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जेंडर के मुद्दे पर न्यायपालिका को संवेदनशील होने की ज़रूरत है!

अपने कई फैसलों में भारतीय न्यायपालिका पितृसत्तात्मक सोच से ग्रसित लगती है। यौन उत्‍पीड़न के मामलों में पीड़िताओं के प्रति न्यायपालिका की प्रतिक्रिया संवेदनशील और विचारशील से लेकर सेक्सिस्ट और स्त्री विरोधी के बीच उतार-चढ़ाव वाली नज़र आती है।
जेंडर के मुद्दे पर न्यायपालिका को संवेदनशील होने की ज़रूरत है!
'प्रतीकात्मक फ़ोटो' साभार: The Indian Express

“मामले में जांच पूरी हो चुकी है और सूचना देने वाली/पीड़िता लड़की और आरोपी दोनों ही आईआईटी-गुवाहाटी में प्रौद्योगिकी पाठ्यक्रम कर रहे प्रतिभाशाली विद्यार्थी होने के नाते राज्य की भविष्य की संपत्ति हैं… अगर आरोप तय कर लिए गए हैं तो आरोपी को हिरासत में रखना जरूरी नहीं होताहै।”

ये बातें गुवाहाटी हाई कोर्ट ने साथी छात्रा से बलात्कार के आरोपी आईआईटी-गुवाहाटी के एक छात्र को जमानत देते हुए कहीं। यहां अदालत ने ये भी नोट किया कि आरोपी छात्र के खिलाफ “स्पष्ट प्रथम दृष्टया” मामला है, बावजूद इस तथ्य के कोर्ट ने उसे ज़मानत दे दी। हालांकि हैरानी जमानत से कहीं ज्यादा कोर्ट के अजीबो-गरीब वक्त्व से है। भला एक बलात्कार का आरोपी ‘प्रतिभाशाली’ और ‘भविष्य की संपत्ति’ कैसे हो सकता है। गुवाहाटी हाई कोर्ट का यह फैसला लैंगिक न्याय के मौलिक आधार को भी चुनौती देता है।

यौन शोषण और उत्पीड़न का पीड़िता पर असर

आपको बता दें कि एम.जे. अकबर मामले में प्रिया रमानी के पक्ष में फैसला देते हुए दिल्ली की एक अदालत ने कहा था कि किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा की सुरक्षा किसी के सम्मान की क़ीमत पर नहीं की जा सकती है। अदालत ने अपने फ़ैसले में ये भी कहा था कि यौन शोषण आत्मसम्मान और आत्मविश्वास को ख़त्म कर देता है। इसलिए समाज को समझना ही होगा कि यौन शोषण और उत्पीड़न का पीड़ित पर क्या असर होता है।

हालांकि आईआईटी गुवाहाटी मामले में कोर्ट का रुख पीड़िता के पक्ष में जाने की जगह आरोपी की झोली में जाता दिखाई देता है। ये महिलाओं के खिलाफ यौन उत्पीड़न के आरोपियों के साथ ‘नरम न्याय’ जैसी व्यवस्था लगती है।

क्या है पूरा मामला?

लाइव लॉ की खबर के मुताबिक बीते 28 मार्च को रात लगभग 9 बजे आरोपी छात्र ने अपनी साथी छात्रा से कहा कि उसे आईआईटी गुवाहाटी के छात्रों के वित्त और आर्थिक क्लब के संयुक्त सचिव के रूप में छात्रा की ज़िम्मेदारियों के बारे में चर्चा करनी है। पीड़िता जब वहां पहुंची तो आरोपी छात्र ने उसे जबरन शराब पिलाकर बेहोश किया और उसके बाद उसका बलात्कार किया।

पीड़िता पूरी रात बेहोश रही, उसे अगली सुबह लगभग 5 बजे के क़रीब होश आया। गुवाहाटी मेडिकल कॉलेज और अस्पताल (जी.एम.सी.एच.), गुवाहाटी में उसका इलाज और फोरेंसिक जांच आदि की गई। बाद में आरोपी छात्र को 3 अप्रैल को गिरफ्तार किया गया।

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक गुवाहाटी मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल के एक डॉक्टर ने उन्हें बताया कि सर्वाइवर बेहद गंभीर हालत में उनके पास पहुंची थी और यह यौन हिंसा का एक गंभीर मामला नज़र आ रहा था। वहीं, आईआईटी गुवाहाटी द्वारा 2 अप्रैल को जारी किए गए बयान के मुताबिक एक फैक्ट फाइंडिंग कमिटी बनाई जा चुकी है।

वेबसाइट ईस्ट मोजो की रिपोर्ट बताती है कि घटना की जांच बहुत धीमी रफ़्तार से आगे बढ़ रही थी और लगभग दो महीने बाद तक भी पीड़िता को पुलिस और प्रशासन से कोई खास उम्मीद नहीं मिल पाई थी। मजबूरन पीड़िता ने 18 मई को गुवाहाटी हाई कोर्ट की दरवाजा खटखटाया और 28 मई को गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने मामले की जांच के लिए एक महिला पुलिस अधिकारी सहित तीन अनुभवी अधिकारियों की एक नई जाँच टीम गठित करने का आदेश जारी किया था। जिसके बाद अदालत ने अपने 13 अगस्त के आदेश में कहा कि पीड़ित और आरोपी दोनों 19 से 21 वर्ष के आयु वर्ग के युवा हैं और वे दोनों अलग-अलग राज्यों से हैं। इसलिए आरोप-पत्र में उल्लेखित गवाहों की सूची का अवलोकन करने पर, आरोपी को जमानत पर रिहा करने पर उसके द्वारा साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ करने या उन्हें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करने की अदालत को कोई संभावना नहीं दिखती है।

अदालती फैसले, जो निराश करते हैं!

वैसे हैरान कर देने वाला ये अदालती फरमान कोई पहला मामला नहीं है। इससे पहले भी कई मौकों पर जजों ने ऐसे फैसले सुनाए हैं, जो न‍ सिर्फ उनकी सीमित बुद्धि बल्कि इस बात का प्रमाण हैं कि स्त्रियों को लेकर उनकी मानसिकता आज भी 200 साल पुरानी है।

हाल ही में गोवा की मपूसा कोर्ट ने एक समय एशिया के 50 सबसे शक्तिशाली पत्रकारों में शुमार तहलका के पूर्व संपादक तरुण तेजपाल को रेप मामले में बरी करते हुए कहा था कि कथित तौर पर हुए यौन शोषण के बाद की तस्वीर को देखने पर पीड़िता "मुस्कुराती हुई, खुश, सामान्य और अच्छे मूड में दिखती हैं। तेजपाल पर लगे बलात्कार के आरोपों को ख़ारिज करते हुए अपने 527 पन्ने के फ़ैसले में कोर्ट ने लिखा, "वो किसी तरह से परेशान, संकोच करती हुई या डरी-सहमी हुई नहीं दिख रही हैं। हालांकि उनका दावा है कि इसके ठीक पहले उनका यौन शोषण किया गया।"

कोर्ट के इस फ़ैसले पर कई लोगों ने कड़ी आपत्ति जाहिर की थी। इसे असंवेदनशील और पीड़िताओं को निशाना बनाने वाला बताया गया। तमाम महिलावादी कार्यकर्ताओं, सोशल एक्टिविस्ट्स और एकेडमिक्स के करीब 300 ग्रुप्स ने एक जॉइंट स्टेटमेंट निकाला। इसमें कहा गाया कि इस फैसले ने आरोपी को नहीं, बल्कि विक्टिम को ही कटघरे में खड़ा कर दिया है। फिलहाल मामला बॉम्बे हाईकोर्ट में है।

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इसी साल की शुरुआत में बॉम्‍बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच की सिंगल जज जस्टिस पुष्‍पा गनेडीवाला ने पॉस्‍को कानून के तहत एक आरोपी की तीन साल की सजा माफ करते हुए कहा था कि सिर्फ ब्रेस्‍ट को जबरन छूना मात्र यौन उत्पीड़न नहीं माना जाएगा। इसके लिए यौन मंशा के साथ ‘स्किन टू स्किन कॉन्टेक्ट’ होना ज़रूरी है। हालांकि जस्टिस गनेडीवाला के फैसले पर जब बवाल मचा, तो सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लेते हुए इस पर स्टे लगा दिया।

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मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की इंदौर पीठ का राखी बांधने वाला फैसला भी शायद ही कोई भूल पाए। जहां यौन उत्पीड़न के एक आरोपी को इस शर्त पर जमानत दे दी गई कि वह रक्षाबंधन के दिन शिकायतकर्ता के पास मिठाई का डिब्बा लेकर जाएगा और उसके हाथ पर राखी बांधने का अनुरोध करेगा और साथ ही वह उसकी रक्षा करने का वादा करेगा। न्यायालय ने यह भी आदेश दिया कि, अभियुक्त रिवाज के के रूप में सर्वाइवर को उपहार में 11,000 रुपये की राशि भी दे। हालांकि इस फैसले को आगे चुनौती दी गई और सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के इस फ़ैसले को खारिज कर दिया।

कर्नाटक हाई कोर्ट  का एक फैसला इस बारे में मानक बहस से आगे निकल गया कि आखिर एक बलात्कार पीड़िता को बलात्कार के बाद कैसे ‘व्यवहार’ करना चाहिए? दरअसल, इस मामले में बलात्कार के बाद सर्वाइवर थक गई और सो गई थी, इसीलिए न्यायालय द्वारा इसे ‘एक भारतीय महिला के लिए अशोभनीय’ माना गया। न्यायालय द्वारा इस विवादास्पद टिप्पणी को बाद में जनता के हंगामे के बाद आदेश से हटा दिया गया।

सुप्रीम कोर्ट ने साल 2016 में सामूहिक बलात्कार के दोषियों को बरी कर दिया और पीड़ित महिला के कथन पर विश्वास नहीं किया क्योंकि न्यायालय को यह लगा कि कथित घटना के दौरान पीड़िता का आचरण भी ‘जबरन बलात्कार की पीड़िता या धोखे से बनाए जाने वाले संबंध’ के विपरीत थे।

रेपिस्‍ट से शादी करवाने का राजस्‍थान हाईकोर्ट का या भंवरी देवी केस में राजस्‍थान की निचली अदालत का वो बेहूदा बयान, जिसमें कोर्ट ने कहा कि एक ऊंची जाति का आदमी निचली जाति की औरत को हाथ भी नहीं लगा सकता, रेप कैसे करेगा।

न्यायपालिका पितृसत्तात्मक सोच से ग्रसित है!

ये महज कुछ फैसले हैं जो आपके सामने रखें गए हैं, लेकिन वास्तव में ऐसे अदालती फैसलों की लिस्ट लंबी है। औरत के लिए न्‍याय के नजरिए से भारतीय न्‍यायालय के फैसलों का इतिहास खंगालने जाएंगे तो ऐसी सैकड़ों कहानियां मिलेंगी, जो आपको दुख और शर्मिंदगी से भर सकती हैं। इसलिए फिलहाल इतिहास को छोड़ कर अगर अभी की बात भी करें तो ऐसा कोई दिन नहीं गुजरता, जब दुनिया के किसी-न-किसी कोने से कोई ऐसी खबर न आए, जिसका संबंध औरतों के लिए न्‍याय और बराबरी से हो। दुनिया का हर देश अपने सैकड़ों साल पुराने कानून बदल रहा है, अपना संविधान बदल रहा है। जहां नहीं बदल रहा, वहां बदलने के लिए औरतें लड़ रही हैं और इन बदलावों के बरक्‍स हमारे यहां ये हो रहा है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र रोज चार कदम पीछे लौट रहा है।

यूं तो जेंडर सेंसटाइजेशन की जरूरत इस देश में पूरे सिस्टम को ही है, लेकिन जिनके कंधों पर हम औरतों के लिए कानून बनाने और फैसले सुनाने का दारोमदार है, उनका संवेदनशील होना सबसे ज्यादा जरूरी है। 

बीते साल नवंबर में सुप्रीम कोर्ट में एक मामले की सुनवाई करते हुए अटॉर्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल ने खुद कहा था कि निचली अदालतों और हाईकोर्ट के जजों को भी जेंडर के मुद्दे पर संवेदनशील बनाने की जरूरत है। जजों की भर्ती परीक्षा में जेंडर सेंसटाइजेशन पर भी एक अध्याय होना चाहिए। इस चीज के लिए गाइडलाइंस बनाई जानी चाहिए कि यौन उत्‍पीड़न के मामलों के साथ किस प्रकार की संवेदनशीलता बरती जाए। हमें अपने जजों को शिक्षित करने की जरूरत है।

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