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विधानसभा चुनाव परिणाम: लोकतंत्र को गूंगा-बहरा बनाने की प्रक्रिया

जब कोई मतदाता सरकार से प्राप्त होने लाभों के लिए खुद को ‘ऋणी’ महसूस करता है और बेरोजगारी, स्वास्थ्य कुप्रबंधन इत्यादि को लेकर जवाबदेही की मांग करने में विफल रहता है, तो इसे कहीं से भी लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं कहा जा सकता है।
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पांच राज्यों, उत्तरप्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर के चुनाव परिणामों के बाद से अधिकांश विश्लेषण इस चुनावी फैसले की प्रकृति, राष्ट्रीय राजनीति पर इससे पड़ने वाले प्रभाव एवं विपक्ष कैसे इस परिणाम से 2024 के आम चुनावों में अपने स्थान को परिभाषित करता है, को समझने में चला गया है। अक्सर पूछा जाने वाला घिसा-पिटा प्रश्न होता है कि “मतदाता का रुझान अब किस ओर होगा?” निश्चित रूप से इस संदर्भ में, मतदाताओं ने इस बार जनमत सर्वेक्षणों, पत्रकारों और अनुभवी राजनीतिक पर्यवेक्षकों को संकट में डाल दिया है। 

2022 के विधानसभा चुनावों ने इस बात की स्पष्ट रूप से पुष्टि की है कि मतदाता ने नौकरियों, मुद्रा स्फीति, कृषि, कोविड कुप्रबंधन के जटिल मुद्दों को वरीयता नहीं दी है, और इसी वजह से अपने नेताओं को जवाबदेह नहीं ठहराया है।

विशेषकर उत्तरप्रदेश में, साल भर से चल रहे किसानों के आंदोलन, हाथरस बलात्कार कांड, लखीमपुर खीरी में किसानों की कुचलकर की गई हत्या, आवारा मवेशियों का आतंक लगता है किसी भी प्रकार के चुनावी विद्रोह का स्वरुप सिर्फ इसलिए नहीं ले सका क्योंकि टीना फैक्टर (कोई विकल्प नहीं है) काम कर रहा था। सरकार के खिलाफ जमीनी स्तर पर या सत्ता विरोधी गुस्से की लहर के बावजूद, 2022 के चुनाव परिणाम ने सत्ता-समर्थक परिघटना को सामने लाया है। शायद इसकी एक प्रमुख वजह विपक्ष की निष्प्रभावी संचार रणनीति रही, जो न सिर्फ बेतुकी थी बल्कि यह जनता के गुस्से को अपने पक्ष में वोटों के तौर पर परिवर्तित करने में प्रेरित करने में भी असफल सिद्ध हुई।

मतदाता इस बार उत्साहित नहीं लग रहा था, केवल इस वजह से क्योंकि वास्तविकता बेहद कठोर थी – लोगों की नौकरियां चली गई थीं, उनके प्रियजनों और अस्थिरता ने हर मध्यम-वर्ग के घरों को प्रभावित कर रखा था। इस सबके बावजूद, मतदाताओं को लगा कि “भाजपा इस सबके बावजूद अन्य की तुलना में बेहतर है”।

आप इसे स्वीकार करें या न करें, किंतु कोरोना के बाद के काल में, जिसने समाज और लोगों को आर्थिक तौर पर बर्बाद कर दिया है, ने मतदाता के दिलोदिमाग को एक उत्साही प्रजाति से एक जड़वत ईकाई में तब्दील कर दिया है। इस मानसिकता को कहीं न कहीं उचित ठहराया गया है, और अच्छी तरह से पोषित किया गया है, आप कह सकते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मुफ्त राशन, मुफ्त नमक, मुफ्त बिजली, सब्सिडी वाले सिलिंडर, पक्के मकान, शौचालय, मुफ्त टीके वाली कल्याणकारी योजनाओं के द्वारा कम तकलीफ़देह और सांत्वना देने का काम किया गया है। इन सभी चीजों ने कहीं न कहीं मतदाताओं के मन में कृतज्ञता की भावना को उत्पन्न किया है। जबकि नागरिकों के लिए बेहतर शासन एवं सेवाओं को प्रदान करना कोई अहसान नहीं बल्कि सरकार का कर्तव्य है।

एक समय था जब भारतीय मतदाता को ‘आकांक्षी’ के तौर पर वर्गीकृत किया जाता था, जो एक लोकप्रिय विज्ञापन की टैगलाइन – ‘ये दिल मांगे मोर’ में प्रतिध्वनित होता था। दुर्भाग्यवश, आज वही मतदाता व्हाट्सअप विश्वविद्यालय के संदेशों की चाबुक की मार से सहमा दिख रहा है, उसका बौद्धिक ज्ञान विलुप्त हो गया है, जिसने उसे सम्भवतः यह भरोसा करने के लिए जड़वत बना डाला है कि ‘अधिकार’ शब्द जैसी अवधारणा के लिए कोई जगह नहीं बची है।

वास्तव में देखें तो बढ़ती साक्षरता के बावजूद, आज का मतदाता पहले की तुलना में राजनीतिक एवं सामजिक रूप से निष्क्रिय नजर आता है। क्या यह वही कल्याणकारी राज्य है जिसका वादा सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) कर रही है? क्या यह वही लोकतंत्र है जिसे हम दुनिया के सामने विश्वगुरु के रूप में दिखाना चाहते हैं, जहाँ मतदाता सरकार के सामने भीख का कटोरा लिए खड़ा नजर आता है?

कोई भी ऐसे शासन का क्या करे जो मतदाताओं को फिर से जागृत और पुनर्जीवित नहीं कर सकती है, और इसे अपने स्वंय के राजनीतिक वर्ग से आर्थिक और सामाजिक जवाबदेही की मांग करने के लिए सशक्त नहीं बनाती है?

भारतीय मतदाता के बारे में लोकप्रिय आख्यान हमेशा यह रहा है कि उन्हें जातिगत पहचान के इर्दगिर्द ही प्रेरित किया जा सकता है, लेकिन 2022 में इस लकीर को ‘लाभार्थी’ के द्वारा धुंधला कर दिया गया है- एक ऐसा वर्ग जिसे भाजपा की प्रचार मशीनरी ने बेहद कुशलता से पेश किया है। समाज के सभी वर्ग, वो चाहे महिला, युवा या विभिन्न समुदाय रहे हों, को सिर्फ एक संदेश मजबूती से दिया गया “आपने मोदी जी का नमक खाया है” – (एक प्रकार से कर्जदार बन जाने वाले भाव) को प्रेषित करता है।

एक असफल विपक्ष निश्चित रूप से जिस विश्वास की जरूरत है उसे पैदा नहीं कर सका, लेकिन अब समय आ गया है कि नागरिक उठें और देखें कि वे कौन से वास्तविक मुद्दे हैं, और उसके लिए सत्तारूढ़ सरकार को जवाबदेह ठहराएं। उनसे सवाल करें कि नौकरियां कहाँ हैं, कृषि में जो दिया जा सकता है उनका क्या हुआ, अर्थव्यवस्था लगातार क्यों डूबती जा रही है, महामारी को इतने खराब ढंग से क्यों प्रबंधित किया गया? 

राष्ट्र को एक जागरूक आबादी की जरूरत होती है, न कि कृतज्ञ भेड़ की जिसे मुफ्त तेल, घी, नमक, दारु के पैकेट या यहाँ तक कि नकदी से हांका जा सकता है। क्या यह लोकतंत्र को गूंगा-बहरा बनाने के समान नहीं है?

प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक सुकरात ने एक बार कहा था: “चुनाव में मतदान करना एक कौशल है, न कि बेतरतीब सहज-बोध से उपजा विकल्प, और किसी भी अन्य कौशल की तरह ही इसे लोगों को व्यवस्थित ढंग से सिखाये जाने की जरूरत है, इस बारे में बिना शिक्षा के नागरिकों को मतदान की इजाजत देने का अर्थ लगभग उन्हें तूफ़ान में झोंक देने के समान होगा।”

लेखिका दिल्ली की स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

 

अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे गए लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

https://www.newsclick.in/Assembly-Election-Results-Dumbing-Down-Democracy

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