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यूपी चुनाव: आलू की कीमतों में भारी गिरावट ने उत्तर प्रदेश के किसानों की बढ़ाईं मुश्किलें

ख़राब मौसम और फसल की बीमारियों के बावजूद, यूपी की आलू बेल्ट में किसानों ने ऊंचे दामों की चाह में आलू की अच्छी पैदावार की है। हालांकि, मौजूदा खुदाई के मौसम में गिरती कीमतों ने उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया है, और यह स्थिति दर्शाती है कि एक औसत किसान के लिए एमएसपी कितनी महत्वपूर्ण है।
potato farming UP

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले में कुरावली तहसील के महलोई गांव के 49 वर्षीय किसान अराम सिंह को हाल ही में उचित मूल्य न मिलने के कारण 3 लाख रुपये का भारी नुकसान हुआ है, उसकी फसल 300 क्विंटल की थी। वे कुल उत्पादन का केवल 60 प्रतिशत ही बेच पाए, जबकि बाकी आलू नरमी की वजह से सड़ गया और कोल्ड स्टोरेज में बर्बाद हो गया। 

वे इस फसल से धान की फसल में हुए नुकसान की भरपाई करने की उम्मीद कर रहे थे, लेकिन इस बात से अनजान थे कि उनके रास्ते में एक और बड़ा झटका आने वाला है। खरीफ़ की फ़सल आवारा पशुओं और प्रतिकूल मौसम के आंशिक असर से नष्ट हो गई थी। फिर भी, उनका उत्पादन अच्छा रहा था। अगर बाज़ार मूल्य, न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी), सरकारी खरीद मूल्य के अनुसार होता तो वे भी अच्छी कमाई कर सकते थे- क्योंकि 2021-22 फसल वर्ष (जुलाई-जून) में एक सामान्य किस्म की कीमत 1,940 रुपये प्रति क्विंटल थी। 

लेकिन जैसे ही फ़सल के तुरंत बाद बाजार में उपज की बाढ़ आई, उत्तर प्रदेश में धान की कीमत घटकर सिर्फ 1,100-1,300 रुपये प्रति क्विंटल रह गई, जो एमएसपी 2,590 रुपये प्रति क्विंटल से काफी कम कम है। यह एमएसपी तब मिलती यदि स्वामीनाथन आयोग द्वारा अनुशंसित उत्पादन लागत की गणना में पूंजीगत संपत्ति और स्वामित्व वाली भूमि पर किराये की लागत को ध्यान में रखा गया होता।

आजीविका का कोई अन्य स्रोत नहीं होने और सारी बचत ख़त्म होने के कारण, उन्होंने एक निजी साहूकार से एक बार फिर चार एकड़ में आलू और अपनी बाकी चार एकड़ जमीन पर गेहूं और सरसों का उत्पादन करने के लिए 1 लाख रुपये उधार लिए हैं। इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर उगाए जाने वाले सफेद आलू का प्रचलित बाजार मूल्य इसकी गुणवत्ता और आकार के आधार पर 200-250 रुपये प्रति 40 किलोग्राम के बीच होता है।

यदि श्रम लागत, मंडी शुल्क, परिवहन पर खर्च और पैकेजिंग की लागत को छोड़ दें तो लगेगा कि उन्हे कोई लाभ नहीं और कोई नुकसान भी नहीं है क्योंकि उनका पूरा उत्पादन बिक जाता है।

आलू की कीमतें पिछले साल 43 रुपये प्रति किलोग्राम तक पहुंच गई थीं क्योंकि कोविड-19 के कारण हुए लॉकडाउन के कारण आपूर्ति श्रृंखला प्रभावित हुई थी। मुनाफ़ा कमाने की उम्मीद में किसानों ने इस साल आलू की खेती बड़े पैमाने पर की थी। लेकिन बंपर फसल की वजह से कीमतों में गिरावट आ गई। उन गांवों में मातम छाया हुआ है जहां आलू की खेती मुख्य आधार है क्योंकि हर गुजरते दिन के साथ कीमतें गिर रही हैं।

हालांकि कोल्ड स्टोरेज में सड़ने के करण सिंह का आलू का उत्पादन नष्ट हो गया था और परिणामस्वरूप उन्हें नुकसान हुआ था, और लॉकडाउन के बाद आलू की कीमत 43 रुपये प्रति किलोग्राम तक पहुंच गई थी जिसने किसानों को और अधिक आलू पैदा करने के लिए प्रोत्साहित किया था। लेकिन इस साल आलू की अच्छी कीमत मिलने की उम्मीद के मुकाबले अब आलू की कीमतें 5 रुपये से 6.25 रुपये प्रति किलो के बीच घूम रही हैं।

“पिछले साल आलू की कीमतों में बढ़ोतरी ने हमें आलू को बड़े पैमाने पर उगाने के लिए प्रोत्साहित किया था। लेकिन अब ऐसा लगता है कि हमने बहुत बड़ी गलती कर दी है क्योंकि उत्पादन में वृद्धि ने बाजार को एकदम नीचे ला दिया है। इसकी अतिरिक्त आपूर्ति मौजूद है, और इसलिए, हमें मुश्किल से 500 से 650 रुपये प्रति क्विंटल मिल रहा है। सिंह ने न्यूज़क्लिक को बड़ी ही निराशा के साथ बताया, कि इन कीमतों से मुनाफ़ा कमाने की कोई सोच भी नहीं सकता है। यही काफी होगा यदि हमें इसकी लागत ही मिल जाए।"

ट्रैक्टर की ट्रॉली पर आलू की फसल की व्यवस्था करने में व्यस्त किसान ने कहा, "यह फ़सल नुकसान के अलावा और कुछ नहीं है।"

पूरे देश में सबसे ज्यादा आलू का उत्पादन उत्तर प्रदेश में होता है। यह देश के कुल उत्पादन का लगभग 35 प्रतिशत पैदा करता है। केंद्रीय कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय के अनुसार, राज्य में 2019-20 में आलू की खेती 6.10 लाख हेक्टेयर भूमि पर की गई थी और 14.78 मिलियन टन आलू पैदा किया गया था। 

मथुरा, आगरा, सिरसागंज, फर्रुखाबाद, मैनपुरी, इटावा, कन्नौज, अलीगढ़ और कानपुर उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में से हैं जो आलू का बड़ा उत्पादन करने के लिए जाने जाते हैं। आलू के चिप्स बनाने वाली ग्लोबल फूड दिग्गज यहां से आलू खरीदती हैं।

आंकड़ों के मुताबिक, देश भर में आलू का उत्पादन 2020-21 में बढ़कर 53.69 मिलियन टन हो गया था, जो 2019-20 में 48.56 मिलियन टन था।

बड़ी उपज के बावजूद, संकट का कोई स्पष्ट अंत नहीं है क्योंकि उत्तर प्रदेश के किसानों को कई किस्म की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। उनके ऊपर जो कर्ज है वे उसे चुकाने में असमर्थ हैं और ब्याज बढ़ रहा है- जिसके कारण वे और अधिक वित्तीय बोझ में फंसते जा रहे हैं। बढ़ते कर्ज़ के पीछे का कारण खेती में आ रही ऊंची लागत और कम बिक्री मूल्य बताया जा रहा है।

कन्नौज के बाहरी इलाके में रहने वाले आलोक दुबे ने 20 एकड़ जमीन पर आलू की खेती की है, जिसे उन्होंने एक साल के लिए 40,000 रुपये प्रति एकड़ की दर से एक जमींदार से लीज पर लिया है।

“इनपुट लागत अप्रत्याशित रूप से बढ़ गई है। उर्वरकों की भारी कमी के कारण, डीएपी, यूरिया और पोटाश काला बाजार में 1,500 रुपये, 330 रुपये और 1,100 रुपये में बेचा जा रहा है, जबकि उनके नियंत्रित मूल्य 1,250 रुपये, 270 रुपये और 950 रुपये प्रति 45 किलो बैग हैं। आलू के बीज की कीमत भी काफी अधिक थी। डीजल की कीमतों में बढ़ोतरी से जुताई की लागत बढ़ गई है। सिंचाई के लिए हम बिजली पर निर्भर हैं, जो बहुत महंगी भी है। आलू की फसल को कीटनाशकों की जरूरत होती है, जो महंगे भी होते हैं। यदि इन सभी व्ययों को एक साथ जोड़ दिया जाए और इन्हे श्रम लागत के साथ जोड़ दिया जाए, तो उत्पादन लागत 50,000-60,000 रुपये प्रति एकड़ के बीच बैठेगी। यदि मौसम अनुकूल रहा तो औसत उपज लगभग 2,000 किलोग्राम होगी। यदि उपज 5 रुपये प्रति किलो पर बेची जाती है तो वसूली इनपुट लागत का आधा होगा। उन्होंने न्यूज़क्लिक को बताया कि तभी मुनाफा होगा जब इसे 10 रुपये प्रति किलो से ऊपर बेचा जाएगा।

40 वर्षीय किसान ने पिछले साल 10 एकड़ जमीन पर आलू की खेती की थी। कुल उपज एक हजार क्विंटल थी। उन्होंने कहा कि उन्हें 4 लाख रुपये का नुकसान हुआ क्योंकि आलू अभी भी कोल्ड स्टोरेज में पड़ा हैं।

उन्होंने कहा कि सरकार का तर्क है कि अगर किसान मुनाफ़ा कमाना चाहते हैं तो उन्हें फ़सल का विविधीकरण करना होगा। "टमाटर के अच्छे दाम मिलते देखकर, जो 700-800 रुपये प्रति कैरेट (25 किलो) बिक रहा था, तो मैंने टमाटर की खेती की, लेकिन कीमत 200-250 रुपये प्रति कैरेट हो गई। मैंने लगभग दो एकड़ भूमि में बैंगन उगाया है। हमें 8 रुपये प्रति किलो की कीमत मिल रही है, जो फिर से लाभदायक मूल्य नहीं है। अगर इसे 15 रुपये प्रति किलो बेचा जाता है, तो ही हम कुछ कमा पाएंगे।“

किसानों ने कहा कि उन्हें गरीबी की ओर धकेल दिया गया है और वे आत्महत्या करने के कगार पर हैं। एक आलू किसान राजेश कश्यप, जो मजबूर हैं कि उसकी पत्नी और बच्चे उसके साथ खेत में काम करते हैं, कहते हैं, "हम पिछले दो सालों से आलू फेंक रहे हैं, यहां तक कि मवेशी भी उन्हें नहीं खाते हैं। कीमतें इतनी नीचे गिर गई हैं कि उपज को कोल्ड स्टोरेज से बाहर फेंकने के बावजूद भी हमें कोल्ड स्टोरेज का 40 रुपये किराया देना पड़ा। हम पूरी तरह से बर्बाद हो गए हैं।”

राजनीतिक दलों के प्रति अपना गुस्सा व्यक्त करते हुए, उनकी पत्नी राधा कश्यप ने बिना किसी झिझक के कहा कि, "चाहे भाजपा हो, समाजवादी पार्टी या बहुजन समाज पार्टी हो, उनमें से किसी ने भी स्थिति को सुधारने के लिए कुछ नहीं किया है।"

आगे भी कीमतों का गिरना तय है 

इस वर्ष किसानों ने अधिक रकबे पर आलू की खेती कर अपनी उपज में वृद्धि की है। बढ़िया मौसम की वजह से उत्पादन में सुधार करने में मदद मिली है। बाजार भाव में और गिरावट की आशंका से वे फसल का जो भी दाम मिल रहा है उस पर बेच रहे हैं।

“तेलंगाना ने यूपी से आलू की आपूर्ति पर प्रतिबंध लगा दिया है। कई किसानों की पिछले सीजन की फसल कोल्ड स्टोरेज में पड़ी है। ऐसे में अगर तेलंगाना आलू के आयात पर से प्रतिबंध नहीं हटाता है, तो स्थानीय बाजार में आलू की मात्र अतिरिक्त हो जाएगी, जिसके परिणामस्वरूप कीमतों में और कमी आएगी। फिर हमारे पास इसे सड़क पर फेंकने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा, ”फर्रुखाबाद के कैमगंज ब्लॉक के कमलपुर गांव के 33 वर्षीय आलू किसान मोहित सिंह ने उक्त बातें कही। तेलंगाना में यूपी से बड़ी मात्रा में आलू का आयात किया जाता था।

उच्च उत्पादन, लेकिन कोई उद्योग नहीं

उच्च उत्पादन के बावजूद, इस क्षेत्र में खाद्य प्रसंस्करण उद्योग की भारी कमी है, जो स्थानीय स्तर पर बड़ी मात्रा में उत्पादन की खपत कर सकता था। आलू की बुवाई आमतौर पर उत्तर प्रदेश में मध्य अक्टूबर या नवंबर की शुरुआत में होती है। इसकी कटाई फरवरी के अंत या मार्च के पहले सप्ताह में की जाती है। यहां के किसान अपनी फसल का पांचवां हिस्सा बेचते हैं। बाकी को कोल्ड स्टोर में रखा जाता है, जिसे नवंबर में अगली फसल तक बेचा जाता है। ताजा आलू इस अवधि के दौरान हिमाचल, पंजाब, कर्नाटक, महाराष्ट्र और यूपी के कुछ हिस्सों में बाजार में आए हैं।

उत्तर प्रदेश सरकार को जनवरी 2018 में उस वक़्त एक शर्मनाक स्थिति का सामना करना पड़ा था, जब किसानों ने उनकी उपज के एवज़ में मिल रहे दामों का विरोध करने के लिए टनों आलुओं को लखनऊ में राज्य विधानसभा और मुख्यमंत्री आवास के सामने फेंक दिया था। 

किसानों के बचाव में राज्य सरकार ने 300 किमी तक अन्य स्थानों पर आलू के परिवहन के लिए 50 रुपये प्रति क्विंटल की सब्सिडी प्रदान करने की योजना शुरू की है। सरकार ने सरकारी स्कूलों के एक करोड़ से अधिक बच्चों के लिए दोपहर के भोजन में आलू पकाना भी अनिवार्य कर दिया है।

हालांकि किसानों का दावा है कि सरकार की कोशिशें जमीन पर नहीं कागजों पर हैं। यहां तक कि अगर इन उपायों को लागू किया जाता है, तो यह अतिरिक्त पैदावार के लिए पर्याप्त नहीं होगा।

किसानों का कहना है कि राज्य के आलू उत्पादक क्षेत्र में खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों की स्थापना ही इसका एकमात्र समाधान है।

अमेरिका स्थित मुख्यालय वाली फूड एंड बेवरेज फर्म पेप्सिको ने पिछले साल मथुरा के कोसी कलां में लेज पोटैटो चिप्स के लिए अपना सबसे बड़ा ग्रीनफील्ड प्लांट चालू किया था। हालांकि इसने स्थानीय किसानों से सालाना 1.5 लाख टन आलू खरीदने का वादा किया है, लेकिन उनका संकल्प अभी तक लागू नहीं हुआ है।

इसके अलावा, किसानों का मानना है कि राज्य में इतने बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए सिर्फ एक ऐसी फैक्ट्री से काम नहीं चलेगा। "हमें कई और उद्योगों की जरूरत है।"

हालांकि, पिछले अनुभव बताते हैं कि ऐसे उद्योग केवल बड़े किसानों को लाभान्वित करते हैं क्योंकि उनकी खरीद मानदंड बहुत सख्त होती है। वे उत्पाद की गुणवत्ता और आकार के आधार पर खेप स्वीकार करते हैं, जो कि उगाने वाले किसान के नियंत्रण के बाहर की बात होती है। 

दूसरे, ये संयंत्र कई मुकदमों और पुलिस केस के साथ आते हैं। किसानों की भूमि को औने-पौने दामों पर अधिग्रहित किया जा सकता है, जिससे किसान और कंपनियों के बीच टकराव होता है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस मूल आलेख को पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें:

UP Elections: Crashing Potato Prices Deepen Farmers’ Woes in Uttar Pradesh

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