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आज़मगढ़ में सपा की हार से मायावती को दिखी नई सियासी राह?

उपचुनावों में समाजवादी पार्टी की हार के बाद मायावती एक्टिव हो गई हैं, और सपा से दूर हुए वोटबैंक को समेटने में जुट गई हैं।
Mayawati

उत्तर प्रदेश में सियासत की डगर बहुत टेढ़ी है, जिसपर सबसे ज्यादा दौड़ी हैं पूर्व मुख्यमंत्री मायावती और उनकी पार्टी बसपा। इन टेढ़े-मेढ़े रास्तों ने मायावती को कभी शिखर पर पहुंचा दिया तो कभी शून्य पर। इस बार भी मायावती शून्य पर हैं और शायद उन्हें शिखर पर जाने का रास्ता दिखाई देने लगा है।

इसी साल हुए उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में बसपा ने एतिहासिक हार दर्ज की थी, 403 में से बसपा को सिर्फ एक सीट पर जीत मिली थी। लेकिन अब जब अपने ही गढ़ में समाजवादी पार्टी ने आज़मगढ़ और रामपुर के उपचुनाव गवां दिए हैं, मुस्लिमों और दलितों ने उन्हें नकार दिया है, तब ये कहना ग़लत नहीं होगा कि मायावती की रणनीति कामयाब रही। हम ऐसा इसलिए क्यों कह रहे हैं उसके लिए मायावती का ये ट्वीट देखिए...

आज़मगढ़ में हार के बावजूद मायावती ने जिस तरह अपने प्रत्याशी और कार्यकर्ता की पीठ ठोंकी है, साफ दर्शाता है कि वह अपने प्रत्याशी की परफार्मेंस से काफ़ी खुश हैं।

यानी यहां से एक सवाल अब ये पैदा होना शुरु हो गया है कि क्या एक बार फिर उत्तर प्रदेश में D-M यानी दलित-मुस्लिम फॉर्मूले को ऑक्सीजन मिल सकता है?

इसके लिए आपको ले चलते हैं साल 1985 में। जब बिजनौर लोकसभा के उपचुनाव हुए थे। कांग्रेस के वरिष्ठ सांसद गिरधारी लाल के निधन के बाद ये सीट खाली हुई और कांग्रेस ने उस दौर के दलितों के पोस्टर बॉय रहे बाबू जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार को प्रत्याशी बना दिया। मीरा कुमार के सामने राजनीतिक नर्सरी में सिर्फ एक साल पहले दाख़िला लेने वाली मायावती थीं। जिन्हें फिलहाल हार का सामना करना पड़ा था। जबकि राम विलास पासवान दूसरे नंबर पर रहे थे। लेकिन इस चुनाव में मायावती को 61506 वोट मिले। इसी बिजनौर लोकसभा सीट पर साल 1989 में फिर चुनाव हुए, लेकिन इस बार मायावती ने जीत हासिल कर ली।

कहने का मतलब ये है कि तब बिजनौर में मायावती तीसरे नंबर पर थीं, और मौजूद वक्त में भी आज़मगढ़ में मायावती की पार्टी तीसरे नंबर पर आई है। यानी वोट भले ही 2.66 लाख से ज्यादा मिले हों, लेकिन संदेश और संकेत बहुत बड़ा है। क्योंकि मायावती के राजनीतिक करियर में अभी तक सिर्फ तीन बार 2014, 2017 और 2022 में ऐसा हुआ है जब बसपा के वोटबैंक में सेंध लगी हो।

साल 2014 में जब मोदी लहर में सभी झूम रहे थे, तब बसपा के खाते वाली सभी सीटें भी भाजपा के खाते में जा पहुंची थीं। लेकिन अगले ही चुनावों में बसपा ने 10 सीट हासिल कर अपनी उपस्थिति दर्ज करना दी। इसी तरह 2012 में 403 सीटों पर लड़कर बसपा ने करीब 25.95 प्रतिशत वोट हासिल किए और 80 सीटें जीतीं। जबकि 2022 में वोट मिल सिर्फ 12.81 प्रतिशत और सीट मिली एक। इसके आगे बात करें उससे पहले बसपा के एकमात्र विधायक का विधानसभा में पहला भाषण जान लीजिए क्या था।

बसपा विधायक उमाशंकर सिंह कह रहे थे "इस सदन में ऐसे-ऐसे लोग भी हंस रहे हैं, जो इसी नर्सरी यानी बसपा से तैयार होकर आज दूसरे दलों की शोभा बढ़ा रहे हैं। वह नर्सरी अगर नहीं होती तो आज मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि ये हंसने वाले लोग कभी भी इस सदन का चेहरा नहीं देख सकते थे।"

मतलब संदेश तभी दे दिया गया था कि बसपा इतनी जल्दी हार मानने वाली नहीं है। और मायावती की ओर से लगातार समाजवादी पार्टी पर हमला इस बात के संकेत दे रहा था कि किसी भी तरह दलित और मुस्लिमों के वोट को फिर से अपने पक्ष में कैसे किया जाए, जिसकी शुरुआत शायद आज़मगढ़ उपचुनावों से हो चुकी है।

आज़मगढ़ उपचुनावों में बसपा ने माइंडगेम के साथ गुड्डू जमाली पर बाजी लगाई थी, वो भले ही तीसरे नंबर पर रहे हों लेकिन उनकी असली भूमिका पर्दे के पीछे से भाजपा के गले में जयमाला डालने वाली रही। अगर ये कहा जा रहा कि गुड्डू जमाली तो सिर्फ शोपीस थे, तो ढाई लाख से ज्यादा वोट ये बताने के लिए काफी हैं कि क़रीब ढाई लाख दलित और एक लाख नोनिया चौहान और अति पिछड़ों के करीब एक लाख वोट मिलाकर साढ़े चार लाख वोट होते हैं, इसी वोटबैंक के दमपर आज़मगढ़ में बसपा ने 2017 में 10 में से चार विधानसभा सीटें जीत ली थीं। सपा के परंपरागत गढ़ में जब चुनावी चुनौतियां पेश की गईं तो वो ज्यादातर बसपा की ओर से ही रहीं। क्योंकि ये इतिहास रहा है कि दलित और पिछड़ों के वोट ट्रांसफर का छोटा सा खेल भी सपा का खेल बिगाड़ देता है।

ठीक वैसा ही जैसा इस बार आज़मगढ़ लोकसभा उपचुनाव में हुआ। यहां बसपा ने अपना उम्मीदवार मुस्लिम चेहरा रखा और सपा की परंपरागत सीट भाजपा के हाथ में चली गई। दरअसल 2014 के बाद से बसपा का वोटबैंक लगातार शिफ्ट हो रहा है। साल 2022 के विधानसभा चुनाव में ही बसपा का 10 फीसदी वोट भाजपा और सपा को शिफ्ट हो गया। लेकिन आज़मगढ़ लोकसभा उपचुनाव में सपा के हार से ये साफ हो गया कि जब-जब बसपा ने मुस्लिम या यादव उम्मीदवार मैदार में उतारा है, तब-तब या तो बसपा की ही जीत हुई है या फिर उसने सपा का खेल बिगाड़ा है। इस बार भी यही हुआ।

अब सपा की हार के बाद एक सवाल ये खड़ा होता है कि क्या बसपा को परंपरागत वोटों के साथ मुस्लिमों का भी साथ मिलेगा? इसका उत्तर क्या है, फिलहाल ये तो वक्त बताएगा लेकिन मायावती का एक ट्वीट ये ज़रूर बता रहा है कि उन्होंने इसका जवाब ज़रूर ढूंढ लिया है, या कोशिश में हैं।

एक के बाद एक तमाम ट्वीट ये बताने के लिए काफी हैं कि मायावती राजनीतिक लड़ाई लड़ने के लिए अभी भी हथियार डाले नहीं है।

मायावती ने अपने ट्वीट में ये विशेष ज़ोर दिया कि जातिगत वोटगणित और मुस्लिम समुदाय उनके लिए कितना ज़रूरी है।

यहां मायावती ने कुछ बातें ज़रूर साफ कर दीं कि समुदाय विशेष यानी मुस्लिमों को गुमराह नहीं होना है, मतलब समाजवादी पार्टी की ओर नहीं जाना है। दूसरा उन्होंने 2024 लोकसभा चुनावों के लिए भी संकेत दे दिए हैं। कि जहां सपा M-Y यानी मुस्लिम-यादव समीकरण के हिसाब से तैयारी करेगी, वहां बसपा अपने परंपरागत D-M यानी दलित-मुस्लिम वोटबैंक के हिसाब से चुनावी समीकरण सेट करेगी। क्योंकि मायावती ये समझ चुकी हैं कि जब-जब उन्होंने दलित और मुस्लिम वोटबैंक का विश्वास जीता है, तब-तब वो सत्ता के शिखर तक पहुंच जाती हैं या फिर इस हैसियत में ज़रूर रहती हैं कि सियासी मोलभाव आसानी से कर सकें।

वहीं दूसरी ओर आज़मगढ़ उपचुनावों के बाद मायावती ने ये बात भी स्पष्ट की है कि भाजपा को हराने के लिए बसपा में ही दमखम है। यानी मायावती के हिसाब से आने वाले वक्त में एक बार फिर मुस्लिमों और दलितों को लुभाने की ज़बरदस्त कोशिश की जाएगी।

लेकिन मायावती को इस बात ध्यान रखना बेहद ज़रूरी होगा कि मायावती जिस दलित वोटबैंक की चाहत में फिर से मैदान में उतरने जा रही हैं, भाजपा ने पहले ही द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाकर अपनी चाल चल दी है।

वैसे इस समीकरण से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि मौका आने पर मायावती भाजपा की ओर भी रुख करने से नहीं चूकेंगी। क्योंकि वो ख़ुद भी पिछड़ा समाज से आने वाली राष्ट्रपति उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू को समर्थन करने की बात कह चुकी हैं।

फिलहाल गुड्डू जमाली के बढ़िया प्रदर्शन के बाद मायावती ने जिस तरह अपने तेवर बदले हैं, उससे साफ है कि बसपा अपने पुराने राजनीतिक मंत्र दलित-मुस्लिम वोटबैंक की दीवार को मज़बूत करने में जुट जाएगी। जिससे मायावती का फायदा हो या न हो लेकिन सपा का नुकसान होना तय है।

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