तरह से बनाया है कि जिसमें प्राकृतिक संसाधनों और आदिवासियों पर हो रहे आक्रमणों को आसान रास्ता दे दिया है।

इन नियमों को लेकर उत्साह से ज़्यादा आपत्तियों का सामना करना पड़ रहा है। जिसकी मूल वजह इसमें कानून को बहुत लचर और कमजोर कर दिये जाने की मंशा है। इस कानून के आने के बाद आदिवासी समुदायों ने यह नारा देना शुरू कर दिया था कि इस देश में लोकसभा और विधानसभा से भी ऊंचा दर्जा ग्राम सभा का होगा। न लोक सभा न विधानसभा, सबसे ऊंची ग्राम सभा का यह नारा संविधान की पाँचवीं अनुसूची और ग्यारहवीं अनुसूची के बाद इन क्षेत्रों की ग्राम सभाओं को मिले अधिकारों और शक्तियों की बदौलत ही फलीभूत हो सकता है। लेकिन इन नियमों ने इस पूरी सांवैधानिक अवधारणा और प्रावधानों को दंतविहीन बना दिया है।

क्या है इन नियमों में?

इन नियमों में मुंहजुबानी के लिए बहुत कुछ लिखा गया है लेकिन उन दो तीन प्रावधानों की बात करना यहाँ ज़रूरी है जिनकी वजह से इस महत्वपूर्ण कानून को महत्वहीन बना दिया गया है। पहली और सबसे बड़ी आपत्ति इन नियमों में भूमि-अधिग्रहण की प्रक्रिया में ग्राम सभाओं की भूमिका को नगण्य बना दिया जाना है। 1996 में वजूद में आए पेसा कानून में यह स्पष्ट प्रावधान है कि वन भूमि के डायवर्जन या भूमि-अधिग्रहण से पहले ग्राम सभा से ‘परामर्श’ किया जाना ज़रूरी है। जिसे 2006 में आए वन अधिकार (मान्यता) कानून में ग्राम सभाओं को और तवज्जो देते हुए इस परमर्श के प्रावधान को सहमति में बदल दिया। यहाँ तक कि 2013 में आए भूमि अधिग्रहण, पुनर्स्थापन और पुनर्वास कानून में भी पाँचवीं अनुसूची क्षेत्रों में भूमि अधिग्रहण से पहले समुदायों की ‘सहमति’ के स्पष्ट प्रावधान किए गए हैं। लेकिन इन नियमों में भूमि-अधिग्रहण की प्रक्रिया में ग्राम सभा की भूमिका को केवल ‘परामर्श’ शब्द में सीमित कर दिया गया है। इस तरह देखें तो ये नियम आदिवासी क्षेत्रों के लिए दो क़ानूनों के भी खिलाफ जाते हैं।
 
इसके अलावा एक और प्रावधान इसी मामले में किया गया है कि अगर किसी को भूमि अधिग्रहण या भूमि-डायवर्जन को लेकर ग्राम सभा के प्रस्ताव से आपत्ति है तो वह जिला कलेक्टर से इसकी शिकायत कर सकता है। जिला कलेक्टर,  जो खुद भूमि -अधिग्रहण की प्रक्रिया के संपादन के लिए अधिकृत एजेंसी है, वह इन आपत्तियों की जांच और निराकरण करेगा। यह मशहूर ग़ज़लगो दुष्यंत के शब्दों में यह ‘चाकू की पसलियों से गुजारिश’ का मामला है जो न तो विधि अनुकूल ही है और न ही संविधान सम्मत।

यह एक प्रावधान, छत्तीसगढ़ सरकार की मंशा को ज़ाहिर करने के लिए काफी है कि कैसे वह ग्राम सभा जिसे  देश में पाँचवीं अनुसूची क्षेत्र में एक ‘मुकम्मल स्वायत्त सरकार’ का रुतबा हासिल है, एक जिला कलेक्टर के अधीन ला दी गयी है। पेसा कानून इसी जिला प्रशासन के बरक्स और उसके समानान्तर एक स्वायत्त स्व-शासन की व्यवस्था स्थापित करता है जो सामान्य प्रशासनिक व्यवस्था से न केवल पूरी तरह अलग है बल्कि कई मामलों में वह इस सामान्य व्यवस्था के ऊपर भी है क्योंकि पाँचवीं अनूसूची क्षेत्र में निवासरत विशेष रूप से आदिवासी समुदायों का गवर्नेंस उनकी अपनी रूढ़ियों, परम्पराओं और मान्यताओं से संचालित है और जिसे इस गणराज्य के राष्ट्रपति का संरक्षण, राज्य के राज्यपाल के जरिये प्राप्त है।

इस नियम के बाद यह विशिष्ट क्षेत्र जो इस राज्य में पच्चीस सालों से अपने लिए बने कानून के  नियमों की बाट जोह रहे थे आज इन नियमों से खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक सदस्य आलोक शुक्ला कहते हैं कि – “इन नियमों के प्रकाश में आने से आदिवासी समुदायों के बीच निराशा ही फैली है। ये नियम न तो आदिवासियों के अपने संसाधनों पर नैसर्गिक अधिकारों को ही संरक्षित करते हैं और न ही इन्हें कॉर्पोरेट की लूट से ही बचाते हैं। बल्कि ये नियम अब तक कोरपोरेट्स की लूट के लिए एक बाधक बने रहे पेसा कानून को लचर करते हुए लूट की गति को बढ़ाने का रास्ता ही बनाते हुए दिख रहे हैं”।

पूर्व केंद्रीय मंत्री और आदिवासी नेता श्री अरविंद नेताम  कहते हैं कि “अगर ग्राम सभा को अंतत: कलेक्टर के सामने बौना ही साबित करना है तब ऐसे में पेसा कानून का कोई मतलब नहीं रह जाता”। पेसा कानून की बुनियाद भूरिया समति की सिफ़ारिशों को याद करते हुए वो कहते हैं कि –“उन सिफ़ारिशों का उद्देश्य ही जिला प्रशासन के एकाधिकार को खत्म करना था”।

दूसरा महत्वपूर्ण और आपत्तिजनक पहलू इन नियमों में ग्राम पंचायत के सचिव को ग्राम सभा का भी सचिव नियुक्त किए जाने को लेकर है। बीते पच्चीस सालों के अनुभव बताते हैं कि ग्राम पंचायतें जिला प्रशासन के विस्तार के रूप में काम करने लगीं हैं क्योंकि फण्ड्स के लिए वो जिला प्रशासन और नौकरशाही पर निर्भर हैं। पंचायत सचिव, नौकरशाही के मुकम्मल विस्तार और एक कर्मचारी की तरह काम करता है जो खुद को जिला या जनपद प्रशासन के प्रति जवाबदेह मानता है। इसकी वजह नौकरशाही द्वारा अपने पक्ष में निर्मित किया गया प्रशासनिक ढांचा व माहौल है।

ऐसे में अगर वही सचिव ग्राम सभा का भी सचिव होगा तो ग्राम सभा की स्वतंत्र पहचान व स्वायत्ता गंभीर रूप से खतरे में होगी और सचिव ग्राम सभा की तरफ से जिला प्रशासन से संवाद करेगा। अंतत: ग्राम सभाएं जिला प्रशासन के अधीन एक संस्था के रूप में काम करने लगेंगीं।

तीसरी और बड़ी आपत्ति इन नियमों में ये है कि ग्राम सभाओं को लघु जल संरचनाओं पर नियंत्रण की बात भले लिखी हो लेकिन इसका दायरा बहुत सीमित कर दिया गया है। इन नियमों में लिखा गया है कि 10 हेक्टेयर में फैली जल संरचनाओं मसलन, तालाब, पोखर आदि पर ही ग्राम सभा का सम्पूर्ण अधिकार होगा। यह नियम वनाधिकार (मान्यता) कानून, 2006 के प्रावधानों के सीधे खिलाफ है। इस कानून में कहा गया है कि ग्राम सभा की सीमा में आने वाली समस्त जल संरचनाओं पर ग्राम सभा का संपूर्ण अधिकार होगा। इस कानून में कहीं भी जल संरचानों के क्षेत्रफल को परिभाषित या सीमित नहीं किया गया है।

चौथा और महत्वपूर्ण पहलू जिन्हें लेकर आपत्तियाँ हैं, वो इन नियमों में तमाम बुनियादी और महत्वपूर्ण परिभाषाओं को लेकर है। जैसे गाँव, ग्राम, ग्राम सभा आदि। इन नियमों में पेसा कानून की मूल मंशा के प्रतिकूल इन बुनियादी धारणाओं को निहित स्वार्थों को ध्यान में रखकर पुनर्परिभाषित किया गया है।हालांकि ये जानते हुए भी कि इन नियमों को लाने से सरकार की किरकिरी ही होगी और जिसका संकेत खुद पंचायत व ग्रामीण विकास मंत्री ने अपने इस्तीफे से दे दिये थे लेकिन छत्तीसगढ़ सरकार ने इन नियमों को लाना अपनी हठ बना ली है।

बहरहाल देखना है कि अब पाँचवीं अनुसूची क्षेत्रों में और विशेष रूप से आदिवासी समुदायों में इन नियमों को लेकर क्या हलचल होती है और कैसे सरकार इन आपत्तियों का सामना करती है।

(लेखक लंबे समय से सामाजिक आंदोलनों से जुड़े हैं। यहाँ व्यक्त किए गए विचार व्यक्तिगत हैं।)

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